
फिल्में देखने का उद्देश्य शुद्ध रूप से मनोरंजन करना ही तक़रीबन हर किसी का रहता है. लेकिन इंटरटेंमेंट के नाम पर इस कदर मज़ाक उड़ाना भी ठीक नहीं. अजय देवगन की फिल्म में ‘सन ऑफ सरदार 2’ देखकर तो ऐसा ही लगता है. कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा वाला हिसाब है.

दर्शक मनोरंजन पसंद करते हैं, परंतु हंसाने के नाम पर आप कुछ भी तो नहीं परोस सकते ना! पता नहीं इन दिनों निर्देशकों को क्या होता जा रहा है. फिल्म में एक नहीं दो नहीं ऐसे तमाम दृश्य हैं, जिन्हें देख हंसी कम और कोफ्त अधिक होती है.

इन दिनों फिल्मों का प्रचार-प्रसार इतना अधिक कर दिया जाता है कि बेचारे लोग मूवी देखने के लिए बेक़रार से हो जाते हैं. लेकिन असली कलई तो फिल्म देखने पर ही खुल पाती है. यूं लगता है मानो ओवरएक्टिंग की कोई प्रतियोगिता हो रही हो. हर कोई अपना बेस्ट देने पर उतारू है. कहां से ऐसी सोच, सिचुएशन और कथानक गढ़ लेते हैं ये महान लेखक-निर्देशक, यह तो ऊपरवाला ही जाने.

जस्सी, अजय देवगन की पत्नी विदेश में नौकरी करती है, वीजा मिलने पर वो उसे लेने जाता है और उसका एक कड़वी सच्चाई से सामना होता है. वहां से बेआबरू होकर निकलने पर दोस्त के घर आश्रय लेता है. लेकिन क़िस्मत शादी में नाचने-गाने वाली मृणाल ठाकुर की गैंग के बीच में लाकर फंसा देती है. उनकी एक बेटी भी है, जिसे इमोशनल एंगल देने की कोशिश की गई है. वो राजा सधू, रवि किशन के बेटे गोगी से प्यार करती है. दोनों की शादी कराने के लिए पूरी फिल्म में जोड़-तोड़ और कॉमेडी का प्रपंच चलता रहता है. उस पर तुर्रा हिंदुस्तान-पाकिस्तान का एंगल भी जोड़ दिया गया. कह सकते हैं कि आपको अपने दिलोदिमाग़ को साइड में रखकर ही फिल्म देखनी होगी. बस यूं ही हंसने-हंसाने के लिए और भेजा फ्राई करने के लिए.
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निर्देशक विजय कुमार अरोड़ा सिवाय लोगों की जमघट करने बेसिरपैर की चुटकुले दिखाने के अलावा कोई ख़ास कमाल नहीं दिखा पाए. कहानी जगदीप सिंह सिद्धू और मोहित जैैन ने लिखी है. निर्माता के तौर पर अजय देवगन के साथ ज्योति देशमुख, एन. आर. पचीसिया और प्रवीण तलरेजा जुड़े हुए हैं.

अजय देवगन, मृणाल ठाकुर, रवि किशन, कुब्रा सैत, दीपक डोबरियाल, रोशनी वालिया, साहिल मेहता, चंकी पांडे, नीरू बाजवा, शरत सक्सेना, संजय मिश्रा, विंदु दारा सिंह व मुकुल देव (उनकी आख़री फिल्म) सभी ने बस अभिनय की खानापूर्ति की है.
फिल्मों की सीक्वल और ये 2 नंबर वाला हिसाब लगता है बंद होना चाहिए. जब एक का दूसरे से कोई मेल नहीं है, तो भला एक, दो, तीन आदि क्यों लिखा जाता है. अरे भाई, सीधे-सीधे कोई नया नाम और टाइटल क्यों नहीं दिया जाता. क्या फिल्म इंडस्ट्री में राइटरों का अकाल पड़ गया है या कोई कुछ नया या क्रिएटिव करने का दम ही नहीं रखता. या फिर हिट हो गई फिल्म के टाइटल को भुनाने का चक्कर, जो भी हो बदलाव तो होना ही चाहिए, आख़िर कब तक भेड़ चाल में लगे रहेंगे.

क़रीब ढाई घंटे की लंबी होती फिल्म को काफ़ी हद तक निनाद खानोलकर को एडिट करना था, ताकि दिमाग़ का दही कम हो पाता.
सिनेमैटोग्राफी असीम बजाज की ठीक है. गीत-संगीत में तनिष्क बागची, हर्ष उपाध्याय, लिजो जॉर्ज-डीजे चेतस, तेजवंत किट्टू, जय मवानी, सनी विक, अमर मोहिले, सलिल अमृते आदि ख़ास कमाल नहीं दिखा पाए.

यदि आप अजय देवगन के प्रशंसक हैं और मनोरंजन के नाम पर कुछ भी हद तक देखने की हिम्मत रखते हैं तो इसे देख सकते हैं.
- ऊषा गुप्ता

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