“इसकी बच्ची! क्या तेरी कुछ नहीं लगती? तेरे बेटे की बेटी है, तेरा अपना ख़ून. वृंदा, तू इतनी निष्ठुर कब से हो गई?”
वृंदा बोली, “दीदी, मैं बहू के चोंचले नहीं सह सकती. अब दूसरी बहू भी आ जाएगी, तो क्या मैं ‘क्रेच’ संभालने का काम करूंगी! मैंने तो अकेले अपने दोनों बेटे पाल-पोसकर बड़े किए. मज़ाल है कि मेरी सास ने कभी रसोई में या बच्चे पालने में मेरी मदद की हो. अब मेरा आराम करने का समय आया है, तो मैं क्यों फिर से मुसीबत मोल लूं.”
दीदी बोलीं, “वृंदा, जो सुख-सुविधाएं किन्हीं कारणों से हमें अपने समय में न मिल सकीं, वो सक्षम होने पर भी हम अपनी बहुओं को न दें, क्या ये अनुचित नहीं? हम दोनों को बेटी नहीं है, क्यों न हम इस कमी को बहुओं से पूरी कर लें. एक बार बहू को बेटी के नज़रिए से देखो, तो रिश्तों के मायने ही बदल जाएंगे, रिश्ते सुवासित हो उठेंगे.”
वृंदा उकताकर बोली, “बस-बस दीदी, बहू को बेटी समझने का ये नुस्ख़ा आपको ही मुबारक़ हो. मेरी बहू को बहू बनकर ही रहने दो. बहू को बेटी बनाने के चक्कर में आपकी क्या हालत हो गई है, क्या मैं नहीं जानती?”
दीदी मुस्कुराकर रह गईं. विवाह में वे हर समय निकिता व चुनमुन का ख़याल रखती रहीं. निकिता भी उनसे काफ़ी घुल-मिल गई. इन तीन दिनों में बार-बार फ़ोन पर बेटे-बहू व पोते का हाल-समाचार भी लेती रहीं. शादी निपटते ही वे चली गईं.
छोटी बहू चंचल अपने नामानुसार ही चंचल निकली. लेकिन जल्द ही वृंदा ने उसे वो सब समझा दिया, जो कभी बड़ी बहू से कहा था. मसलन- कटे-खुले बाल इस घर में नहीं चलेंगे. सिर से कभी पल्ला न हटे. सलवार-सूट पहनने का रिवाज़ हमारे यहां नहीं है. घर में खाना क्या बनेगा, इसकी चिंता करने की ज़रूरत तुम्हें नहीं है. घर में हर चीज़ अपने निर्धारित स्थान पर रखी है, उनमें अपनी मर्ज़ी से अदला-बदली करने की कोशिश न करना.
छोटी बहू चुप रही, पर उसके चेहरे से लगा कि उसे ये बातें पसंद नहीं आईं. वृंदा ने सोचा, ‘बड़ी को देखकर अपने आप ये भी लाइन पर आ जाएगी.’
दोनों बहुओं की गहरी छनने लगी. जब भी घर में होतीं, खुसुर-फुसुर करती रहतीं. पर वृंदा के आते ही उनकी बातों पर विराम लग जाता. इसी बीच एक बार चुनमुन की तबियत ख़राब हो गई और उसे संभालनेवाली आया भी नहीं आ रही थी. निकिता को छुट्टी नहीं मिली, तो छोटी बहू ने अपने ऑफ़िस से एक सप्ताह का अवकाश ले लिया. वृंदा को बड़ा आश्चर्य हुआ और उसने सोचा, ‘बड़ा प्यार दिखाया जा रहा है आपस में...’
एक रात खाने में देर होने पर वृंदा दोनों को डपटने के ख़याल से रसोईघर की तरफ़ बढ़ ही रही थी कि फुसफुसाहटें सुनकर बाहर ही रुक गई. छोटी बहू कह रही थी, “दीदी, कल मेरी छुट्टी ख़त्म हो जाएगी. आया तो काम पर आ गई है, पर चुनमुन की देखभाल के लिए घर का एक आदमी होना भी ज़रूरी है. मांजी तो इसकी तरफ़ ध्यान ही नहीं देतीं. ये भी नहीं देखतीं कि आया ने इसे ढंग से कुछ खिलाया-पिलाया भी है या नहीं. बच्ची चाहे भूख से रोती रहे, लेकिन उनकी पसंद का खाना न बने या बनने में ज़रा देर हो जाए, तो आसमान सिर पर उठा लेती हैं.”
मारे क्रोध के वृंदा का सर्वांग जलने लगा. छोटी की ये मज़ाल कि बड़ी को मेरे ख़िलाफ़ भड़काए! तभी बड़ी की फुसफुसाहट सुनाई दी, “तुम चिन्ता मत करो चंचल, तुम्हारे जेठजी भी परेशान हो चुके हैं. मां से तो कुछ कह नहीं पाते, इसलिए हम दोनों का ट्रांसफ़र मुम्बई ब्रांच में करवाने की कोशिश कर रहे हैं. मुम्बई में मुझे चुनमुन की चिन्ता नहीं रहेगी, वहां मेरी मां व छोटी बहन हैं. चुनमुन को देखने के लिए वो तरस गए हैं. वहां आया भी आसानी से मिल जाती है और वहां उर्मी मौसी जी भी हैं. सच, कितना फ़र्क़ है मांजी व उर्मी मौसीजी की सोच में.”
छोटी चहक उठी, “यही अच्छा है. सच, ऐसे माहौल में मैं तो अपने बच्चे को पालने की बात सोच भी नहीं सकती. दम घुटता है यहां. अपनी मर्ज़ी से न कुछ खा सकते हैं, न पहन सकते हैं. कहीं जा नहीं सकते, न किसी से हंस-बोल सकते हैं. ये भी कोई ज़िंदगी है. घर में भी हरदम तनाव रहता है.”
तो हालात यहां तक पहुंच गए. इन बहुओं ने मेरे श्रवण कुमार जैसे बेटों को भी पथभ्रष्ट करने की ठान ली है. इनका इलाज करना ही पड़ेगा. वृंदा इसी सोच में डूबी थी कि उर्मी दीदी की देवरानी का फ़ोन आ गया. अपने बेटे की सगाई का न्यौता दे रही थीं. उन्हीं से पता चला कि तीन ह़फ़्ते पहले सड़क पार करते समय उर्मी दीदी का एक्सीडेन्ट हो गया था.
वृंदा का दिल धक् से रह गया. इस बीच वह उन्हें फ़ोन नहीं कर पाई थी. मन में बुरे-बुरे विचार आने लगे. स्नेहा से अपने बच्चे ही नहीं संभलते तो वो सास को क्या संभालेगी? ये अर्पित कितना निष्ठुर है, मेरी बहन का इतना बड़ा एक्सीडेंट हो गया और मुझे ख़बर तक नहीं दी. शादी के बाद गिरगिट की तरह रंग बदल लिया है उसने. बड़ा कहता था कि तुम मेरी सबसे प्यारी मौसी हो. बेचारी दीदी की क्या गत बन गई होगी.
वृंदा ने तुरंत दीदी का नम्बर मिलाया, पर उधर से किसी महिला की अपरिचित आवाज़ सुनकर चौंकी, “उर्मी दीदी हैं?”
“जी वो सो रही हैं, आप कौन?”
“ये बताइए, आप कौन बोल रही हैं?” वृंदा ने प्रतिप्रश्न किया.
“मैं स्नेहा की मां बोल रही हूं.”
वृंदा ने फ़ोन काट दिया. तो बहू ने अपनी मां को बुला रखा है. ख़ुद महारानी नौकरी पर जाती होगी. वह निखिल के पीछे पड़ गई, “तुरंत मेरा मुम्बई का टिकट करवाओ. वहां जाकर स्नेहा की ऐसी ख़बर लूंगी कि उसे समझ में आ जाएगा कि सास क्या होती है. दीदी के सीधेपन को उनकी बेवकूफ़ी समझ लिया है उसने.”
निखिल समझाते हुए बोले, “टिकट तो मैं आज का ही करवा दूंगा, पर जाते ही वहां शुरू मत हो जाना. पहले वस्तुस्थिति का पता कर लेना.”
“तुम मेरा मुंह बंद मत करवाओ, कहे देती हूं. क्या मिला दीदी को बहू को बेटी बनाकर? भला बहू भी कभी बेटी बन सकती है!”
दीदी के घर पहुंचने पर स्नेहा की मां के दर्शन हुए. दीदी स्नेहा के साथ अस्पताल गई थीं. नन्हा मोनू नानी के साथ किलकारियां मारते हुए खेल रहा था. उन्होंने ही बताया कि दीदी के कंधे व सिर में चोट लगी थी. सिर से काफ़ी खून बह गया. डॉक्टर ने बेड रेस्ट बताया था. स्नेहा और अर्पित ने बारी-बारी से एक-एक ह़फ़्ते की छुट्टी ली थी. अब दीदी ठीक हैं. दिन में वो उनके पास आ जाती हैं और शाम को अपने घर चली जाती हैं. एक आया दिनभर बच्चे को देखती है और महरी पूरे दिन का चूल्हा-चौका कर जाती है.
स्नेहा की मां ये सब बता ही रही थीं कि दीदी आ गईं. स्नेहा साथ थी. उसने सलवार-कुर्ता पहना हुआ था. दीदी को देखकर वृंदा भौंचक्की रह गई. वो तो उनके कमज़ोर व बीमार रूप की कल्पना कर रही थी, पर दीदी पहले से ज़्यादा स्वस्थ लग रही थीं. दोनों सास-बहू नहीं, बल्कि मां-बेटी दिख रही थीं.
उसे अचानक आया देख दीदी प्रसन्न हो उठीं. दीदी के गले लगते हुए वृंदा बोली, “मैं इतनी पराई हो गई कि अपने एक्सीडेंट की ख़बर तक मुझे नहीं दी.”
दीदी बोलीं, “अर्पित ने कहा था कि वृंदा मौसी को बुला लें, पर मैंने ही मना कर दिया. बेकार तुझे परेशान करने का दिल नहीं किया. यहां स्नेहा और अर्पित तो हैं ही मेरा ध्यान रखने को. इन्होंने खिला-खिलाकर मुझे कुछ ज़्यादा ही तंदुरुस्त कर दिया है. बहुत ख़याल रखती है स्नेहा मेरा.”
स्नेहा ने कहा, “मां, आप हमारे लिए जितना करती हो, उसका रत्तीभर भी ऋण हम नहीं उतार सकते.”
दीदी अपनी समधन से बोलीं, “देखा कामनाजी, हमारी बेटी कैसी भारी-भरकम बातें करने लगी है!” दोनों ही घनिष्ठ सहेलियों की तरह हंसने लगीं.
दीदी के इतने घनिष्ठ रिश्ते देख वृंदा को उनसे ईर्ष्या हो आई. उसे याद आया, बड़ी बहू की मां चुनमुन के होने पर जब उनके घर आई थीं, तो दो दिन वृंदा ने उनसे ऐसी कलहपूर्ण बातें की थीं कि उसके बाद वो कभी उनके यहां आकर रहने की हिम्मत नहीं जुटा पाईं.
तभी दीदी बोलीं, “वृंदा, मैं तो मोनू को गोद उठाने को भी तरस गई हूं. ये लोग मुझे उठाने नहीं देते कि कहीं मेरा कंधा न दुखने लगे, पर तू सही समय पर आई है, स्नेहा ने मेरे ठीक होने के उपलक्ष्य में आज घर में सत्यनारायणजी की कथा रखी है.”
वृंदा ने देखा कि स्नेहा ने बड़े चाव से पूजा की तैयारियां कीं और पूजा के बाद अपने हाथ से सबसे पहले दीदी को प्रसाद खिलाया. रात को कमरे में स़िर्फ दीदी रह गईं, तो वृंदा ने कहा, “दीदी, आप कुछ दिन मेरे साथ चलो, आराम मिल जाएगा. दो-दो बहुएं हैं मेरी.”
दीदी ने मुस्कुराते हुए कहा, “वृंदा, मुझे यहां क्या तकलीफ़ है. एक बेटा था ही, भगवान ने बेटी की कमी भी स्नेहा के रूप में पूरी कर दी. सच कहूं तो स्नेहा ने जैसे मेरी देखभाल की, उसी से मुझे समझ में आया कि एक बेटी मां के लिए क्या मायने रखती है. मैं पूरी तरह सुखी व संतुष्ट हूं. तू बता, घर में सब कैसे हैं? तू तो मुझसे ज़्यादा सुखी होगी, बहुओं के रूप में दो बेटियां मिली हैं तुझे.” सुनकर वृंदा फीकी-सी हंसी हंस दी.
दूसरे दिन वृंदा अर्पित के पीछे ही पड़ गई, “बेटा, मेरी आज की ही हवाई जहाज़ की टिकट करवा दे.”
दीदी हैरानी से बोलीं, “इतने दिनों बाद आई है, कुछ दिन रुक जा.” अर्पित और स्नेहा ने भी बहुत कहा, पर वृंदा नहीं मानी. वो जल्द से जल्द घर पहुंचकर अपनी भूल सुधारना चाहती थी. अपनी रिश्तों की बगिया को आनेवाले तूफ़ान में बिखरने से रोकना चाहती थी. उसे एहसास हो गया था कि रिश्ते प्रेम, समर्पण व त्याग से मधुर बनते हैं. अपनापन ही रिश्तों को गूंथकर रखता है.
वृंदा सोच रही थी कि क़िस्मत ने तो उसे बहुओं के रूप में दो बेटियां दे दी हैं, अब वो भी उनकी मां बनने का प्रयत्न करेगी. नन्हीं चुनमुन को कलेजे से लगाने को उसका दिल अचानक ही बड़े ज़ोरों से मचलने लगा था.
नीलिमा टिक्कू
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