अहमद फ़राज़ की ग़ज़ल
दिल को अब यूँ तेरी हर एक अदा लगती है
दिल को अब यूँ तेरी हर एक अदा लगती है जिस तरह नशे की हालत में हवा लगती है रतजगे खवाब परेशाँ से कहीं बेहतर हैं लरज़ उठता हूँ अगर आँख ज़रा लगती है ऐ, रगे-जाँ के मकीं तू भी कभी गौर से सुन, दिल की धडकन तेरे कदमों की सदा लगती है गो दुखी दिल को हमने बचाया फिर भी जिस जगह जखम हो वाँ चोट सदा लगती है शाखे-उममीद पे खिलते हैं तलब के गुनचे या किसी शोख के हाथों में हिना लगती है तेरा कहना कि हमें रौनके महफिल में “फराज़” गो तसलली है मगर बात खुदा लगती है
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