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कहानी- प्रदर्शन (Short Story- Pradarshan)

प्रदर्शन के साथ ही बात भी समाप्त हो गई. मुझे ऐसे लग रहा था, मानो मुझे खून की उल्टी हो जाएगी. उस रात मुझे शीतल बहुत याद आई. वह कितनी आसानी से इस प्रदर्शन से छुटकारा पा गई थी.

जीवन संबंध तोड़ने में केवल एक बटन दबाना बाकी था. दरवाज़े की चटखनी चढ़ा दी गई थी. बिस्तर की चादर का एक कोना पंखे के साथ और दूसरा गले में बांधा जा चुका था. जब उसे यह अनुभव हुआ कि...

यह कहानी स्वयं मंगला ने मुझे सुनाई थी. मंगला मेरे कार्यालय की लेखा. शाखा में कम्प्यूटर पर काम करती थी और शाम को काम समाप्त करने के पश्चात अंतिम आंकड़े मेरे पास लाना उसके कर्तव्य में शामिल था. मैं कई दिनों से उसे शाम को रोक कर यह बात कहना चाहता था. किन्तु मुझे साहस नहीं हो रहा था, क्योंकि किसी युवा लड़की से उसके निजी जीवन के बारे में कुछ पूछना विशेष रूप से एक ज़िम्मेदार‌ अधिकारी के लिए उचित नहीं था. फिर ऐसे कार्यालय में तो ऐसी बात करना और भी कठिन था, जहां किसी स्टेनो या लेडी क्लर्क को दो बार से अधिक कमरे में बुला लेने से बाहर कई प्रकार की अफ़वाहें उड़ने लगती हों और दया दृष्टि का शब्द प्रत्येक ज़ुबान पर सुनाई देने लगता हो.

फिर भी गत दो मास में मंगला में जो आश्चर्यजनक तब्दीली आई थी, उसके कारण का पता लगाना मैं अपना कर्तव्य समझता था, चाहे आप इसे मेरी आदत ही क्यों न समझ लें.

मंगला मेरे कार्यालय में गत पांच वर्षों से काम कर रही थी. लम्बे क़द और मोतिए रंग वाली वह सुन्दर युवती. कम बोलने परन्तु मधुर वाणी वाली मंगला, जो अपने काम से ही काम रखती थी और जिसने कभी मुझे शिकायत का अवसर नहीं दिया, जिसकी न कभी किसी से तकरार हुई, न टकराव. सीधी सी लड़की, सादा लिबास, हल्के रंगों की साड़ियों पर लटकती हुई काले घने केशों की लम्बी सी चोटी, चमकते बाल, जो माथे और कनपटियों पर कुछ घुंघराले थे. उसमें ऐसा कोई आकर्षण नहीं था कि एकदम निगाह उसकी ओर घूम जाए. इसी कारण वह कभी ध्यान का केन्द्र नहीं बनी थी. वह दफ़्तर आते ही अपने काम में लग जाती. लंच के अवकाश में दूसरी लड़कियों के साथ कुछ हंस-बोल लेती और सायंकाल अपने काग़ज़ समेट कर घर चली जाती.

हां, गत वर्ष जब हमारे सेक्रेटरी के तबादले पर एक समारोह हुआ तो उसने मौरा का गीत सुनाया था. तब उसके इस गुण का पता लगा था कि उसके गले में लोच और वाणी में बला की मिठास थी.

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उसकी आवाज़ अशर्फियों की भांति खनकती थी, इसलिए अब यह नियमित सा हो गया था कि सेक्शन में चाहे कोई छोटी-मोटी पार्टी ही क्यों न हो, मंगला से गाना सुनाने का आग्रह अवश्य किया जाता था. ऐसे समय वह साड़ी का पल्लू सिर पर ओढ़ लेती और संगीत की मूर्ति दिखाई देने लगती. उसके नाक की लौंग में चमकता हुआ नगीना यह चुगली ज़रूर खाता कि संभव है, इस बर्फ़ के नीचे कोई चमकती हुई चिंगारी भी हो.

इसी कारण जब इन दो महीनों में मंगला में यह आकस्मिक परिवर्तन आया तो दफ़्तर के दूसरे कर्मचारियों का ही नहीं, मेरा ध्यान भी उस ओर गया. पहले तो मंगला की केश सज्जा में परिवर्तन आया. लम्बी चोटी के स्थान पर कटे हुए घुंघराले केश उसके कमर पर लहराने लगे. बाल बनाने वालों ने उसके मुखड़े के चारों ओर काले केशों का एक सुन्दर फ्रेम सा बना दिया, जिससे उस का मोतिया रंग और भी खिल उठा. मानो आबनूस की लकड़ी के भीतर हाथी दांत का फूल बना दिया गया हो.

कुछ दिन के पश्चात मंगला ने हल्के रंगों के साड़ी-ब्लाउज़ पहनने बन्द कर दिए और उनके स्थान पर गहरे और शोख रंगों की जींस और जैकेट पहन कर आने लगी. जैकेट के बटन होल में वह कभी किसी और कभी किसी रंग का फूल लगा कर आती. चप्पल नुकीली एड़ी वाले सैंडल में बदल गए. पहले मंगला के शरीर से सदा कच्चे नारियल के तेल की महक आया करती थी, परन्तु अब वह कोई बढ़िया तेज़ सेन्ट लगाने लगी, जिसकी महक दूर तक उसका पीछा करती रहती.

लेखा विभाग के कर्मचारियों ने इस परिवर्तन को बड़े आश्चर्य से देखा था और शायद यही कारण था कि मैंने भी मंगला को रोक कर पूछ लिया था, वरना मंगला के तौर-तरीक़ों में कोई परिवर्तन नहीं आया था. उसके उठने-बैठने का सलीका, काम करने का ढंग एवं समय की पाबंदी वैसी ही थी, जैसी उसके पहनावे में परिवर्तन से पहले थी.

चूंकि मंगला नए केश व वेशभूषा में कहीं अधिक स्मार्ट और सुन्दर दिखायी देती थी, इसलिए उसमें इस आकस्मिक परिवर्तन की आलोचना अथवा टिप्पणी करने की अपेक्षा सब उसकी प्रशंसा ही करते रहे. हां, यदि कभी किसी ने पूछ लिया, "इस परिवर्तन का रहस्य क्या है?" तो वह मुस्कुरा कर एक ही उत्तर देती,

"यूं ही. क्या मैं बुरी लगती हूं?" इसलिए किसी ने उसकी ओर अधिक ध्यान देने की चेष्टा ही नहीं की.

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एक शाम जब वह कम्प्यूटर के अंतिम आंकड़े मुझे देने के लिए आई, तो उसने कुछ अधिक तेज सुगंध अपने कपड़ों और बालों में लगा रखी थी, जिस की महक से सारा कमरा सुगंधित हो गया था. मैंने उससे बैठ जाने के लिए कहा. मैं दूसरे काग़ज़ात देखता रहा और मंगला मेरे सम्मुख बैठी अपने बाएं हाथ के लम्बे सुर्ख नाख़ूनों का निरीक्षण करती रही.

"यदि मंगला तुम्हें कोई आपत्ति न हो..." मैंने बात आरंभ करनी चाही.

"क्या कोई ग़लती हुई है?"

"नहीं मंगला, तुमसे मुझे कभी किसी ग़लती की संभावना ही नहीं हुई. यों ही मन में एक बात खटक रही है कि मेरे सामने वह कच्चे नारियल के तेल की महक वाली मंगला नहीं, किसी विदेशी कंपनी की कोई दिलरुबा स्टेनो बैठी है... और मैं यह सोच रहा हूं कि यह परिवर्तन कैसे हो गया है? ऐसा क्या हुआ है? यह तुम्हारा व्यक्तिगत मामला है, जिसे पूछने का मुझे कोई अधिकार नहीं है और चूंकि तुम्हारे अन्दर इस परिवर्तन का कार्यालय के काम पर भी कोई असर नहीं पड़ा, इसलिए मुझे इस बारे में कोई आपत्ति नहीं है. हां, इतना अवश्य पूछना चाहता हूं कि कहीं विदेश जाने का इरादा तो नहीं, जो नए वातावरण से अभी से परिचित होना चाहती हो?

"नहीं, ऐसी कोई बात नहीं सरीन साहब."

"फिर यह परिवर्तन किसी की पसन्द पर है?"

"नहीं, ऐसी भी कोई बात नहीं."

"कोई विवशता?"

"मुझे अपने आप से घिन आने लगी. मैं सोचती, क्या मैं इतनी ही बुरी हूं कि किसी की नज़र में जंचती ही नहीं? मेरे माता-पिता कब तक मेरा प्रदर्शन करते रहेंगे? मैं एक युवा लड़की हूं. मेरा भी कोई स्वाभिमान है.

मैं २६ वर्ष की युवती हूं, कोई मुझे किसी परिवर्तन के लिए विवश नहीं कर सकता, किन्तु एक पक्ष से आप इसे मजबूरी भी कह सकते हैं."

बात कहते-कहते मंगला के हाथ से पेन नीचे गिर गई, जिसे उसने उठाया नहीं और जैकेट के गिरेबान में से पीला रेशमी रूमाल निकाल कर उससे अपनी आंखों में घिर आए आंसू पोंछने लगी, जो दिल में उठ रहे ज्वार भाटे के प्रतीक थे.

चपरासी शाम की चाय ले आया. मैंने उससे कहा कि वह मंगला का ग्लास भी वहीं रख दे. मंगला की मानसिक स्थिति अब कुछ सन्तुलित हो गई थी और वह चाय के छोटे-छोटे घूंट लेती हुई अपने चेहरे पर बिखर रही बालों की लटों की उंगली से पीछे हटा रही थी.

मुझे आज पहली बार मंगला से पता चला कि उसका पिता भी इसी मंत्रालय में काम करता था और सात वर्ष पूर्व सेवानिवृत्त हुआ था. इसके पश्चात वह दो वर्ष अनाज के गोदाम में काम करता रहा, क्योंकि सेवा काल समाप्त हो जाने पर भी उसकी घरेलू ज़िम्मेवारी समाप्त नहीं हुई थी. इसके पश्चात उसकी आंखों का ऑपरेशन हुआ और वह अधिक सेवा योग्य नहीं रहा.

मंगला की बड़ी बहन शीतल, छोटी बहन स्नेह और छोटा भाई स्वरूप अब भी उसकी ज़िम्मेदारी थे. शीतल को एक स्कूल में नौकरी मिल गई थी. उनका पिता शीघ्र ही उसकी शादी कर देना चाहता था. शीतल रंग की अधिक साफ़ नहीं थी. इस कारण वर की तलाश में अड़चन पड़ रही थी. कितने ही लोग उसे देख-देखकर चले गए.

एक शाम एक लड़के के पिता ने मंगला के पिता से कहने लगा, "ऐसी लड़की के रिश्ते के लिए तो आपको कम से कम ५० हज़ार रुपए देने होंगे." वे लोग तो बात कहकर चले गए, शीतल के माता-पिता सिर पकड़ कर रह गए. स्कूल से बहुत कम वेतन पाने वाली लड़की ५० हज़ार रुपए की मांग पर विश्वास ही नहीं कर सकती थी.

किन्तु जब उसने रात अपनी मां को पिता से बात करते सुना कि लड़की २८ वर्ष की हो गई है, उसके हाथ पीले करने के लिए कुछ करना ही होगा, तो उसके पिता का उत्तर था, "मेरे पास तो यह फ्लैट ही उम्र भर की बचाई हुई पूंजी है. यदि कहो तो इसे बेच देता हूं." शीतल अपने माता-पिता की इस विवशता को सहन नहीं कर सकी. उसने रात को कमरे का दरवाज़ा बंद कर लिया, बिस्तर की चादर पंखे के साथ बांधी और प्रातः उसका शव पंखे के साथ लटक रहा था."

बात कहते-कहते मंगला के हाथ कांपने लगे.

चाय के ग्लास में जो दो घूंट चाय बची थी, मेज पर गिर गई.

'सॉरी सर..." कहते हुए वह अपने रूमाल से चाय साफ़ करने लगी.

मंगला की बातों का रहस्य और भी गहरा होता जा रहा था.

उस समय तक वह बी.ए. करके इस कार्यालय में काम कर चुकी थी. छोटे भाई को भी कहीं थोड़े समय का काम मिल गया. केवल स्नेह पढ़ रही थी. पर मैं किसी प्रकार की कमी नहीं थी. शीतल के कारण घर को जो समाजी कलंक लगा था, भी धीरे-धीरे मिटता जा रहा था.

"अब पिताजी घर पर ही रहते थे और उनका मनपसंद काम मेरे लिए कोई अच्छा-सा लड़का तलाश करना था. मां मुझसे सदा यही आग्रह करती रहती कि सीधा-सादा जीवन व्यतीत करूं, ताकि मैं आयु में बड़ी दिखाई न दूं. कोई यह न कह सके कि लड़की उम्र खा गई है.

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गत दो वर्षों से तो जब मैंने २५ वीं वर्षगांठ पार की तो माता-पिता दोनों ही मानो मेरा बोझ सिर से उतारने के लिए परेशान हो रहे थे. वे नित किसी न किसी को घर आने का निमंत्रण दे आते. फिर मुझे अच्छे से वस्त्र पहना कर चाय की ट्रे हाथ में थमा कर उनके सम्मुख पेश कर दिया जाता, परन्तु बात कहीं न कहीं अटक कर रह जाती. मां कहती, हमारी मंगला के संजोग अभी नहीं खुले और पिताजी का विचार था कि आवश्यक वस्तुओं के मूल्यों के साथ-साथ लड़कों के दाम भी चढ़ गए है.

मुझे अपने आप से घिन आने लगी. मैं सोचती, क्या मैं इतनी बुरी हूं कि किसी की नज़र में जंचती ही नहीं? मेरे माता-पिता कब तक मेरा प्रदर्शन करते रहेंगे. मैं एक युवा लड़की हूं. मेरा भी कोई स्वाभिमान है. मेरा भी अहं है, जिसे नित ठेस लगती है. जब बड़े कमरे से मां आवाज़ देती हैं, "मंगला बेटी, चाय ले आ." और मैं इस बहाने प्रदर्शन के लिए पेश कर दी जाती. आख़िर मैं भी स्त्री हूं, बिकाऊ माल नहीं. नौकरी करती हूं. शादी न भी हो, मैं किसी पर बोझ नहीं हूं, फिर मेरी यह मानहीनता क्यों हो रही है?

कोई तीन मास हुए, एक शाम किसी परिवार के कुछ लोग हमारे घर आए. मां ने मुझे समझाया कि लड़का भी तुम्हारी आयु का ही है. तुम सलवार-कमीज़ पहन कर आना, ताकि उम्र में कुछ छोटी दिखाई दो. मैं एक बार फिर प्रदर्शन के लिए पेश कर दी गई. ईश्वर का धन्यवाद था कि उन्हें मैं पसन्द थी, किन्तु लड़के के सभ्य पिता का कहना था कि उन्होंने गत रविवार को डिफेन्स कॉलोनी में भी एक लड़की देखी थी. वह भी ऐसी ही सीधी-साधारण लड़की थी.

"उस लड़की का पिता अपनी लड़की को फ्लैट देना चाहता था. आप अपनी लड़की को क्या देना चाहते हैं? हमें तो कुछ नहीं चाहिए, लड़का इंजीनियर है, इंजीनियर."

प्रदर्शन के साथ ही बात भी समाप्त हो गई. मुझे ऐसे लग रहा था, मानो मुझे खून की उल्टी हो जाएगी. उस रात मुझे शीतल बहुत याद आई. वह कितनी आसानी से इस प्रदर्शन से छुटकारा पा गई थी.

मैंने भी किवाड़ बन्द कर लिया. बिस्तर की चादर गले और पंखे से बांध ली. बटन दबाने लगी तो मुझे एक झटका सा लगा, चादर गले में से निकाल दी और सोचने लगी कि यदि आए दिन मुझे यों ही फ्लैट में रख कर प्रदर्शन के लिए पेश किया जाना है तो मैं अपना प्रदर्शन स्वयं ही क्यों न करूं?

और अगले दिन मैं दफ़्तर से लौटते हुए एक ब्यूटी पार्लर से अपने बाल नए ढंग से बनवाई. इस के साथ ही सब साड़ियां एक बैग में रख दीं. मेरे इस परिवर्तन को आप चाहे कुछ भी कहें, परन्तु क्या मैं इस परिवर्तन से बुरी लगती हूं?"

"कौन कहता है? मैंने तो तुम्हें केवल एक बात कहने के लिए रोका था."

"क्या?"

"हमारे सेक्रेटरी सेठी का लड़‌का राकेश गत दिनों भिलाई से यहां आया था. वह मुझ से भी आकर मिला था. आज लंच के समय सेठी साहब मुझे कह रहे थे कि मंगला से पूछ कर बताऊं- क्या मंगला भिलाई जाने को तैयार है, जहां उन का लड़का इंजीनियर है?"

- एम. के. महताब

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