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कहानी- उलझी हुई स्वीकृति (Short Story- Uljhi Huyi Swikriti)

मुझे जानने की कोई दिलचस्पी नहीं थी. लग रहा था, उन्हें झिड़ककर कहूं कि मुझे कोई मतलब नहीं है उनसे. पर इतने महान व्यक्ति से इतनी आसानी से यह कह देना मेरे लिए संभव नहीं था. मैं मजबूर सी खड़ी रह गई. "मैं विवाहित हूं." उसने कहा तो जानने की कोई इच्छा न होने के बाद भी मैं चौंक पड़ी.

सुबह के साढ़े छह-सात बजे होंगे. कोहरे का रात बूंदाबांदी भी हुई थी, जिससे ठंड भी बढ़ गई थी. सवेरे साहेबाने में ही खिड़की पर खड़ी में अपलक माथेरान की उस लंबी सड़क को नापने का प्रयास कर रही थी, जिस पर विपुल ने अपने कदमों के अंतिम निशान छोड़े थे.

विपुल चार साल पहले आख़िरी बार इसी रास्ते से होकर मेरी आंखों से ओझल हो गया था. विपुल के जिन चरणों के स्पर्श से मेरी भोर शुरू हुआ करती थी, विश्वास है कि आज भी उन चरणों के निशान सड़क पर मिल जाएंगे. मैं अपनी आंखों को अस्पष्ट सड़क पर गाड़ देती हूं. कोहरे के कारण कोई भी निशान नज़र नहीं आता.

इन चार सालों में जाने कितने कदम पड़े होगे इस सड़क पर हज़ारों गाड़ियों के चक्के और बारिश की बौछारों ने जाने कहां तितर-बितर कर दिए होंगे वे निशान. यदि पता होता कि अब विपुल नहीं लौटेगा तो सहेज न लेती उसके कदम. आंसू भावुक्ता में बहने लगी थी.

अचानक मैंने देखा, धुंध छंट गई है. सड़क अब बिल्कुल स्पष्ट नज़र आ रही है. पेड़-पौधे, क्यारियों और सड़क के किनारे की लाल मि‌ट्टी आंखों के सामने साफ़ प्रगट हो गई है. सूरज की किरणों ने पौधों पर पड़ी ओस की बूंदों को हीरों सा चमका दिया. मैं चकित सी इस प्राकृतिक छंटा को निहार रही थी.

"आवृति..." मौसी की उआवाज़ पर चौंक पड़ी मैं. "बेटा, उठी नहीं क्या अब तक..." मुझे लगा मौसी यही बढ़ रही है.

"आ रही हूं मौसी..." मैंने तेजी से कहा तो मौसी के कदम लौट गए, फिर से मैंने एक नज़र उस लंबी सड़क पर डाली और तेजी से नीचे उतर गई.

"अब उठो बेटी, दस बजे तक पूरा हॉल सजा लेना है. उसके लिए नौ बजे तो निकलना ही होगा ना. देख लेना आकृति, तुम्हारी यह प्रदर्शनी शत-प्रतिशत सफल होगी." चाय बनाती हुई मौसी के चेहरे पर पूर्ण विश्वास का तेज चमक रहा था.

"थैंक्स मौसी..." उनकी बातों से उत्साहित होती हुई मैं बोली तो मौसी का झुर्रियों से भरा चेहरा ममतामयी हो उठा.

चाय पीकर मैं नहाने के लिए उठ गई. तैयार होने में मुझे पन्द्रह मिनट से ज़्यादा समय नहीं लगेगा. मौसी का नौकर जॉनी मेरी पेटिंग्स को कार में रख रहा था.

नाश्ते के लिए पुनः टेबल पर आई तो मौसी ने कहा, "आकृति, शाम तुम्हारे आने की ख़ुशी में एक पार्टी रखी है. तुम्हारे लिए एक साड़ी भी ख़रीदी है, ब्लाउज़ शाम तक सिलकर आ जाएगा. तुम्हें वही पहनना है."

"कैसा रंग है साड़ी का?" मैंने पूछा तो क्षण भर के लिए चुप रह गई मौसी.

"तुम्हें इन सफ़ेद कपड़ों में देखती हूं तो हृदय छलनी हो जाता है. बेटी, अभी तुम्हारी उम्र क्या है. आज मैं तुम्हारी कुछ न सुनूंगी, जो साड़ी लाई हूं, वहीं पहनना होगा तुम्हें." कहते-कहते आवाज़ भीग आई मौसी की.

"अरे मौसी! यह क्या? तुम जो चाहती हो, वही होगा." कहीं मौसी की आंखें छलक न जाएं, इस भ्रम से मैंने तुरंत हामी भर दी.

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"और हां, सात बजे तक किसी भी हालत में लौट आना. सात बजे से मेहमान आने शुरू हो जाएंगे. रात उनके लौटते-लौटते शायद दस बज जाएं. फिर भी तेरा जल्दी आना ज़रूरी है. अच्छा हुआ, खाने-पीने का इंतज़ाम बाहर से करवा लिया, वरना अकेले क्या-क्या कर पाती मैं. और फिर अब इस उम्र में काम करने की इच्छा भी नहीं होती."

मौसी कहती जा रही थीं और मैं मौसी की हर बात पर सिर हिलाते हुए ख़ामोशी से हामी भरती जा रही थी.

मौसी की बात ख़त्म होते ही मैं तेजी से कार की ओर बढ़ गई. मौसी की प्रसन्नता मेरे अंदर एक गुदगुदाहट भर रही थी. उनका ख़ुश होना स्वाभाविक भी था. मैं चार साल बाद माथेरान आई थी. पहले तो हर साल गर्मियों में चंद रोज़ वहां गुज़ार लिया करती थी, पर विपुल के जाने के बाद कभी न जा सकी, मौसी यहां से बहुत कम बाहर जाती हैं, शायद मौसाजी की यादों से अलग होना उन्हें अच्छा नहीं लगता हो.

घर की हर चीज़ पर मौसाजी अपनी छाप छोड़ गए थे. पुराने कलात्मक सामानों का ढेर लगा है मौसी के घर, जिन पर उन्हें मौसाजी की छाप नज़र आती है, इसलिए रोज़ उन्हें झाड़-पोंछकर फिर से वही रख देती हैं, जहां कभी मौसाजी रख गए थे.

संवेदनशील मौसी ही मेरी सब कुछ है. माता-पिता तो बचपन में ही गुज़र गए थे. फिर सौसी ने ही पाला था. मौसी के साथ में रह नहीं पाई थी. पर मुंबई के महंगे स्कूल और कॉलेज का ख़र्चा मौसी ने ही तो उठाया था. मेरे लिए विपुल की तलाश भी उन्होंने ख़ुद की थी और अब जब विपुल नहीं रहा, मेरे लिए रोती भी सिर्फ़ मीसी ही हैं.

मौसाजी का ओलंपिया मैदान के पास एक हॉल है, जिसे शादी-ब्याह या प्रदर्शनी लगाने के उद्‌देश्य से लोग किराए पर लेते हैं. मौसी की

जीविका का साधन भी बस यही हॉल है.

विपुल के बाद मैंने अपने आपको ब्रश, कैनवास और रंगों में डुबो दिया था. मुंबई में भी कई प्रदर्शनियां लगाई थी.

इस साल गर्मी के पहले मौसी की चि‌ट्ठी आई थी कि प्रदर्शनी माथेरान में मौसी के उस हॉल में लगाए, प्रदर्शनी सफल होगी, क्योंकि ओलंपिया मैदान वाली जगह गर्मियों में पर्यटकों के लिए विशेष आर्कषण रखती है और मुंबई की चिपचिपाहट वाली गर्मी से बचने के लिए लोग वहां से १०५ किलोमीटर दूर माथेरान आने में सबसे अधिक सहूलियत महसूस करते हैं.

मैं मौसी का कहना टाल न सकी. वैसे तो पिछले चार सालों में कई बार मौसी ने आने को कहा था, पर विपुल के बगैर यहां आने की इच्छा ही नहीं होती थी. इस बार तो एक मक़सद था. पेंटिंग्स की प्रदर्शनी का आयोजन करना अपने आप में एक बड़ी रोमांचक बात लगती है मुझे. अपने हाथों से, अपने पसंद के रंगों से अपनी इच्छानुसार बनाए गए अपने चित्रों को हज़ार, पन्द्रह सौ से तीन हज़ार तक में बेचते हुए ख़ुशी भी होती है और अपनी कला को फिर से न देख पाने का दर्द भी होता है.

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अपने चित्रों को घंटों निहारते रहना मेरा शौक है. ऐसा करते हुए मैं अपनी सारी थकान भूल जाती हूं. विपुल के बाद शायद अपनी कला से अधिक किसी और चीज़ से प्यार नहीं कर पाई थी मैं, अपनी हर कला से बंध सी जाती हूं.

हॉल आ गया था. सामने था विशाल ओलंपिया मैदान. इन दिनों यहां घुड़सवारी के शौकीन लोगों की भीड़ लगी रहती है. आधे घंटे में पूरा हॉल सज गया. जॉनी बड़ा ही फुर्तीला किस्म का युवक है उसके रहते मैं अपेक्षाकृत कम थकान महसूस कर रही थी.

शाम तक प्रदर्शनी में आने-जाने वालों का तांता लगा रहा, ज़्यादातर चित्र बिक गए थे. भीड़ कम होते ही मैं सम्मोहित सी अपनी इस कलाकृति को निहारने पहुंच गई, जो एक कोने में सबसे आख़िरी में लगी थी और जिस पर लिखा था, बिकाऊ नहीं. विपुल की मृत्यु के क़रीब पाच-छह माह पूर्व एक बार घर में बैठकर बोर होते हुए मुझे पेंटिंग का ख़्याल आया था और तभी मैंने यह पोट्रेट बनाया था.

सजने-संवरने में चेहरे को उत्तेजक बनाने की उतनी ही ज़रूरत होती है, जितनी आटे में नमक की.

"वाऊ! वेरी ब्यूटीफुल, आकृति!" विपुल तो देखते ही उछल पड़ा था.

"क्या तुमने बनाया है इसे? यदि हां, तो आकृति, मैं दावे के साथ कह सकता है कि तुम उच्च कोटि की चित्रकार बन सकती हो. उफ़! क्या कतर कॉम्बिनेशन है! इतना अच्छा आइडिया आख़िर तुम्हारे दिमाग़ में आया कैसे? कितनी ख़ूबसूरत लड़की को बनाया है तुमने. नख से शिख तक सौंदर्य की प्रतिमा और उसका गदराया सा बदन तो यू़ लग रहा है मानो..."

"विपुल!" मैंने उसका मुंह दबा दिया.

"और एक भी शब्द बोले तो देख लेना..." मुझे अपनी ही बनाई उस लड़की की तस्वीर से जलन होने लगी थी.

मेरी भावना को शायद समझ गया था विपुल, इसलिए कई बार मुझे और जलाने के लिए विपुल इस पेंटिंग को ताकता रहता, अंग-प्रत्यंग की तारीफ़ करता, धीर से उस चित्र वाली युवती के होंठों को छू लेता और मेरी तिलमिलाहट पर बेबाक़ हंसता.

सूखने के बाद मैंने इस पोर्ट्रेट को उठाकर ऐसी जगह रख दिया था कि विपुल को नज़र ही नहीं आए. मुझे यह देखकर अच्छा लगा था कि विपुल ने फिर कभी उस चित्र का ज़िक्र नहीं किया था. और दो माह बाद हम माथेरान आए थे. मौसी की बीमारी के कारण मैं वहीं रुक गई थी और विपुल लौट गया था. फिर विपुल मेरी ज़िंदगी में कभी नहीं लौटा. मुझे एक अंतहीन इंतज़ार का दर्द देकर वो चला गया.

तब से यही पेटिंग मेरी सखी बन गई थी. मैं विपुल का स्पर्श उस चित्र में तलाशती रहती. अंग-प्रत्यंग में विपुल की नज़रों का साया ढूंढ़ती रहती. बार-बार उसी चित्र को ताकते-ताकते जैसे मैं भी एक तस्वीर बन गई थी. विपुल के बगैर वक़्त काटे नहीं कटता था. आर्थिक समस्या मुंह बाए खड़ी थी और तब... विपुल के प्रेरित करने काले शब्दों को मन ही मन दोहराते हुए मैंने अपने आपको इस कला में डुबो दिया,

"बिकाऊ नहीं!" चित्र पर लिखे शब्दों को किसी के द्वारा पढ़े जाने का आभास होते ही मैंने मुड़कर देखा एक सांवला, सामान्य कद-काठी वाला पुरुष खड़ा अपलक उसी चित्र को निहार रहा था.

"क्या यह चित्र बिकाऊ नहीं?" अपने चश्मे को थोड़ा सा ऊपर खिसकते हुए उसने पूछा.

"क्यों?" मेरे चेहरे की तरफ़ थोड़ा-सा झुक गया.

"बस ऐसे ही."

"फिर भी कोई तो कारण होगा." थोड़ा सा अधिकार जताने का अंदाज़ था उसके पूछने में. मुझे बुरा तो लग रहा था, पर उस जिज्ञासु को जवाब देने की इच्छा हो आई.

"दरअसल, इसके साथ मेरा एक भावनात्मक रिश्ता है."

"क्या!" इस बार वो खिलखिलाकर हंसा.

"आश्चर्य हुआ सुनकर कि किसी कलाकार का उसकी सिर्फ़ एक कला से भावनात्मक रिश्ता होता है, अन्य से नहीं." अब वो आगे बढ़कर दूसरे चित्रों में खो गया.

उसकी हंसी में मुझे व्यंग्य नज़र आया. विपुल के पंसदीदा चित्र पर कोई हंसे, यह बात मेरे बर्दाश्त के बाहर हो रही थी. मैं तेजी से उसके पीछे गई.

"ऐसी बात नहीं है. दरअसल, यही मेरी पहली कलाकृति है और इसी से मुझे इतनी प्रेरणा मिली कि मैं आज इस क्षेत्र में आगे बढ़ पाई हूं. बस... यही कारण है कि यह मुझे अधिक प्रिय है और मैं इसे बेचना नहीं चाहती."

"एक मशविरा दूं." मेरी ओर नज़र किए बगैर वो बोला, "अपने इस प्रेरणादायक चित्र को अपने पूजा घर में स्थापित कर लीजिए और सुबह-शाम इसकी आरती उतारकर इससे प्रेरणा लीजिए, पर यदि आप चाहती है कि आपके अन्य चित्रों के साथ कोई अन्याय न हो तो इसे ऐसी प्रदर्शनियों में मत लगाया कीजिए."

"जी?" मैं चकित सी ताकती रह गई उसे.

"जी" नाटकीय अंदाज़ में मेरी आंखों में आंखें डालता हुआ वो बोला, "इसमें ढेरों ग़लतियां है और इसे प्रदर्शनी में लगाने से आपकी अन्य पेंटिंग्स को भी लोग शंकित नज़रों से देखने लगेंगे.

"मैं जानती हूं इसमें ग़लतियां हैं." पर मै विवशता में उसे वक़्त कह गई.

वो अपलक मुझे देखता रहा. धीरे से मुस्कुराया और बोला, "मैं सिर्फ़ मशविरा दे रहा था. आपको मजबूर करने का मुझे कोई अधिकार नहीं." वो तेजी से बाहर निकल गया.

"सुनिए अपना परिचय नहीं देगे?"

"मैं कार्टूनिस्ट विशाल." कहकर वो तेजी से बाहर निकल गया

विशाल! मशहूर कार्टूनिस्ट विशाल." क्या ये वहीं है, जिनके कार्टून प्रतिष्ठित अख़बारों व पत्रिकाओं में छपते हैं? जिनकी मैं फैन हूं? वो मेरी प्रदर्शनी तक आए और मैं उन्हें पहचान भी न सकी... मैंने प्रयास किया कि दौड़कर आगे बढ़कर उन्हें रोक लूं, पर यह संभव नहीं हो पाया. वो तेजी से निकल गए थे.

इतने महान व्यक्तित्व के कदम मेरो प्रदर्शनी तक आए, इस बात से मैं गौरवान्वित महसूस करने लगी थी.

मैं फिर उसी बिकाऊ नहीं वाली तस्वीर के पास आ गई. गौर से उस तस्वीर को निहारा. हाथ में रंग कुछ अधिक गहरा हो गया था. चेहरे पर बनी रेखाएं कुछ अधिक और असामान्य सी लग रही थी. वो आंखें निस्तेज थीं और होंठ मुस्कुरा रहे थे. कितना सही कह रहे थे विशाल, ढेरों ग़लतियां हैं इस चित्र में. यदि होंठ मुस्कुराएं तो आंखें भी चमक उठती हैं. आंखों की तेजसीनता ही इस चित्र की सबसे बड़ी ग़लती कही जा सकती है. अब तक मैंने इसमें सिर्फ़ विपुल की परछाई ही तलाशी थीं, इसलिए शायद ग़लती पर नजंर नहीं जा सकी.

अपने सोच पर स्वयं अचंभित हो उठी थी मैं. विशाल की बात का बुरा न मानने का आश्चर्य भी हो रहा था मुझे. यह बात शत-प्रतिशत सही है कि हर कलावार को आलोचक की बड़ी आवश्यकता होती है. वही मीन-मेख निकालकर कलाकार को इस योग्य बनाता है कि वह पूर्ण कला को प्रस्तुत करने में कामयाब हो सके. इस बात को अच्छी तरह जानने के बाद भी मैं कई बार आलोचकों से भिड़ जाया करती थी. अपनी कला से टूट कर प्यार करने के कारण ही शायद उसकी कमी थोड़ी सी भी बुराई बर्दाश्त नहीं कर पाती थी.

पर आज विशाल के व्यंग्य ने मुझे कहीं भी आहत नहीं किया था. जाने क्यों उसके चले जाते ही मैं विचलित हो उठी. फिर कभी उन्हें देख पाने का मौक़ा मिलेगा भी या नहीं. श्रद्धा से हाथ भी तो नहीं जोड़ पाई थी मैं.

ख़ैर, मैं निकलने की तैयारी करने लगी. मौसी द्वारा बताए गए समय पर पर पहुंच ही जाना चाहा था. वरना मौसी की स्थिति हास्यास्पद हो जाएगी कि जिसके आने की ख़ुशी में पार्टी दी, वही नदारद. जॉनी और मैं लौट गए. कार से गेट के अंदर प्रवेश करते ही मैंने देखा, मौसी सीढ़ियों पर खड़ी थी. मुझे पिछवाड़े से अंदर ले गई और ऊपर जाकर जल्दी से तैयार होकर आने का आदेश दे दिया.

पलंग पर पड़ी गुलाबी साड़ी पर ध्यान जाते ही हृदय कसमसा उठा. इस रंग की साड़ी क्यों ख़रीदी मौसी ने? ब्लाउज़ उठाकर देखा, बिल्कुल मेरे ही साइज़ का. ज़रूर मौसी जान-बूझकर यही रंग ले आई होंगी. यदि कोई और रंग होता तो मुझे ज़्यादा आपत्ति नहीं होती पर गुलाबी.

विपुल के बाद मैंने रंगीन साड़ी पहनना छोड़ ही दिया था और गुलाबी रंग तो मैं बिल्कुल नहीं पहनना चाहती थी, क्योंकि विपुल को यहीं रंग सबसे अधिक पसंद था.

पर अब कोई चारा नहीं था. जल्दी तैयार होकर नीचे भी पहुंचना है. ज़्यादा सोचने का वक़्त भी नहीं था, इसलिए मैं जल्दी से नहा आई. बालों को खुला छोड़ दिया, चेहरे पर हल्का सा मेकअप करके मैंने वहीं साड़ी पहन ली. साड़ी पहनते ही दिल बुरी तरह से धड़कने लगा, कहीं विपुल के साथ यह अन्याय तो नहीं? मैंने मन ही मन सोचा

आईन में ख़ुद को निहारा तो अपने सौंदर्य पर स्वयं ही अचंभित हो उठी. चार साल सफ़ेद कपड़ों में लिपटे रहने के बाद मुझे लगा, आज इस साड़ी में नया जन्म हुआ है मेरा. क्षण भर के लिए विपुल ख़्याल निकल गया, आख़िर इंसान ही तो है हम. ख़ूबसूरत दिखना किसे अच्छा नहीं लगता? विपुल के बगैर जिस बेरंग कालेपन को मैं भोग रही थी, उस पर जैसे राहत कंट्रोल कर दी थी किसी ने. जाने क्यों मौसी द्वारा किया गया यह बदलाव मुझे अच्छा लगा.

मैं नीचे उतर गई. क़रीब २०-२५ लोगों की भीड़ थी. मैं हॉल के एक कोने में चली गई. अपनी ही मौसी के घर जैसे में पराई हो गई थी. इतने लोगों के बीच किसी को भी तो नहीं पहचानती थी मैं. कुछ लोग मेरी ओर देखकर खुसुर-पुसुर करते हुए बातें कर रहे थे. शायद उन्हें शक था कि मैं ही मौसी की भतिजी हूं.

"आकृति!" मौसी को आवाज़ पर मैं चौंक कर मुड़ गई.

"बहुत प्यारी लग रही हो. कहीं नज़र न लग जाए तुझे."

मौसी की आंखों से छलकते वात्सल्य से मैं गदगद हो उठी. मेहमानों से मुझे मिलाते-मिलाते उनकी आंखें भर आई थीं. मौसी का स्नेह मुझे बार-बार विभोर करता रहा था.

"बेटी एक बात करनी थी तुझसे." सभी से मुझे मिला चुकने के बाद मौसी बोलीं.

"बेटा, मैंने तुम्हारे लिए एक लड़‌का पसंद किया है." मैं सन्न रह गई.

"इंकार न करना बेटा."

"नहीं मौसी, यह संभव नहीं." मैंने नाराज़गी से कहा, और प्रयास किया कि यहां से भाग जाऊं, पर दो कदम आगे बढ़ने के बाद मुझे रुक जाना पड़ा था. सामने विशाल खड़े थे.

"बेटी यही तो है वो." मौसी ने धीरे से मेरे कंधों को थाम लिया. यदि नहीं थामतीं तो शायद मैं चकराकर नीचे गिर भी जाती. ऐसे कैसे प्रगट हो रहे थे विशाल मेरे सामने? कुछ समय पहले ही तो मेरे आलोचक बने खड़े थे और अब...

"कहां खो गई हैं आप? लगता है मुझे बार-बार अपने सामने पाकर परेशान हो रही हैं."

"नहीं, ऐसी कोई बात नहीं." मैंने कहा तो मुस्कुरा दिए विशाल.

मैं डर सी गई, क्योंकि मेरी अचकचाहट से मौसी को यह अंदेशा हुआ कि मैं शरमा रही हूं.

एक अजीब सी उलझन में जकड़ी हुई थी मैं. कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था. ना माथेरान आती, ना ही इस मुसीबत में पड़ती. कैसे समझाऊं मौसी को, विपुल को भूल जाना मेरे लिए संभव नहीं. मैं विशाल के साथ कभी न्याय नहीं कर पाऊंगी.

"तुम दोनों चलो मेरे साथ." एक हाथ से मेरी और दूसरे से विशाल की कलाई थामे मौसी सीढ़िया चढ़ने लगीं. मुझे अपनी स्थिति बड़ी हास्यास्पद लगी.

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कोई छोटे बच्चे है हम, जो मौसी इस तरह हाथ पकड़े लिए जा रही हैं. मैंने धीरे से अपना हाथ छुड़ाने का प्रयास किया, पर मेरे ऐसा करते ही मौसी की पकड़ और तेज़ हो गई. विशाल की ओर असहाय नज़रों से देखा तो उसे मेरी तरफ़

देखते हुए मुस्कुराते पाया. हम दोनों को छत पर लाकर छोड़ दिया मौसी ने. बोलीं, "तुम दोनों के निर्णय जानने के बाद ही में सगाई की घोषणा करूंगी. तुम दोनों बातें करो. मैं थोड़ी ही देर में आती हूं." और वो तेजी से नीचे उतर गईं.

कितनी ज़ल्दबाज़ी करती है मौसी. यह भी कोई दो पल में लिया जाने वाला निर्णय है? मुझे मौसी पर क्रोध आने लगा था.

"आकृति..." विशाल ने पुकारा तो हृदय तेजी से धड़कने लगा.

"मेरे बारे में सिर्फ़ इतना जानती हो ना तुम कि मैं एक कार्टूनिस्ट हूं ,पर एक और अहम् बात भी बतानी थी." कहते हुए उसने सिगरेट निकालकर सुलगा ली और एक गहरी कश खींचने लगा, मानो अपनी बात के लिए एक भूमिका तलाश रहा हो.

मुझे जानने की कोई दिलचस्पी नहीं थी. लग रहा था, उन्हें झिड़ककर कहूं कि मुझे कोई मतलब नहीं है उनसे. पर इतने महान व्यक्ति से इतनी आसानी से यह कह देना मेरे लिए संभव नहीं था. मैं मजबूर सी खड़ी रह गई.

"मैं विवाहित हूं." उसने कहा तो जानने की कोई इच्छा न होने के बाद भी मैं चौंक पड़ी.

"मेरी एक बेटी भी है, तीन वर्ष की. मेरा तलाक़ हुआ है. तलाक़ का कारण सिर्फ़ यह था कि पत्नी को मेरी कला पसंद नहीं थी. वो मेरी कला को तुच्छ मानती थी और चाहती थी कि मैं इसे छोड़ दूं."

इस बार फिर मुझे आश्चर्य हुआ जिसकी कला ने मुझे बार-बार आकर्षित किया था, जिनकी मैं फैन थी, उनकी कला से कोई नफ़रत भी कर सकता है, यह मेरे लिए एक महान आश्चर्य की बात थी.

"आपको बेटी कहां है?" पहली बार मैंने कुछ जानना चाहा.

"पायल पहले उसी के पास थी, पर जब उसने शादी कर ली तो मैं बेटी को अपने पास ले आया. तुम्हारी मौसी और मेरी मां की जान-पहचान है. और जब तुम्हारी मौसी ने तुम्हारे लिए मुझसे बात की तो मुझे सबसे अच्छी बात यही लगी कि तुम भी मेरी तरह एक कलाकार हो और अकेली भी. हम दोनों को एक साथी की ज़रूरत है. हम दोनों आपस में अपने दुख बांट सकते हैं.

जानती हो आकृति... अभी जब मैं तुम्हारी प्रदर्शनी में गया था, तब प्रदर्शनी देखना मेरा उद्‌देश्य नहीं था, क्योंकि मु़बई में मैं तुम्हारी कई प्रदर्शनियां देख चुका था. पर उस वक़्त तुम्हारी ओर ध्यान नहीं दिया था. अब मैं तुमसे बात करके तुम्हें परखना चाहता था और पाया कि तुम सरल हो, बिल्कुल अपनी कला की तरह शांत और स्नेहिल."

मैं चुपचाप विशाल को देखे जा रही थी.

कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था.

"तुम्हें यह प्रस्ताव स्वीकार है ना?" पूछते-पूछते विशाल ने मेरा हाथ थाम लिया और मैंने घबराकर बिना सोचे-समझे "हां" में सिर हिलाते हुए अपना हाथ छुड़ा लिया. सब कुछ इतने अप्रत्याशित ढंग

से हुआ था कि मेरे चाहने व न चाहने का, अनिच्छा का कुछ नहीं रहा. बिल्कुल अबोध बालिका सी ही गई थी, जिसकी भावुकता ने उसे गूंगा बना दिया था. पर एक विश्वास तो था कि विशाल के पास मैं सुरक्षित रहूंगी."

"धन्यवाद आकृति तुम मेरे पायल को वह सब कुछ दे सकोगी, जो उसकी सगी मां उसे नहीं दे पाई." विशाल की आंखें भर आई थीं.

मेरी स्वीकृति ने मौसी को ख़ुशी से पागल कर दिया था. सगाई को रस्म भी पूरी हो गई थी. रात बिस्तर पर पड़ी मैं सुबह से शाम तक की सारी घटनाओं को क्रमवार याद कर रही थी. अचानक फिर लगा कि विशाल के साथ शादी का निर्णय लेकर कहीं मैंने विपुल के साथ छल तो नहीं किया. लगा, चीत्कार कर कहूं कि विपुल, ऐसा मैंने जान-बूझकर नहीं किया... पर नहीं कर पाई ऐसा, क्योंकि एक बहुत बड़ा सच तो यह भी है कि मैं विशाल की इस बात से सहमत थी कि मुझे दर्द बांटने को एक साधी की ज़रूरत थी.

निर्णय सही है या ग़लत, कुछ भी समझ नहीं पा रही थी, इसलिए धीरे से उठकर खिड़की तक आ गई. लंबी सड़क पर स्ट्रीट लाइट का प्रकाश फैला हुआ था. मैं फिर से सड़क पर अपनी निगाह गाड़ देती हूं, ताकि विपुल के चरणों के निशान देख कर उस पर नतमस्तक हो जाऊं और कह दूं, "मुझे माफ कर दो विपुल."

- निर्मला सुरेन्द्रन

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