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कविता- अभी वक़्त गुजरा कहां है… (Kavita- Abhi Waqt Gujra kahan Hai?)

अभी वक़्त गुजरा कहां है
अभी भोर होते ही
आसमां में
सुबह की लाली नज़र आती है
सुबह टहलने निकले तो
कानों में कोयल की कूक सुनाई पड़ती है
कभी-कभी दिख जाते हैं
मोर भी
नाचते हुए
कोई गीत सुन लेता हूं
अपने ही भीतर
उठती लहरों के साथ
मुस्कुरा उठता हूं
अभी हाथों में कलम पकड़ कर
लिख सकता हूं
अभी चल सकता हूं
थोड़ा दौड़ भी तो लेता हूं
नेत्रों में सौंदर्य की अनुभूति का
एहसास बचा है
अभी कुछ कहने की ताकत
मेरे भीतर है
कुछ करने का
हौसला भी तो
बरक़रार है
अभी मेरे दिल ने
हार कहां मानी है
अभी वक़्त गुजरा कहां है
अभी वक़्त गुजरा कहां है…

- मुरली

Kavita

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Photo Courtesy: Freepik

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