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कहानी- आंखें बोलती हैं 2 (Story Series- Aankhen Bolti Hain 2)

नौकर को नौकर न कहूं, तो क्या कहूं?” निर्मलाजी ने तुनककर कहा, तो रूबी ने उन्हें घूरा. “नौकर भी इंसान होते हैं और ये आपके लिए नौकर होंगे. मेरे लिए मेरे दादा से भी बढ़कर थे.” निर्मलाजी को रूबी की प्रतिक्रिया देखकर ख़ुशी हुई कि वह अभी भी वे मानवीय भावनाएं महसूस करती है, जो बचपन में किया करती थी. “कितना प्यार-दुलार दिया इन्होंने मुझे...” कहते हुए रूबी की आंखों में पूरा बचपन उतर आया.  “अच्छा, कितना लेती है एक दिन का? अच्छी है, तो मैं भी कभी आगे बुला सकती हूं.” रूबी अंजान बनकर पूछने लगी. “500 पर डे पर बात हुई है. सुबह छह बजे आ गई थी, रात तक रहेगी. इसने मेरी समय पर बड़ी मदद की, इसलिए सोच रही हूं, कल जाते समय कुछ खाना-पीना और एक साड़ी दे दूंगी. रिश्तेदारों को बांटने के लिए थोक में मंगाई थी, कुछ बच गई हैं.” स्मिता अपनी धुन में बोलती जा रही थी, मगर रूबी के तन-बदन में जैसे आग लग गई थी. वाह, मेरे यहां से छुट्टी लेकर यहां अपनी जेब गरम कर रही है. दो दिन में हज़ार कमा लेगी. आए तो वापस एक बार, बताती हूं इसे... रूबी का मन ही मन भुनभुनाना शुरू हो गया. सुंदरकांड शुरू हो चुका था. लंका दहन की चौपाईयां पढ़ी जा रही थीं. उधर रूबी के भीतर सुलगी आग में भी लपटें उठ रही थीं. ‘तीन साल में कितना ख़्याल रखा उसका. पिछले महीने बीमारी में हफ़्तेभर की छुट्टी दी थी. बाकी सब पैसे काटती हैं, मगर मैंने कभी नहीं काटे. अपने बेटे के बर्थडे पर उसके बच्चों के लिए भी केक, चॉकलेट भिजवाती हूं. काम बाद में शुरू करवाती हूं, पहले चाय पिलाती हूं. हर दूसरे महीने एडवांस पैसे ले लेती है. अभी भी दो महीने का एडवांस ले रखा है. बड़ा बेटा भी कमा रहा है. फिर भी पैसों के लिए इतनी हाय-हाय. मुझसे झूठ बोला...’ रूबी मन ही मन बुदबुदा रही थी. हनुमानजी लंका जलाने के बाद अपनी पूंछ सागर में डुबोकर बुझा चुके थे, मगर रूबी के हृदय की आग अभी भी नहीं बुझी थी. वह मन ही मन निर्णय कर चुकी थी कि कल से ही दूसरी बाई देखेगी और अपने पैसे वापस लेकर उसे बाहर करेगी. बेटी का यह हाल निर्मलाजी समझ रही थी, मगर यहां कुछ भी कहना-सुनना बेकार था. ख़ैर, दोनों घर पहुंचे, तो निर्मलाजी हल्की-फुल्की बातचीत कर बेटी का मन बहलाने का प्रयास करने लगीं. कुछ रिश्तेदारों की गप्पे, कुछ बचपन के क़िस्से, पर रूबी अभी भी नॉर्मल नहीं थी. तभी निर्मलाजी ने अपने मोबाइल पर फोटो गैलरी खोली और रूबी को दिखाने लगीं. इतनी पुरानी ब्लैक एंड व्हाइट फोटो देखकर रूबी को बड़ा आश्‍चर्य हुआ, “अरे मां, ये फोटो मोबाइल में कैसे? मुझसे भी शेयर करो ना.” “हां, हां करूंगी. पूरी एलबम है मेरे मोबाइल पर. ज़रा देख तो, ये वाली फोटो, कैसी लग रही है तू इस फ्रॉक में और ये पापा के साथ आइस्क्रीम खाते हुए. खा कम रही थी और गिरा ज़्यादा रही थी.” निर्मलाजी हंसते हुए बोलीं, “और ये वाली तो ग़ज़ब है, नौकर के साथ. वो घोड़ा बनकर तुझे पीठ पर सवारी करा रहा है. तब तू पांच-छह बरस की रही होगी.” यह भी पढ़ेधार्मिक कार्यों में शंख बजाने की परंपरा क्यों है? (Did You Know Why We Blow Shankh Before Puja?) “अरे, ये तो रघु काका हैं. इन्हें नौकर क्यों बोल रही हो?” रूबी ने थोड़ा ग़ुस्से से कहा. “नौकर को नौकर न कहूं, तो क्या कहूं?” निर्मलाजी ने तुनककर कहा, तो रूबी ने उन्हें घूरा. “नौकर भी इंसान होते हैं और ये आपके लिए नौकर होंगे. मेरे लिए मेरे दादा से भी बढ़कर थे.” निर्मलाजी को रूबी की प्रतिक्रिया देखकर ख़ुशी हुई कि वह अभी भी वे मानवीय भावनाएं महसूस करती है, जो बचपन में किया करती थी. “कितना प्यार-दुलार दिया इन्होंने मुझे...” कहते हुए रूबी की आंखों में पूरा बचपन उतर आया. रूबी के दादा गांव के बड़े ज़मींदार थे. वैसे वे भले इंसान थे, मगर ज़मींदारी की अकड़ और सख़्ती उनके व्यक्तित्व पर हावी रहा करती थी. रूबी का आरंभिक बचपन गांव की साफ़-सुथरी आबोहवा और सरलता में बीता. रघु काका दादा के मुलाज़िम थे. वैसे तो वे बिल्कुल घर के सदस्य जैसे थे, मगर ज़मींदार साहब की नज़र में तो नौकर ही ठहरे. रूबी का दिन रघु काका की मीठी बोली से ही शुरू होता था, “गुड़िया रानी दिन चढ़ आया है और अभी तलक बिस्तर में दुबकी हो. घोड़े की सवारी करनी है ना, तो जल्दी-जल्दी उठो, नहा-धोकर तैयार हो जाओ, फिर सैर पर चलेंगे.” यह उन दोनों की दिनचर्या थी. काका तड़के पांच बजे ही हवेली आ जाते और गाय-भैसों का काम करते, मसलन- दूध निकालना, चारा डालना, सफ़ाई करना. फिर आठ-नौ बजे के लगभग एक-दो घंटे छोटी गुड़िया की सेवा में हाज़िर रहते. उसे घुमाना-फिराना, उससे मीठी-मीठी बातें करना. रूबी को बचपन में खोया देख निर्मलाजी ने उसे झंझोड़ा... “अरे कहां खो गई? सीधे गांव पहुंच गई लगता है.” “हां मां, सच कितने अच्छे दिन थे वो. रघु काका के चले जाने के बाद तो गांव में बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था.” “हां, कितना रोई थी तू उनके जाने पर.” रघु काका को याद कर रूबी अभी भी रुआंसी हो चली थी. “अच्छा तुझे वो क़िस्सा याद है जब एक दिन रघु काका बड़े उदास आए थे, बेमन से काम कर रहे थे. किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया, मगर तू इतनी छोटी होते हुए भी उनकी उदासी को भांप गई थी. कैसे बार-बार उनका मुंह ऊपर कर आंखों में झांकती हुई पूछ रही थी कि क्या हुआ काका, इतने उदास क्यों हो? वो कह रहे थे कि कहां उदास हूं, ये देखो मैं तो हंस रहा हूं... और फिर ज़ोर-ज़ोर से हंसने की ऐक्टिंग करने लगे थे.” Deepti Mittal      दीप्ति मित्तल

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