'नहीं... मरने से कुछ नहीं होगा, न भागने से. जीवन जैसा मिला है, जीना ही तो है. जो जैसा है, सेलिब्रेट करना है, यह समझौता नहीं, बस सेलिब्रेशन है.' उन्होंने टाई ठीक की. आज बेंत भी नहीं पकड़ी, लगा बरसों का दर्द भी कहीं घूमने चला गया है.
जीवन की आपाधापी में कब पचहत्तर बसंत बीत गए, पंकजजी को पता ही नहीं चला. लेकिन शारीरिक कमज़ोरी, शिथिलता और उदासीनता उम्र का एहसास करा ही देती है. उस दिन वैद्य गंगाशरण कह रहे थे, ‘‘वाजीकरण औषध लेते रहो, तो जवानी नहीं जाती. जिस दिन मर्द के भीतर से जोश गया, समझो मौत दरवाज़े पर खड़ी है.’’
‘‘तो... क्या किया जाए?’’
‘‘अरे! हम किसलिए हैं? असली शतावर घृत बनाया है. इसका योग मूसली पाक है. आप लिया करें.’’ वैद्यजी के चेहरे पर कुटिल मुस्कुराहट झलक रही थी.
वैद्य गंगाशरण को वे तब से जानते हैं, जब से शिक्षाशास्त्री गुप्ताजी ने उनसे परिचय कराया था. गुप्ताजी की पत्नी माधवी भी उनसे बीस साल छोटी थी. उन्होंने बड़ी उम्र में विवाह किया था. वे पढ़ने-पढ़ाने में ही अपनी उम्र खो चुके थे. तभी माधवी उनके पास पीएच.डी. करने आई थी. वो उनसे प्रभावित थी या वे उससे. पर एक दिन सुना दोनों का विवाह हो गया. पुत्र मेधावी था, सो आईआईटी करके विदेश चला गया. गुप्ताजी के देहांत के बाद भी माधवी बेटे के पास नहीं गई. यहीं रुककर अपने आपको शिक्षा जगत में डुबो दिया. वैद्य गंगाशरणजी तब से उसके अभिन्न मित्र भी हो गए थे.
लोग तो न जाने क्या-क्या कहते, पर उन्होंने ध्यान नहीं दिया. हां, पर यह सच है कि रोज़ दोपहर बाद वैद्यजी को माधवी के घर पर ही देखा जाता था. जितने मुंह, उतनी बातें. हमें क्या मतलब? पंकजजी की विचारधारा इधर से उधर घूम गई थी.
यह वैद्य मुझसे कहना क्या चाहता है? उम्र में तो मुझसे छोटा है. खैर, जब मेरी उम्र में आएगा तो, इसकी भी टांगें टेढ़ी हो जाएंगी. बूढ़ा ख़ुद को रुस्तम-सोहराब समझता है. कहता है, बुढ़ापे में ब्लड प्रेशर हो या डायबिटीज़, आदमी मर्द नहीं रहता. खूसट, मुझसे ही क्यों कहता है? यह बीमारी, तो करोड़ों लोगों को है. हर बू़ढ़ा आदमी ब्लड प्रेशर की गोली खाता है. क्या वाकई मुझमें पहले जैसी ताक़त नहीं रही? वे अक्सर ख़ुद से यह सवाल करते रहते.
उस दिन होमियोपैथी की दुकान से दवा लाए थे. डॉक्टर कह रहा था, इस दवा को लेने से शरीर पहले की तरह हो जाएगा. पहले की तरह... पहले क्या था?
रात को खाने के समय मालती पूछ रही थी, ‘‘तुम्हारे लिए क्या बनाऊं? दूध, दलिया ले लो. परांठे तो तुम्हें सूट नहीं करते?’’ वह ख़ुद गोभी के परांठे खा रही थी, वह भी तो उनसे दस साल छोटी है. तभी उन्हें याद आया, जब शादी हो रही थी तब चाची ने कहा था, ‘‘बेटा, बहू ज़्यादा छोटी अच्छी नहीं होती.’’
‘‘क्यों?’’ तब युवा पंकजजी नाराज़ हो गए थे.
‘‘चाची, क्या समझा रही हो इसे?’’ तब मां ने बीच में आकर टोक दिया था, पर अब पंकजजी को लगता है कि चाची सही ही कह रही थीं.
मालती को बेटे के पास सिंगापुर जाना था. बहुत प्यार से बोली, ‘‘तुम भी साथ चलो.’’
पंकजजी बोले, ‘‘मैं तीन बार हो आया हूं, तुम हो आओ.’’
‘‘नहीं, एक तो सिंगापुर, वह भी अकेली?’’ कहते हुए मालती पंकजजी के क़रीब आई, तो उन्होंने मालती को बांहों में भर लिया.
पर न जाने क्यों, अब मालती के पास होने पर उन्हें डर-सा लगता है. वे मुंह फेरकर सो जाते हैं. जिस दिन नींद की गोली नहीं खाते, नींद ही नहीं आती. बाबाजी कहते हैं, ‘‘योग-प्राणायाम किया करो.’’ जब बाबाजी का प्रवचन सुनने गए थे, तब उन्होंने कहा था, ‘‘साठ साल के बाद पूर्ण ब्रह्मचर्य अगर सध जाए, तो फिर कोई बीमारी नहीं, शरीर कुंदन-सा चमकता रहेगा.’’ पर बाबाजी तो ख़ुद बीमार रहते हैं? ख़ैर, क्या पता दूसरों के कष्ट ले लेते होंगे? उनका शिष्य ऐसा कह रहा था.
‘‘पर यहां तो बुढ़ापा घुटनों में चला आया है.’’ वे बड़बड़ाए.
बेडरूम में आए, नाइट बल्ब जल रहा था. देखा, मालती खर्राटे भर रही थी. उसकी झीनी नाइटी में उसका बदन झांक रहा था. उस पर प्यार आने लगा, पर कुछ किया, तो मालती नाराज़ हो जाएगी और फिर पंकजजी नींद की गोली खाकर लेट गए.
सुबह के अख़बार में ख़बर थी. मालती की काव्य कृति को इस बार पुरस्कार के लिए चुना गया है. लेकिन मालती ने तो उन्हें कुछ नहीं बताया. वे चाय पीते-पीते चौंक गए. हां, क़िताब ठीक ही थी, पर पुरस्कार तो बिना लॉबी बनाए मिलता नहीं. जोड़-तोड़, गुणा-भाग यह तो पुरस्कार का अंग है.मालती बाथरूम में थी.
‘‘अरे सुनो, तुम्हें पुरस्कार मिला है.’’
‘‘क्या?’’ बाथरूम से मालती ने पूछा.
‘‘तुम्हारे कविता संग्रह को पुरस्कार मिला है.’’
‘‘ओह! थैंक्स.’’
तब तक फ़ोन की घंटियां बजने लगी थीं. सक्सेनाजी का फ़ोन था. मालती उनका फ़ोन पाकर प्रसन्न थी, ‘‘हां... हां... तुम्हें ही मिला है.’’
‘‘वो तो आपकी मेहनत है.’’
‘‘अरे, मेरी कहां? आप लिखती ही इतना बढ़िया हैं.’’ पंकजजी शुगर फ्री की गोलियां चाय के प्याले में डालते-डालते चौंक गए.
‘‘कौन था?’’
‘‘सक्सेनाजी.’’
‘‘हूं.’’ पंकजजी चुप हो गए.
पंख पत्रिका जब से इसने संभाली है, महिलाओं में इसकी रुचि बढ़ती जा रही है. वैसे मालती लिखती अच्छा है. पहले वे उसकी हर रचना को पढ़ते थे, पर अब धीरे-धीरे वे स्वयं में खोते चले जा रहे थे.
क्या किया जाए? लंगड़ाते हुए छोटे चौराहे की तरफ़ निकल गए.
सिंधी की दुकान पर रुके, ‘‘चूहे मारने की दवा है?’’
‘‘दवा तो है, पर ख़तरनाक है. किसी के हाथ लग गई, तो मर सकता है. आप पिंजरा ख़रीद लें, मेरे पास बहुत अच्छे हैं.’’
‘‘वो भी दे दो, दवाई के दो पैकेट्स भी दे दो.
‘‘ठीक है.’’ दुकानदार बोला.
दूसरा रास्ता और है, दुनिया से ही किनारा कर लिया जाए.
पार्क में घूमते हुए सक्सेनाजी लगभग रोज़ाना ही मिल जाते थे. विश्वविद्यालय में पढ़ाया भी था उन्होंने. बाद में वह विभाग में प्राध्यापक हो गए. साहित्य की राजनीति में वह सक्रिय थे. लिखा कम था, पर प्रचार बहुत कराया था. पंकजजी जानते थे कि लोकप्रियता बिना लॉबी के नहीं मिलती है. वे इसके लिए उसका ध्यान रखते रहे. वह भी घर के सदस्य जैसे हो गए थे. मालती भी जब प्राध्यापक बनी, तब वे ही उसे अपने साथ विभाग में ले गए थे. मालती की पेंटिंग्स की प्रदर्शनी भी उन्हीं ने आयोजित कराई थी. बातें तो बहुत हैं, कहां तक याद रखी जाएं. पंकजजी ने सोने का प्रयास किया, पर नींद हर बार उड़ जाती थी.
सक्सेनाजी ने ही मालती की कविताओं का संग्रह तैयार कर छपवा दिया था.
‘‘सर, आपने ध्यान दिया ही नहीं, मालतीजी में तो बड़ी प्रतिभा है.’’
‘‘हां.’’ उन्होंने कहा.
‘‘आपको पहले से पता था, पर आपने इन्हें साहित्य से दूर ही रखा.’’
‘‘बिल्कुल नहीं...’’
‘‘हूं.’’ मालती हंसते हुए कहती, ‘‘कभी मेरी कविता पढ़ी थी, सुनने की तो बात ही दूर है.’’
‘‘नहीं तो.’’ पंकजजी चुप हो जाते.
पर उस दिन शाम को जब मालती घर लौटी, तो वे चौंक गए. बहुत दिनों बाद वह इतनी ख़ुश दिख रही थी.
‘‘तुमने दवाई ली?’’
‘‘हां.’’
‘‘चाय पी ली थी.’’
उनकी सांसें अचानक गहरी होती चली गईं. वे एकटक मालती को निहारने लगे.
‘‘ऐसे क्या देख रहे हो?’’ मालती ने टोका.
‘‘तुम आज बहुत सुंदर लग रही हो.’’
‘‘सच?’’ मालती उनकी ओर खिंची चली आई. ‘‘चलो, अच्छा है. तुम्हारी आंखों में कुछ दिखा तो सही.’’
‘‘हां...’’ अचानक पंकजजी की गहरी सांसें थम-सी गईं.
उस दिन होमियोपैथ डॉक्टर कह रहा था, ‘‘यह तो शरीर है, जब हार्मोन्स बनना बंद हो जाए, तब अनावश्यक दवा में पैसा ख़र्च करना ग़लत ही है.’’
इंटरनेट पर आर्टिकल था. अस्सी साल के बूढ़े ने चौहत्तर साल की महिला से विवाह किया है. दोनों हनीमून पर जा रहे हैं.
‘‘कितनी वाहियात बात है?’’ डॉक्टर जलेसरी बोले. ‘‘होमियोपैथी में पचास दवाएं हैं, पर उम्र का भी ध्यान रखा जाए. पुराने ज़माने में यह संन्यास की अवस्था थी.’’
पंकजजी सुनते रहे. ताक़त की दवा लेने गए थे, पर नहीं ले पाए. सकुचा गए. बोले, ‘‘वो ब्लड प्रेशर की दवाई देना.’’ कई दिन से वे ताक़तवाली दवाएं खा रहे थे, लगा शरीर में फिर से कुछ होने लगा है. फिर डर लगने लगा, लोग कहते हैं कि इन दवाइयों से कैंसर भी हो जाता है.
‘‘आप तो फ़िट हैं पंकजजी’’ डॉक्टर जलेसरी बोले. ‘‘भई, लोग तो नौकरी से क्या रिटायर हुए, ज़िंदगी से ही रिटायर हो जाते हैं. आपने तो अपने शरीर को संभालकर रखा है. लगता है, बाबाजी के सभी आसन और प्राणायाम कर रहे हैं.’’
‘‘हां.’’ पंकजजी बोले.
‘‘क्या सोच रहे हैं?’’
‘‘कुछ नहीं. शुगर कंट्रोल में है, अपना काम कर लेता हूं. बस, इस उम्र में और क्या चाहिए?’’
‘‘चाहिए तो बहुत कुछ’’ डॉ. जलेसरी बोले. ‘‘आपकी भाभी तीन साल पहले चली गई, पर अब क्या किया जाए? पार्क में चला जाता हूं, घूमता कम हूं, बेंच पर बैठा रहता हूं. और भी लोग आते हैं, उनके साथ रहकर जाना कि आंखें सेंकना भी अच्छा व्यायाम है. एक सुकून-सा मिलता है. इस उम्र में और तो कुछ हो नहीं सकता.’’
‘‘चलूं, कुछ सामान भी लेना है.’’ पंकजजी वहां से उठ गए.
‘‘तुम बात करते-करते चुप क्यों हो जाते हो?’’ मालती ने टोका.
‘‘नहीं तो.’’
‘‘बहुत दिनों से देख रही हूं, हमेशा कुछ न कुछ सोचते रहते हो?’’
‘‘नहीं तो.’’
‘‘तुम्हारे होंठ बता देते हैं. हमेशा बुदबुदाते रहते हो. चलो, आज तुम्हारे लिए प़ि़ज़्ज़ा बना देती हूं.’’
‘‘हूं, आज बहुत ख़ुश है.’’ वे बुदबुदाए.
तभी सक्सेनाजी का फ़ोन आ गया, मालती को पुरस्कार मिला है. मीडियावाले घर आना चाहते हैं.
मालती उत्साहित थी. बोली, ‘‘तुम्हें कैसा लग रहा है?’’
‘‘बहुत अच्छा.’’ पंकजजी बोले.
‘‘मन से नहीं कहा.’’
‘‘नहीं भाई, मन से ही कहा है. नाश्ता तो सबके लिए मंगवा लो.’’
‘‘वो सक्सेनाजी ले आएंगे.’’
पंकजजी फिर चुप हो गए.
नदी में कूदना ही बेहतर है. घूमने गए थे, पांव फिसल गया. कोई नोट नहीं छोड़ना. किसी को क्या बताएं और बताने को है भी क्या? पत्नी को ईनाम मिला है, बहुत ख़ुश थे. ध्यान नहीं रहा, पांव फिसल गया. वो मर गए. अख़बार ख़बर छाप देगा. यदि मर भी गए, तो कौन रोनेवाला है. अभी कम से कम बात दबी हुई तो है. उनका ही क़सूर है. चाची ने कहा था, दस साल छोटी बहू मत ला. पर मालती उनका कितना ध्यान रखती है, एक दिन भी तो कहीं बाहर नहीं गई. अब थोड़ा-बहुत यह है... तो वह क्या करे? उसका भी मन तो है. उन्होंने वर्षों मनोविज्ञान पढ़ाया है.
शाम तक सक्सेनाजी भी आ गए, उनके साथ मीडियावाले भी थे.
‘‘वाह! आपकी कविताओं को तो पुरस्कार मिलना ही था. अभी और भी कई पुरस्कार मिलेंगे.’’
‘‘पंकजजी चाहें तो क्या नहीं हो सकता? अभी भी प्रशासन में आपकी पहुंच है.’’ बार-बार लोग यही कह रहे थे.
पंकजजी ने आज नया सूट पहना था. मालती ने बहुत दिनों बाद पास आकर उनकी टाई बांधी थी. टाई बांधते व़क़्त उसका शरीर पंकजजी को स्पर्श कर रहा था. उन्हें लगा, अचानक ब़र्फ के नीचे दबा ज्वालामुखी पिघल रहा है. उनके चेहरे पर अचानक चमक-सी आ गई.
‘‘तुम ख़ुश हो?’’
‘‘हां, बहुत. तुम्हें पुरस्कार मिला है. कल मीडिया तुम्हें कवरेज देगा. सभी चैनल्स पर भी तुम आओगी, ये क्या कम है?’’
‘‘बच्चों का फ़ोन आया था, वे बहुत ख़ुश हैं. सेलिब्रेट करने को कह रहे हैं.’’
‘‘तो करो.’’
‘‘हां.’’
तभी दरवाज़े की घंटी बजी, लोग आने लग गए थे.
मालती ड्रॉइंगरूम की तरफ़ चली गई. पंकजजी ने चूहे मारने की दवा के पाउच को कैंची से काटा, दवा को फ्लश कर दिया. खाली पाउच को डस्टबिन में फेंक दिया.
'नहीं... मरने से कुछ नहीं होगा, न भागने से. जीवन जैसा मिला है, जीना ही तो है. जो जैसा है, सेलिब्रेट करना है, यह समझौता नहीं, बस सेलिब्रेशन है.' उन्होंने टाई ठीक की. आज बेंत भी नहीं पकड़ी, लगा बरसों का दर्द भी कहीं घूमने चला गया है. सीधी कमर लिए, नपे-तुले पुराने क़दमों से वे नई चाल से प्रेस कॉन्फ्रेंस की तरफ़ चले गए.
- डॉ. नरेन्द्र चतुर्वेदी
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