Close

कहानी- तानाशाह मन (Short Story- Tanashah Mann)

Usha-Wadhwa
               उषा वधवा
अपने अधीन डॉक्टर को सब निर्देश दे, वे लौट गए. बहुत रोकने पर भी मेरा मन पुराने दिनों में विचरने लगा. जितनी बार भी उनके आकर्षण में खिंचा मन, उतनी बार ही मैंने उसे डांटा. “उनकी पत्नी के स्थान पर मैं होती तो?” बुद्धि का मन पर कड़ा पहरा बिठा दिया, पर अजब तानाशाह है यह मन! सारी भाषणबाज़ी को अनसुना कर अपने ही मन की करता रहा. 

Hindi Short Story बहुत स्नेहमयी थी हमारी मां और उनका स्नेहकोष स़िर्फ हम दोनों भाई-बहन तक ही सीमित नहीं था. मेरी सखी-सहेलियां, भइया के अनगिनत मित्र- सभी उनकी ममता के अधिकारी थे. हमारे अनेक संगी तो उन्हें मां कहकर ही संबोधित करते थे. मां नौकरी नहीं करती थीं. तब स्त्रियों का नौकरी करना उतना प्रचलन में था भी नहीं. पति और परिवार के इर्द-गिर्द ही घूमता था उनका जीवन. सुबह स्कूल जाते समय मां मुझे तैयार कर स्वयं बस में बिठा आतीं. लौटती तो कामवाली बाई पहले से ही बस स्टॉप पर विराजमान होती और उंगली पकड़कर घर ले आती. बड़ी हुई तो सहेली के घर अथवा बाज़ार जाना होता, तो भाई को साथ कर देतीं मां. “ज़माना बहुत ख़राब है, लड़कियों का अकेले कहीं जाना ठीक नहीं.” यही वाक्य हर समय उनकी ज़ुबान पर रहता. मैं बच्ची से किशोरी हुई और फिर युवती, पर ज़माना नहीं बदला था. वह ख़राब था और ख़राब ही रहा- मां के हिसाब से. मां और काकू (पिताजी) मूल रूप से राजस्थान के एक ग्रामीण इलाके से थे, जहां उनकी लंबी-चौड़ी पैतृक ज़मीनें थीं. वहां रहकर चाचा-ताऊ खेती की देखभाल करते और काकू अनाज को शहर की मंडियों में पहुंचाने का काम देखते. सुविधा के लिए उन्होंने जयपुर में ही अपना ठिकाना बना लिया. समय के साथ हमारी जीवनशैली पूरी आधुनिक हो गई. हम दोनों भाई-बहन शहर के अच्छे अंग्ऱेजी स्कूल में पढ़ते थे. स्कर्ट तो नहीं, पर जींस-टॉप पहनने की मनाही नहीं थी. सब हाईटेक सुविधाओं से पूर्ण था हमारा घर. पर इन सब के बावजूद पुरानी परंपराएं नहीं छूटी थीं. व्रत-उपवास, तीज-त्योहार सब विधिपूर्वक मनाए जाते. बड़ों की बात को हुकुम मान शिरोधार्य करना होता और बड़ों के मन में जातिभेद, वर्गभेद बहुत गहरे तक पैठ बनाए हुए थे. मैं डॉक्टर बनना चाहती थी. कुछ मेरी मेहनत और कुछ मेरे प्रारब्ध का साथ, मुझे जयपुर के ही सवाई मानसिंह मेडिकल कॉलेज में दाख़िला मिल गया और मैं एकाग्रचित होकर पढ़ाई में जुट गई. मेडिकल की शिक्षा केवल क़िताबें पढ़ने तक सीमित नहीं रहती. उसका व्यावहारिक ज्ञान कराना बहुत आवश्यक होता है. कोर्स के तीसरे वर्ष से ही डॉक्टर के पीछे राउंड पर जाना शुरू हो जाता है. कोर्स पूरा होने पर एक वर्ष की इंटर्नशिप किए बगैर तो डिग्री ही नहीं मिलती. अच्छे प्रशिक्षण हेतु पांच-पांच के ग्रुप बना लिए जाते हैं. रजिस्ट्रार का काम रहता है कि वॉर्ड के रोगियों का निरीक्षण करते समय इन छात्रों को सब कुछ समझाता चले. हमारे रजिस्ट्रार डॉ. नवल किशोर बहुत धैर्यपूर्वक हमें सब कुछ विस्तार से समझाते. कौन-सी दवा दी जानी है और क्यों, सब बतलाते. हमसे प्रश्‍न पूछते, मर्ज़ पहचानने और दवा सुझाने के लिए प्रोत्साहित करते, जिससे हममें आत्मविश्‍वास आने लगा. डॉ. नवल किशोर ने अपनी एमडी मेडिसीन में की थी. यह इंटर्नशिप हमें बारी-बारी हर एक विभाग में करनी होती है. अतः दो माह बाद हमें दूसरे विभाग में जाना था, पर एक ही हॉस्पिटल होने से मुलाक़ात तो हो ही जाती. फिर एमडी के लिए मैंने अपना विषय रेडियोलॉजी चुना. इसमें अल्ट्रासाउंड मशीन द्वारा पेट संबंधी रोगों की जानकारी मिलती है, अतः मेडिसीनवालों को इससे सरोकार रहता है और मेरी डॉ. नवल से मुलाक़ात होती रहती. ऐसा लगता है न्यूटन के सिद्धांत से एक इतर गुरुत्वाकर्षण अनेक रूपों में काम करता है. तमाम लोगों से भरी दुनिया में हम क्यों एक ही व्यक्ति विशेष की ओर खिंचे चले जाते हैं? और सब के लिए वह सामान्य व्यक्ति होता है, पर हमारे लिए दुनिया का बेहतरीन और सर्वगुण संपन्न बन जाता है. मन स्फूर्ति से भर उठता है और दुनिया अचानक ख़ूबसूरत लगने लगती है. दिन और रात उसी के इर्द-गिर्द उसी के ख़्यालों से डूबे रहते हैं. ऐसे प्रबल आकर्षण में किसे ध्यान आता है ऊंची-नीची जाति का? लेकिन काकू कैसे भूल सकते थे यह बात! उन्हें कहीं से हमारी मैत्री की भनक मिल गई थी और चुपके से उन्होंने पूरी जांच-पड़ताल कर डाली. किसी गुमनाम माता-पिता की संतान थे डॉ. नवल व अनाथालय में पले. एक माह के शिशु को कोई बाहर रखे पालने में डाल गया था, जिसके गले में काली डोरी से लटका ओम् उसके धर्म का परिचायक था बस. अनाथालयवालों ने बालक का नाम रख दिया नवल किशोर, ताकि सरनेम की कमी महसूस न हो. बच्चों को स्कूल भेजने की व्यवस्था भी थी वहां. तीक्ष्ण बुद्धि नवल पढ़ने में ख़ूब मन लगाते. एक संपन्न और दयालु महिला अनाथालय के चार प्रतिभाशाली बच्चों की पढ़ाई का पूरा ख़र्च वहन करती थी. नवल ने बहुत अच्छे अंकों से स्कूल पास किया और मेडिकल की प्रवेश परीक्षा भी. काम के प्रति समर्पण, शील व्यवहार अनेक गुण थे उनमें, जो एक अच्छे डॉक्टर में होने चाहिए. लेकिन हमारे परंपरावादी समाज ने उनके गुणों का, विपरीत परिस्थितियों में इतना ऊंचा उठने का श्रेय देने की बजाय उन्हें कुल-गोत्रहीन होने का दंड देना ज़्यादा उचित समझा. काकू ने अतिशीघ्र मेरा विवाह कर देने की ठानी और एक ऐसे व्यक्ति की खोज में जुट गए, जिसके गले में उच्च जाति का तमगा लटका हो. ऐसा भी नहीं कि यह सब चुपचाप हो गया था और मैं अनभिज्ञ ही रही पूरी परिस्थिति सेे. विवाह तय करने से पूर्व जो बातचीत, मिलना-जुलना होता है वो सब हुआ. नलिन का अपना मैटर्निटी होम था, जो काकू की दृष्टि में उसका विशेष गुण था. मेरे विरोध का कोई महत्व नहीं था. मां ने कहा, “जानती तो हो, कुछ भी हो जाए तुम्हारे काकू नहीं मानेंगे. वही करेंगे, जो उन्हें सही लगता है.” हमारे घर की हर स्त्री ने मन मारकर जीना सीखा था. यही देखती आई थी मैं. लेकिन अपने पैरों पर खड़े होने में सक्षम होकर भी मुझे इन्हीं परंपराओं को मानना पड़ेगा, यह नहीं सोचा था. मेरी एमडी पूरी हो गई थी, इसी में संतोष करना पड़ा मुझे. मैंने अपना प्यार भूल अपने नए घर में बस जाने का निर्णय लिया. समझौते करने को तैयार हुई. सब कुछ था मेरे ऊंची जातिवाले इस नए घर में, शिक्षा व दौलत-संपत्ति. बस, कमी थी, तो इंसानियत की. हनीमून से लौटने के पश्‍चात् मैने मैटर्निटी होम जाना शुरू किया. कुछ दिन तो ठीक बीते. दो हफ़्ते बाद मुझसे कहा गया कि डॉ. चावला, जो पहले अल्ट्रासाउंड करती थीं, वे छुट्टी पर जा रही हैं और मुझे उनका काम भी देखना होगा. इस बात से मुझे कोई आपत्ति न थी, पर गाज तब गिरी, जब पता चला डॉ. चावला का मुख्य काम था गर्भस्थ शिशु का लिंग बताना और यदि कन्या हुई, तो वहीं नर्सिंग होम में गर्भ गिराने का पूरा प्रबंध था. जबकि न स़िर्फ कन्या भू्रण हत्या अपराध है, बल्कि गर्भस्थ शिशु का लिंग बताना भी क़ानूनी जुर्म है. और इसी आशय का एक बड़ा-सा बोर्ड हमारे मैटर्निटी होम के प्रवेशद्वार पर ही लगा हुआ था. लेकिन लोग यह भी जानते थे कि यहां पर एक मोटी रक़म देकर लिंग मालूम करने की सुविधा है. क़ानून की आंख में धूल झोंकने के लिए यह बात स्पष्ट न कहकर इशारे से बताई जाती थी, जैसे- गर्भस्थ शिशु बेटा हो, तो “बच्चा स्वस्थ है लड्डू बांटो” और यदि कन्या हो, तो “बच्चा स्वस्थ है बर्फी बांटो.” गर्भवती मां का अल्ट्रासाउंड यह देखने के लिए किया जाता है कि शिशु का गर्भ में ठीक से विकास हो रहा है कि नहीं. उसी की आड़ में लोग लिंग परीक्षण करवा लेते हैं. मैंने नलिन को समझाने की बहुत कोशिश की. नलिन के पापा के समय से यहां लिंग परीक्षण चला आ रहा है. लेकिन पिछले वर्ष लकवा हो जाने से वह बिस्तर पर ही हैं और अब नलिन स्वयं अपनी इच्छा के मालिक हैं. इस बीच मैं बेटी सगुना की मां भी बन गई. तीन-चार वर्ष तो मैंने यूं ही निकाल दिए इसी उम्मीद में कि एक दिन नलिन का हृदय परिवर्तन कर ही लूंगी, क्योंकि न स़िर्फ यह क़ानूनी अपराध है, वरन् अनैतिक भी. स्त्री होकर मैं एक निरपराध कन्या को मृत्युदंड कैसे दे दूं? पर नलिन को तो धन कमाने का सरल उपाय मिला हुआ था. और नलिन को लगता था कि पत्नी होने के नाते उनकी हर बात मानना मेरा कर्त्तव्य है. पत्नी को स्वतंत्र विचार रखने का क्या हक़ है? उनकी मां ने तो पापा के काम में कभी दख़लअंदाज़ी नहीं की थी. फिर पता चला कि छुपे तौर पर और भी बहुत कुछ होता था उस नर्सिंग होम में. ज़रूरतमंद स्त्रियों से बच्चा पैदा करवाकर धनाढ्य वर्ग में ‘गोद लेने की आड़ में’ बच्चा बेचा जाता, जिसमें ऊंचे दाम प्राप्त होते. कुछ भाग बच्चे की जन्मदात्री को देकर भी बहुत कुछ बच जाता. ग़रीब और मजबूर स्त्रियां थोड़े में ही ख़ुश हो जातीं. मुझे लगता मैं भी इस पाप में पूरी तरह भागीदार हूं. जब मैं नलिन को इस अनैतिक काम को रोकने में पूरी तरह असफल रही, तो मैंने घर त्यागने का निर्णय लिया और सगुना को लेकर मध्यवर्गीय कॉलोनी के एक फ्लैट में शिफ्ट हो गई. लाखों की मशीन ख़रीदने के पैसे तो मेरे पास थे नहीं, सो एक हॉस्पिटल में नौकरी कर ली. भइया को बैंगलुरू में नौकरी मिली थी और वह सपत्नी वहीं रह रहे थे. दोनों बच्चों के चले जाने के बाद मां और काकू ख़ुद को बहुत अकेला महसूस करने लगे. अतः जयपुर का मकान बंद कर गांव चले गए, जहां वह नाते-रिश्तेदारों के बीच सुरक्षित महसूस करते. मैं और भइया वहीं चक्कर लगा आते. मेरा अब जयपुर से नाता लगभग टूट ही गया. मैंने मां और काकू से अपने घर छोड़ने की बात जब तक संभव हो सका, नहीं बताया. बात तो फोन पर हो ही जाती. जब तक उन्हें पता चला, तब तक मैं क़ानूनी रूप से तलाक़ ले चुकी थी. कई साल बीत गए. सगुना ऊंची कक्षा में आ गई. स्कूल आने-जाने का समय बचाने के लिए हॉस्टल में रहने लगी, जहां वह पांच दिन डटकर पढ़ती और सप्ताहान्त घर आती. एक दिन ताऊजी का फोन आया, “काकू को हार्टअटैक हुआ है.” गांव में एक दिन अकस्मात् काकू की तबीयत बिगड़ गई. छाती के दर्द के साथ ख़ूब सारा पसीना आया. ताऊ उन्हें फ़ौरन जयपुर ले आए और मुझे व भइया को सूचित कर दिया. मैं तुरंत चल पड़ी. लगभग 18 वर्ष के बाद एक बार फिर जयपुर की सड़क पर खड़ी हूं और आश्‍चर्य से इधर-उधर देख रही हूं, क्या यह वही सड़क है, जिस पर सांझ ढले अकेले चलने में हिचकिचाहट होती थी. आज इतने वाहनों के बीच इसे कैसे पार करूं यही दुविधा है. नए-नए मॉल, गगनचुंबी इमारतें, कितना बदल गया है शहर! पर इस सब के बीच कुछ है, जो मुझसे नाता जोड़े है. नए दौर की आंधी के बावजूद अपनी संस्कृति नहीं भूला है शहर. अभी बस में ही हुकुम, पधारो, विराजो जैसे शब्द मन को ठंडक पहुंचा गए. नगर प्रहरी बना दुर्ग आमेर हर आने-जानेवाले पर निगाह रखे है और पुरानी इमारतों की गुलाबी दीवारें बहुत अपनी-सी लगीं. हॉस्पिटल के गेट पर पहुंची, तो लगा जैसे बहुत दिनों बाद अपने ही घर आई हूं. सब कुछ तो पहचाना-सा है. डॉक्टर होेने के नाते काकू की देखभाल का ज़िम्मा मैंने अपने ऊपर लिया है. भइया तो वैसे भी दवाइयों के मामले में बहुत अनाड़ी हैं. बेड पर लटकी रिपोर्ट पढ़ी और डॉक्टर का नाम भी डॉ. नवल किशोर. रात को तो भइया सोएंगे हॉस्पिटल में. सुबह डॉक्टरों के साथ मैं भी चुपचाप खड़ी हो गई हूं. वे झुककर काकू का चेकअप करने लगे. पहलेवाले घने बाल काफ़ी छितर चुके हैं. बदन भी थोड़ा भर गया है, पर चेहरा एक सफल डॉक्टर के आत्मविश्‍वास से परिपूर्ण है. चेकअप कर चुकने पर, “इनके साथ कौन है?” पूछते हुए उन्होंने इधर-उधर नज़र दौड़ाई, तो मैं ख़ामोश सामने आ खड़ी हुई. और मैं कैसे कह दूं कि अपने दृढ़ निश्‍चय के बावजूद मेरा चेहरा सपाट रह पाया होगा. अपने अधीन डॉक्टर को सब निर्देश दे, वे लौट गए. बहुत रोकने पर भी मेरा मन पुराने दिनों में विचरने लगा. जितनी बार भी उनके आकर्षण में खिंचा मन, उतनी बार ही मैंने उसे डांटा. “उनकी पत्नी के स्थान पर मैं होती तो?” बुद्धि का मन पर कड़ा पहरा बिठा दिया, पर अजब तानाशाह है यह मन! सारी भाषणबाज़ी को अनसुना कर अपने ही मन की करता रहा. बुद्धि से जूझती रही मैं, पर काकू की देखभाल भी करती रही कि दो बजे एक नर्स ने आकर कहा, “डॉ. नवल किशोर ने आपको बुलाया है अपनी केबिन में. रोगी के उपचार संबंधी बात करनी है.” मैं स्वयं को समझ नहीं पा रही हूं कि आख़िर मैं चाहती क्या हूं? मैं नवल से बचना भी चाह रही हूं और ख़ूब ढेर सारी बातें करने को मचल भी रही हूं. बात उन्होंने काकू के उपचार से ही शुरू की है. बीमारी का सब इतिहास जानते हुए भी फिर मुझसे सुना है. और जानती हूं कि सुनने का अभिनय करते हुए सुन कुछ नहीं रहे हैं. अकस्मात् ही उन्होंने कहा, “और तुम कैसी हो वसुधा?” मैं कैसे कह देती कि मैं बहुत ख़ुश हूं, अतः मैंने एक ही वाक्य में अपने तलाक़ और बेटी सगुना के बारे में बता दिया और अपने घर से ध्यान हटाने के लिए उनके बारे में पूछा, “मैंने डीएम कर ली और देख रही हो, अब हृदयरोग विशेषज्ञ हूं.” “और पत्नी? परिवार?” उत्तर में उन्होंने मुझ पर निगाह टिका दी. गहरी भीतर तक भेदती निगाह. क्या अर्थ लगाऊं मैं उस निगाह का? प्रश्‍न मेरी आंखों में तैरता रहा और उत्तर जानने को बेताब हूं मैं. “मेरे जन्म का सत्य तो बदल नहीं सकता था... सो एक बार ठोकर खाकर दोबारा कोशिश क्या करता! बस काम में स्वयं को झोंक दिया. बाहर जाने के अनेक अवसर आए, पर जाने क्या ज़िद थी इस मन की? अबूझ और बेतुकी-सी! एक झूठे इंतज़ार में यह शहर और यह अस्पताल नहीं छोड़ पाया!” अमरत्व का बीज लिए ही पनपता है सच्चा प्यार. प्रयत्न करने पर भी नहीं मरता. समय की गर्द में दबकर भी भीतर ही भीतर सांस लेता रहता है, शायद कभी प्रिये आकर यह गर्द झाड़ दे! काकू को देखने के बहाने डॉ. नवल कई चक्कर लगा गए हैं. काकू हार्ट सर्जरी से बहुत घबराते हैं. नवलजी ने उन्हें खाने-पीने की सब हिदायतें दे, ऐसी दवा प्रिस्क्राइब कर दी है, जिससे सर्जरी को लंबे समय तक टाला जा सकता है. सबसे हंसकर बोलनेवाले काकू डॉ. नवल को देखते ही ख़ामोश हो जाते हैं. तब इतनी जांच-पड़ताल की थी, निश्‍चय ही उन्हें पहचान गए होंगे. आज उन्हीं के कारण जीवित हैं, जिन्हें अनजाने कुल-गोत्र के लिए नकारा था. यह बात समझ रहे हैं काकू. काकू घर आ चुके हैं. उन्हें देखने के बहाने डॉ. नवल भी घर आते रहे. हमारे बीच मैत्री से इतर भी कुछ है, यह बात मां से छुपी नहीं रह सकी. मांएं सब जान जाती हैं, क्योंकि वह अपने बच्चों को इन साधारण आंखों से नहीं, बल्कि मन की आंखों से देखती हैं. और मां तो स्वयं डॉ. नवल को बेटे-सा प्यार करने लगी हैं. उनके आने की सुनते ही उनका मनपसंद व्यंजन बनाकर रखती हैं. समय आता है, जब माता-पिता बच्चों पर से अपनी पकड़ ढीली कर देते हैं. यह स़िर्फ उनकी अपने बच्चों पर निर्भर हो जाने की बेबसी नहीं होती. शायद उनके समझदार हो जाने पर विश्‍वास भी होता है. काकू से जब डॉ. नवल ने मुझसे विवाह करने की सहमति मांगी, तो एक पल भी नहीं लगा उन्हें हां कहने में. सगुना भी पहुंच गई और भाभी भी. न बारात सजी, न बैंड बाजा. कोर्ट में जाकर हस्ताक्षर कर दिए और बंध गए विवाह के मज़बूत बंधन में. जब हम सात जन्मों के बंधन की बात करते हैं, तो कौन-सा बंधन होता है वह? अपने मन द्वारा चुना गया या अग्नि के सात फेरों और पंडितजी के श्‍लोकों द्वारा स्थापित किया गया? घर जाने लगे, तो डॉ. नवल ने काकू के पैर छुए और ढेर सारा आशीर्वाद पाया. मां के चरण छूकर बोले, “मां, मैं आपसे कुछ मांगूं?” काकू के चेहरे पर एक लहर आकर गुज़र गई. जाने क्या मांग बैठे उनसे नया दामाद? “जब से समझ आई है, तब से ही माता-पिता की कमी महसूस की है मैंने. स्कूल के संगी मां के प्यार की बातें करते, तो मैं तरस कर रह जाता. आज मुझे सचमुच मां मिल गई है. वचन दो, आप दोनों आजीवन मेरे साथ रहोगे, जिससे मैं पिछली सारी कमी पूरी कर लूं.” कहकर वह मां के पास नीचे कालीन पर बैठ गए और मां की गोदी में सिर रख दिया. मां ने स्नेहपूर्वक उनके सिर पर हाथ फेरा और उनकी भीग आई पलकों को अपने आंचल से पोंछ दिया.

अधिक शॉर्ट स्टोरीज के लिए यहाँ क्लिक करें – SHORT STORIES

Share this article