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कथा- संस्मरण: ये उन दिनों की बात है… (Story- Yeh Un Dinon Ki Baat Hai…)

जहां जून का महीना शुरु होता दोनों बुआओं के बच्चे छुट्टी मनाने आ जाते. फिर तो तहलका मचता था तहलका! ना सोने का टाइम होता था, ना उठने का. कूलर में पानी भरना हो या छत से सुबह को बिस्तर उठाना, सब मिलकर करते थे. यहां तक कि हम टूथब्रश भी लाइन बना कर करते.

"ख़बरदार जो किसी ने भी मुझे डिस्टर्ब किया! कल से मेरे एग्ज़ाम हैं." दीदी ने अपने से छोटे आधा दर्जन (दो बुआओं के पांच और मुझे) भाई-बहनों को डांटते हुए कहा.
ये उन दिनों की बात है जब मेरठ यूनिवर्सिटी के एग्ज़ाम्स जून में होते थे और स्कूल की छुट्टियां! भैया और दीदी मामा-बुआ के भाई बहनों में सबसे बडे़. अब इसमें भला हम मासूमों की क्या ग़लती थी कि हम सब स्कूल में थे और वो दोनों कॉलेज में आ गए थे.
चलिए आपका परिचय करवाती हूं अपनी वानर सेना से. सबसे पहले मिलते हैं राजन भैया से. सबसे बडे़, उनकी कही बात कोई नहीं टालता था, किसी डर नहीं प्यार की वजह से. उनसे छोटी मोना दीदी, हम सबकी मां जैसी बहन, जो पढ़ाई के बीच मिले टाइम में हमारे लिए कुछ ना कुछ खाने के लिए बना जाती थीं. ये दोनो हमारी सेना का हिस्सा तो थे, लेकिन पढ़ाई के आगे मजबूर. हां! रौब और दुलार पूरा था दोनों का.
अब एक-एक करके बाकी सबसे मिलवाती हूं. बिन्नु भैया (टीम लीडर), उस समय उम्र 17 रही होगी. पतले-दुबले, लंबे और ज़िम्मेदार. मोना दीदी से बहुत पटती थी.
पारुल दीदी, एक नंबर की पढ़ाकू, लेकिन मस्ती में किसी से कम नहीं. कमाल की बात ये है कि इनकी शक्ल अपनी मामी यानी मेरी मम्मी से इतनी मिलती थी कि अनजान लोग उन्हें मां-बेटी समझ लेते थे.
हॉबी भैया, हमारी टीम के सबसे शरारती मेंबर! कब किसे क्या कह देंगे आप सोच भी नहीं सकते.
रुचि दीदी, बचपन से ही दादी मां, मेकअप की शौकीन. कुछ और नहीं मिलता, तो आटे से ही ख़ुद को गोरा करने वाली.

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राहुल भैया, चुपचाप रहनेवाला शांत, लेकिन मोना दीदी का लाड़ला. खाने का शौकीन इतना कि मम्मी उसके हिसाब से मेनू डिसाइड करतीं.
सबसे छोटी मैं यानी गुड़िया, उम्र क़रीब 6-7 साल की रही होगी. सबकी लाड़ली, कहना माननेवाली और शरारती तो बिल्कुल भी नहीं. कसम से मैं ऐसी ही थी… ये बात और है कि अब बिल्कुल अपोजिट हो गई हूं.
जहां जून का महीना शुरु होता दोनों बुआओं के बच्चे छुट्टी मनाने आ जाते. फिर तो तहलका मचता था तहलका! ना सोने का टाइम होता था, ना उठने का. कूलर में पानी भरना हो या छत से सुबह को बिस्तर उठाना, सब मिलकर करते थे. यहां तक कि हम टूथब्रश भी लाइन बना कर करते.
उधर बड़े भैया और दीदी के एग्जाम्स शुरु हुए और इधर हमारी हरकतें. कभी तेज आवाज़ में गाने चलते, तो कभी कूद-फांद मचती. एक दिन तो सोफे पर इस कदर कूद-कूदकर कहर बरपाया कि वो टूट ही गया. जब शाम को डैडी ने मम्मी से पूछा कि कैसे टूटा, तो धीरे से हंसकर बोलीं, "बंदर घुस गए थे कमरे में."
मम्मी कभी किसी भी बच्चे को नहीं डांटती थीं, हम नहीं जानते थे, लेकिन शायद उन्हें पता था कि हम ज़िंदगी के सबसे प्यारे पल जी रहे हैं.
रात को मोना दीदी के हाथ पर सोने के लिए सब लड़ते थे, लेकिन राहुल भैया दीदी के लाड़ले थे, तो एक हाथ पर उनका सोना तो पक्का ही था.
लाड़-प्यार, शरारतें सब ठीक, पर भैया और दीदी की पढ़ाई बिल्कुल नहीं हो पा रही थी. वैसे तो भैया सबको बहुत प्यार करते थे, लेकिन उस दिन भैया को ग़ुस्सा आ गया.
"कल सुबह तुम सब चाचाजी के यहां जा रहे हो! कम से कम पांच दिन के लिए, तब तक हमारी एग्ज़ाम्स भी ख़त्म हो जाएंगे."
हम सबने एक-दूसरे को देखा, फिर मम्मी को निरीह भाव से देखा, शायद रोक लें. लेकिन वो भी चुप थीं. अब जाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा था.
मेरे चाचाजी गांव में रहते थे. वहां जाने के लिए हमें पहले बस से ट्रैवल करना था, फिर अगर कोई साधन (किसी का भैंसा बुग्गी, घोड़ा तांगा) मिल गया तो ठीक, नहीं तो चार किलोमीटर पैदल!
रात को छत पर सोने के लिए लेटे, तो एक-दूसरे को दोष देने लगे…
"क्या ज़रूरत थी इतनी ज़ोर से म्यूज़िक बजाने की!"
"अच्छा! और तूने जो सोफा तोड़ा उसका क्या?"
"शाम को कूलर में पानी भरने पर भी कितना शोर मचाया था तुमने!"
"और ये हॉबी राहुल सारे दिन कुश्ती का दंगल करते हैं."
"अब कोई फ़ायदा नहीं, भैया ने कहा है, तो जाना तो पड़ेगा ही." बिन्नु भैया ने सीरियस होकर कहा और सब गहरी सांस ले सो गए.

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फिर आई हमारे बचपन के उस यादगार दिन की भोर. किसी का उठने का मन नहीं था या कह लो गांव जाने का मन नहीं था. तभी भैया कि आवाज़ आई, "उठे नहीं अभी तक!" भैया का इतना कहना था कि हम बत्तख के पीछे चलते बच्चों की तरह लाइन से तैयार होने लगे.
घर से निकलने से पहले सबके आधार कार्ड छपे… अब आप सोच रहे होंगे, अब से पैंतीस साल पहले आधार कार्ड? हां जी, हम सबकी कमर पर बॉल पेन से हमारे नाम, पते लिखे गए…‌ हाथ पर लिखते, तो मिट सकते थे ना!
भैया ने बिन्नु भैया से कहा था कि बार-बार गिनती करते रहना और बिन्नु भैया ने कम से कम आठ बार हमें गिना.
इस तरह हम आधा दर्जन भाई-बहन जीवन की यादगार यात्रा पर निकले. एक ही रिक्शा में लदे. रिक्शा की सीट पर पारुल दीदी और रुचि दीदी उनके बीच में आगे को लगभग गिरते. रिक्शावाले की सीट से ख़ुद को गिरने से रोकते राहुल भैया. पारुल दीदी की गोद में मैं. बिन्नु भैया और हॉबी भैया पीछे. आज एसी गाड़ियों में बैठ आउटिंग पर जानेवाले कज़न क्या जाने उस रिक्शा राइड के आनंद को.
खैर किसी तरह बस अड्डे पहुंचे. रिक्शे से उतर बिन्नु भैया ने गिनती की तब रिक्शेवाले को पैसे दिए. नज़र घुमाई तो बस अड्डा खाली मैदान सा दिखा, पता लगा बसों की हडताल है. गोल घेरे में सिर से सिर भिड़ा मीटिंग हुई. हालांकि मेरा सिर कुछ नीचे रह गया था.
"अब?"
"घर गये तो भैया समझेंगे बहाना बना रहें हैं"।
"ट्रेन से चलें?"
"हां, ऐसा ही करते हैं."
इतने में मैं रोने लगी.
"अगर ट्रेन भी नहीं मिली तो?.."
सब एक-दूसरे को देखने लगे कि अगर सच में ऐसा हो गया.
किसी तरह दुबारा रिक्शे में लदा गया. उतरते समय फिर गिनती हुई और इस तरह हम रेलवे स्टेशन पहुंच गए.
गोल घेरे में सिर भिड़ा कर हिसाब लगाया गया कि कितने टिकट फुल लेने हैं और कितने आधे. टिकट लेते ही पता लगा कि ट्रेन छूटने वाली है, बिन्नु भैया चिल्लाए, "भागोऽऽऽ!"
और हम सारे एक साथ दौड़ पड़े. मैं सबसे छोटी थी, तो सबसे पीछे रह गई. सारे एक-एक कर चढ़ गए और मैं देखती रह गई. हमेशा की तरह रोना शुरु! शुक्र है कि ट्रेन चली नहीं थी. बिन्नु भैया ने गिनती की… एक कम है… "गुड़िया! गुड़िया कहां है?"
रुचि दीदी ने बाहर झांका, मैं प्लेटफार्म पर बैठी रो रही थी. वो तेजी से उतर कर आईं और मुझे गोदी में उठा ट्रेन में चढ़ाया.
खैर ट्रेन से उतरे. बिन्नु भैया ने एक बार फिर गिना कि कोई रह तो नहीं गया. इस बार गिनती पूरी थी.
अब आगे का सफ़र कैसे होगा इतनी गर्मी में. यहां क़िस्मत ने साथ दिया, कुछ दूर चलते ही घोडा तांगा मिल गया. हम फिर लदे. इस बार मैं किसकी गोदी में थी ये ठीक से याद नहीं.
घर पहुंचे, चाचाजी हमें देख बहुत ख़ुश हो गए. वैसे भी चाचाजी की अपने भाई-बहनों के बच्चों में जान बसती थी, ख़ासतौर से बिन्नु भैया में. गांव तो गांव ही होता है, ना बिजली ना पंखा! बिना बिजली के कोने में रखा टीवी भी मखौल उड़ाता लग रहा था. जल्दी ही सारे नहा लिए… ना, ना!.. साबुन-पानी से नहीं, पसीने से.
चाचीजी ने खाना बनाया. खा पी कर बैठे, तो गर्मी से बेहाल हो गए. किसी को भी गांव की आदत नहीं थी. किसी को गर्मी ज़्यादा लग रही थी, तो किसी को मक्खी. आपातकालिन बैठक हुई. वही, गोल घेरे में सिर से सिर भिड़ा कर!

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"आज ही वापस चलें क्या?"
"फिर भैया!"
"खा लेंगे डांट!"
"बस कोई शोर नहीं मचाएगा."
"हां, दीदी-भैया को बिल्कुल डिस्टर्ब नहीं करेंगे."
और उद्घोष हुआ, "चलो मेरठ!"
चाचाजी ने बहुत रोका, समझाया भी कि रात को लाइट आ जाएगी, लेकिन अब तो फ़ैसला हो चुका था. मरते-खपते, गोल घेरे में सिर से सिर भिड़ा मीटिंग करते, गिनती करते, रिक्शा में लदते हम घर तो पहुंच गए. अब बात ये थी कि सबसे पहले घर में कौन घुसे?
मुझे सबसे आगे कर दबे पैरों अंदर आए और नज़र झुका लाइन से खडे़ हो गए.
"आज ही आ गए वापिस! क्यों? क्या हुआ?"
"भैया, हम अगले पांच दिन बिल्कुल शोर नहीं करेंगे."
"घर में कोई म्यूज़िक नहीं बजेगा और ना ही लड़ाई होगी."
"आप कहो तो हम मौन व्रत रख लेंगे… बस हमें घर से मत निकालो!" सारे एक सुर में बोल उठे.
हमारी शक्लें देख भैया की हंसीं छूट गई.
आज इस घटना को पैंतीस साल हो गए हैं, लेकिन हम सबका प्यार ऐसा ही है. अक्सर जब सब मिलते हैं, तो इस क़िस्से का ज़िक्र ज़रूर होता है. भैया की बात आज भी सब मानते हैं और दीदी आज भी हम सबकी मां हैं. कमाल की बात ये है कि हमारे बच्चों में भी आपस में ऐसा ही प्यार है. बस वो हमारी तरह रिक्शा राइड पर नहीं जाते हैं.

- संयुक्ता त्यागी

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