बचपन की यही फांस तुषार के मन में कुछ इस तरह चुभी कि शायद उसने बचपन में ही प्रण कर लिया था कि बड़ा होकर वह अपने बच्चों की इच्छाओं की अवहेलना नहीं करेगा, फिर चाहे उसे छुट्टी के दिन घर में रहकर आराम करने को मिले या न मिले.
मामला बड़ा भी था और छोटा भी. देवेन्द्रजी की दृष्टि में तो यह कोई ऐसा मामला था ही नहीं, जिस पर ध्यान देने का कष्ट करते. लेकिन उनके बेटे तुषार के लिए यह जीवन का अहम् प्रश्न था और सुधाजी के लिए यह एक ऐसी विडम्बना थी, जिसे जीते हुए उन्होंने सालों व्यतीत कर दिए. वे पिछले कई सप्ताह से महसूस कर रही थीं कि जब से उनके पति देवेन्द्रजी नौकरी से रिटायर हुए हैं, तब से घर का माहौल उखड़ा-उखड़ा-सा रहता है. एक अनजाना-सा तनाव घर के समूचे वातावरण पर छाया रहता है. और छुट्टी के दिन तो ये तनाव और भी बढ़ जाता है.
आज भी छुट्टी का दिन था. सुधाजी आज सुबह से मन-ही-मन प्रार्थना कर रही थीं कि कम-से-कम आज तो घर में शांति बनी रहे, लेकिन उनके इस प्रकार प्रार्थना करने से अगर कुछ होना होता, तो बहुत पहले हो चुका होता.
सुधाजी की आकांक्षा के विपरीत पिता-पुत्र में आज फिर झड़प हो गई.
हुआ यूं कि देवेन्द्रजी सुबह का नाश्ता करके अपनी आरामकुर्सी पर अभी बैठे ही थे कि उनका नन्हा पोता पराग उचकता हुआ आया और उनके गले लग गया. वे भावविभोर हो उठे. उन्होंने हुलसते हुए पूछा, “आज हमारा पराग सुबह-सवेरे अपने दादाजी से इतना लाड़ क्यों कर रहा है?’’ इस पर पराग ने उत्साह से भरकर जवाब दिया कि वह मम्मी-पापा के साथ चिड़ियाघर जानेवाला है. वह वहां बड़े-बड़े भालू देखेगा, शेर देखेगा और बहुत सारे जानवर देखेगा. पराग की बात सुन कर देवेन्द्रजी का मन ख़राब हो गया. उस पल उनके मन में बस एक ही विचार आया कि छुट्टी का दिन आया नहीं कि लाट साहब चले घूमने. श्रीमानजी से ये नहीं होता कि कम-से-कम छुट्टी के दिन तो घर बैठें और अपने बूढ़े बाप से कुछ बोले-बतियाएं.
लगभग हर छुट्टी के दिन यही होता. पराग या उसकी बहन पल्लवी अपने पिता तुषार से कहीं घूमने चलने की ज़िद करते और तुषार उनकी बात तुरन्त मान लेता. देवेन्द्रजी जब तुषार से कहते कि सप्ताह में छह दिन तो तुम और बच्चे दिनभर घर से बाहर रहते ही हो, अब कम-से-कम एक दिन तो घर में रह लिया करो. इस पर तुषार उत्तर देता कि यह एक दिन ही तो मिलता है बच्चों की इच्छा पूरी करने के लिए. देवेन्द्रजी यदि और कुछ कहते तो तुषार पटाक्षेप करने के अंदाज़ में जवाब देता, “पापा, आप नहीं समझेंगे.”
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इस पर देवेन्द्रजी भी तुनककर कहते, “हां-हां बेटा, मैं भला कैसे समझूंगा? मैं तो जैसे कभी बाप रहा ही नहीं और मैंने तो जैसे तुम लोगों की कोई इच्छा कभी पूरी की ही नहीं.”
तुषार झल्लाकर कह उठता, “प्लीज़ पापा, आप हमारा मूड ख़राब मत कीजिए.” तब सुधाजी को हस्तक्षेप करना पड़ता. वे देवेन्द्रजी को समझातीं कि यदि तुषार अपने बच्चों को घुमाना-फिराना चाहता है, तो वे क्यों परेशान होते हैं? लेकिन कुनमुनाते हुए वे कह उठते कि अब तुषार के लिए अपने बीवी-बच्चे ही सब कुछ हो गए और ये बूढ़ा बाप कुछ नहीं रहा? उनका यह कटाक्ष सुनकर सुधाजी की इच्छा होती कि वे उन्हें याद दिलाएं कि किसी समय उनके लिए छुट्टी के दिन का आराम ही सब कुछ होता था और बच्चों की इच्छाएं कोई अहमियत नहीं रखती थीं. जब कभी तुषार, तनय या तन्वी उनसे कहीं घूमने चलने का आग्रह करते, तो वे बिगड़ कर कहते कि ये एक ही दिन तो मिलता है आराम करने के लिए, मैं कहीं नहीं जाऊंगा. यदि तुम लोगों को जाना ही हो, तो अपनी मां के साथ चले जाओ. सवाल एक दिन की छुट्टी का नहीं रहता, दो-तीन दिन की छुट्टियों में भी उनका यही बहाना रहता. देवेन्द्रजी को कभी इस बात का ख़याल नहीं आता कि वे ज़रूर द़फ़्तर के कारण सप्ताह में छह दिन घर से बाहर रहते हैं, लेकिन सुधाजी को तो यही छह दिन घर में कैद रह कर बिताने पड़ते हैं. ज़्यादा होता तो वे सुधाजी से कह देते, “अकेली घूम आया करो.”
अकेले घूमना तो पुरुष भी पसन्द नहीं करते हैं, फिर पागलों जैसी वे अकेली कहां घूमतीं?
जब तक तीनों बच्चे स्कूल जाने लायक नहीं हुए, तब तक सुधाजी और बच्चे छुट्टियों में घर पर ही रहते थे. जब बच्चों ने स्कूल जाना शुरू किया और उन्हें जब अपने सहपाठियों से विभिन्न स्थानों के बारे में रोचक बातें सुनने को मिलतीं, तो उनका मन भी ऐसे स्थानों पर जाने के लिए उत्सुक हो उठता. सुधाजी भी सोचतीं कि बाहर नहीं तो कम-से-कम शहर और उसके आस-पास के दर्शनीय स्थल तो बच्चों को दिखाए ही जा सकते हैं. किन्तु देवेन्द्रजी के पास वही एक उत्तर रहता कि मैं अपनी छुट्टी ख़राब नहीं कर सकता, तुम लोगों को जाना हो तो जाओ.
देवेन्द्रजी की बात सुनकर तुषार सहित तीनों बच्चे उदास हो जाते. तब सुधाजी तीनों बच्चों को लेकर निकल पड़तीं. बचपन की यही फांस तुषार के मन में कुछ इस तरह चुभी कि शायद उसने बचपन में ही प्रण कर लिया था कि बड़ा होकर वह अपने बच्चों की इच्छाओं की अवहेलना कभी नहीं करेगा, फिर चाहे उसे छुट्टी के दिन घर में रहकर आराम करने को मिले या न मिले. मां ने भले ही साथ दिया, लेकिन छुट्टियों में घूमते-फिरते समय अपने पिता की अनुपस्थिति उसके दिल को हमेशा सालती रही. आज यह बात उसने देवेन्द्रजी से लगभग कह डाली. तभी से वे बहुत उदास थे.
सुधाजी तुषार के मन की इस फांस को जानती थीं, किन्तु उन्हें लगता कि वे इस बारे में देवेन्द्रजी से कुछ बोलेंगी, तो उन्हें बुरा लग जाएगा. मगर आज देवेन्द्रजी के चेहरे की उदासी इतनी गहरी थी कि उन्होंने उसके बारे में उनसे खुलकर बात करने का फैसला कर लिया. वे जैसे ही देवेन्द्रजी के निकट पहुंचीं, वे आहत स्वर में बोल उठे, “अपने बच्चों के लालन-पालन में मैंने कहां कमी रखी सुधा?”
इस पर वे बोलीं, “अपने बच्चों के लालन-पालन में आपने कोई कमी नहीं रखी, लेकिन उनकी बालसुलभ इच्छाओं की अनदेखी अवश्य हुई. आपको तो गर्व होना चाहिए कि हमारा बेटा तुषार हमारी ग़लती को दोहरा नहीं रहा है.”
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देवेन्द्रजी एक पल को चुप रहे, फिर उन्होंने सुधाजी की बात स्वीकार करते हुए कहा, “तुम ठीक कहती हो, लेकिन ये ग़लती हम दोनों की नहीं, स़िर्फ मेरी थी और आज मुझे अपनी उस ग़लती का एहसास हो रहा है, जिसने मुझे आज अकेलेपन के दरवाज़े पर ला खड़ा किया है.”
इस पर सुधाजी मुस्कुराती हुई बोल उठीं, “लीजिए, ये आपकी दूसरी भूल होगी जो आप सोचेंगे कि आप अकेले हैं. अरे, मैं आपके साथ हूं, बच्चे आपके साथ हैं. बस, ज़रूरत है तो इतनी कि अब आप भी हम सबके साथ हो लीजिए.”
सुधाजी की बात सुनकर देवेन्द्रजी ने पलभर विचार किया और फिर बोल उठे, “तुम ठीक कहती हो सुधा. जाओ तुषार से कह दो कि हम भी चिड़ियाघर देखने चलेंगे.”
पता नहीं कैसे नन्हें पराग ने यह बात सुन ली और वह ख़ुशी से चिल्लाने लगा, “हुर्रे... दादाजी साथ चलेंगे, दादाजी साथ चलेंगे.”
ये सब देख-सुनकर सुधाजी ने चैन की सांस ली और बोलीं, “चलो, देर से ही सही इन्होंने सच को स्वीकारा तो!”
यही जीवन का यथार्थ है, कई बार जिन बातों को हम अपने जीवन में महत्वहीन समझकर अनदेखा करते चले जाते हैं, वही बातें हमारे ही जीवन में हमें महत्वहीन बनाने का षड्यंत्र रचती रहती हैं और हमें पता भी नहीं चलता. वे अब आश्वस्त थीं कि अब किसी भी तनाव या टकराव के बादल उनके घर पर नहीं छाएंगे और पिता-पुत्र भी आपस में मिलजुल कर प्यार से रहेंगे.