Close

कहानी- प्रतीक्षा 3 (Story Series- Praktisha 3)

विभोर न जाने क्या-क्या कहता रहा और मैं सुनती रही. मैं जिस विभोर को जानती थी, यह तो वह बिल्कुल न था. मेरे लिए वह पत्थर का नहीं, जीता-जागता देवता का रूप था. लेकिन आज मुझे वह पत्थर से भी ज़्यादा कठोर लग रहा था. मुझे आज पहली बार अपनी पसंद पर दुख हुआ. सोचा, क्या मेरा चुनाव सही था? मुझे अपने चारों ओर अंधा गहरा जंगल-सा महसूस हुआ, जिसकी सभी राहें मानो गुम हों और मैं जिन संभावनाओं से जुड़ी हुई थी, उसमें मुझे अपना अस्तित्व हवा में झूलते हुए जालों की मानिंद महसूस हुआ. मुझे मेरी ही निराशा लहूलुहान कर रही थी. प्यार का सागर कुछ पलों में ही सूख गया था. वह पहले तो धीरे-धीरे बोल रहा था, फिर उसका दिमाग़ असंतुलित हो उठा और वह अचानक गुस्से से चीखने-सा लगा. “क्यों आई हो खाली हाथ? क्या होगा परदेश में बिना पैसे के? कितने दिन से मैं तुम्हें समझा रहा था?...” और जाने क्या-क्या वह कहता चला गया. उसे इतना असहज होते हुए मैंने पहली बार ही देखा. मैंने कहा, “पहले मेरी भी तो बात सुनो?” मैंने प्यार से उसका हाथ पकड़ना चाहा, तो उसने क्रोध में मेरा हाथ झटक दिया. वह कुछ भी सुनने के लिए तैयार न था. मैंने उसके क्रोध के सागर में एक भंवर उठते देखा, जिसमें मुझे डूबने का ख़तरा नज़र आया. मैंने सोचा, सच बता ही दूं कि मैं तुम्हारे अनुमान से अधिक धन लेकर आई हूं, लेकिन तभी मन ने कहा, ठहरो, पहले इसे परख तो लो और मन का कहा मानकर मैं चुप ही रही. विभोर न जाने क्या-क्या कहता रहा और मैं सुनती रही. मैं जिस विभोर को जानती थी, यह तो वह बिल्कुल न था. मेरे लिए वह पत्थर का नहीं, जीता-जागता देवता का रूप था. लेकिन आज मुझे वह पत्थर से भी ज़्यादा कठोर लग रहा था. मुझे आज पहली बार अपनी पसंद पर दुख हुआ. सोचा, क्या मेरा चुनाव सही था? मुझे अपने चारों ओर अंधा गहरा जंगल-सा महसूस हुआ, जिसकी सभी राहें मानो गुम हों और मैं जिन संभावनाओं से जुड़ी हुई थी, उसमें मुझे अपना अस्तित्व हवा में झूलते हुए जालों की मानिंद महसूस हुआ. मुझे मेरी ही निराशा लहूलुहान कर रही थी. प्यार का सागर कुछ पलों में ही सूख गया था. विभोर बहुत देर तक कुछ सोचता रहा, फिर जल्दी से बोला, “सुनो सोनिया, मैं बिना पैसे के इस शहर से एक क़दम भी बाहर नहीं रख सकता हूं. यदि तुम मेरा प्यार और जीवनभर साथ चाहती हो, तो कल इसी समय इसी ट्रेन से चलेंगे. पर इस बार पूरी तैयारी से आना. मैं टिकट कैंसल करवाकर कल का रिज़र्वेशन करवा लेता हूं.” विभोर की पोल खुल चुकी थी. मैं समझ चुकी थी कि उसके लिए पैसा ही सब कुछ है. अब मैं उसकी बातों के सम्मोहन से पूरी तरह मुक्त हो चुकी थी. यह भी पढ़ें: क्या आप इमोशनली इंटेलिजेंट हैं? (How Emotionally Intelligent Are You?) मैं भी विभोर को बहुत कुछ कहना चाहती थी. लेकिन मैं ख़ामोशी के दामन को ओढ़कर अपने में ही दुबक कर रह गई. मैंने सोच लिया कि ऐसे जीवनसाथी के साथ जीवन काटना मुश्किल ही नहीं, असंभव होगा. वह न जाने क्या-क्या बड़बड़ाता रहा और अचानक झुंझलाकर तेज़ी से चला गया. उसके जाते ही मैंने एक गहरी सुख की सांस ली. अब मेरा मन शांत होकर एक तूफ़ान के गुज़रने के बाद की शांति महसूस कर रहा था. मुझे लगा कि दुनिया में कहीं जगह हो न हो, लेकिन अभी भी मेरे लिए एक ऐसी छत है, जिसके नीचे मेरा एक कमरा और उस कमरे में मेरा बिस्तर है जो अभी भी मेरा इंतज़ार कर रहा है. मैं अभी इतनी दूर भी नहीं आई थी कि मेरा लौटना असंभव होता. मैं मन ही मन हंसी और सधे हुए क़दमों से रेलवे स्टेशन से बाहर आई. कब मैंने ऑटो किया, कब बैठी और कब घर आई मुझे बिल्कुल याद नहीं. हां, मुझे इतना अवश्य याद है कि मां के तकिए के नीचे से धीरे-से चाबी निकालकर लॉकर में सारे जेवर और रुपए यथास्थान रखकर मैं अपने बिस्तर पर चली गई. मुझे अब प्रतीक्षा थी आगामी रविवार की और आनेवाले उस नवयुवक की, जो निश्‍चित रूप से मेरा जीवनसाथी होगा, ऐसा मुझे विश्‍वास है. Prabhat Dubey       प्रभात दुबे

अधिक शॉर्ट स्टोरीज के लिए यहाँ क्लिक करें – SHORT STORIES

Share this article