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कहानी- अनबॉक्स ज़िंदगी 1 (Story Series: Unbox Zindagi 1)

पारिजात की कहानियों की नायक-नायिका भी तो अक्सर यूं ही बाग-बगीचों, फूलों, तितलियों, झरनों को छूते, निहारते नज़र आ जाते हैं. बनावटी दुनिया से कोसों दूर इसी जहां की ख़ूबसूरती में मग्न ज़िंदगी को हर पल खुलकर जीते हैं. कितने सकारात्मक रहते हैं वे, हर बात में ख़ुशी ढूंढ़ लेते हैं. वे किसी भी उम्र के हों प्रकृति से उनका प्रेम, तारतम्य देखते ही बनता है. सच, कितना सुकून, कितनी स्फूर्ति मिल रही है. नीचे हरी घास पर बिछे लाल-पीले फूल, ऊपर फूलों से लदी शाखों के बीच से ये स़फेद बादलों की टोली, उड़ता झांकता आसमान. घास पर चलते हुए उसे सुखद अनुभूति हो रही थी. आज कितने दिन बाद वह खुली हवा में, किसी पार्क में प्रकृति के बीच टहल रहा था. अजीब-सा इश्क़ हो गया था मुझे पारिजात की कहानियों से. मैगज़ीन स्टॉलों पर मैं अक्सर ढूंढ़ा करता था. पन्ने उलटता-पलटता. एक-दो पत्रिकाएं तो मैंने सबस्क्राइब भी की हुई थीं, जिनमें उसकी रचनाएं अधिकतर प्रकाशित होती रहतीं. ज़िंदगी की छोटी-छोटी बातों को लेकर लिखी हुई घटनाएं सीधे दिल में उतर जाया करतीं. उनमें वर्णित घटनाएं लगता था मुझसे ही जुड़ी हुई हों, जैसे उसे मेरी पिछली या वर्तमान ज़िंदगी के बारे में सब कुछ पता हो. कहानियों-कविताओं के माध्यम से वो उसकी सांसों में बसने लगी थी. किसी भी पत्रिका में उसका कोई पता, फोटो भी नहीं दिया होता. एक दिन मैं पता करने के उद्देश्य से उसकी पत्रिका के कार्यालय पहुंच गया, शायद वहां उसका पता चले. वहां जब मालूम हुआ कि वो इसी शहर की रहनेवाली है, तो मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा. मैंने झट डायरी और पेन निकाला, पता नोट करने लगा- पारिजात दत्ता, ए-215, गुलमोहर मोड़, स्वामी नगर, पंचशील, नई दिल्ली. मैंने डायरी जेब में रख ली थी. मन ख़ुशी से झूम रहा था कि जल्दी ही मैं शायद उससे रू-ब-रू होऊंगा. दूसरे दिन मैं सुबह तड़के उठा. सौभाग्य से मुझे रोड पर आते ही एक ऑटो मिल गया.  लगभग आधे घंटे बाद मैं अपनी मंज़िल पर खड़ा था. घड़ी देखा सुबह के क़रीब साढ़े छह बज रहे थे. अभी बहुत जल्दी है, बेल बजाऊं या नहीं? मैं असमंजस में था. कुछ सोचते हुए मैं गुलमोहर और अमलताश के लाल-पीले वृक्षों से घिरे पार्क की ओर मुड़ गया. ‘थोड़ी देर घूमकर ही आता हूं.’ मैं बड़े पार्क की घास पर, तो कभी पेवमेंट पर चलने लगा. मार्च-अप्रैल महीने की एक ख़ुशनुमा सुबह थी. हल्की फुहार पड़ने के बाद बादलों के टुकड़े हवा में तैरने लगे थे. अमलताश और गुलमोहर के फूलों की भीनी-भीनी ख़ुशबू सारे वातावरण में रची-बसी थी. मैं झुककर नीचे गिरे कुछ नहाए से तरोताज़ा फूल उठाकर हथेलियों पर रखने लगा था. उनको छूकर सूंघते टहलना अच्छा लग रहा था. पारिजात की कहानियों की नायक-नायिका भी तो अक्सर यूं ही बाग-बगीचों, फूलों, तितलियों, झरनों को छूते, निहारते नज़र आ जाते हैं. बनावटी दुनिया से कोसों दूर इसी जहां की ख़ूबसूरती में मग्न ज़िंदगी को हर पल खुलकर जीते हैं. कितने सकारात्मक रहते हैं वे, हर बात में ख़ुशी ढूंढ़ लेते हैं. वे किसी भी उम्र के हों प्रकृति से उनका प्रेम, तारतम्य देखते ही बनता है. सच, कितना सुकून, कितनी स्फूर्ति मिल रही है. नीचे हरी घास पर बिछे लाल-पीले फूल, ऊपर फूलों से लदी शाखों के बीच से ये स़फेद बादलों की टोली, उड़ता झांकता आसमान. घास पर चलते हुए उसे सुखद अनुभूति हो रही थी. आज कितने दिन बाद वह खुली हवा में, किसी पार्क में प्रकृति के बीच टहल रहा था. प्राचीन इतिहास में एमफिल, पीएचडी कर रहा मकरंद, प्राचीन पत्थरों इमारतों से माथापच्ची करते हुए, कॉलेज में और अलग से ट्यूशन्स पढ़ाते हुए थक चुका था. शुक्र है, शोध कार्य के सिलसिले में ऊंची इमारतोंवाले मुंबई शहर से दूर दिल्ली आने का अवसर मिला. उसने फिर एक ताज़ा गिरे गुलमोहर के चित्तीदार लाल फूल को उठाकर दांतों से हल्का-सा दबाया, थोड़ी खटास का स्वाद मुंह में आने लगा. यह भी पढ़ेइन 9 आदतोंवाली लड़कियों से दूर भागते हैं लड़के (9 Habits Of Women That Turn Men Off) उसकी एक नायिका मालविका ने कैसे हंसते हुए नायक पलाश की आंखें बंद कर कैसे-कैसे फूल एक के बाद एक चखने के लिए मुंह में रख दिए थे. जब वह स्वाद से सोचकर बतलाता कि कौन-सा फूल है, ग़लत होने पर वह कैसे ताली बजा-बजाकर बच्चों-सी हंसती. उन फूलों में एक ये भी था गुलमोहर. और उसकी कहानी ‘बरसात’ की वैदेही को कैसे भूल सकता हूं, जो हर बारिश में काग़ज़ न मिलता, तो अपनी या नायक राजवीर की चप्पलें बहते पानी में डालकर बहता हुआ देखती, ख़ुश होती हुई उसके साथ कुलांचे भरते हुए दूर निकल जाती. राजवीर उसके अल्हड़पन पर मुस्कुराता, पुकारता गीली मिट्टी की सोंधी सुगंध में धंसते पैरों से उसके पीछे चलता जाता. मकरंद का मन भी करने लगता वह राजवीर की तरह भागकर अपनी वैदेही पारिजात के पास पहुंच जाए और कहे ऐसी उन्मुक्त ख़ुुशी उसे भी दे दे. जहां कुछ बनावटी न हो, न कोई ज़बर्दस्ती, न कोई बंदिश. अपने खाली समय में बस वो दीवानावार पारिजात की कहानियां पढ़ता हुआ जाने कब वह पारिजात का ही दीवाना बन बैठा था. इतना सुहावना मौसम, पर कोई दिख नहीं रहा. लगता है घरों में दुबके सब संडे मना रहे हैं. सही तो कहती है पारिजात, ज़िंदगी को हमने ख़ुद ही बॉक्स में बंद कर रखा है. उसी में सांस लेने की आदत हमने डाल ली है. वही रूटीन, क़ीमती सुविधाओं-सामानों से लेस सजा-संवरा घर, बढ़िया खाना, म्यूज़िक, वीडियो, दोस्त, हर दवा भी उंगलियों पर. इन सबको मेंटेन करने के लिए अपनी रोबोटिक दिनचर्या में लिप्त-पस्त हम सहज ख़ुशी का स्वाद ही खो चुके हैं, जो प्रकृति में सर्वत्र सबके लिए बिखरा पड़ा है. उससे हमने ख़ुद को ख़ुद ही वंचित कर रखा है. मकरंद गुलमोहर के ऊंचे दरख़्तों से आती कुहू-कुहू की आवाज़ को ढूंढ़ता आगे बढ़ रहा था. Dr. Neeraja Shrivastav डॉ. नीरजा श्रीवास्तव ‘नीरू’

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