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कहानी- यशोदा का सच (Short Story- Yashoda Ka Sach)

“संस्कार ख़ून से नहीं, परवरिश से ज़िंदा होते हैं. यशोदा क्या जानती थी कि कृष्ण का ख़ून क्या है, लेकिन जब मां का नाम आता है तो यशोदा को पहले फिर देवकी को मां कहते हैं सब. मां की महत्ता और ममता ही यशोदा का पर्यायवाची बन गई है. फिर तुम तो पढ़ी-लिखी हो. सच्चाई को स्वीकारना सीखो. तुम्हारा एक कदम तुम्हारे परिवार को जीवनदान दे देगा.”

घड़ी के अलार्म से मानी की आंख खुल गई, घड़ी देखी सात बजे थे. करवट बदलकर उठने को हुई तो पास में सोई सात वर्षीय स्वीटी गले में बांहें डालकर और भी कसकर लिपट गई.
“मम्मीजी प्लीज़ अभी मत उठिये… अभी बहुत नींद आ रही है मुझे… आज सन्डे भी है और पापा भी तो टूर पर हैं.”
कुनमुनाती-सी नन्हीं स्वीटी को छोड़कर उठने का मन नहीं हुआ मानी का. स्वीटी के बाल सहलाती वह फिर से सो गयी.
“उठिए मम्मीजी. आपकी चाय तैयार है, नाश्ता भी तैयार है. उठिए ना मम्मीजी.”
उनींदी-सी मानी उठ बैठी. सामने चाय की ट्रे लिए स्वीटी बैठी थी.
“मम्मी शक्कर कितनी?”
मानी आश्‍चर्य से बेटी को निहार रही थी. दूध का ग्लास पकड़कर उठनेवाली, हज़ारों ख़ुशामदों के बाद आंखें खोलनेवाली स्वीटी आज इतनी सलीकेदार बेटी बनकर पेश आ रही है!
अपनी मोहक मुस्कान के संग स्वीटी बोली, “आज ‘मदर्स डे’ है ना मम्मी. मेरी सारी सहेलियां अपनी मम्मी को बेड टी देनेवाली हैं आज.”
“ओह! तो ये बात है. ‘मदर्स डे’ का तोहफ़ा है ये बेड टी और नाश्ता.” मानी ने देखा प्लेट में बटर लगी ब्रेड और बिस्किट करीने से सजे थे.
ज़ोर से खींचकर बेटी को गले से चिपका लिया मानी ने. भीतर कुछ भरा-भरा-सा महसूस होने लगा था. अचानक कितनी ऊंची जगह बिठाकर महत्वपूर्ण बना दिया स्वीटी ने. भले ही एक दिन के लिए सही, लेकिन नन्हीं-नन्हीं लहरों ने उसके सीने में उछलकर समंदर का एहसास करा दिया है. ममता का आवेग रोके न रुका तो आंखें छलक उठीं.
“लो मैंने चाय बनाई तो मम्मीजी रोने लगीं. अब नाश्ता करेंगी तो और रोएंगी… ओ गॉड, ज़रा शैला से पूछूं क्या उसकी मम्मी भी रो रही हैं?”
कहती-कहती फुदककर ड्रॉइंगरूम में रखे फोन तक पहुंचकर वो नम्बर डायल करने लगी.
आज स्वीटी को सीने से लगाकर जिस गर्माहट और ममता के एहसास से मानी भीगी, उस भीगेपन में सपना की याद हो आई उसे… सपना क्या याद आई, गुज़रे व़क़्त की गंध बहुत पीछे ले गई उसे. कॉलेज की जूनियर थी सपना- बी.एससी. सेकेण्ड ईयर की स्टूडेंट. हर वक़्त मानी दी… मानी दी कहती उसके आगे-पीछे घूमा करती. कभी नोट्स बनवाने कभी लायब्रेरी से बुक इशू करने, कभी साइंस के फीगर ड्रॉ करने तो कभी प्रैक्टिकल समझने यानी उसके हर काम में मानी दी ज़रूरी होती. जूनियर कम छोटी बहन का अधिकार ज़्यादा था उसमें. इतनी प्यारी और प्यार करनेवाली सपना मानी के दिल और दुनिया का वो हिस्सा बन गई कि उसके बिना सब कुछ अधूरा-सा लगने लगा मानी को.
लेकिन ज़िंदगी इंसान के मन मुताबिक नहीं चलती ना कभी. फ़ाइनल करते ही मानी के लिए सागर का रिश्ता आया. मेडिकल रिप्रेज़ेंटेटिव सागर बेहद स्मार्ट, एक्टिव और आकर्षक व्यक्तित्ववाला संस्कारी व संयुक्त परिवार का मंझला बेटा था. मानी को देखते ही पूरा परिवार उस पर ऐसा रीझा कि आनन-फानन महीने भर में ही वो दुलहन बनकर अपनी ससुराल आ गई. सागर क्या मिला, मानी का जीवन ही बदल गया. फिर स्वीटी ने आकर उसका परिवार पूरा कर दिया. वर्तमान से ख़ुश और जीवन से संतुष्ट मानी को सपना की कमी फिर भी महसूस होती.

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सपना थी ही ऐसी, घर में उसे थोड़ी भी डांट पड़ती या उसकी ज़िद पूरी ना होती, तो कॉलेज आकर वहां का चप्पा-चप्पा घूमकर वो मानी को ढूंढ़ निकालती, चुपचाप उसका हाथ पकड़कर कैन्टिन ले जाती. और ख़ामोश होकर बैठी रहती. मानी समझ जाती, आज कुछ गड़बड़ है. फिर धीरे-धीरे पूछना शुरू करती. फिर सपना के मन की गांठें खुलने लगतीं. सच बात सामने आ जाती. मानी उसे समझाती, सही रास्ता बताती. थोड़ी देर बाद रोती-बिसूरती उदास सपना मुस्कुराती-उछलती अपनी क्लास में चल देती. मानी अपने घर-संसार में ख़ुश थी. चार साल की स्वीटी की शरारतों व बातों से तो मानी और सागर का बचपन ही लौट आता.
तीन साल पहले न्यू मार्केट में क्रॉकरी शॉप पर क्रॉकरी ख़रीदती सपना अचानक दिखाई दी. न्यू मार्केट में भोपाल की असली रौनक बसी है वैसे भी. मानी स्वीटी के लिए ड्रेसेस ख़रीद रही थी, क्रॉकरी शॉप के सामने ही, दोनों की नज़रें टकराईं तो लगभग दौड़ती मानी सपना तक पहुंची और सपना…वो तो मानी से क्या लिपटी, हिचकियों में ही डूब गई.
“मानी दी आप यहां?”
“शादी के बाद से यहीं तो हूं मैं. अरे शादी करके तो बड़ी प्यारी दिखने लगी है तू. यहां कहां रहती है? क्या करते हैं तेरे मियां? और कब हुई तेरी शादी? न कार्ड न ख़बर, भूल गई ना मानी दी को?”
“अरे बाप रे मानी दी. सांस तो ले लो. सब बताती हूं. तीन साल हो गए शादी को. यहां जहांगीराबाद में हम लोगों के तीन मेडीकल शॉप हैं.”
“और बच्चे?” मानी की बात पूरी होने से पहले ही स्वीटी उन दोनों के बीच आ खड़ी हुई.
“मम्मीजी… वो बार्बी डॉल दिलवा दीजिए.” सामने दुकान के शोकेस में रखी बार्बी स्वीटी को मोह रही थी.
“अरे ये आपकी बेटी है मानी दी. हाए कित्ती प्यारी कित्ती सुंदर कित्ती स्वीट है.”
स्वीटी शर्मा गई. उसकी मोहक मुस्कान ने सपना को निहाल कर दिया.
“देखो बेटा, मैं तुम्हारी सपना मौसी हूं. चलो हम दोनों लेकर आएंगे तुम्हारी बार्बी डॉल को. और मम्मी को मत देखना, क्योंकि तुम्हारी मम्मी मौसी के आगे कुछ नहीं बोल सकतीं. क्यों है ना मानी दी?”
मानी हंस दी. वो रोकती रही, लेकिन सपना तो वही पुरानी सपना थी. लौटी तो बार्बी के संग-संग खिलौनों का ढेर लेकर लौटी.
“अरे इतना सब क्यों उठा लाई सपना? घर पर खिलौनों का ढेर लगा है.”
सपना का चेहरा उतर गया. मानी को अपनी ग़लती महसूस हुई. बात संभालते हुए वो बोली.
“स्वीटी मौसी को थैंक्यू बोलो और जब वो छोटे भैया के संग घर आएंगी, तब भैया के संग सारे खिलौने खेलना… मौसी को पूछो भैया को लेकर कब आएंगी?”
सपना चुप थी. उसने कोई जवाब नहीं दिया.
मानी ने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया. अपना पता बताकर सपना से विदा ली उसने. घर लौटी तो सागर घर पर ही थे. पेपर पढ़ रहे थे.
“क्या बात है. बड़ी ख़ुशी-ख़ुशी लौट रही हो मार्केट से. क्या ख़ज़ाना पाया वहां?”
“ख़ज़ाने से भी बढ़कर पाया है. सपना मिल गई शॉपिंग करती हुई. वो यहीं है तीन सालों से और आज मिली है. जहांगीराबाद में उसके तीन-तीन मेडिकल शॉप हैं.”
“अच्छा! किस नाम से हैं मेडिकल शॉप उनकी?”
“शर्मा मेडिकल बता रही थी. सबसे बड़ी शॉप उन्हीं की है मार्केट में.”

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सागर की मुस्कुराहट एकाएक ख़ामोशी में बदल गई.
“ओह! तो ये विवेक की वाइफ है. तीन साल हो गए ना सपना की शादी को.”
“हां सागर.”
“उफ.” सागर उठकर जाने लगे. दर्द की लकीरें उनके चेहरे पर छा गई थीं.
“क्या हुआ आपको अचानक?” हाथ पकड़कर सागर को सोफ़े पर दुबारा बिठाते हुए मानी बोली, “आप कुछ छुपा रहे हैं. आज बरसों बाद सपना मिली है मुझे. रास्ते भर मैं उन लोगों को डिनर पर बुलाने का प्रोग्राम बनाती आई हूं. बरसों की भूली बिसरी बातें करेंगे. बच्चे भी ख़ुश होंगे…”
“बच्चे नहीं सिर्फ सपना मानी. और सपना शायद ही तुम्हारे घर आए. तुम्हारी सपना एक निरीह, बेबस और मानसिक रोगी है मानी. उसके कोई बच्चा नहीं है, न अब भविष्य में कोई उम्मीद है. फिर भी झूठी उम्मीदों पर जी रही है वह.”
पत्नी का हाथ हाथों में लेकर सांत्वना देते हुए सागर ने आगे कहा.
“सपना, विवेक की शादी के वक़्त मैं टूर पर इटारसी में ही था, सो शामिल हो गया उनकी शादी में. बड़ा ख़ुश था विवेक अपनी वाइफ से. जब सपना प्रेगनेंट हुई, तब तो दस हज़ार से भी ज़्यादा विवेक ने मिठाई व पार्टी में ही उड़ा दिए. बहुत ख़ुश था वो. बहुत ध्यान रखता था सपना का. ज़्यादातर वक़्त उसी के साथ बिताता. फिर न जाने किसकी नज़र लग गई… बच्चा फिलोपियन्स ट्यूब में चला गया. अबॉर्शन हुआ और ट्यूब काट दी गई. छह महीने बाद वो फिर प्रेग्नेंट हुई और वही सब कुछ फिर दोहराया गया. दोनों ट्यूब कटते ही भविष्य की सारी उम्मीदें ही ख़त्म हो गईं. अब मां न बनने का दुख तुम्हारी सपना को जीते जी मार रहा है. विवेक भीतर-ही-भीतर घुट रहा है. सपना के आगे ख़ुश रहने का नाटक करते-करते थकने लगा है अब वह…” सागर उठकर भीतर चले गए.
दर्द से भर उठी मानी… नहीं सपना को हताशा के अंधेरों से उबारना होगा. सच्चाई को स्वीकारने, उसका सामना करने का हौसला देना होगा. मुझे वही पुरानी वाली सपना चाहिए, चाहे जो हो.
मानी ने निश्‍चय किया… फिर एक हफ्ते बाद स्वीटी को लेकर सपना के घर गई. बड़ा संभ्रांत, संस्कारी व मिलनसार परिवार था. सपना को बड़ी बहन-सा सम्मान मिला. फिर सपना उसे अपने कमरे में ले आई. वहीं सपना की डायरी हाथ में आ गई. सपना किचन में स्वीटी का दूध तैयार कर रही थी. मानी ने यूं ही पेज पलट दिए. सपना की ही लिखावट थी.
अक्सर
किसी उनींदी-सी रात में
कुनमुनाता-सा
आंचल को ढूंढ़ता है
लिपट जाने को उसमें…
चेहरा छिपाने
गुदगुदा मुलायम-सा शैतान
वह
छूता है मेरे गालों को
नन्हीं-नन्हीं उंगलियों से
मुठ्ठी में खींचता है मेरे बालों को.
मोहक
मुस्कान के संग
फिर दुबक कर सो जाता है
मेरी गर्म-गर्म सांसों में डूबकर
आंचल को मुट्ठी में भर
निश्‍चिंत होकर…
और सुबह
बिस्तर की खाली सिलवटें
कमरे का सूनापन
और…
खाली आंचल को थामे
सिसकती मैं…
उफ़
सुबह की रोशनी से
तो अच्छा है रात का अंधेरा
जो सच्चाई का सूरज तो
साथ नहीं लाता…
सपना… बदनसीब मां…
तड़प उठी मानी. सपना की टूटन का एहसास भीतर तक भेद गया. नहीं… वह नहीं ज़ाहिर होने देगी अपने दर्द को, क्योंकि पुरानी सपना को पाने का बीड़ा जो उठाया है.
थोड़ी देर रुककर मानी घर आ गई.
अब स्वीटी प्राय: सपना के पास ही रहती. सपना की मुस्कुराहट वापस लौट आई थी. दर्द की तड़प कम हो गई थी.
“सपना, कुदरत ने अगर तुमसे मातृत्व का सुख छीन लिया है तो कोई बच्चा गोद लेकर उसके इस फैसले को बदल दो.”
“नहीं मानी दी, अपना बच्चा अपना ही होता है. उसे जन्म देने की वेदना और पा लेने का सुख… इसकी पूर्ति तो संभव ही नहीं…”
“सपना, बच्चा तो बच्चा ही होता है. ज़रा सोचो, तुम्हारे कारण एक बच्चे का भविष्य सुरक्षित हो जाएगा. उसे तुम्हारी ममता की छांव और पिता का साया मिलेगा. एक अनाथ तुम्हारा नाम पाकर तुम्हारा नाम रोशन करेगा. डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, पुलिस अफ़सर या बिज़नेसमैन, जो चाहो उसे बनाना… सपना तुम एक बच्चा नहीं, बल्कि एक पीढ़ी की नींव मज़बूत करोगी, क्योंकि हर पुरुष एक पीढ़ी का प्रतिनिधि होता है. मैंने हर बार तुम्हारा कहा किया है सपना, प्लीज़ मेरी एक बात मान लो…”
“मानी दी, संस्कार तो ख़ून से मिलते हैं ना. पता नहीं, किसका कैसा ख़ून हो. नहीं मानी दी, मैं नहीं सोच सकती कुछ… मेरी आत्मा गवाही नहीं देती…”
“नहीं सपना…” मानी मनुहार पर उतर आई थी, “संस्कार ख़ून से नहीं, परवरिश से ज़िंदा होते हैं. यशोदा क्या जानती थी कि कृष्ण का ख़ून क्या है, लेकिन जब मां का नाम आता है तो यशोदा को पहले फिर देवकी को मां कहते हैं सब. मां की महत्ता और ममता ही यशोदा का पर्यायवाची बन गई है. फिर तुम तो पढ़ी-लिखी हो. सच्चाई को स्वीकारना सीखो. तुम्हारा एक कदम तुम्हारे परिवार को जीवनदान दे देगा.”
सपना चुप थी. उसकी आंखों से लगातार आंसू बहे जा रहे थे. “मानी दी… मैं बदनसीब मर क्यूं नहीं जाती? भला ठूंठ का जीवन भी कोई जीवन होता है?”“तुम बदनसीब नहीं हो सपना. विवेक भैया तुम्हें बहुत चाहते हैं… ये उनकी चाहत का प्रमाण है कि उनका परिवार तुम्हारा विरोध नहीं कर पा रहा. आज शादीशुदा बच्चे वाले पुरुष अवैध संबंध बनाने में नहीं चूकते. एक पत्नी के होते दूसरी पत्नी घर ले आते हैं, लेकिन विवेक भैया? उनके त्याग और महानता की क़ीमत मत आंको. उनकी मानसिक स्थिति और दर्द को हमने महसूस किया है. अपने दु:ख-दर्द के समन्दर से बाहर निकलो. अंधा कुंआ कुछ नहीं देता सपना, लेकिन खुला आसमान जीने के लिए सांसें ज़रूर देता है…”
यही सब बातें घुमा-फिराकर मानी व सपना के बीच होतीं. मानी को विश्‍वास था सपना बदलेगी, लेकिन सपना अब भी झूठी आस पर जी रही थी.
फिर सागर का ट्रांसफ़र यहां दिल्ली हो गया. मानी अपनी घर-गृहस्थी और परिवार में डूब गई.
स्वीटी हर पल चहक रही थी. मम्मी के सारे काम वही जो कर रही थी. बाथरूम का गीजर ऑन था. कपड़े बाक़ायदा बाथरूम में लगे थे. मानी नहाकर बेडरूम में आई तो पलंग पर गुलाबी साड़ी गुलाब के फूल के संग सजाकर रखी हुई थी. पास ही छोटा-सा कार्ड था. लिखा था-प्यारी मम्मीजी गुलाब लगाएंगी ना?’
“ओह. मेरी प्यारी स्वीटी.” रोने को हो उठी मानी. इतना प्यार, इतना मान-सम्मान, इतना अपनत्व ऊंचाइयों का ये सिंहासन आंदोलित करने लगा था मानी को. काश… सागर पास होते. ऊंचाइयों भरे ये पल उनके साथ बंटकर अनमोल हो जाते.
शाम पांच बजने को थे. मानी ने सोचा स्वीटी को लेकर गार्डन हो आए थोड़ी देर. वैसे भी स्कूल की छुट्टियां और गर्मी का मौसम- व़क़्त काटे नहीं कटता बच्चों का. वो स्वीटी को आवाज़ देने ही वाली थी कि कॉलबेल बज उठी.
मानी ने उठकर दरवाज़ा खोला और आश्‍चर्यचकित रह गई. कहां तीन साल पहले की दर्द में डूबी मुरझाई-सी सपना और कहां ये खिली-खिली मोहक और प्यारी-सी सपना…
“दीदी वो भी हैं, नीचे टैक्सी से सामान उतरवा रहे हैं.” फिर बोली, “मानी दी… आप नाराज़ थीं ना… तभी तो भूल गईं… एक फोन भी नहीं किया कभी…”
“अब शिकायत ख़त्म कर और भीतर चल.” मुस्कुराकर बोली मानी… फिर स्वीटी को आवाज़ दे उठी…

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“बेटा स्वीटी… स्वीटी… देखो कौन आया है… तुम्हारी सपना मौसी और मौसाजी…”
स्वीटी दौड़ती-सी आई. सपना ने प्यार से बांहों में भरते हुए कहा, “अरे कित्ती बड़ी हो गई मेरी स्वीटी… क्यों भूल गई मौसी को?” स्वीटी शर्मा गई. फिर चहकती-सी बोली… “मौसी पानी लाऊं आपके लिए? आज ‘मदर्स डे’ है ना. आज सब काम मैं करूंगी, मौसी शाम को मम्मी की गिफ्ट आप ही खोलिएगा.”
“ठीक है स्वीटी… तुम्हारी मम्मी के लिए एक गिफ्ट मैं भी लाई हूं.”
“मैं भी जानूं क्या है भई…?” मानी बोली
“दीदी जानने की नहीं, देखने की चीज़ है आपकी गिफ्ट.” दरवाज़े में प्रवेश करते हुए विवेक ने मुस्कुराते हुए कहा. फिर मानी ने जो देखा, विश्‍वास ही नहीं हुआ. विवेक की गोद में प्यारा गुड्डे-सा सालभर का बेटा था. मुंह में अंगूठा डाले टुकुर-टुकुर सबको देख रहा था. उसकी नन्हीं-नन्हीं चमकती आंखों में आश्‍चर्य ही आश्‍चर्य था.
सपना को देखते ही उसके पास जाने को मचल उठा. विवेक ने नीचे उतार दिया उसे. गर्दन नीची किए सबसे शर्मा रहा था. डगमग-डगमग करता सपना तक पहुंचा और उसकी गोद में मुंह छिपा लिया… मानी मुग्ध होती उसके सिर पर हाथ फेरती हुई बोली.
“ये प्यारा-सा चमत्कार कैसे हो गया? क्या नाम है इस चमत्कार का?”
“शरद नाम है मानी दी, वैसे लकी कहते हैं सब और इस चमत्कार का श्रेय तो आपको ही जाता है दीदी…”
“मुझे? वो कैसे?”
“मानी दी, आपके जाने के बाद बहुत अकेली हो गई थी मैं. स्वीटी के बिना बार-बार बीमार होती. इसी क्रम में आपकी समझाई वो बातें मन में घर करने लगीं. मुझे लगने लगा कि अपने बच्चे का कौन-सा एहसास ज़िन्दा रहता है? प्रसव वेदना की एक हल्की-सी याद…कोई विशेष दिन विशेष याद? कौन-सी यादें अमिट रह पाती हैं भला? अधखुली सीप-सी उनींदी आंखें, आंखें मलता कुनमुनाता-सा मां के आंचल को मुट्ठी में भरे मुस्कुराता नवजात शिशु-बस यही ना? पर जैसे-जैसे वो बड़ा होता है, उसका हंसना-मुस्कुराना, खिलखिलाना, घुटने चलना, डगमग क़दमों से मां का सहारा पाना यही तो सच बनता जाता है और पिछला सब धुंधला होने लगता है. मानी दी पिछले साल जेठ की बेटी को सूरदास पढ़ाते वक़्त कृष्ण और यशोदा से गुज़रते मैं आपकी बातों तक पहुंच जाती. मानी दी… यशोदा बनकर जब मैंने जीया तो मेरी तो दुनिया ही बदल गई… आज लकी के बिना मैं एक पल भी नहीं रह सकती. सच ही कहा था दीदी आपने कि बच्चा सिर्फ ममता जानता है. तुम उसे जन्म दो या ना दो. दस दिन का गोद लिया था हॉस्पिटल से. इसके जन्म देते ही मां नहीं रही. पेपर में न्यूज़ आई कि जो लेने का इच्छुक हो, संपर्क करे. सौभाग्य के इस द्वार तक पहुंचने में फिर देर नहीं की हमने दीदी…  और प्यारा शैतान-सा लकी हमारा हो गया…” आंखें भर आईं थीं सपना की और मानी की भी…
मानी ने देखा, सपना का गरिमामय मातृत्व रूप. एकदम तृप्त और संतुष्ट थी वो. विवेक उसे मोहक ढंग से एकटक निहार रहा था. कुंठा और तनाव की जगह पितृत्व का अनोखा गर्व उसके चेहरे पर चमक रहा था. पत्नी के प्रति एकनिष्ठा कायम रखकर सात फेरों के सच को ईमानदारी से जिया था विवेक ने…
मानी से उसने कहा, “दीदी ये सब आपकी ही देन है. अंधे कुएं से उबारकर आसमान की ठंडी हवा में ये जीवनदान आपकी ही प्रेरणा से मिल पाया हमें…” वो उठकर मानी के चरण-स्पर्श को झुक गया…

- प्रीतरीता श्रीवास्तव

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