सती पुत्री के यशस्वी परिवार से रिश्ता जोड़ने को उतावले लोग कदाचित यह भूल गए कि अपनी बहू को ख़ुद इन्होंने अपनी लापरवाही से मार दिया और एक बेटी को जीवित रहते प्रताड़ना का दंश देकर मृत प्राय कर रखा है और दूसरी इसी भय के कारण मुक्ति पा गयी थी. कैसा त्रिकोण था. कैसी त्रासदी थी..? सती होने के पीछे कितनी-कितनी अन्तर्वेदनाओं की गंगा बहती है, इसे कौन जान सकता है?
बीच-बीच में मुझे होश भी आता तो न जाने क्या-क्या ऊलजुलूल बक कर पुनः होश खो बैठती... भाभी, तुम भी चली गयी. अब तुम्हारे साथ भइया सता होगा सता...
“रत्ना देख, तूने मां की कोख रोशन कर दी. अब भइया भी पीछे नहीं रहेगा... सता होगा, पर मैं सदा से आभागी बेहया हूं, मैं बेहया..!”
दाई मुझे सम्भालने-समझाने की निरर्थक चेष्टा कर रही थी. मां-बाबूजी, भइया आए, उन्हें यह मनहूस ख़बर मिली तो ठगे-से रह गए. मैंने हौले से आंखें खोलीं और हंस पड़ी व्यंग्य से... आक्रोश से.... अंतहीन दुःख से, जो अपनी सम्पूर्ण सीमाएं तोड़ चुका था. मेरा अन्तर जल रहा था. रोम-रोम में आग धधक रही थी.
मां ने मेरे अश्रुधुलित मुंह को अपने हाथ से कस कर बंद कर दिया, “पागल हो गयी है. बंद कर अपनी बकवास. तेरे पास छोड़ कर गयी थी उसको... तो और क्या होता? तेरी तो छाया ही मनहूस है.”
भौंचक्की रह गयी मैं... क्या अब भाभी की मौत की ज़िम्मेदार भी मैं थी...? आसन्न प्रसवा कमज़ोर बहू को मुझ जैसी तथा अनुभवहीन के पास छोड़ जाना उनकी अमानवियता नहीं थी?
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महीने भर के बाद ही भाई के विवाह के लिए पुनः रिश्ते आने लगे तो मैं विचलित हो उठी. कहीं जाना नहीं पड़ा था. एक ही घर में विधाता ने समाज का वास्तविक खाका खींच कर धर दिया था. सती पुत्री के यशस्वी परिवार से रिश्ता जोड़ने को उतावले लोग कदाचित यह भूल गए कि अपनी बहू को ख़ुद इन्होंने अपनी लापरवाही से मार दिया और एक बेटी को जीवित रहते प्रताड़ना का दंश देकर मृत प्राय कर रखा है और दूसरी इसी भय के कारण मुक्ति पा गयी थी. कैसा त्रिकोण था. कैसी त्रासदी थी..? सती होने के पीछे कितनी-कितनी अन्तर्वेदनाओं की गंगा बहती है, इसे कौन जान सकता है?
- निर्मला डोसी
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