Close

कहानी- परिदृश्य 2 (Story Series- Paridrishay 2)

काश, मैं व़क्त के इस अंतराल को मिटाकर अपनी भूल को सुधार पाती, किंतु गुज़रा व़क्त क्या कभी लौट पाया है? अभिनव को लेकर मैं आज भी पज़ेसिव हूं. वे मुझे अपना मानें या न मानें, किंतु आज भी मैं उन्हें अपना ही मानती हूं, फिर कैसे मैं उन्हें किसी और का हो जाने दूं. आंसुओं से मेरा चेहरा भीग उठा. एक शाम अभिनव ऑफिस से लौटे, तो बेहद प्रसन्न थे. मेरे गले में बांहें डाल बोले, “काव्या, इस माह की 20 तारीख़ को मम्मी-पापा आ रहे हैं.” मुझे बिजली का करंट-सा लगा. स्वयं को उनके बंधन से मुक्त करते हुए बोली, “तुमने ख़ुुद ही प्रोग्राम बना लिया. मुझसे पूछना भी ज़रूरी नहीं समझा?” आश्‍चर्यमिश्रित क्रोध के भाव मेरे चेहरे पर थे. “काव्या, इसमें पूछने जैसी क्या बात है? विवाह के बाद तुम मात्र सात दिन ससुराल में रहीं, फिर यहां आ गईं. बहुत दिनों से उनकी अपनी बहू के साथ रहने की इच्छा थी. मेरा ख़्याल था, इस ख़बर से तुम प्रसन्न हो उठोगी, किंतु तुम्हारे चेहरे का तो रंग ही उड़ गया.” अभिनव गौर से मेरा चेहरा देख रहे थे. मैं उन्हें क्या बताती कि सास-ससुर से निभाना, उनका दायित्व उठाना मेरे बस की बात नहीं है. अगले दिन अभिनव के ऑफिस जाने पर मैं अपनी कॉलेज फ्रेंड प्रीशा के घर गई, जो न्यूयॉर्क में ही थी. उसके और मेरे बीच काफ़ी अंतरंगता थी. सारी बातें सुनकर वह बोली, “देख काव्या, पति से जुड़े रिश्तों को निभाना पत्नी का कर्त्तव्य भी है और समझदारी भी. ख़ुशक़िस्मत है तू, जो तुझे अभिनव जैसे केयरिंग पति मिले हैं. स़िर्फ तीन महीने की ही तो बात है. मम्मी-पापा के साथ अच्छे से निभा लेना, ताकि तेरे और अभिनव के रिश्ते की डोर और मज़बूत हो जाए.” “यही बात तू नहीं समझ रही है प्रीशा. एक बार उनका यहां मन लग गया, तो वे बार-बार आएंगे. रही अभिनव की बात, तो उन्हें मैं बाद में मना लूंगी.” प्रीशा के बार-बार समझाने के बावजूद मैंने मम्मी-पापा का स्वागत बेमन से किया. मेरी उदासीनता को महसूस करते हुए भी वे दोनों मुझसे प्यार से बात करते, मेरा ख़्याल रखते. अक्सर दोपहर में अभिनव के बचपन की, तो कभी कॉलेज टाइम की बातें बताने बैठ जाते. उन्होंने हमारे रिश्ते के इस पौधे को अपने स्नेह द्वारा सींचने का भरपूर प्रयास किया, किंतु मैंने बहुत ही चतुराई से उनके इस प्रयास को विफल कर दिया. लंच बनाने से बचने के लिए दोपहर में कभी अपनी किसी फ्रेंड के घर, तो कभी शॉपिंग करने के बहाने से मैं घर से निकल जाती थी. शाम के समय भी मैं बेमन से ही किचन में जाती थी. इस पर मेरी अक्सर अभिनव से कहा-सुनी हो जाती थी. उन्हें इस बात का बहुत मलाल था कि मैं मम्मी-पापा का ख़्याल नहीं रख रही थी. न्यूयॉर्क के आसपास घुमाने के बाद उन्होंने कैलिफोर्निया जाने का प्लान बनाया था, जिसे मैंने सहजता से पापा के कानों में यह बात डालकर कि वहां जाना बहुत ख़र्चीला है, प्रोग्राम कैंसिल करवा दिया. इसी खींचतान में तीन माह गुज़र गए और उनके वापस लौटने का दिन आ गया. अपनी ख़ुशी को मन में दबाए मैं पैकिंग में व्यस्त थी, तभी मैंने अभिनव को पापा से कहते सुना, “आप दोनों अपना मुंबई का घर बेचने का प्रयास कीजिए, क्योंकि मैं आपका ग्रीन कार्ड लगवा रहा हूं.” “नहीं बेटा, हम दोनों वहीं ठीक हैं. यहां रहना संभव नहीं हो सकेगा.” यह भी पढ़ेलघु उद्योग- इको फ्रेंडली बैग मेकिंग: फ़ायदे का बिज़नेस (Small Scale Industries- Profitable Business: Eco-Friendly Bags) “पापा, आप दोनों वहां अकेले रहते हैं. मुझे आपकी चिंता रहती है. अपने काम पर भी ठीक से ध्यान नहीं दे पाता. आप क्या चाहते हैं, मैं सदैव तनाव में रहूं.” अभिनव का आर्द्र स्वर मेरे कानों से टकराया. “काव्या की सलाह ली क्या तुमने? बेटा, वह तुम्हारी पत्नी है. उसकी सहमति भी आवश्यक है. हम नहीं चाहते, हमारी वजह से तुम्हारे आपसी मतभेद हों.” मुझे लगा, ऐसा कहकर मम्मी अभिनव की नज़रों में ऊंचा उठना चाह रही हैं. “मम्मी, काव्या की आप चिंता मत कीजिए. वह अपने मां-बाप की इकलौती बेटी है. उसमें अभी बचपना है. साथ में रहेगी, तो धीरे-धीरे उसे रिश्तों की अहमियत समझ में आ जाएगी.” अभिनव बोल रहे थे. क्रोध में मेरा सर्वांग कांप उठा. मम्मी-पापा को एयरपोर्ट छोड़कर रात में अभिनव लौटे, तो मुझे आलिंगनबद्ध करना चाहा. मैंने उनका हाथ झटक दिया. अचरज से वह बोले, “क्या बात है? इतना ग़ुस्सा किसलिए? तुम्हें तो ख़ुश होना चाहिए, मम्मी-पापा चले गए हैं.” उनके चेहरे पर व्यंग्यभरी मुस्कुराहट थी. “हां, चले गए हैं. यहां परमानेंटली सेटल होने के लिए...” आग्नेय नेत्रों से घूरते हुए मैं बोली और फिर जमकर हम दोनों के बीच झगड़ा हुआ. काफ़ी दिनों तक अभिनव मुझे समझाते रहे, किंतु मैं मम्मी-पापा को अपने पास बुलाने के लिए सहमत नहीं हुई. यहां तक कि मैंने उनसे फोन पर बात करना भी बंद कर दी. प्रीशा ने कहा भी था, “काव्या, विवाह स़िर्फ पति-पत्नी को ही रिश्ते में नहीं बांधता, पूरे परिवार को बांधता है. अभिनव की बात मान जा. ऐसा न हो, तुम दोनों के बीच दूरियां बढ़ जाएं.” किंतु कहते हैं न विनाश काले विपरीत बुद्धि. मैंने उसकी बात को अनसुना कर दिया. धीरे-धीरे अभिनव के हृदय के कपाट मेरे लिए कुछ इस तरह बंद हो गए कि मेरे आंसुओं का तीव्र वेग भी उन्हें खोल न सका. काश, मैं समझ पाती कि स्त्री की तरह पुरुष भी मात्र हाड़-मांस का शरीर नहीं होते, बल्कि उस शरीर में एक मन भी होता है, जिसमें कोमल भावनाएं होती हैं. अपनों के लिए स्नेह होता है. क्यों मैंने चाहा कि अभिनव स़िर्फ मेरे होकर रहें और अपने माता-पिता को छोड़ दें. यह भी पढ़ेबेवफ़ाई के बाद कैसे सुधारें रिश्ते को? (Repair Your Relationship After Being Cheated On) ...और अब जबकि सब कुछ समाप्त होनेवाला है, पश्‍चाताप से मेरा मन रात-दिन कलपता है. मेरे द्वारा मम्मी-पापा की अवहेलना करने पर अभिनव का वह निरीह और बेबस-सा चेहरा जब-जब स्मृतियों में कौंधता है, मन में एक हूक-सी उठती है. क्या अभिनव से यह अपेक्षित था कि वह मेरे मम्मी-पापा का अनादर करते... फिर मैंने क्यों...? एक आह-सी निकली मुख से. काश, मैं व़क्त के इस अंतराल को मिटाकर अपनी भूल को सुधार पाती, किंतु गुज़रा व़क्त क्या कभी लौट पाया है? अभिनव को लेकर मैं आज भी पज़ेसिव हूं. वे मुझे अपना मानें या न मानें, किंतु आज भी मैं उन्हें अपना ही मानती हूं, फिर कैसे मैं उन्हें किसी और का हो जाने दूं. आंसुओं से मेरा चेहरा भीग उठा.          रेनू मंडल

अधिक शॉर्ट स्टोरीज के लिए यहाँ क्लिक करें – SHORT STORiES

Share this article