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कहानी- ठहरी हुई ज़िंदगी (Short Story- Thahri Huyi Zindagi)

"नलिनी... तुम यहां..." उदित भी हतप्रभ थे. नलिनी का मन हुआ दौड़कर उनके सीने से जा लगे और अतीत की सारी दास्तान कह डाले. उसकी आंखें डबडबा गईं. स्वयं को संयत रख अस्फुट स्वर में इतना ही कह पाई, "आप यहां..?"

दोनों को ही सहज होने में देर लगी थी.

रोज़ की तरह वे आज सवेरे उठीं. दिनचर्या के बंधे बंधाए ढर्रे की शुरुआत करते हुए चाय का पानी चढ़ाया, चाय की चुस्कियों के साथ अख़बार की सुर्ख़ियां देखीं और नहाने चल दीं. आलमारी खोल जब साड़ी का चुनाव करने लगीं तो याद आया कि वह तो परसों रिटायर हो चुकी हैं. अब कॉलेज नहीं जाना है, बल्कि कहीं भी नहीं. फिर साड़ी के चुनाव का क्या प्रयोजन? यह 'रिटायरमेंट' भी कितना उबाऊ शब्द है, जो लोगों की दौड़ती-फांदती ज़िंदगी में विराम लगा देना है. बड़ी सहजता से चल रहा जीवन यकायक कितना असहज हो जाता है. पूरे पैतीस वर्ष बिता दिए हैं नलिनी ने नौकरी करते हुए. नौकरी कभी ज़रूरत नहीं बनी, लेकिन परिस्थितियां ऐसी बनीं कि जीवन का आवश्यक हिस्सा बन गई नौकरी.

अविनाश मॉर्निंग वॉक से लौटे तो नलिनी ने उन्हें भी चाय का प्याला थमा दिया. वे अख़बार लेकर आरामकुर्सी में धंस गए है. अब घंटा भर वे यहां से उठने वाले नहीं, हर पृष्ठ की हर ख़बर, यहां तक कि 'आवश्यकता है' 'बिकाऊ है,' 'गुमशुदा की तलाश' जैसे विज्ञापन भी वे नहीं छोड़ते. समय काटना उनकी मजबूरी है. पांच वर्ष पहले सरकारी नौकरी से रिटायर हुए हैं, तब से उनकी दिनचर्या इसी तरह से आरंभ होती आ रही है. नलिनी कॉलेज जाने की तैयारी में जुट जाती है. बीच-बीच में औपचारिक बातचीत का एकाथ जुमला किसी ओर से फेंक दिया जाता है.

"आज मुझे कुछ देर हो जाएगी, मीटिंग..."

"वापसी में मैं बाज़ार होकर लौटूंगी, कुछ लाना है?"

"नहीं."

"मेरा दोपहर का खाना आज हरीश के घर है, मेरे लिए मत बनाना." अविनाश भी सूचना भर देते हैं. पैंतीस वर्षों के साथ में वे अब तक नहीं समझ पाए कि नलिनी के भीतर कौन सा ज्वालामुखी सुलग रहा है, जो न तो फटता है न ठंडा होता है. शादी के दिन से अब तक उन्हें याद नहीं पड़ता कि नलिनी ने अंतर की गहराइयों से उन्हें चाहा हो, प्यार किया हो. हमेशा एक ठंडेपन, उत्साहहीनता और घुटन के भाव उसके चेहरे तथा व्यवहार में नज़र आते. उसके सामीप्य को, उसके प्रेम को, उसके आत्मसमर्पण की, यहां तक कि उसके दो मीठे बोलों को भी अविनाश हसरत भरी नज़रें लिए तरसते रह गए, सामाजिक बंधनों के निर्वाह के चलते कुछ पलों के समर्पण के परिणामस्वरूप रोहित तथा रोहन इस संसार में आ गए और उनकी परवरिश व अपनी नौकरी में ही नलिनी अपने जीवन की सार्थकता तलाशने में जुट गई थी. साल दर साल सरकते गए, बच्चे ज़िम्मेदार युवा बन गए. उनकी शादियां हो गईं. दोनों ही विदेश में बस गए थे. महीने में एकाध फोन आ जाता है, जिसमें केवल औपचारिक बातचीत, खैरियत पूछने का आदान-प्रदान होता है.

दिन का अधिकांश वक़्त नलिनी कॉलेज में ही बिताती थी. इसी कॉलेज में अध्यापिका के पद पर नियुक्ति हुई थी उसकी, पदोन्नति पाते-पाते पिछले दस वर्ष प्राचार्य के पद पर आसीन रही. छात्र-छात्राओं, स्टाफ, मीटिंग, सेमिनार, गोष्ठियों में उसने स्वयं को इतना व्यस्त कर लिया कि दिन का बड़ा हिस्सा आसानी से कट जाता. इसी जीवनशैली की आदी हो चुकी थी नलिनी, ऐसे में जब रिटायरमेंट क़रीब आ गया तो परेशान व तनावग्रस्त होने लगी थी. अब कैसे बीत पाएंगे दिन के लंबे-लंबे घंटे, जिनका कॉलेज में गुज़रने का एहसास तक नहीं होता. लगभग आधी ज़िंदगी तो इसी कॉलेज में बीत गई.

अविनाश जीवन की संध्या बेला तक भी नलिनी के दिल की थाह नहीं पा सके, उधर नलिनी सोचती, क्या जीवन का पहला प्यार इतना प्रभावशाली होता है, जो फांस बन पूरी ज़िंदगीभर चुभता रहता है भुलाए नहीं भूलता. उन सपनीले दिनों की आज भी दिल के कोने में सुरक्षित रखा है नलिनी ने. उदित और वह एक ही कॉलेज में, एक ही क्लास में थे. नोट्स लेने-देने का सिलसिला कब दोनों के दिलों में प्रेम का बीज अंकुरित कर गया, इसका उन्हें पता ही नहीं चला. दिन छोटे और रातें लंबी महसूस होने लगी थीं. कल्पनाओं की डोर में बंधे वे खुले आकाश में विचरण करते, जहां केवल वे ही होते, बाकी हर ओर होते बादलों के हिंडोले और चांद-सितारों जैसे साथी, जो उनके निश्छल प्रेम पर स्वीकृति की मुहर लगाते. उनके लिए इस जहां में केवल ख़ुशियां ही ख़ुशियां थीं, ग़म का नामोनिशान तक नहीं था.

इश्क़ और मुश्क छिपाए कहां छिपते हैं. कॉलेज में वे दोनों चर्चा का विषय बन गए. लड़के-लड़कियां उन्हें लैला-मजनूं, हीर-रांझा कहकर पुकारने लगे, इससे वे गर्व महसूस करते कि अमर प्रेमियों के साथ उनकी तुलना की जा रही है. साल भर इसी सपनीली दुनिया में जीते हुए बीत गया, अब तो एक-दूसरे के बिना जीने की कल्पना करने से भी वे भयभीत हो उठते. अचानक एक दिन बगैर किसी भूमिका के नलिनी की मां ने सूचित किया कि उसे अविनाश देखने आ रहे हैं तो उस पर गाज गिर पड़ी. उदित के बिना जीवन की तो उसने कल्पना भी नहीं की थी. पल भर में ही स्वप्निल घरौंदा ढह गया. उन दिनों मां-पिता के आदेश का प्रतिकार करने या बगावत करने का साहस किसी में नहीं होता था. उनका आदेश अंतिम फ़ैसला होता था. अपने भीतर की पूरी हिम्मत जुटाकर किसी तरह उसने कहा था, "मां, अभी मैं आगे पढ़ना चाहती हूं, शादी नहीं करना चाहती..."

"अपनी शादी का फ़ैसला लेने वाली तू कौन होती है? हम मर गए हैं क्या? तीन-तीन बेटियां हैं, गर हर एक को इतनी छूट देने लगे तो सारी उम्र तुम्हारी शादियां निबटाने में ही बीत जाएगी..." फिर कुछ नरम पड़कर बोली, "वैसे अविनाश बड़ा समझदार और सीधा लड़का है. हो सकता है, शादी के बाद तुम्हें आगे पढ़ने की स्वीकृति दे दे." अगले दिन यंत्रवत वह अविनाश के सामने चाय-नाश्ता रखने गई थी. कुछ औपचारिक प्रश्न किए थे अविनाश व उसके माता-पिता ने और जाते समय स्वीकृति दे गए थे. नलिनी के मां-पिता तो निहाल हो गए थे, पहली बार में ही वह पसंद कर ली गई थी, वरना कई लड़कियों को तो कितनी-कितनी बार प्रदर्शन की परीक्षा देनी पड़ती है. बधाई देने वालों की आवाजाही प्रारंभ हो गई थी. पर नलिनी जैसे भीतर तक सुन्न हो गई थी. उसके जीवन के साथ, प्यार के साथ कितना बड़ा मज़ाक किया गया और वह कुछ न कर सकी. कैसे जी पाएगी वह उदित के बिना?

शादी की रस्में एक मूक दर्शक की तरह वह निभाती रही. उसके मन या चेहरे पर कोई नूर, कोई ख़ुशी अथवा उत्साह नज़र नहीं आ रहा था. एक सपाट वीरानी छाई थी, जब सहेलियां उसे छेड़ते हुए गातीं- "पिया ऐसो जिया में समाय गयो रे..." तो अचानक उसके सामने उदित का चेहरा तैर जाता. और जब वह वास्तविकता से रू-ब-रू होती ती मन में कसक का तूफ़ान खड़ा हो जाता, उदित उसे बेवफ़ा समझेगा, उसे कभी क्षमा नहीं करेगा. वह अपनी शादी के बारे में उसे सूचित करने की हिम्मत भी नहीं जुटा सकी.

शादी के पश्चात उसे गुमसुम देख अविनाश ने कई बार उसका मन टटोलना चाहा, पर वह अपनी वेदना चुपचाप पीती रही. अपने प्रथम प्रणय संबंध को उजागर नहीं होने दिया, अविनाश ने उसे वक़्त काटने और मन बदलाव के लिए आगे पढ़ने और नौकरी करने की इज़ाजत दे दी. नलिनी दिनभर कॉलेज में उसके सहपाठियों, अध्यापकों, स्टाफ के साथ व्यस्त रहती और जब वह अविनाश की बांहों में होती तो उसे घुटन सी महसूस होती. वह सोचती, काश! ये बांहें उदित की होतीं, तो वह उनमें झूलकर सारी दुनिया भूल जाती, जीवन कितना रंगीन हो जाता. जीवन अपनी गति से चलने लगा था. कहने को तो उसके पास सब कुछ था एक ज़िम्मेदार पलि, दो प्यारे बच्चे, बंगला, गाड़ी, सुख-सुविधाएं, लेकिन इन सबके बावजूद वह उदित को न भुला पाती. मन ही मन वह अविनाश और उदित की तुलना करती तो हर कोण से उदित को ही श्रेष्ठ पाती. शायद इसी कारण वह अविनाश को हृदय की गहराइयों से न अपना सकी. सामाजिक मर्यादाओं को वह ज़रूर निभा रही थी, परंतु उसके मन के कोने में तो उदित के नाम का दीया ही जल रहा था. वर्ष-दर-वर्ष सरकते गए, अविनाश ने भी उसके व्यवहार को नियति मान स्वीकार कर लिया था. कभी-कभी तो नलिनी तनावग्रस्त हो सुधबुध खो बैठती, आक्रामक हो उठती और अनाप-शनाप कह उठती.

कभी-कभी नलिनी का जी चाहता कि किसी तरह उदित के बारे में कुछ जानकारी मिले तो पता लगे कि वह कहां है और कैसा है? उसकी ज़िंदगी कैसे बीत रही है? क्या वह भी उसे इतना ही याद करता है? क्या बीते दिनों की यादें उसके भीतर भी सुलगती रहती हैं? पर वह केवल सोचती रही, घुटती रही, सुलगती रही, उदित की यादों के सहारे जीती रही, रिटायर होने के बाद उसे ज़िंदगी ठहरी हुई सी प्रतीत होने लगी. दिन काटे न कटते. अविनाश और वह एक ही कमरे में बैठे घंटों अबोले रहते. ऊब और नीरसता से तंग आकर एक दिन वह अविनाश से बोली, "कुछ दिन भइया-भाभी के पास जाना चाहती हूं, तुम चलोगे?"

"नहीं, तुम ही हो आओ, बदलाव हो जाएगा. मुझे तो आदत हो गई है अकेले रहने की."

काफ़ी अरसे के बाद भइया-भाभी के पास गई थी नलिनी, सप्ताह कैसे बीत गया, पता ही नहीं लगा. भाभी ने बताया था कि उदित अपने परिवार के साथ कोलकोता रहता है. उसका काफ़ी अच्छा कारोबार है. उसके बारे में भी पूछता है, नलिनी का दिल इस उम्र में भी ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा था उन दिनों को याद करके. अगले दिन भइया भाभी को शादी में जाना था. उन्होंने नलिनी को भी साथ चलने के लिए कहा तो वह बोली, "भाभी, मैं तो आराम करूंगी, आप लोग जाइए, वैसे भी यहां अब मुझे कौन पहचानेगा? इतने साल हो गए हैं यहां से गए हुए.”

आरामकुर्सी पर गर्दन टिकाए आंखें बंद किए नलिनी अतीत में विचरण कर रही थी कि तभी दरवाज़े की घंटी बजी, वह आहिस्ता से उठी, दरवाज़ा खोला तो जड़ हो गई. सामने खड़े प्रौढ़ को पहचानने में पल भर भी नहीं लगा था उसे. उसकी सांसों में बसने वाले, उसके मन-मस्तिष्क पर वर्षों से छाए, उसके हृदय में अपनी

अक्षुण्ण याद बनाए हुए यह उदित ही तो थे. वही चेहरा, लेकिन अधिक भरा हुआ, वही सम्मोहित करती आंखें, चेहरे पर वही चमक और ताज़गी, शरीर कुछ भारी हो गया था और बालों में काफ़ी सफ़ेदी आ गई थी.

"नलिनी... तुम यहां..." उदित भी हतप्रभ थे. नलिनी का मन हुआ दौड़कर उनके सीने से जा लगे और अतीत की सारी दास्तान कह डाले. उसकी आंखें डबडबा गईं. स्वयं को संयत रख अस्फुट स्वर में इतना ही कह पाई, "आप यहां..?"

दोनों को ही सहज होने में देर लगी थी.

फिर उदित ने बताया कि उसके बेटे की शादी है और वह कार्ड देने आया है. उसके चेहरे पर अचानक अतिरिक्त उत्साह छलक आया था. वह अपने परिवार, पत्नी, बेटे-बेटी के बारे में काफ़ी प्रफुल्लता से बताता रहा. नलिनी आश्चर्यचकित हो सुनती रही, जब नहीं रहा गया तो हौले से पूछ लिया, "क्या तुम्हें बीते दिनों की याद नहीं आती? कोई परेशानी नहीं होती?" एक ज़ोरदार ठहाका मारते हुए उदित बोला, "नलिनी, बंदर की तरह मरे हुए बच्चे को छाती से चिपकाए रखने से क्या लाभ? जो बीत गया सो बीत गया, हमारे मां-पिता ने अपने निर्णय के अनुसार हमें जीने का रास्ता दिखाया. उस वक़्त यही रीति-रिवाज़ थे, उनके निर्णय ग़लत भी नहीं रहे. मैं अपनी ज़िंदगी से, बीवी-बच्चों से पूरी तरह संतुष्ट हूं. मुझे लगता है, तुम भी ख़ुश होगी अपने परिवार के साथ. उन दिनों की स्मृतियों को मैंने दफ़न कर दिया है, ताकि हमारे ख़ुशहाल जीवन में कोई दरार न पड़े. वैसे तुम यहां कब तक हो? आज मैं जरा जल्दी में हूं. एक-दो रोज़ में फिर आऊंगा. आराम से बातें करेंगे." कार्ड नलिनी को थमा वह बाहर निकल गया,

नलिनी का तो मन-मस्तिष्क सुन्न हो गया. इतनी सहजता से ज़िंदगी जी रहा है उदित. और वह वर्षों से उसकी याद को सीने से लगाए सुलग रही है. अतीत को सीने से चिपकाए अपने वर्तमान, भविष्य दोनों को कसैला बना लिया. दिल की गहराइयों से चाहनेवाले पति को अनदेखा कर, उसके प्रति नकारात्मक रुख अपनाकर उसे अपमानित करती रही, उसका दिल दुखाती रही. आख़िर क्या कसूर था उसका? नलिनी के जिस प्यार, स्नेह का वह अधिकारी था, उससे उसे वंचित कर वह उदित की परछाई को सौंपती रही. हासिल क्या हुआ? अपने जीवन के स्वर्णिम काल को कड़वाहट और नीरसता से गुज़ार दिया, पश्चाताप से उसकी आंखों की कोरों से बूंदे छलछला आईं. अचानक अविनाश के प्रति मन श्रद्धा और प्यार से भर उठा. मन ही मन कुछ निश्चय किया, फिर सामान पैक करने लगी. भइया-भाभी घर लौटे तो वह बोली, "भाभी, मैं वापस अपने घर जा रही हूं, अविनाश बहुत अकेलापन महसूस कर रहे होंगे."

- नरेन्द्र कौर छाबड़ा

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