थोड़ी संभली तो दिल ने कहां हे ईश्वर! आते ही यह कैसी परीक्षा लेने लगे. तुम्हारे घर के इतने क़रीब यह नया ऑफिस कब बन गया? किसे दोष देती? इतना तो मैं जानती ही थी कि इस शहर में पैर रखते ही चाहे कितनी ही दूरी बनाकर क्यों न रखूं, अतीत के आमने-सामने का ज़हर तो पीना ही पड़ेगा. फिर भी न चाहते हुए भी मेरी आंखें तुम्हारे घर पर ही टिकी रहीं, जिसमें मेरी यादों के न जाने कितनी ही परतें दबी पड़ी थीं.
कितने ही मुश्किल से मैंने अपना ट्रांसफर करवाकर यह पटना शहर छोड़ा था, पर पांच बरसों बाद ही फिर वापस उसी शहर में ट्रांसफर होकर आ गई थी. इतने दिनों में ही शहर में कितना कुछ बदल गया था. इतने पुल और ऊंची-ऊंची इमारतें बन गए थे कि अपना यह जाना-पहचाना शहर अजनबी-सा लगने लगा था. दूसरे दिन ऑफिस जाने के लिए घर से निकलते ही पुलों के भुलभुलैया ने मुझे जैसे उलझा कर रख दिया. किसी तरह ऑफिस पहुंची, तो अपने नए ऑफिस की भव्यता और अपने कमरे का इंटीरियर देख मन प्रसन्न हो गया. यह भी पढ़ें: रिलेशनशिप क्विज़- जानें कैसा है आपका रिश्ता? (Relationship Quiz: Know your Relationship?) मेरे मन की बात पढ़ मेरी सेक्रेटरी चंद्रा अति उत्साहित हो मेरे रूम की खिड़की खोल मुझे बाहर के मनोरम दृश्य दिखाने लगी. काले बादलों के बीच लुका-छिपी खेलते सूर्य की किरणें तथा मंद शीतल बयार मौसम को काफ़ी ख़ुशगवार बनाए हुए था. मौसम का आंनद उठाते अचानक मेरी नज़र ऑफिस के बाउंड्री के बाहर बने उस हाथी दांत से सफ़ेद चमकते बड़े से मकान पर पड़ी और कलेजा धक से हो गया, जैसे मेरे दिल की धड़कनें ही थोड़ी देर के लिए थम सी गई हो. थोड़ी संभली तो दिल ने कहां हे ईश्वर! आते ही यह कैसी परीक्षा लेने लगे. तुम्हारे घर के इतने क़रीब यह नया ऑफिस कब बन गया? किसे दोष देती? इतना तो मैं जानती ही थी कि इस शहर में पैर रखते ही चाहे कितनी ही दूरी बनाकर क्यों न रखूं, अतीत के आमने-सामने का ज़हर तो पीना ही पड़ेगा. फिर भी न चाहते हुए भी मेरी आंखें तुम्हारे घर पर ही टिकी रहीं, जिसमें मेरी यादों के न जाने कितनी ही परतें दबी पड़ी थीं. जिसमें आज भी कुछ ज़्यादा बदलाव नहीं आया था. पहले की तरह ही यह पूरा लाॅन तरह-तरह के रंग-बिरंगे फूल के पेड़-पौधों से भरे थे, जो शायद तुम्हारे जीवन को रंगों से सराबोर करने की कोशिश कर रहे थे. तुम्हारे जीवन के रंगों का तो पता नहीं कितने सराबोर हुए, पर तुम से अलग होने के बाद से मेरे स्वभाव के विपरीत ज़िंदगी में इतनी तटस्था इतना ठहराव आ गया कि जीवन के सारे रंग यूं ही फिके पड़ गए. बिना सुख की आशा किए अब जीवन सिर्फ़ कर्मों और कर्तव्यों का सिलसिला बन कर रह गया था, जो धीरे-धीर मुझे तोड़ रहा था. तभी चंद्रा की आवाज़ ने मुझे चौंका दिया, "मैम, हाॅल में सब आपका इंतज़ार कर रहे हैं.’’ मैं जैसे नींद से जागी. फिर तो ढ़ेर सारी ऑफिस की औपचारिकताएं पूरी करते शाम के जाने कब छह बज गए पता ही नहीं चला. घर जाने के लिए ऑफिस से निकली, तो ड्राइवर को ऑफिस में ही छोड़कर मैं ख़ुद ही गाड़ी ड्राइव कर बाहर आ गई थी. पर मेरा अशांत मन घर जाने की बजाय पहले उस स्थान पर जाना चाहता था, जहां कभी मेरे जीवन के नए अध्याय की शुरूआत हुई थी. भले ही वह अध्याय अधूरा ही रह गया, पर उस जगह उस अधूरे अध्याय की अनेक स्मृतियां बिखरी पड़ी थीं. यह भी पढ़ें: प्यार में क्या चाहते हैं स्री-पुरुष? (Love Life: What Men Desire, What Women Desire) नए बने रास्तों के बीच से रास्ता तलाशती मैं दरभंगा हाउस आ ही गई थी. कार पार्क कर टहलते हुए घाट की सीढ़ियों पर जा बैठी. वहां बैठते ही अतीत भी मेरे क़रीब खिसक आया था. हांलाकि वक़्त के गर्द ने अतीत को थोड़ा धुंधला बना दिया था, पर यादों के कांरवा ने सारे गर्द को धो-पोंछ कर आईने की तरह साफ़ कर दिया था. कभी इन्ही सीढ़ियों पर बैठकर जीवन की सतरंगी ख़्वाब बुने थे. बरसों बाद उसी स्थान पर बैठना दिल को सुकून दे रहा था...अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें
रीता कुमारी अधिक कहानियां/शॉर्ट स्टोरीज़ के लिए यहां क्लिक करें – SHORT STORIES डाउनलोड करें हमारा मोबाइल एप्लीकेशन https://merisaheli1.page.link/pb5Z और रु. 999 में हमारे सब्सक्रिप्शन प्लान का लाभ उठाएं व पाएं रु. 2600 का फ्री गिफ्ट.
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