अचानक मुझे मम्मी के चेहरे में मोनालिसा के चेहरे का प्रतिबिंब दिखाई दिया. जैसे उनके चेहरे पर भी एक उदास-सी मुस्कुराहट थी और मन में जाने कितने दुख भरे राज़. यह क्या? मैंने मोनालिसा को देखा, तो उसमें मुझे अपनी मम्मी का चेहरा नज़र आया. मुझे मोनालिसा की उदास व रहस्यमयी मुस्कुराहट में अपनी मम्मी की मुस्कुराहट दिखाई दी. मेरी हथेलियां पसीने से भीग उठी थीं. यह आज मम्मी के चेहरे पर कौन-से भाव हैं, जो मेरे दिल तक सीधे पहुंच रहे हैं.
पेरिस का लूव्र म्यूज़ियम देखने की बड़ी चाह थी मेरे मन में. अब से पहले कई बार मैं रजत से पूछ चुकी थी. “रजत, अंदर से क्यों नहीं देखा तुमने म्यूज़ियम अब तक? पेरिस में दो साल से रहकर भी नहीं गए?”
“दीदी, मुझे पेंटिंग्स का इतना शौक नहीं है न.”
मैंने उसे छेड़ा, “बस, तुम बाहर से ही लूव्र के साथ फोटो खिंचवाकर अपनी डीपी रखना.” रजत हंस पड़ा था. मम्मी, पापा और मैं यूरोप घूमने आए हुए हैं. रजत पेरिस में एमआयएम कर रहा है. आज हम लूव्र जा रहे हैं. विश्व के सबसे प्रसिद्ध संग्रहालयों में से एक है लूव्र. लूव्र का पिरामिड पेरिस का सबसे मशहूर दर्शनीय स्थल है, जहां 35 हज़ार से ज़्यादा पेंटिंग्स और मूर्तियां हैं. यहां विन्ची की मोनालिसा शायद विश्व की सबसे मशहूर पेंटिंग है, माइकल एंजेलो का बनाया 2.15 मीटर ऊंचा स्टैचू उनकी महान कृतियों में से एक है. लूव्र पेरिस का सेंट्रल लैंडमार्क है. पेरिस आकर लूव्र तो जाना ही था.
पापा को पेंटिंग्स, मूर्तियां देखने का कभी ज़्यादा शौक तो नहीं रहा, पर यहां की कला देखकर कौन तारीफ़ किए बिना रह सकता है. पापा भी मुझे मंत्रमुग्ध से दिखे. पेंटिंग्स की ख़ूब फोटो ले रहे थे. उनकी नज़रों में प्रशंसा का भाव देख मुझे अच्छा लगा.
रजत... आज तो वह भी बोरियत के एक्सप्रेशंस नहीं दे पाया. इन पेंटिंग्स को देखकर वह भी हैरान था. कहने लगा, “मुझे तो लगा मैं आज बोर हो जाऊंगा, पर ये सब तो एक से एक मास्टरपीस हैं.”
और मुझे तो ये सब देखने में जो अतुलनीय आनंद आ रहा था... शब्दों में वर्णन नहीं कर सकती. मैंने एक नज़र मम्मी पर डाली. वे हम तीनों से काफ़ी पीछे थीं जैसे किसी जादू के घेरे में हर पेंटिंग के आगे खड़ी होतीं और अपलक पेंटिंग को निहारतीं. मैंने पापा को इशारा करके यह सीन दिखाया. पापा ने मम्मी को छेड़ा, “शुभा, हम भी हैं साथ में. हमें भूल गई क्या?”
मम्मी की नज़रें मुझसे मिलीं, तो मैंने नोट किया कि उनकी आंखों में नमी-सी है, जिसे वह बड़ी महारथ से सबसे छुपाने की नाकाम कोशिश कर रही हैं. नाकाम ही कहूंगी, क्योंकि मैंने तो देख ही लिया था न. बेटी हूं उनकी. जैसे वे मेरी बात मेरे बिना कहे जान जाती हैं, तो उनकी आंखों की यह नमी मुझसे भला कैसे छुप पाती. मैं प्रत्यक्षतः तो चुप रही, पर अब मेरा ध्यान मम्मी की भावभंगिमाओं पर ही लगा था. रजत ने इतने में मेरे कान में कहा, “दीदी, भूख लगी है. यह तो बहुत बड़ा म्यूज़ियम है. खाना खा लें?” एक बज रहा था. मम्मी के खाने का भी टाइम है यह. उन्हें भी भूख लगी होगी.
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मैंने मम्मी से कहा, “मम्मी, लंच कर लें? फिर यहीं आ जाएंगे.”
कुछ गीले-नरम से शब्द मेरे कानों में पड़े, “धैर्या, एक बात मानोगी?”
“बोलो, मम्मी.”
“तुम तीनों जाकर खा लो, मैं बाद में खा लूंगी, यहां से हटने का मन ही नहीं है.”
पापा भी कहने लगे, “नहीं शुभा, लगातार खड़े रहने और चलने से तुम्हारा बैकपेन बढ़ सकता है. तुम्हारा थोड़ा बैठना ज़रूरी है.”
“... पर एक बार इस विंग से एग्ज़िट कर दिया, तो शायद आ नहीं पाएंगे और अभी तो बहुत सारी पेंटिंग्स बची हैं, कहीं देखने से रह न जाएं.”
रजत ने कहा, “इतनी पेंटिंग्स हैं मम्मी, थोड़ी-बहुत रह भी गई, तो कोई बात नहीं.”
मम्मी परेशान-सी दिखीं. “ना... ना... बेटा, कुछ रह न जाए. धैर्या, प्लीज़ तुम तीनों जाओ, खा लो. मैं बाद में खा लूंगी बेटा.”
मैंने कहा, “ठीक है मम्मी, बाद में चलते हैं. बस थोड़ा जल्दी कर लो आप, अभी यह विंग काफ़ी बचा है.”
यह सुनकर मम्मी ने बहुत उत्साह से आगे क़दम बढ़ा दिए. बेहद ख़ूबसूरत कलाकृतियों के बीच कुछ समय और बीत गया. हमेशा समय पर खाने-पीनेवाली मम्मी को आज भूख-प्यास का होश ही नहीं था. लंच करते हुए भी उनके प्रफुल्लित चेहरे पर ज़रा भी थकान नहीं थी. नहीं तो अब तक हम यूरोप में जहां-जहां घूमे थे, मम्मी कभी थककर बैठ जातीं, तो कभी जल्दी से देखकर निपटा देतीं, पर लूव्र में तो यह मेरी कोई और ही मां थी, उनके चेहरे में कुछ तो ऐसा था, जो मैंने लंबे समय से नहीं देखा था. उसके बाद हम उस विंग में गए, जहां विन्ची की विश्व प्रसिद्ध मोनालिसा का चित्र बाहर ही लगा हुआ था. उस हॉल में भीड़ सबसे ज़्यादा थी. एक दीवार पर मोनालिसा थी और उसके सामने की दीवार पर द लास्ट सपर. पेंटिंग्स पर नज़र डालकर मैंने मम्मी को देखा. भीड़ में पेंटिंग के आगे जाकर खड़ी मम्मी पेंटिंग को एकटक देखती हुई. उनकी आंखों से आंसुओं की अविरल धारा बहे चली जा रही थी. मेरे क़दम वहीं जड़ हो गए. मम्मी कभी मोनालिसा को देखतीं, तो कभी मुड़कर द लास्ट सपर को. जैसे उन्हें समझ ही न आ रहा हो कि पहले और ज़्यादा किसे देखें. रजत और पापा अपने-अपने फोन से तस्वीरें लेने में व्यस्त हो गए थे. मम्मी मोनालिसा को कई दिशाओं से देख रही थीं और मैं अपनी मां को... कभी इधर से, कभी उधर से चेहरे पर बच्चों जैसा भोलापन लिए जैसे किसी बच्चे को अचानक कई चीज़ें देखकर समझ नहीं आता न कि पहले कौन-सी चीज़ हाथ में ले. बच्चा कभी कुछ उठाता है, कभी कुछ. ऐसी ही स्थिति मम्मी की थी. इतनी भीड़ में कभी किसी पेंटिंग के सामने खड़ी होतीं, कभी किसी के. आंसू उनके गाल पर बहे चले जा रहे थे. अब मुझसे रुका नहीं गया. मम्मी के कंधे पर हाथ रखकर पूछा, “यह क्या मम्मी? रो क्यों रही हो? देखो कोई और रो रहा है यहां? तबीयत तो ठीक है न?”
मम्मी के आंसू और वेग से बहने लगे. उत्साह के आवेग से रुंधे कंठ से निकला, “धैर्या, ये मोनालिसा... मैंने इसकी पढ़ाई की है और ये लास्ट सपर... मुझे आज तक याद था कि इसमें ऊपर तीन चिड़िया हैं और यह कुत्ता...देखो इसके कलर्स देखो. मैंने सब पढ़ा है ये. कभी सोचा ही नहीं था कि इन पेंटिंग्स को जीवन में अपनी आंखों से देखूंगी. देखो धैर्या, कितनी सुंदर कलर स्कीम. तुम्हें पता है, हमने पढ़ा है यह सब... ये बेहतरीन कलाकार और मोनालिसा को देखो जैसे अभी कुछ कहेगी. इसे बनाने की हम बहुत कोशिश करते थे और फिर कितना हंसते थे. इसके तो आसपास भी नहीं फटक सके हम. दिनभर इसके स्केच बनाने की कोशिश करते थे हम. मेरी एक स्केच बुक तो इसी की प्रैक्टिस से भरी थी, पर ऐसी कहां बनती.” अचानक भीड़ से मम्मी संभलीं. माहौल का आभास हुआ, तो चुप हो गईं. ‘थोड़ा और देख लूं’ कहकर भीड़ में और आगे जाकर देखने की कोशिश करने लगीं.
मैं तो पाषाणवत् खड़ी की खड़ी रह गई. रजत और पापा इधर-उधर हो गए थे. मैं एक कोने में जाकर मम्मी को ही देखते खड़ी हो गई. मेरी आंखें भी भर आई थीं, यह आभास मुझे अभी हुआ था.
यह क्या हो गया हमसे. ड्रॉइंग एंड पेंटिंग में एमए किया था मम्मी ने. मम्मी कितनी पेंटिंग्स बनाती थीं. हमें पढ़ाते हुए बैठे-बैठे हमारी किसी भी नोटबुक के आख़िरी पेज पर स्केच बनाती रहती थीं. स्कूल में बच्चे भी पूछते थे, किसने बनाया. हम गर्व से बताते थे मम्मी ने. मम्मी ने ही तो हमेशा हमारे ड्रॉइंग के होमवर्क किए थे और हमने क्या किया? उनका यह शौक घर और हमारी ज़िम्मेदारियों के बीच कब पीछे छूटता चला गया, हममें से किसी ने परवाह भी नहीं की. पूछा भी नहीं किसी ने कि मम्मी अब क्यों नहीं कुछ बनातीं? क्या अब उनका मन नहीं होता? वे घर के ही काम निपटाती रहीं. उनका एक ही तो शौक था. वह भी खो गया. हम सब कैसे भूल गए कि वे भी एक कलाकार हैं. अपनी कला को गुम होते देख कैसे उनका मन चैन पाता रहा होगा? आज मुझे याद आ रहा है कि कैसे तबीयत ख़राब होने पर भी वे मेरा ड्रॉइंग का होमवर्क करने बैठ गई थीं. कहा था, “अरे, मैं कभी कुछ ड्रॉ करने से थक सकती हूं क्या? जल्दी बताओ क्या बनाना है. बहुत दिन से कुछ नहीं बनाया.”
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जो हमारा ड्रॉइंग का काम करने के लिए बीमारी में भी आतुर हो उठती थीं, उन्हें और कुछ बनाने का मौक़ा क्यों नहीं मिला? उनके अंदर का कलाकार बस हमारा होमवर्क करने में ही संतोष पाता रह गया. बड़ी भूल हुई हमसे. अचानक मुझे मम्मी के चेहरे में मोनालिसा के चेहरे का प्रतिबिंब दिखाई दिया. जैसे उनके चेहरे पर भी एक उदास-सी मुस्कुराहट थी और मन में जाने कितने दुख भरे राज़. यह क्या? मैंने मोनालिसा को देखा, तो उसमें मुझे अपनी मम्मी का चेहरा नज़र आया. मुझे मोनालिसा की उदास व रहस्यमयी मुस्कुराहट में अपनी मम्मी की मुस्कुराहट दिखाई दी. मेरी हथेलियां पसीने से भीग उठी थीं. यह आज मम्मी के चेहरे पर कौन-से भाव हैं, जो मेरे दिल तक सीधे पहुंच रहे हैं. अचानक एक धुंधली-सी याद आई, जब मैं एक दिन स्कूल से लौटी थी, तो मम्मी अपना पेंटिंग का सामान रोते हुए स्टोर रूम में रख रही थीं. नहीं, बात कुछ और थी. यह घर की व्यस्तता नहीं थी, जिसने मम्मी को उनकी कला से दूर किया था. यह कुछ और था. हां, याद आ रहा है. मैंने मम्मी से तब पूछा था कि यह सामान यहां क्यों रख रही हो. मम्मी ऐसे ही मुस्कुराई थीं. हां, ऐसी ही हंसी थी... मोनालिसा जैसी. कहा था, “अब कहां टाइम मिलता है.” उस दिन मुझे खाना खिलाते हुए भी मम्मी अपने आंसू पोंछ रही थीं. क्यों रोई थीं मम्मी उस दिन? क्यों नहीं उसके बाद कभी कुछ बनाया उन्होंने? मैं जानकर रहूंगी कि उस दिन हमारे स्कूल जाने के बाद क्या हुआ था घर में? हमें यह ग़लती सुधारनी होगी. मैं मन ही मन बहुत कुछ सोच चुकी थी. हम चारों इकट्ठा हुए. दूसरे हॉल में जाना था, जहां एक से एक लैंडस्केप्स थे. मम्मी फिर ख़ुशी से झूम उठीं. यहां इस समय ज़्यादा भीड़ नहीं थी. मैंने बात छेड़ी. “मम्मी, इन सबमें कौन-सी बेस्ट है?” मम्मी ने हर तरफ़ देखकर बताया, “यह वाली.”
“मम्मी, ड्रॉइंगरूम के लिए ऐसी बनाओगी?” मम्मी ने एक ठंडी सांस ली, “पता नहीं, क्या कहूं?”
“कहना क्या है. जाते ही ऐसी बनाना. घर के हर रूम में आपकी पेंटिंग होनी चाहिए. हमारे घर में भी एक कलाकार है और हम यहां दूसरे की वाहवाही कर रहे हैं.” मेरे कहने के ढंग पर मम्मी हंस पड़ीं. बोलीं, “देखेंगे.”
मैंने पापा और रजत को जल्दी से इशारा कर दिया था. पहले दोनों कुछ समझे नहीं, फिर मैंने उन्हें आंखों ही आंखों में बहुत कुछ कहा, जिसे दोनों ने सुन लिया. दोनों ने कहा, “हां, ज़रूर बनाना.”
रजत ने कहा, “हमें आपके जितना इंटरेस्ट नहीं है तो क्या हुआ. मैं जब अगली बार इंडिया आऊं, तो आपकी पेंटिंग ड्रॉइंगरूम में होनी चाहिए.” मम्मी ने पापा को देखा. वे भी फ़ौरन बोले, “हां, शुभा, बहुत सालों से तुमने कुछ नहीं बनाया. अब एक मास्टरपीस हो ही जाए.” मम्मी ने इस बात पर जैसे पापा को देखा, मुझे फिर मोनालिसा की मुस्कुराहट याद आई. कुछ था मम्मी की मुस्कुराहट में. क्या था, मुझे जानना था.
मैंने उन्हें कब ऐसा देखा था, याद नहीं. मेरे दिल में जैसे कुछ उमड़ा जा रहा था. कैसी होती हैं मांएं. घर-बच्चों में अपने ही दिल को क्या अच्छा लगता है भूल जाती हैं. कभी ज़िक्र भी नहीं करतीं. कभी जतलाती भी नहीं कि उनका क्या कब छूटता चला गया, पर हमें उन्हें अब याद दिलाना था. मैंने बहुत कुछ सोच लिया था. जाते ही उनके लिए कलर्स, कैनवास. सब सामान आना था यह तय था. पर मुझे उससे पहले बहुत कुछ जानना था. डिनर करते हुए जब हम चारों साथ बैठे, तो टॉपिक लूव्र ही था. हम चारों को ही लूव्र बहुत अच्छा लगा था. मैंने बात छेड़ ही दी, “मम्मी, आपने पेंटिंग बनाना क्यों छोड़ा था?” मम्मी के हाथ का निवाला हाथ में ही रह गया. उन्होंने पापा को देखा. मुझे पलभर में ही मम्मी की आंखों में बहुत कुछ दिखा... दुख, निराशा, नमी. मेरी और रजत की आंखें भी पापा पर टिक गईं.
रजत ने कहा, “हां मम्मी, बताओ न.” मम्मी की आंखों में पापा को जो भी कुछ नज़र आया होगा, पापा ने गंभीर स्वर में शर्मिंदगी के साथ कहा, “मैं बताता हूं. यह सब मेरी ग़लती है. तुम्हारे दादा-दादी शुभा के पेंटिंग के इस शौक से नफ़रत करते थे. अम्मा को लगता था यह बेकार में पैसे उड़ानेवाला शौक है. उन्हें पता नहीं क्यों, शुभा पर ग़ुस्सा आता रहता था. बहुत बाद में मैंने महसूस किया अम्मा शुभा के गुणों से जलती थीं. शुभा में जो गुण हैं, वे अम्मा में नहीं थे. इतना धैर्य, त्याग उनमें कहां था. मैं उनकी इकलौती संतान था. वे शुभा की पेंटिंग, उसके हुनर को मेरे सामने इतने बुरे रूप में रखतीं कि एक दिन मैं उन पर अंधविश्वास कर शुभा की इस कला का अपमान कर बैठा. अम्मा ने मेरे सामने इसकी अधूरी पेंटिंग फाड़कर फेंक दी. मैं चुपचाप देखता रहा. अम्मा को कुछ नहीं कहा. उस दिन शुभा ने जिन नज़रों से मुझे देखा था, मैं अंदर तक शर्मिंदा हो गया था, पर अपने माता-पिता की ग़लत बातों के ख़िलाफ़ बोलने की हिम्मत कभी नहीं कर पाया.
शुभा ने उसी दिन अपना सामान उठाकर स्टोर रूम में रख दिया, फिर कभी कुछ नहीं बनाया. जो बच्चे शुभा से पेंटिंग्स सीखने आते थे, उन सबको शुभा ने अगले दिन ही सिखाने से भी मना कर दिया. मैं शुभा का जीवनसाथी हूं, उसका पति हूं, मैं अपने पति होने का फर्ज़ ठीक से नहीं निभा पाया. मैंने अपनी पत्नी के गुणों की कदर नहीं की. उसका दिल दुखाया है. सालों यह मन ही मन कितना जली होगी. एक कलाकार को अपनी भावनाएं व्यक्त करने से रोका मैंने. कैसे जी होगी यह. फिर भी कभी कोई शिकायत नहीं की. अम्मा-बाबूजी नहीं रहे, पर शुभा ने फिर कभी ब्रश नहीं उठाया. मैंने भी नहीं कहा, पर आज बच्चों के सामने तुमसे माफ़ी मांगता हूं शुभा.” पापा ने कहते-कहते मम्मी का हाथ पकड़ लिया.
“शुभा, जितना समय निकल गया, उसके लिए मुझे माफ़ कर दो. अब घर जाकर अपनी इस कला को नई ऊंचाइयों पर ले जाओ. क्लासेस लो, पेंटिंग्स बनाओ, सब कुछ करो, जो तुम्हें करना था. हम सब तुम्हारे साथ हैं. आज इतना अच्छा दिन था... लूव्र का दिन! आज के दिन मुझे माफ़ कर दो.” मम्मी इस आख़िरी बात पर मुस्कुराईं, तो मुझे लगा मेरी मम्मी, मेरी मोनालिसा की इस मुस्कुराहट के आगे सारी दुनिया की मुस्कुराहट फीकी है. इस मुस्कुराहट में बहुत कुछ था, जो मेरे मन को पुलकित कर गया था.
पूनम अहमद
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