‘‘पायल, चार-पांच दिनों में मां और पापा यहां आ रहे हैं.’’ मुझे धक्का-सा लगा. उनकी बांहों के घेरे से स्वयं को मुक्त करते हुए बोली, ‘‘उन्हें बुलाने से पहले तुमने मुझसे पूछना आवश्यक नहीं समझा?"
‘‘अपने मां-पापा को बुलाने के लिए क्या मुझे तुम्हारी इजाज़त लेनी होगी?" ‘‘इजाज़त नहीं, सलाह तो ले ही सकते थे.’’
... तीन दिन मायके में रहकर गुरुग्राम लौटी, तो साथ में मम्मी की नसीहतों की पोटली भी गांठ बांध लाई थी कि सास-ससुर कभी माता-पिता नहीं बन सकते. दुख-दर्द में मायकेवाले ही काम आते हैं, ससुरालवाले कभी नहीं, इसलिए उनसे दूरी बनाकर चलने में ही भलाई है. इन नसीहतों ने मेरे मन के द्वार कुछ इस तरह बंद कर दिए कि सास-ससुर के स्नेह की फुहारें मेरे हृदय को भिगो नहीं पाईं. आज सोच रही हूं, 'काश सचिन उस समय इतना समझौतावादी दृष्टिकोण न अपनाते. मेरे प्रति इतने उदारवादी न हुए होते, तो मैं भी इतनी हठधर्मी न हुई होती. किंतु हृदय ने तुरंत ही बुद्धि द्वारा दिए गए इस तर्क को सिरे से नकार दिया. अक्सर इंसान स्वयं का अपराधबोध कम करने के लिए, अपने मन के बोझ को हल्का करने के लिए ऐसे बहाने गढ़ लेता है. अन्यथा क्या मैं नहीं जानती कि सचिन मुझसे कितना प्रेम करते हैं. मुझे हर हाल में प्रसन्न देखना चाहते हैं. वह तो मैं ही उनकी भावनाओं का सम्मान नहीं कर पाई. अगर करती तो उस दिन सचिन के यह कहने पर कि सीढ़ियों से गिरने के कारण मां के पैर में फ्रैक्चर हो गया है, मैं तुरंत रुड़की जाने के लिए तैयार हो जाती. किंतु मैंने उनसे कहा, ‘‘सचिन, तुम्हें पता है एक माह पश्चात छोटे भाई अंकुर का विवाह है. मम्मी के साथ शाॅपिंग करवानी है.’’ ‘‘पायल, मां को फ्रैक्चर हुआ है. क्या तुम इस बात की गम्भीरता को नहीं समझ रही. मैं और पापा सब कुछ अकेले कैसे सम्भालेंगे? घर में एक स्त्री का होना आवश्यक है.’’ ‘‘दीदी को बुला लो न. मुझे शादी की...’’ सचिन ने मेरी बात बीच में काट कठोर नज़रों से मुझे देखा, ‘‘तुम घर की बहू हो. तुम्हारा कर्तव्य पहले है. दस दिन मां की देखभाल करो, फिर दीदी को बुला लूंगा.’’ बेमन से ही मुझे सचिन के साथ रुड़की जाना पड़ा था, अपना कर्तव्य निर्वहन करने. मां और पापा मुझे देख बहुत प्रसन्न हुए थे. सचिन ने 15 दिन की छुट्टी ले ली थी. भरपूर सहयोग दे रहे थे वह मुझे फिर भी मैं संतुष्ट नहीं थी. मन तो मेरा मायके में पड़ा हुआ था. मां और पापा की प्रशंसा, उनका स्नेह मेरे लिए बेमानी था. प्रत्युत्तर में औपचाकिता में लिपटी फीकी मुस्कान के अतिरिक्त मैं उन्हें कुछ न दे पाई. दस दिन पश्चात ननद के आ जाने पर पिंजरे से छूटे पंछी की तरह ही एक मुक्तता का एहसास हुआ था मुझे और मैं मायके पहुंच गई थी. छोटे भाई की शादी का सारा दायित्व मैंने पूरी शिद्दत से निभाया. धूमधाम से अंकुर की शादी हुई. हफ़्तेभर बाद मैं अपने घर लौट आई. अंकुर और उसकी पत्नी तनु कई बार गुरुग्राम आए और हम चारों ने ख़ूब मस्ती की. हर बार मैंने मंहगे-मंहगे उपहार उन्हें दिए. एक शाम ऑफिस से लौटने पर सचिन बेहद प्रसन्न थे. मुझे अपनी बांहों के घेरे में लेकर बोले, ‘‘पायल, चार-पांच दिनों में मां और पापा यहां आ रहे हैं.’’ मुझे धक्का-सा लगा. उनकी बांहों के घेरे से स्वयं को मुक्त करते हुए बोली, ‘‘उन्हें बुलाने से पहले तुमने मुझसे पूछना आवश्यक नहीं समझा?" ‘‘अपने मां-पापा को बुलाने के लिए क्या मुझे तुम्हारी इजाज़त लेनी होगी?" ‘‘इजाज़त नहीं, सलाह तो ले ही सकते थे.’’ ‘‘पायल, तुम्हारे मायके से सभी आते हैं. क्या मेरी यही प्रतिक्रिया होती है? नहीं पायल, मैं भलीभांति समझ गया हूं कि तुम मेरे घरवालों से निभाना नहीं चाहती.’’ सचिन बाहर चले गए. मेरा मन बेहद उदिग्न था. सारी रात करवट बदलते बीती. यह भी पढ़ें: शादीशुदा ज़िंदगी में कैसा हो पैरेंट्स का रोल? (What Role Do Parents Play In Their Childrens Married Life?) अगले दिन फोन पर मम्मी को बताया, वह बोलीं, ‘‘पायल, याद रखना, एक बार उनका मन वहां लग गया, तो वे बार-बार आएंगे, इसलिए अपनी गृहस्थी में दख़लअंदाज़ी बिल्कुल बर्दाश्त मत करना. रिज़र्व रहना, ताकि वे जल्दी चले जाएं..." काश! मम्मी मुझे समझातीं कि पति से जुड़े रिश्तों को निभाना पत्नी का कर्तव्य भी है और समझदारी भी, तभी तो उनके रिश्ते की डोर मज़बूत होगी. पांच दिन पश्चात मां-पापा के आगमन पर बेमन से ही मैंने उनका स्वागत किया. मेरी उदासीनता को नज़रअंदाज़ कर यथासम्भव वे मुझसे अपनत्व रखने का प्रयास करते... अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें... रेनू मंडल अधिक शॉर्ट स्टोरीज के लिए यहाँ क्लिक करें – SHORT STORIES
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