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कहानी- तपिश  (Short Story- Tapish)

"मेरी चिंता छोड़ बेटे. आख़िर रीना मेरी बहू है. मेरा ख़्याल देर-सबेर रख ही लेगी, पर अभी तुम दोनों का साथ रहना ज़रूरी है, क्योंकि कई बार ये दूरियां इतनी बढ़ जाती हैं कि उनका पाटना मुश्किल होता है."

इतिहास क्या सचमुच अपने आपका दोहराता है? रह-रहकर तनु यही सोच रही थी, रीना को देखकर सभी ने यही कहा था.
"तनु तो बस अपने ही जैसी बहू छांटकर लाई है. वही खिलता रंग, वही कद, वही नाजुक काया, छुई मुई सी."
सबकी बातें सुन तनु को अपने ब्याह की याद हो आयी. तनु जब ब्याह कर आई थी, तो मांजी से भी सभी ने यही कहा था.
"शीला तो अपने ही जैसी बहू ले आई है, लगता है जैसे बहू नहीं बेटी है."
"तो इसे मेरी बेटी ही समझो न."
मांजी ने उसी समय भावविभोर होकर उसे गले से लगा लिया था. वैसे इसमें कोई संदेह नहीं कि उसे उनसे मां जैसा प्यार ही मिला था. तब उम्र भी क्या थी, यही उन्नीस-बीस की रही होगी. खाने-पीने से लेकर वे उसकी हर बात का ध्यान रखती थीं.
"अब बेटियां तो ससुराल गईं, यही मेरी बेटी है और बहू भी."
अक्सर उनके मुंह से यही निकलता था. मांजी का वही स्नेहिल चेहरा आंखों के सामने घूम गया था, तभी विमला जी की आवाज़ सुनाई दी.
"जाओ तनु, अब तुम भी कुछ देर आराम कर लो. शाम को फिर मेहमानों की विदाई का इंतज़ाम करना होगा तुम्हें, वैसे तो शादी का घर है, काम-ही-काम बिखरे हैं, पर तब तक में संभाल लूंगी." विमला जी ने एक प्रकार से उसे अंदर कमरे में ही ठेल दिया था. पर पलंग पर लेटकर भी तनु अतीत में ही खोई रही.
शादी के प्रारंभिक दिन एकदम से आंखों के सामने घूम गए थे. सचमुच, घर भर की चहेती थी वह. महेश तो एकदम दीवाने थे उसके, कलकत्ते में अपना फ्लैट मिलते ही उसे ले गए थे.
महानगर, बड़े शहर की चकाचौंध, सब कुछ देखने की कितनी चाह थी, पर छोटा- सा एक कमरे का फ्लैट देखते ही मन कुछ बुझ-सा गया था.
"यहां इस घर को कैसे सजाएंगे? यहां तो सामान भी पूरा नहीं आ पाएगा."

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"सजाने की ज़रूरत ही क्या है? ये तो तुम्हारे आने से ही सज गया है."
महेश ने उसे बांहों में भर लिया था. कुछ दिन तो घूमने-फिरने में ही निकल गए थे. पर महेश की छुट्टियां ख़त्म होने के बाद वह घर में उकताने लगी थी. क्या करे दिनभर? बार-बार उसे मायके और ससुराल के लंबे चौड़े, भरे-पूरे मकान याद आते, कितने लोग थे, कब दिन गुज़र जाता, पता ही नहीं चलता था. लंबा- चौड़ा आंगन, बड़ा-सा बगीचा, बड़ी-सी खुली छत, लेकिन यहां…. यहां तो आसमान का टुकड़ा तक देखना नसीब नहीं होता.
कई बार उसने महेश से मकान बदलने की भी ज़िद की थी.
"तुम बात को समझती क्यों नहीं? यह महानगर है, बड़े मकान के किराए भी उतने ही अधिक हैं, फिर मेरी समझ में नहीं आता कि तुम्हें तकलीफ़ क्या है."
खैर, धीरे-धीरे वह इसके लिए भी अपने आपको अभ्यस्त करने का प्रयास करने लगी थी. इसी बीच ससुराल से ख़बर आई कि सास बीमार हैं. महेश और तनु दोनों ही मिलने के लिए तुरंत रवाना हो गए.
"देखो तनु, तुम्हारा पहला कर्त्तव्य मां के प्रति है, इसलिए मैं चाहूंगा कि तुम उनका पूरा ध्यान रखो."
किन्हीं भावुक क्षणों में महेश के मुंह से निकला था यह वाक्य और फिर मांजी की भी ज़िद थी कि अभी और कुछ दिन तनु उनके पास रहे. उन्हें अकेलापन खलने लगा था.
तनु रुक गई थी, मांजी की तबियत में अब थोड़ा सुधार था, कभी बातों-बातों में तनु के मुंह से निकल गया था.
"वहां कलकत्ते का मकान बहुत छोटा है, एक कमरे का." और मांजी ने भी पता नहीं किस री में महेश को लिख भेजा था.
"अब बड़ा मकान ले लो तभी बहू को लेने आना, बेचारी का दम घुटता होगा एक कोठरी में."
उसके बाद तो काफ़ी लंबे अरसे बाद घर आए थे महेश और तब से उखड़े उखड़े से ही रहने लगे थे.
"आख़िर बात क्या है? मैंने तो आपके कहे अनुसार सबका ध्यान रखा, अब मांजी की तबियत भी ठीक है. मैं भी तैयारी कर लूं?"
"काहे की तैयारी?"
"क्यों, मुझे साथ नहीं ले चलना है?"
"नहीं…"
वह सकपका कर रह गई.
"और सुन लो, जब तक मैं बड़ा मकान नहीं लेता हूं, तब तक तुम्हें साथ लेकर जाऊंगा भी नहीं, क्योंकि वहां एक कोठरी में तुम्हारा दम घुटेगा."
"ये कैसी बातें कर रहे हैं आप?" तनु कुछ भी समझ नहीं पा रही थी.
"देखो, बात को घुमा-फिराकर कहने की आदत नहीं है मेरी और जो भी कह रहा हूं, तुम भी समझ रही हो. अब जब तनख्वाह बढ़ेगी और मैं इस क़ाबिल हो जाऊंगा कि बड़ा मकान ले सकूं, तभी तुम्हें ले जाऊंगा. और हां, अब आइंदा तुम्हें जो कुछ भी कहना हो, साफ़-साफ ही कह दिया करो, क्या ज़रूरत थी मां से यह सब कहलवाने की?"
वह न कुछ समझ पा रही थी और न ही कुछ कह पा रही थी. मांजी ने तो शायद अपना अतिरक्ति स्नेह दिखाने के लिए यह सब लिख दिया होगा, पर महेश उन सभी बातों को उल्टा समझ रहे थे. वह और कुछ कहती, इसी बीच मांजी फिर कह गई थीं, "बहू का पांव भारी है, वहां अकेले में इसे कौन संभालेगा?"
"मैं भी तो यही कह रहा हूं."
दो टूक उत्तर देकर महेश चले भी गए थे. इसके बाद तो जय के जन्म के बाद एक लंबा सिलसिला चलता रहा. कभी बच्चा छोटा है, तो कभी कुछ और, फिर इसी बीच ननदोई जी का आकस्मिक निधन हो गया और उनकी दोनों बेटियां शुभ्रा और आभा तनु के ही पास आकर पढ़ने लगी थीं. फिर ससुर जी नहीं रहे और एक तरह से ससुराल का सारा दायित्व ही तनु पर आ गया था. मां जी का दायित्व और शुभ्रा-आभा भी. सारी ज़िम्मेदारियां कुशलता से निभा रही थी वह, फिर भी कई बार उसे लगता कि महेश के मन में उसे लेकर जो फांस है, वह अभी भी उसी तरह चुभन देती सी प्रतीत होती है.
बड़ी जीजी के बेटे की शादी में जब तीनों बड़े जीजा अपनी-अपनी पत्नियों की तारीफ़ के पुल बांध रहे थे तो मंझले जीजू ने गर्मजोशी से कहा था,

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"भई! अनु तो मेरे सुख-दुख की भागीदार रही है और ख़ासतौर पर उन दिनों की, जब मेरी थोड़ी-सी आमदनी थी. पर इसने कभी चेहरे पर शिकन नहीं आने दी. अगर मैं पचास रुपए की भी साड़ी लाकर देता, तो उसे यह खुशी-खुशी स्वीकार कर लेती."
उसी समय महेश ने जीजाजी की बात काट दी थी.
"यही तो रोना है, तनू कहां कुछ सीख पाई अपनी बहनों से? इसने तो मुश्किल के दिनों में मुझसे किनारा ही कर लिया था.
अब दिल्ली में बड़ा फ्लैट है तो बीच- बीच में आ भी जाती है, पर कलकत्ते के घर को देखकर तो उसका यही रोना था कि घर छोटा है, दम घुटता है." सभी लोग ज़ोर से हंस पड़े थे, पर तनु का चेहरा मारे अपमान के लाल हो गया था.
वह उसी समय वहां से उठ खड़ी हुई थी. तब उनके पास बड़ी जीजी ने ही बात संभाली, "अरे, तो क्या हुआ? क्या तनु ने अपनी ससुराल को नहीं संभाला है? ऐसा मत कहिए महेश जी…" आंसू छिपाती हुई तनु फिर भी कमरे से बाहर चली गई थी. महेश तो फिर भी उल्टे उसी पर बरसे थे.
"क्या है? जरा-सा 'सेंस ऑफ ह्यमर' नहीं है तुममें, मज़ाक भी नहीं समझती हो."
"इसमें मजाक क्या था…" वह फूट पड़ी थी.
"अरे ठीक है, ससुराल का ध्यान रखा तुमने. वो तो सभी बहुएं रखती हैं, तो क्या मैं तुम्हारी तारीफों के पुल बांधता रहूं?"
वह क्या कहती, सभी जीजाजी भी तो अपनी-अपनी पत्नियों के तारीफ़ों के पुल ही बांध रहे थे. फिर ऐसा नहीं है कि बात की गंभीरता को वह समझती नहीं है. जाने-अनजाने कई बार महसूस हुआ है उसे कि उसके और महेश के बीच की दूरी बढ़ती जा रही है.
कई बार उनके मुंह से निकल चुका है, "तुम तो इसी प्रकार मां के पास रहकर घर संभाले रहो, मेरा क्या है, अब तो अकेले रहने की आदत सी हो गई है."
हालांकि इसी बात को लेकर दोनों बड़ी दीदी भी कई बार कह चुकी थीं, "तनु यह क्या! महेश को एकदम छोड़ दिया है तूने. अरे! इतने आशिक मिजाज़ हैं, वहां किसी और से दिल लगा बैठे तो." वह क्या कहती, क्या पता दिल लगा भी लिया हो, वह तो वैसे ही इतनी दूर रहती है, महीनों बाद कुछ दिनों को जा पाती है. तब भी कई बार उनके सहयोगियों की पत्नियों ने इशारा किया था.
"महेश जी की आजकल अपनी स्टेनो से खूब छन रही है. और तो और, दौरे पर भी दोनों साथ जाने लगे हैं."
घुमा-फिराकर जब उसने पूछा तो महेश डांट दिया था, "अब क्या तुम मेरी चौकीदारी करने आई हो? अरे इतना ध्यान था तो पहले ख्याल रखा होता. अब ऑफ़िस में क्या मैं अपनी महिला कर्मचारियों से बात भी न करू?" वह क्या कहती, चौकीदारी वह कर ही क्या सकती थी, अगर उनका मन हुआ तो एक क्या कई स्टेनों मिल जाएंगी उन्हें, बात तो परस्पर विश्वास की थी और वही विश्वास अब दरकने लगा था.
ऐसी बातें याद करके कई रातें आंसुओं में गुजारी थी उसने, अब तो खैर महीने भर पहले ही महेश रिटायर्ड होकर यहीं आ गए हैं, तभी तो विमलाजी ने कहा था, "अब तुम दोनों आराम से साथ रहना. अभी तक तो ज़िम्मेदारियां निभाते ही उम्र बीत गई. महेश वहां, तुम यहां, अब खूब बातें करना."
पर वह सोचती कि इतने वर्षों से आई यह दरार क्या पट सकेगी? उसे तो शायद महेश की उपस्थिति में भी अकेलापन ही झेलना होगा. अकेलापन तो अभी से लगने लगा है. मांजी का देहांत हो चुका है. आभा और शुभ्रा भी ससुराल चली गईं. बस जय से ही रौनक थी, वही उसे अब तक संभाले था. बड़ा होकर वह एक दोस्त की तरह हो गया था. शुरू से ही मां के साथ रहा था, इसलिए मां के अकेलेपन की पीड़ा को भी उसने भांप लिया था. बस, मां को ख़ुश रखना है, इस बात का हर पल ख़्याल रहता उसे. तभी तो शादी के समय भी उसने यही कहा था, "मां, बहू तुम्हें पसंद करती है, जो तुम्हें समझ सके, तुम्हारा अकेलापन दूर कर सके…"

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और तब वह हंसकर रह गई थी.
"तूने मुझे इतना सम्मान दे दिया, यही क्या कम है बेटे."
फिर कंठ भर्रा गया था.
जय की भी तो अगले महीने फ्लाइट है. कितनी ज़िद थी उसकी विदेश जाने की. महेश तो तैयार हो गए थे. पर वही बड़ी मुश्किल से अपने आपको तैयार कर पाई थी. बेटे को कभी अपने से दूर नहीं किया और अब हज़ारों मील दूर… पर क्या करे? उसके भी तो करियर का सवाल है.
तभी हल्की खटर-पटर से तंद्रा टूटी. जय ही था.
"अरे मां! मैं तो इतने धीरे से सामान निकाल रहा था. फिर भी तुम्हारी नींद टूट गई!"
"अब उठना तो है ही. मेहमान लोग जाएंगे, उन्हें भी देखना है."
"हां मां, पर मैं तुम्हें अकेला नहीं होने दूंगा. पता है, अभी-अभी मैं रीना से यही कह रहा था कि वह यहीं
तुम्हारे पास रहकर अपनी इंटरशिप करे, ताकि तुम्हारा भी मन लगा रहे."
"नहीं बेटे."
बीच में तनु ने उसकी बात काट दी थी.
"मैंने बहुत सोचकर फ़ैसला किया है कि तुम दोनों साथ ही लंदन जाओगे, रीना भी वहां कोई नौकरी कर लेगी."
"कैसी बातें कर रही हो मां? वहां कैसे एडजस्ट होगी? अभी तो मेरे ही रहने का बंदोबस्त नहीं है. फिर तुम यहां अकेली…"
"मेरी चिंता छोड़ बेटे. आख़िर रीना मेरी बहू है. मेरा ख़्याल देर-सबेर रख ही लेगी, पर अभी तुम दोनों का साथ रहना ज़रूरी है, क्योंकि कई बार ये दूरियां इतनी बढ़ जाती हैं कि उनका पाटना मुश्किल होता है." उनका गला फिर भर्रा गया और जय अवाक् होकर मां को देख रहा था.

- क्षमा चतुर्वेदी

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