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कहानी- ढलती सांझ के प्रेममयी रंग 4 (Story Series- Dhalti Sanjh Ke Premmayi Rang 4)

रोहित भी तो विशाखा से यही चाहता है, थोड़ी चुहल, थोड़ा साथ, थोड़ी रूमानी छेड़छाड़, थोड़ा क्वालिटी टाइम. कभी कंधे पर सिर रखकर कोई चुलबुली-सी फिल्म देखना. हाथ थाम कर आत्मीय बातें करना. अपनापन, थोड़ी परवाह, थोड़ा स्नेह, लेकिन विशाखा को यही सब बचकानापन लगता.
… “कूलिंग ज़्यादा तो नहीं लग रही? कम करने को कहूं क्या टेंडेंट को? चादर ओढ़ लो. कंबल ठीक से ओढ़ा दूं क्या?”
और आंटी खीजकर कहती, “अरे मैं कोई बच्ची हूं. ओढ़ लूंगी जब ठंड लगेगी. आप आराम करो.” फिर विशाखा से बोलीं, “चैन नहीं है ज़रा भी. यह नहीं कि थोड़ा आराम कर लें.”
उनका चेहरा प्रसन्नता से तृप्त संतुष्ट दमक रहा था.
“जीवनभर तो हम परिवार के उत्तरदायित्वों को पूरा करने में ही जुटे रहे. सास-ससुर, चचिया सास-ससुर, ददिया सास-ससुर के साथ ननद-देवरों की भी यह बड़ी फौज थी घर में. 17 लोग थे घर में. पल भर को समय नहीं मिलता था, पर तुम्हारे अंकल दो पल तो आते-जाते साध ही लेते ठिठोली के तब भी. और अब हम भरपूर साथ रहते हैं. जीवनभर संकोच में रहे, लेकिन अब भी अगर संकोच किए, तो रिश्तों की भीड़ में पति ही को खो देंगे…” आंटी सपनीले स्वर में विशाखा को बताते हुए मानो ख़ुद में ही खो गई थीं.
“अब तो हम दोनों आंगन में झूले पर बैठ चाय पीते हैं. दोपहर भर बतियाते हैं. शाम को साथ में सैर करने जाते हैं. एकाध दोपहर सिनेमा भी देख आते हैं. जीवनभर की दूरी को मिटा लिया है. उम्रभर तो सभी को आपकी ज़रूरत होती है, लेकिन इस उम्र में ही आकर फ़ुर्सत मिलती है एक-दूसरे के साथ समय बिताने की. सो हम तो पूरा आनंद लेते हैं इस समय का. अब हम ही तो सच्चे साथी हैं सुख-दुख के, फिर तो पता नहीं कब बुलावा आ जाए.” आंटी सरल मन से अपने दिल की बात कहते हुए अपनी कहानी कह रही थीं, लेकिन विशाखा को लग रहा था जैसे आंटी उसे समझा रही हैं, जबकि वह तो उसके बारे में कुछ भी नहीं जानती.
रोहित भी तो विशाखा से यही चाहता है, थोड़ी चुहल, थोड़ा साथ, थोड़ी रूमानी छेड़छाड़, थोड़ा क्वालिटी टाइम. कभी कंधे पर सिर रखकर कोई चुलबुली-सी फिल्म देखना. हाथ थाम कर आत्मीय बातें करना. अपनापन, थोड़ी परवाह, थोड़ा स्नेह, लेकिन विशाखा को यही सब बचकानापन लगता.
56 साल की उम्र में ही उसका मन बैरागी होता जा रहा है. वह रोहित की ऐसी चेष्टा पर उसे उम्र का हवाला देकर झिड़क देती. यह सब उसे कम उम्र के चोंचले लगते. इन सबके पीछे की आत्मीयता के धागे वह कभी देख ही नहीं पाई. रोहित उसके साथ समय बिताने के उद्देश्य से बाहर घूमने को कहता, तो वह या तो मना कर देती या बेटे-बहू को या पोता-पोती को साथ ले लेती. रोहित उसका साथ चाहता है.
हमउम्र जीवनसाथी की उसे इस उम्र में ज़रूरत है, यह कभी उसके मन मैं आया ही नहीं. लेकिन अब अंकल-आंटी को देखकर उसे एहसास हो रहा था कि वह कितनी ग़लत है. अभी भी तो रोहित उसके द्वारा एकदम से झिड़क दिए जाने पर कितना आहत हो उठा था कि दोनों के बीच संवाद ही बंद हो गया. एक घुटन-सी छाई रहती, जो असह्य हो चली तो वह उससे दूर ही चली आई.
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“दस बज गए. तुम्हारी दवाई का समय हो गया ना. मैं देता हूं.” ठीक दस बजे बिना अलार्म के भी अंकल जाग गए.
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डॉ. विनीता राहुरीकर
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