तब वह अपने पति के भटके कदमों को बांधने में सफल हुई थी. पर उसके अंतर में कुछ चटक कर टूट गया था. उसने उस कटु अनुभूति को एक दुस्वप्र की भांति भुला दिया. परिस्थितियों ने भी इसमें उसकी सहायता की.
रूपा को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ. उसके अंतर में जैसे आवेश का ज्वालामुखी घधक उठा. विवाह के इतने वर्षों बाद, आयु के इस पड़ाव पर, पिछली बार आश्वासन देने के बावजूद विकास की ये आपत्तिजनक गतिविधियां जारी हैं.
और दुःसाहस की सीमा देखिए, घर में फोन करने की अनुमति तक दे दी उसको. अनायास वह तो समानान्तर फोन लाइन पर आ गई, वरना उसे पता ही नहीं चलता कि विकास की नई रासलीला का श्रीगणेश हो चुका है.
निराश, अपमानित और बुझी हुई सी रूपा बाहर के कमरे में आई व विकास के सामने खड़ी हो गई. बड़े कष्ट से वह अपनी तमतमाहट पर अंकुश रख पाने में समर्थ हो पाई. उसमें विकास के मुख पर उभरी चमक उसकी क्रोधाग्नि में पेट्रोल का काम कर रही थी.
"यह पल्लवी कौन है?" उसने तेज किंतु संयत स्वर में पूछा.
"डार्लिंग, ये मकर राशि की महिलाएं मुझे बड़ा परेशान करती हैं. पंडित तुपकरी कह रहे थे कि मेरी जन्मपत्री में ऐसे ग्रह है जो मकर राशि..."
रूपा के अंतर्मन में कई अन्य नाम तैर गए, पूजा, पम्मी, पुष्पा-सब 'प' से शुरू होते हैं.
"अब तुम ही बताओ, मैं क्या करूं?" विकास चहक रहा था.
"शर्म..." अनायास उस के मुंह से फिसल गया.
"रूपा!.." अचानक विकास की मुखमुद्रा कठोर हो गई और वह लगभग चीख पड़ा.
"विकास, अपनी आवाज़ नीची रखो मुझे तो आश्चर्य होता है तुम्हारे अनुत्तरदायित्व पूर्ण व्यवहार को देख कर ज़रा अपने उच्च पद, सामाजिक प्रतिष्ठा, वैवाहिक जीवन की मान-मर्यादा का तो ख़्याल करो. पर शायद तुमने तो जीवन के सार मूल्यों को ताक पर रख दिया है." रूपा का स्वर भर्रा गया और उसकी आंखों में नमी भर आई.
"शटअप ज़्यादा भाषण देने की ज़रूरत नहीं." विकास तमतमा गया. उसने आग्नेय दृष्टि से रूपा को घूरा और निर्णायक स्वर में बोला, "तुम्हें मेरे निजी जीवन में टांग अड़ाने का कोई अधिकार नहीं है.
"विकास, तुम्हारी ये हरकतें मेरे अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण करती है. फिर पति-पत्नी के अटूट बंधन के होते, तुम्हारा और मेरा कोई निजत्व नहीं..? हम एक हैं और अपने कर्मों कुकर्मों से एक दूसरे को प्रभावित करते हैं." रूपा सहज स्वर में बोली.
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"अरे यार, क्यों बोर करती हो सुबह-सुबह," कहकर विकास जूते-मोजे पहनने लगा.
"आज छुट्टी के दिन भी बाहर जा रहे हो?"
"तुम्हें मिर्ची क्यों लग रही है?"
"कहां जा रहे हो? क्या फोन वाली के पास?"
"अगर मैं 'हां' कहूं तो तुम मेरा क्या कर लोगी?"
विकास को हठधर्मी रूपा को कहीं बहुत गहरे तक आहत कर गई. उसने अविश्वासपूर्वक उसको घूर कर देखा और बोली, "निश्चित रूप से रोकूंगी तो नहीं विरोध करूंगी, यदि असफल रही तो विद्रोह के अलावा और कोई चारा नहीं हैगा मेरे पास."
विकास हंसा एक खलनायकी हंसी, फिर कमीज़ पर सेंट छिड़कते हुए बोला, "यह अधिनायक इतना अशक्त नहीं, जहां फौजी क्रांति द्वारा उसकी सत्ता को पलट दिया जाए और तुम जैसी शक्तिहीन, आश्रयरहित नारी..."
"विकास, क्रांति की सफलता के लिए रक्तपात ज़रूरी नहीं." विकास की बात बीच ही में काट कर रूपा शांत स्वर में बोली. उसके अंतर में छाया नैराश्य और उदासी का कुहासा धीरे-धीरे छंटने लगा था और एक सुस्पष्ट योजना की रूपरेखा निर्मित होने लगी थी.
"तो क्या गांधी के अहिंसा पर आधारित घर छोड़ों आंदोलन शुरू करोगी?" विकास ने प्रश्न पूछा. उत्तर की अपेक्षा उसे थी नहीं. रूपा ने भी कोई उत्तर नहीं दिया. विकास बाहर चला गया- बरसात में तुमसे मिले हम... गाने की धुन गुनगुनाता हुआ.
रूपा धम्म से सोफे में बैठ गई. चिंताग्रस्त, उलझी और ठगी सी वह देर तक बैठी रही. अगली कार्यवाही पर विचार करते हुए वह बार-बार अतीत की धूलभरी गलियों में खो जाती.
पहला धक्का उसे विवाह के एक वर्ष बाद ही लगा था. विकास से विवाह हुआ तो उसने भाग्य की सराहा था. जिस घर में चार लड़कियां हों और गृहस्वामी की आर्थिक विपन्नता उनके विवाह में बाधा हो, ऐसे में सरकारी नौकरी से लगा, देखने-भालने में ठीकठाक, दिल्ली में अपने स्वतंत्र सरकारी आवास में रहने वाला विकास जैसा वर सचमुच वरदान बन कर आता है.
वह दिल्ली आ गई. अपना स्वतंत्र अस्तित्व और जीवनयापन की समस्त सुविधाएं, उसे जीवन में स्थापित कर गईं. पर पहले धक्के के साथ ही उसके विस्थापित होने की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई.
पड़ोस की श्रीमती चोपड़ा की भतीजी गांव से आई हुई थी, बी.ए. करने के लिए, अंग्रेजी में कमज़ोर थी. विकास ने अंग्रेज़ी में एम.ए. किया था. बातों-बातों में श्रीमती चोपड़ा ने विकास से अनुरोध किया और उसने पुष्पा को कभी-कभार अंग्रेज़ी पढ़ाना शुरू कर दिया.
उस दिन मंगलवार था. शाम को वह मंदिर से लौटी तो उसने देखा, विकास पुष्पा को अंग्रेज़ी नहीं, प्रेम पाठ पढ़ा रहा है. वह अकस्मात, समय पूर्व लौट आई थी और उन दोनों की चोरी पकड़ी गई.
उसने घर सिर पर उठा लिया, साथ ही वह सीधी चोपड़ा आंटी के पास गई और पुष्पा के बारे में सब कुछ विस्तार से बता दिया. श्रीमती चोपड़ा भी अपनी भतीजी से बेहद नाराज़ हुईं. उन्होंने उसकी पढ़ाई बंद कर, तत्काल वापस गांव भेज दिया.
तब वह अपने पति के भटके कदमों को बांधने में सफल हुई थी. पर उसके अंतर में कुछ चटक कर टूट गया था. उसने उस कटु अनुभूति को एक दुःस्वप्न की भांति भुला दिया परिस्थितियों ने भी इसमें उसकी सहायता की,
दूसरे वर्ष पपलू उसकी गोद में आ गया. मातृत्व का पुरस्कार प्राप्त करने के लिए कितनी लंबी कष्ट-साध्य साधना करनी पड़ती है, इसे केवल नारी ही समझ सकती है.
इस बीच विकास भी किसी विभागीय परीक्षा की तैयारी में जुटा था. वह संतुष्ट हो गई. जिस तन्मयता और लगन से उसने पढ़ाई की, वह सराहनीय थी. इसका शुभ परिणाम भी निकला. वह सफल हो गया. उसकी पदोन्नति हो गई. पद और वेतन में तो वृद्धि हुई ही साथ में घर पर सरकारी फोन लग गया. यह विकास के उच्च पद और प्रतिष्ठा का प्रतीक था.
वे बहुत ख़ुश थे. दफ़्तर में प्रमोशन मिला. घर में भी उसने विकास को पिता बना कर उच्च पद पर आसीन कर दिया था. तब उसे लगा जैसे जीवन कितना अर्थपूर्ण और खिली धूप सा चमकीला और सुखद है.
पर तभी एक दिन उसके जीवन की शांत झील में एक बड़ा सा पत्थर आ गिरा और तलहटी तक उसे अशांत कर गया. विकास तीन दिन के लिए सरकारी काम से टूर पर बेंगलुरु गया था, उसके पीछे, उसके कार्यालय के एक सहयोगी और मित्र शंकर कपूर घर आए थे. उसने कपूर का स्वागत किया. चाय पिलाई, बातों-बातों में कपूर ने कहा, "भाभीजी, क्षमा करें. मैं एक विशेष कारण से आपके पास आया था."
"कहिए."
"दफ़्तर में विकास की बहुत बदनामी हो रही है."
"क्या मतलब?"
"वह अपनी पी. ए. पम्मी के साथ खुलकर खेल रहा है. पूरा दफ़्तर इस बात को जानता है. बात यहां तक पहुंच गई है कि वह पम्मी को टूर पर बेंगलुरु ले गया है."
वह विस्फारित नेत्रों से अविश्वासपूर्वक कपूर को बस ताकती रह गई. बहुत प्रयास करने के बावजूद भी वह बोल न सकी.
"भाभीजी, यह मत सोचो कि मैं दोस्त की पीठ पीछे बुराई कर रहा हूं. उसकी बदनामी सुन कर तकलीफ़ होती है. इसलिए मैं हार कर आपके पास चला आया. कृपया कुछ करिए."
यह पहला अवसर था, जब उसे लगा जैसे उसका पारिवारिक जीवन ध्वस्त हो गया है. उसके अंतस में काफ़ी कुछ टूट-फूट कर नष्ट भ्रष्ट हो गया- राख सा. छिन्न-भिन्न सी हुई वह अपने कंधों पर एक अनाम पीड़ा का भार लिए विकास के लौटने की प्रतीक्षा करने लगी.
इतवार की शाम विकास लौटा एकदम गुलाब की तरह खिला प्रातःकाल जागे पक्षियों की तरह चहचहाता.
वह बुझी बैठी थी निराशा और उदासी के अधर से आवृत. विकास उसके लिए उपहार लाया था. मैसूरी सिल्क की मूंगा रेग की साड़ी. उसका मनपसंद रंग चंदन की एक डिब्बी और न जाने क्या-क्या.
उसने उन उपहारों को छुआ तक नहीं. केवल डूबी निगाहों से वह अपने ठग पति को घूरे जा रही थी.
"क्या बात है? तुम्हारी तबियत तो ठीक है?" विकास ने अचकचा कर पूछा.
"मेरी तो ठीक है, तुम अपनी कहो..?"
"यह तुम कैसी बातें कर रही हो?"
"विकास सच बताना, बेंगलुरु के टूर पर तुम अपनी पी.ए. पम्मी को ले गए थे?" उसने करुणामिश्रित स्वर में पूछा.
अचानक विकास का रूपांतर हो गया. वह क्रोधित हो दहाड़ा, "तो तुम मेरी जासूसी करती रही थी?"
"जब पुरुष ग़लत काम करता है तो उन्हें पता करने के लिए जासूसी की ज़रूरत नहीं पड़ती. कचरे के ढेर की बदबू की तरह उसकी बदनामी चारों तरफ़ फैल जाती है."
"रूपा, बकवास बंद करो."
"चीखो मत. एक तरफ़ पराई स्त्रियों के साथ रंगरेलियां मनाते हो और घर में पत्नों पर घौंस जमाते हो."
"मनाता हूं रंगरेलियां तुम क्या कर लोगी?" विकास का व्यवहार कटु ही नहीं, तानाशाही हो चला था, उसमें अनाचार के साथ-साथ, प्रताड़ना और दुःसाहस का भी समावेश हो गया था.
विकास के क्रूरतापूर्ण व्यवहार के समक्ष वह अवश हो गई. उसका विरोध गरम दूध में मिली चीनी की तरह घुल कर नष्ट हो गया. असमर्थता और असहायता के बोध ने उसे छटपटाया और उसके आंसू उमड़ पड़े. रोने से उसका दिल कुछ हल्का हुआ. जिस विकास के प्रति दमित आक्रोश उसे शनैः शनैः क्रूर बनाने लगा. तनाव और चिंता के कारण उसे सिरदर्द होने लगा.
उस दिन अपने बेटे के साथ उसने जो कुछ किया, उसको कटु स्मृति सर्पदंश सी टीसती है. इतने दिन हो गए, पर वह आज तक अपने आपको क्षमा नहीं कर पाई है.
उसके सिर में दर्द हो रहा था. जब-जब विकास द्वारा किया गया विश्वासघात वाद-विवाद का विषय बनता, वह विकास को हठधर्मी के सामने हार जाती. रोती और सिरदर्द से छटपटाती.
ऐसे ही एक शाम को उसका बेटा उसके पास आया और बोला, "मम्मी, मैं राजू के घर जा रहा हूं."
"नहीं, कहीं मत जाओ, घर में बैठ कर पढ़ो." वह बिगड़ी.
"मैं तो अभी स्कूल से आया हूं, मम्मी."
"ठीक है. खेलो, पर राजू के घर मत जाना."
"मम्मी, राजू ने मुझे बुलाया है."
"मैंने कहा न. वहां नहीं जाना है."
"मम्मी, एक बार जाने दो. राजू के पापा लंदन से आए हैं. उसके लिए बहुत से ख़ूबसूरत खिलौने लाए हैं. उन्हें दिखाने के लिए राजू ने मुझे बुलाया है."
"बाप की तरह तू भी मेरा खून पीने लगा है. एक बार के कहने से बात तेरी समझ में नहीं आती." और उसने तड़ातड़ तीन-चार चाटें उस अबोध, निर्दोष बालक के गाल पर जड़ दिए थे.
पहले तो बेटा स्तब्ध रह गया. उसने पहली बार मार खाई थी. वह भौंचक्का सा खड़ा रहा, फिर सुबकता हुआ अंदर चला गया. बाद में वह भी कितना रोई थी. तो क्या उसने बाप का ग़ुस्सा बेटे पर उतारा था? पर बेचारे लड़के का क्या दोष था?
समय का रथचक्र अपनी मंथर गति से चलता रहा. जीवन में सारे सुखों की उपलब्धि के बावजूद उसके अंतर्मन का एक महत्वपूर्ण कोना रीता था. विकास द्वारा बार-बार किया जाने वाला विश्वासघात उसके जीवन घट का वह छेद था, जिसमें से उसकी सारी ख़ुशी हर पल रिसती रहती.
विकास की रासलीलाएं, चालू थी, पुष्पा गई तो पम्मी आ गई. पम्मी का तबादला हुआ तो कोई पूजा मिल गई. अब कोई पल्लवी प्राप्त हो गई है, रंगरेलियां मनाने के लिए नहीं, यह सब नहीं चलेगा, विकास द्वारा किए जाने वाले विश्वासघात को वह अब और नहीं झेल पाएगी.
शाम को विकास घर लौटा, तब तक रूपा ने अपनी योजना को अंतिम रूप दे दिया था. सारे दिन क्या पल्लवी के साथ रहे?" उसने गीत भाव से पूछा.
"तुम्हें मतलब?" विकास ने रूखेपन से उत्तर दिया
विकास, कब तक तुम मेरे पैर्य की परीक्षा लेते रहोगे? मेरी समझ में नहीं आता, तुम क्यों मुझे इस तरह सता रहे हो?"
संया, तुम बेकार में मेरी निजी जिंदगी में टांग अड़ा रही हो. मैं पुरुष हूं, जो चाहे करूं, तुम घर में रहो. तुम्हें कोई तकलीफ हो तो मुझे बताओ,"
"मुझे सबसे बड़ी तकलीफ तो यही है कि तुम शुरू से मेरे साथ विश्वासघात करते रहे हो. क्या कोई नारी यह बदर्दाश्त कर सकती है कि उसका पत्ति अन्य महिलाओं के साथ प्रेम-लीला करता रहे?
"रूपा, मुझे यह नुक्ताचीनी पसंद नहीं. मेरी जो मर्जी होगी, मैं करूंगा."
"विकास, मुझे बताओ तो सही, मुझ में क्या कमी है? ऐसा उन पम्मियों में क्या है, जो मुझ में नहीं? हमारे घर में किस बात की कमी है, जिसके कारण तुम ऐसा करते हो."
रूपा, मुझे यह चौबीस घंटे की चखचख पसंद नहीं.'
"इसके लिए कौन जिम्मेदार है?"
"तुम."
आधारहीन आरोप विविधता की चाह में स इतना क्रूर हो गया कि वह स्वंय दोषी होने बावजूद उस पर दोषारोपण कर रहा था. रूपा मौन हो गई विकास एक फिसलन भरे मार्ग पर काफी दूर निकल चुका था, जहां से वार्ता के द्वारा, प्रेम तथा तर्क के द्वारा उसे वापस लौटाना मुश्किल
एक दोर्ष मौन की दीवार खिंच गई दोनों के बीच, शीत युद्ध से कहीं ज्यादा बर्फीला अलगाव पसर गया दोनों के संबंधों में,
रूपा ने सुधीर से संपर्क किया, उसे घर बुलाया, लगभग ग्यारह बजे वह घर आया, वह उसके साथ कार में बैठ कर चली गई. जाते-जाते नौकरानी से बोल गई, "मैं शाम तक लौटंगी. साहब लेख पर आंए तो उन्हें बोल देना."
"और लंच?"
"बना लेना."
"आप नहीं लेगी?"
"नहीं."
दोपहर को विकास घर आया लंच करने पा नहीं मिली. मिला केवल लंच, नौकरानी द्वारा बनाया गया, बैरखाद, बेमज़ा, उसने नौकरानी से पूछा, "मेम साहब कहां गई?"
"पता नहीं. एक कार वाला साहब आया था, उसी के साथ गयी है. शाम तक आने को बोला है." नौकरानी ने एक सांस में पूरी सूचना दे दी. नौकरानी के उत्तर ने उसे लब्जित कर दिया. खेद-भावना से भर गया उसको अंतर, उसे यह प्रश्न नौकरानी से नहीं, रूपा से पूछना चाहिए था.
शाम को वह और दिनों की अपेक्षा घर जल्दी लौट आया रूपा लौट आई थी. वह बड़ी खुश नज़र आ रही थी, चहकती हुई वह नौकरानी को एक के बाद एक आदेश दे रही थी. विकास बुझ गया, वह रूपा से कार वाले के चारे में पूछना चाहता था, पर पूछ नहीं पाया. आहत अहे आड़े आ गया.
लगभग एक सप्ताह तक यह क्रम चलता रहा. कई बार विकास पहले घर लौट आता, रूपा उसके बाद आती. यह रूपा में आए परिवर्तन को स्पष्ट देख पा रहा था. एक विशेष प्रकार को चमकीली खिग्धता से आवृत हो गया था उसका मुख, उसकी आंखों से लगता था जैसे वे मुस्करा रही हैं, गा रही है. यही नहीं, आए दिन रूपा कोई न कोई उपहार लेकर घर लौटती. कभी साड़ी, कभी कार्डोगन, तो कभी डिनर सेट.
उस दिन रविवार था. दफ़्तर की छुट्टी थी. नाश्ते के बाद, रूपा कपड़े बदल कर तैयार होने लगी,
विकास ने देखा और उसके चैर्य का बांध आवेश की तेज़ बाढ़ में बह गया. क्रोध से कांपता हुआ वह उठा और रूपा के सामने तन कर जा खड़ा हुआ.
रूपा एकदम निश्चिंत, उसके आवेश से बेखबर, अपने गालों पर लालिमा लगाती रही, हिमखंड के समान निर्लिप्त.
"किस यार के पास जा रही हो?" विकास ने विषबुझे स्वर में पूछा.
रूपा ने उपेक्षा से विकास की ओर देखा और बिना कोई प्रतिक्रिया व्यक्त किये वह ड्रेसिंग टेबल की ओर मुड़ गई.
"मैंने कुछ पूछा था." विकास चीखा.
"आपको मेरे निजी जीवन में टांग अड़ाने का क्या अधिकार है?"
"पति के होते तुम यारों को कारों में..."
विकास की बात पूरी होने से पूर्व ही, रूपा ने तमतमा कर कहा, "तो तुम्हें मिर्च लगती हैं?"
"इसलिए कि मैं तुम्हारा पति हूं."
"तकलीफ महसूस हुई?" रूपा ने सामास गंभीर बिदूपता भरे स्वर में कड़ा. पर एक नामालूम -सी मुस्कान उसके ओतों पर उभर आई.
"देखो रूपा, अगर तुमने इस घर को वेश्यालय..."
"विकार, तुम पुरुष हो ना दोहरे मानदंड को लागू करने वाले एक अन्यायी, स्वार्थी और अधीर पति, तुम विश्वासघात कर सकते हो. पर तुम्हारी पत्नी तुम्हारे चरणचिहनों का पालन करे तो वह वेश्या बन जाती है."
विकास स्तब्ध रह गया.
"मैंने तुम्हें तुम्हारी ही कड़वी दवा की एक घंट चरखाई थी. समूल हिल गए ना कितनी कड़वी, चरपरी और विषैली है यह अनुभूति.... जरा सोचो विकास यदि तुम पत्नी से एक-निष्ठा, विश्वास और अविभाजित प्रेग चाहते हो तो पत्नी को यह सब क्यों नहीं देते... ये प्रेम संबंध समता की नींव पर ही टिक सकते हैं." रूपा शांत किंतु धीर-गंभीर स्वर में कहती चली गई.
"यह कार वाला है कौन?" विकास ने डूबे स्वर में पूछा. इससे पूर्व कि रूपा उत्तर देती कॉलबैल बजी,
रूपा ने दरवाजा खोल दिया.
विकास के समक्ष एक सुखद आश्चर्य उपस्थित हो गया. द्वार पर सुधीर खड़ा था रूपा के मामा जी का लड़का,
"सुधीर, तुम?"
"हो, जीजा जी.. देख कर आश्चर्य हो रहा
"विकास, यही है कार वाला.... दिल्ली ट्रांसफर हो गया है इसका, और इसी की कंपनी में मैंने जॉब कर लिया है," रूपा ने सत्य का उद्घाटन नहीं जैसे बम विस्फोट कर दिया.
विकास स्तब्ध-सा खड़ा रह गया. फिर उससे पूछा, "तुम्हें जॉब की क्या जरूरत थी?"
"क्रांति के लिए शक्ति, साधन और आर्थिक स्वतंत्रता जुटाना अति आवश्यक होता है." कर कर रूपा मुस्काराई और बिजयी सैनिक-सी खड़ी रही.
विकास का मन पश्चाताप और अपराध-बोध से भर गया, उसे महसूस हुआ, उसे रूपा ने सचमुच परास्त कर दिया है.
- कुसुम गुप्ता
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