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कहानी- मात (Short Story- Maat)

सुषमा मुनीन्द्र  

“मैं नहीं जानती. विनायक जी दफ़्तर की बातें घर में नहीं बताते थे.” “वे सचमुच सज्जन इंसान हैं. इसी का तो असर मुझ पर हुआ. लगने लगा दिखावे में कुछ नहीं रखा. दिखावा करके हम नाटक करते हैं या ख़ुुद को छलते हैं.” रोहिणी के पास शब्द नहीं हैं.

इतिहास कभी-कभी सचमुच ख़ुद को दोहराता है या कुछ संयोग इतने मार्के के होते हैं कि हम उन्हें इतिहास का दोहराया जाना मान लेते हैं. विनायक और गिरिधारी लाल शाजापुर की सिविल लाइन्स में ठीक अगल-बगल एलॉट हुए सरकारी क्वार्टर में रहते थे. इसे संयोग कहें या इतिहास का दोहराया जाना कि सेवानिवृत्त हो एक बार फिर ये दोनों अगल-बगल नहीं, लेकिन रीवा सुधार न्यास की बहुत बड़ी कॉलोनी में रह रहे हैं.

सुबह की सैर से लौटे विनायक ने रोहिणी को चौंका दिया, “रोहिणी, लोग सचमुच सामाजिक नहीं रहे. हमें ख़बर नहीं होती कि ठीक बगल में क्या हो रहा है.”

“बगल में कोई दुर्घटना हो गई?”

“बड़े साहब (गिरिधारी लाल) इसी कॉलोनी में पीछे वाले शिव मंदिर के थोड़ा पीछे वाले मकान में रहते हैं. आज उन्हें वॉचमैन से बात करते देखा, तो मैं हैरान रह गया.” रोहिणी को जैसे एक लक्ष्य मिल गया, “सुप्रभा यहां रहती है?”

“हां, बड़े साहब ने मकान ख़रीद लिया है. बता रहे थे सुप्रभाजी के घुटने की सर्जरी हुई है. चलो, शाम को मिल आते हैं.”

“वाह! ख़ूब जमेगी जब मिल बैठेंगी फैशनवालियां दो. आज की शाम अच्छी गुज़रेगी.”

रोहिणी का जी चाहा तत्काल जाकर सुप्रभा को सूचित करे.

“आप बड़ी फैशनदार बनती थीं. देखिए, मैंने आपकी तरह बाल कटा लिए हैं. ब्यूटी पार्लर जाने लगी हूं. क़ीमती साड़ियां पहनती हूं. तीनों बेटियों को महंगे हॉस्टल में रख कर महंगे कॉलेज में पढ़ाया है. तीनों की महंगी शादियां की हैं. अब तो आना-जाना लगा रहेगा. मेरे घर आइए, मेरे रसूख को देखकर आपको छोटा-मोटा दौरा पड़ जाएगा.”  

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शाजापुर पी. डब्ल्यू. डी. में गिरिधारी लाल बड़े इंजीनियर और विनायक छोटे इंजीनियर थे. विनायक का शाजापुर में पहला साल था. जल्दी ही बड़े साहब तबादले पर शाजापुर आ गए. रोहिणी अचंभे में थी.

“बाप रे! तीन ट्रकों में सामान आया है.”

विनायक अचंभे में शामिल नहीं हुए, “बड़े साहब बाइ कार परसों सुबह पहुंच रहे हैं. उन्हें चाय पर बुला लूंगा. अच्छा नाश्ता बना लेना.”

चाय पीने पहुंचा बड़े साहब का परिवार दमक रहा था. क़ीमती साड़ी-गहनों में छटा बिखेरती, ज़रूरत से अधिक मोटी, अधरों पर लाली, कटे बालों वाली सुप्रभा बड़े अंदाज़ वाली लग रही थी. उसके बच्चे नैतिक, निर्भय और नीति भी क़ीमती कपड़ों में सजे थे. सुप्रभा ने चाय सिप करते हुए कहा, “रोहिणी, सुबह-सुबह यह सब बनाने में आप क्यों परेशान हुईं? विभाग वालों ने खाने का इतना सामान साथ रख दिया है कि क्या कहूं.” बड़े साहब ने रुचि दिखाई, “घर की बनी ताज़ी चीज़ों में मज़ा होता है. ढोकला और पोहा टेस्टी है.”

उधर वे लोग गए, इधर रोहिणी ने विनायक को घेरा, “बड़े साहब ने अच्छा रिमार्क पास किया. यही पोहा, ढोकला, आटे का हलवा खिलाने के लिए बुलाया था? तुम बाज़ार से कुछ स्पेशल मिठाई ले आते, तो थोड़ा स्टैंडर्ड बन जाता.” “रोहिणी, बड़े साहब सराहना कर रहे थे. बात का ग़लत अर्थ निकालने की तुम्हें आदत है.” बड़े साहब ने अपने मकान का कायाकल्प करा डाला था. सरकारी निर्माण कार्य के लिए भर्ती किए गए मजदूरों में से एक-दो को वे अपने घर को चमकदार और बगीचे को हरा-भरा बनाए रखने के लिए लगाए रहते थे. विनायक को प्रेरित करते, “आप अपने बगीचे को व्यवस्थित क्यों नहीं रखते? एक-दो मजदूर भेज दूंगा.”

विनायक महा पुरुष बने रहते, “मजदूरों की ज़रूरत नहीं है. रोहिणी थोड़ी-बहुत सब्ज़ी उपजा लेती है.”

बड़े साहब सराहना करते, “आपकी और आपके परिवार की सादगी मुझे अच्छी लगती है.” विनायक ने सराहना रोहिणी से बताई, तो उसने कई तर्क किए, “बड़े साहब को यदि सादगी अच्छी लगती है, इतनी माया-काया क्यों जोड़ रहे हैं? तुम्हें ईमानदारी की लत लगी हुई है, वरना अब लोग रिश्‍वत लेने में शर्म नहीं करते. सुप्रभा खुल कर कहती हैं, हमारे साहब ऊपरी कमाई करते हैं.”

रोहिणी ने कुछ ऐसे अंदाज़ में कहा कि विनायक को हंसी आ गई, “रिश्‍वत मोटापा बढ़ाती है. बड़े साहब रिश्‍वत लेते हैं तभी सुप्रभा जी मोटी हो रही हैं. देखो तुम कितनी छरहरी, कितनी सुंदर लगती हो.”

“बड़े साहब के पास क़ीमती कार है. तुम सेकंड हैंड स्कूटर पर फिदा हो. बड़े साहब पांच बजते ही क्लब भागते हैं. तुम देर तक दफ़्तर में जुते रहते हो.”

“सरकार काम करने के लिये वेतन देती है.”

“वेतन में गृहस्थी का जोड़-तोड़ नहीं बैठता. न अच्छा खाना-पहनना, न अच्छा सामान. तीन बेटियों की पढ़ाई और शादी. कैसे करेंगे? बड़ी बीमारी हो जाए, तो हमारे पास इलाज के लिए पैसे नहीं होंगे.”

“भगवान बंदोबस्त करेगा.”

“सुप्रभा कितने घमंड से रहती है. मुझसे कहती है क्लब ज्वाइन कर लो. कलेक्टर, एस. पी., जज जैसे बड़े अधिकारी, पत्नी के साथ आते हैं. मैं किस मुंह से क्लब ज्वाइन करूं? वहां महिलाएं रोज़ नई साड़ी-गहने पहनकर जाती हैं.”

“समय बर्बाद करती हैं. हम देर तक घर से बाहर रहें, तो लड़कियों की पढ़ाई पर असर आएगा. उनकी पढ़ाई पर ध्यान दो.” सुप्रभा का रसूख देख रोहिणी हताश होती गई. वह संयमित दिन बिताती, जबकि सुप्रभा के घर में महिफ़लें सजतीं. जाड़ों में अधिकारी पत्नियों के साथ लॉन की सुनहरी धूप में बैठ कर सुप्रभा दोपहर का आनंद लेती इधर स्वेटर बुनती, रोहिणी भस्म होती रहती. गर्मियों में महफ़िल देर शाम को जमती. इधर दस बजते ही बत्तियां बुझा कर विनायक सो जाने का फरमान ज़ारी कर देते. बड़ी बेटी उपासना, रोहिणी से कहती, “मां बड़े साहब के घर में कितनी चहल-पहल रहती है. हम लोग कितना ऊबते हैं. पापा की एक ही रट- ख़ूब पढ़ो, तभी कुछ बनोगी. पापा तो अव्वल आते थे. अब कौन सी लाइफ एंजॉय कर रहे हैं? एक पतलून को पांच साल पहनते हैं.”

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रोहिणी अफ़सोस दिखाती, “तुम्हारे पापा को सिद्धांतों से बड़ा लगाव है.” मझली बेटी आराधना और नीति चूंकि एक ही कक्षा में पढ़ती थीं, इसलिए आराधना के पास बड़े साहब के परिवार की अच्छी सूचनाएं रहती थीं. रोहिणी के अफ़सोस पर आराधना बोली, “नीति अभी अपने परिवार के साथ दिल्ली घूमने गई थी. वहां से अपने लिए बहुत सी ड्रेसेस लाई है. स्कूल में रोज़ कहती है, ‘ड्रेसेस देखने घर आना.”

छोटी प्रार्थना उतावली होने लगती, “क्यों नहीं जाती हो? मुझे तो नई ड्रेस देखने में बड़ा मज़ा आता है.”

आराधना परिधान देखने गई. सुप्रभा ने एक ड्रेस उसे पकड़ा दी, “नीति, तुम्हारे लिए लाई है.” आराधना को इतनी अच्छी उम्मीद नहीं थी. औपचारिक मनाही कर उसने ड्रेस ले ली. नीति ने प्रस्ताव रखा, “इसी 15 को नैतिक भइया की बर्थडे पार्टी है. पहन कर आना.”

घर आकर आराधना ख़ुश होकर परिधान दिखाने लगी. विनायक ने तौहीन कर दी, “क्यों लिया? तुम्हारे पास कपड़े नहीं हैं?” आराधना का उत्साह गिर गया जो कि नैतिक के जन्म दिवस पर भी गिरा रहा. जन्म दिवस का आमंत्रण देने बड़े साहब स्वयं आए थे, “डिनर रखा है. विनायक जी सपरिवार आना है. नीति बताती है आराधना क्लास में अव्वल रहती है. नीति को भेज दिया करूंगा आराधना के साथ कम्बाइंड स्टडी कर कुछ सीख लेगी. सेकंड डिवीजन से आज तक आगे नहीं बढ़ी. आपने बच्चों को अनुशासित रहना कैसे सिखाया?” विनायक न कह सके रोहिणी और बेटियों को अनुशासन नहीं, आपकी माया-काया पसंद है. नैतिक के जन्म दिवस पर रोहिणी अच्छा उपहार ख़रीदना चाहती थी कि उसकी हैसियत कम न दिखे, लेकिन विनायक छह पुस्तकों का सेट ख़रीद लाए थे.

“विद्यार्थियों के लिए पुस्तकों से अच्छा तोहफ़ा कुछ नहीं हो सकता.” पार्टी से लौटकर रोहिणी हीनता से भरी हुई थी. लेकिन बेटियां इस तरह ख़ुश थीं जैसे नेमत लेकर आई हैं. नीति, आराधना के पास पढ़ने आने लगी.  पढ़ती कम, बातें अधिक करती.

“आराधना, तुम लोगों ने जो बुक्स दी हैं, मेरे तो सिर के ऊपर से निकल जाती हैं. पापा ज़रूर ख़ूब मन लगा कर पढ़ते हैं.”

दफ़्तर से लौटे विनायक से रोहिणी ने प्रसंग कहा, “नीति ने संकेत दे दिया कि पुस्तकें देने से बेहतर होता खाली हाथ हिलाते चले आते.”

विनायक पर असर न हुआ, “बड़े साहब, मुझसे कह रहे थे उन्हें पुस्तकें बहुत अच्छी लगीं. वे पढ़ रहे हैं.”

“नीति चालाक है. पढ़ने नहीं अपनी रईसी बताने आती है. आराधना अब इसे नहीं पढ़ाएगी.” “रोहिणी तुम हर बात को नेगेटिव लेती हो. इसीलिए तकलीफ़ में रहती हो.” विनायक रोहिणी की तकलीफ़ को नहीं समझ रहे थे कि उसे मात देने के लिए सुप्रभा कितने जतन करती थी. सुप्रभा अक्सर बाज़ार जाती, “रोहिणी, मैं बाज़ार जा रही हूं. चलोगी?” रोहिणी कैसे कहती बाज़ार में बिना पैसे दिए सामान नहीं मिलता. सुप्रभा फेरी वालों को बुला लेती, “रोहिणी, कोलकाता की साड़ियां हैं. मुझे छह पसंद आ गईं. एक-दो तुम भी ख़रीद लो. क्या सोच रही हो पैसे मैं दे दूंगी? बाद में चुका देना.” रोहिणी कैसे कहती, माह का आख़िरी सप्ताह है. पैसे नहीं हैं. इस बार क्या वेतन अधिक मिलेगा, जो बाद में चुका दूंगी? सुप्रभा ब्यूटी पार्लर जाती.

“चलोगी रोहिणी? तुम्हारे नैन-नक्श अच्छे हैं. थोड़ा मेकअप सीख लो. निखर जाओगी.”

रोहिणी कैसे कहती- पार्लर जाऊंगी, तो विनायक जांच बैठा देंगे- कितना फूंक आई? सुप्रभा क्लब जाते हुए पूछती, “रोहिणी चलोगी? आज कुछ गेम्स होंगे.” रोहिणी कैसे कहती- विनायक दफ़्तर से लौटें और मैं घर में न मिलूं, तो उनके स्वाभिमान पर ख़तरा मंडराने लगता है कि मुझे उनकी फ़िक्र नहीं है, जबकि उन्हें इस वक़्त एक कप अच्छी चाय की ज़रूरत होती है.  

सुप्रभा, रोहिणी को उकसा कर चली जाती. रोहिणी हताश हो जाती. जब देखती विनायक और बड़े साहब दफ़्तर से एक साथ लौटे हैं और विनायक चाय पिलाने के लिए उन्हें अपने साथ बांधे लिए आ रहे हैं तो उसकी हताशा बढ़ जाती. चाय पीते हुए बड़े साहब कहते, “सुप्रभा शाम को अक्सर घर पर नहीं होती है. विनायक जी, आपके घर की व्यवस्था देख कर आराम मिलता है. चाय अच्छी है. मठरी टेस्टी है.”

रोहिणी कहना चाहती- आराम चाहिए तो सुप्रभा से कहिए इतना न घूमा करें. पर कह न पाती. एक तो बड़े साहब का लिहाज़, दूसरे विनायक तीर चलाने से नहीं चूकेंगे, “रोहिणी, तुम बड़े साहब के परिवार को कुछ अधिक ही दिमाग़ में बैठाती जा रही हो. वे लोग क्या करते हैं, कैसे रहते हैं, उनका मसला है. तुम्हारा नहीं.”

उनका मसला था, लेकिन रोहिणी का भी था. ठीक बगल वाला घर, एक विभाग, पर राजा और रंक जैसी असमानता. अच्छा रहा जो विनायक का तबादला हो गया. रोहिणी को लगा ठीक समय पर तबादला हुआ है. सुप्रभा नाम के प्रेत से पीछा छूट जाएगा. नई जगह. रोहिणी मानो एक बड़ा फ़ैसला लेकर नई जगह पहुंची थी.

विनायक ने रोहिणी को वेतन दिया जो उसने नहीं लिया. “वेतन तुम रखो और घर चलाओ. इतने कम पैसे में गृहस्थी का जोड़-तोड़ बैठाते हुए मैं परेशान हो चुकी हूं.”

रोहिणी का अटल फ़ैसला. एक दिन अचंभा हुआ. विनायक ने अपने जीवन की पहली रिश्‍वत ली. हाथ कांपे. आत्मा पर बोझ पड़ा. अपनी नज़रों में गिरे... फिर हाथों ने कांपना, आत्मा ने बोझ महसूस करना, उन्होंने अपनी नज़रों में गिरना छोड़ दिया. मकान, ज़मीन, आभूषण, गाड़ी, बैंक बैलेंस राजसी ठाट-बाट... रोहिणी को ज़िंदगी, ज़िंदगी की तरह लगने लगी. हसरतें पूरी हुईं. सिर्फ़ एक हसरत बाकी थी. सुप्रभा से कभी मुलाक़ात हो, तो उसे अपना रसूख दिखाए. रोहिणी ने नहीं सोचा था कि आज की सुबह ऐसी होगी जिसे इतिहास का दोहराया जाना कहते हैं. नहीं सोचा था बची रह गई हसरत पूरी होगी. विनायक और रोहिणी, बड़े साहब के घर पहुंचे. बड़े साहब बाहरी बरामदे में बैठे किताब पढ़ रहे थे. उन दोनों को देखकर खड़े हो गए, “इंतज़ार कर रहा था.”

रोहिणी ने दर्प से कहा, “अकेले बैठे हैं. सुप्रभा कहां हैं?”

“भीतर हैं. उनके घुटने की सर्जरी हुई है. वैसे अब ज़रूरत भर को चलने लगी हैं. बुला लाता हूं.”

“मैं भीतर चली जाती हूं.”  

सुप्रभा को चौंकाने आई है. ख़ुद चौंक गई. बिस्तर पर लेटी सुप्रभा कितनी अलग लग रही है. पीछे बंधे बाल, बिना मेकअप का सादा चेहरा, दुबली देह. ठीक सामने उपस्थित कटे बाल, बिना बांह वाले ब्लाउज़, नाभिदर्शता क़ीमती साड़ी, गहने, रंगे-पुते चेहरे, परफ्यूम की तेज़ महक वाली रोहिणी को देख कर सुप्रिया ठिठकी, फिर तकिए का सहारा लेकर बैठते हुए बोली, “रोहिणी, तुम पहचान में नहीं आ रही हो.”

“आप कहती थीं ज़माने की दौड़ में शामिल हो जाओ. हो गई. आजकल एक लेडीज़ क्लब की अध्यक्ष हूं.”

सुप्रभा पूरी तरह ठिठकी हुई है, “साहब (बड़े साहब) तुम्हारी सादगी और सुघड़ता की तारीफ़ करते थे. कहते थे तुम्हारे घर का माहौल अच्छा है. शाम को तुम लोग ओम जय जगदीश हरे... गाते हुए आरती करते थे. वह आवाज़ मेरे घर में सुनाई देती थी. साहब यदि घर पर होते तो कहते थे- तुम लोग इतनी मधुर आरती गाते हो कि सुनकर दिनभर की थकान दूर हो जाती है.”

रोहिणी चकित हुई. सुप्रभा तो गहने-कपड़े के अलावा दूसरी बात न करती थी. आज कहां का राग ले बैठी? बीमारी ने भावुक बना दिया या उसे सताने का यह नया तरीक़ा है?  बोली, “आरती से सचमुच थकान दूर हो जाती थी?”

“हां, साहब को तुम हमेशा समझदार और सलीके वाली लगती थी. वे तुम्हारी तारीफ़ करते थे. हम लोग देर रात जब पार्टी से लौटते तो कहते- विनायक जी का शांति में डूबा घर कितना अच्छा लग रहा है. बच्चों को कहते विनायक जी ने सोने-जागने-खाने-पढ़ने का एक वक़्त बना रखा है. तुम लोग उनके बच्चों से अनुशासन सीखो. मैं फ़िजूलख़र्च करती, तो तुम्हारा उदाहरण देने लगते. रोहिणी जी संतोषी हैं, इसलिए विनायक जी ईमानदार रह पाते हैं. पत्नी कलह करे तो पति रिश्‍वत लेने के लिए मजबूर हो जाता है. साहब तुम्हारी इतनी तारीफ़ करने लगे थे कि मुझे लगने लगा था तुम्हारे पास कुछ ऐसा है, जो मेरे पास नहीं है. मेरे पास दौलत है, लेकिन तुम्हारी तरह आत्मविश्‍वास और प्रतिष्ठा नहीं है. मैं न जाने कब तुमसे कॉम्पीटिशन करने लगी. तुम्हें उकसाने लगी, मेरी तरह बन जाओ, पर तुमने अपनी गरिमा नहीं छोड़ी.”

रोहिणी का रंगा-पुता मुख स्याह पड़ने लगा. क्या सोच कर आई थी. क्या सुन रही है.  

“सुप्रभा, मैं...”

“नहीं, नहीं. तुम्हें ठेस पहुंचे इसलिए यह सब नहीं कह रही हूं. बताना चाहती हूं आसपास होती बातों का असर हम पर पड़ता है. हम जैसा अब तक सोचते थे, उससे थोड़ा अलग सोचने लगते हैं. रोहिणी मुझे लगने लगा था तुम सही हो, मैं ग़लत. लगता ख़ुद को थोड़ा बदलूं, तुम्हारी तरह बनूं. हो नहीं पा रहा था. लेकिन ऐसा कुछ घटता गया कि मुझे लगने लगा पार्टी, क्लब, हंसी-ठट्टा किसी को सफलता नहीं दिलाते. मुझे ख़्याल तक नहीं था मेरा अनुसरण करते हुए बच्चे क्या बनते जा रहे हैं. नीति की आलीशान शादी की थी. उसका पति उसके ज़िद्दी स्वभाव और फ़िजूलख़र्ची से परेशान था. नीति तलाक़ लेकर लौट आई. होशंगाबाद में नौकरी कर रही है. नैतिक विदेश में बस गया है. निर्भय पढ़ाई में कभी अच्छा नहीं रहा. उसे यहीं मेडिकल स्टोर खुलवा दिया है. उसकी पत्नी पतौरा (कस्बा) के सरकारी स्कूल में एल.डी.टी. है. बस से आती-जाती है.”

“दिख नहीं रही.”

“मैं ही बोल रही हूं? रोहिणी तुम कुछ सुनाओ. इस बीच क्या कुछ हुआ?” रोहिणी कैसे कहे- मैंने अपना ही सर्वनाश कर डाला है. सादगी-सरलता-सदाचार को शाजापुर में छोड़ मैं क्या से क्या हो गई. मैंने ईमानदार विनायक को रिश्‍वतखोर बना डाला. अनुशासित बेटियां वैभव पाकर फैशन की दुनिया में खो गईं. नकल के फेर में असल खोकर मैं जो बन गई, वह आप देख ही रही हैं. सच कहती हूं मैं आज आत्मीयता के कारण आपके घर नहीं आई हूं. आपको मात देने आई हूं... पर आपने एक बार फिर मुझे मात दे दी. रोहिणी की नज़र खौलती चाय पर थी. सुप्रभा की नज़र रोहिणी के ग्लानि भरे चेहरे पर.     

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“आती होगी. आते-आते रात होने लगती है. आते ही बेचारी चाय और खाना बनाने लगती है. मुझे किचन में ले चलो. चाय का सामान बता दूं. बना लेना. मैं तो यूं बोलने लगी जैसे इंतज़ार कर रही थी कि तुम मिलो और मैं राम कहानी कह डालूं.” रोहिणी, सहारा देकर सुप्रभा को रसोई में ले आई. सुप्रभा चायपत्ती, शक्कर बताते हुए बिना लाग-लपेट के बोलती रही, “पता नहीं तुम्हें मालूम है या नहीं, जब हम लोग शाजापुर में थे, संभाग के चीफ इंजीनियर आए थे. उन्होंने अव्यवस्था के लिए साहब को वार्निंग दी थी जबकि विनायक जी के काम और ईमानदारी की तारीफ़ की थी.” “मैं नहीं जानती. विनायक जी दफ़्तर की बातें घर में नहीं बताते थे.”

“वे सचमुच सज्जन इंसान हैं. इसी का तो असर मुझ पर हुआ. लगने लगा दिखावे में कुछ नहीं रखा. दिखावा करके हम नाटक करते हैं या ख़ुुद को छलते हैं.” रोहिणी के पास शब्द नहीं हैं. सिर झुकाए हुए चाय खौला रही है. सुप्रभा कुछ देर उसके भावों को पढ़ती-परखती रही. लगा इतने दिनों बाद दोनों मिली हैं. आज कुछ औपचारिक बातें करनी चाहिए थी. फिर किसी दिन यह गाथा सुनाती, पर वह तो जैसे माफ़ी मांगने जैसी जल्दबाज़ी में थी.

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