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पहला अफेयर: रहें न रहें हम… (Pahla Affair: Rahen Na Rahen Hum)

Love Kahaniya
पहला अफेयर: रहें न रहें हम... (Pahla Affair: Rahen Na Rahen Hum)
हमारा पहला प्यार अधूरा ही रहा किसी सपने की मानिंद, पर फिर भी उसकी रेशमी छुअन है जो दिल के किसी कोने में छुपी है मेरी जीवनशक्ति बनकर. बात 8 वर्ष पहले की है. मैं दिल्ली से ग्रेजुएशन फ़ाइनल ईयर की परीक्षा देने के बाद देहरादून ङ्गपर्यावरण संरक्षण वर्कशॉपफ में भाग लेने आई थी. मेरा अंतर्मुखी कवि मन देहरादून के प्राकृतिक सौंदर्य का साथ पा रोमांचित हो उठा. हर शाम को लेक्चर अटेंड करने के बाद मैं राजपुर की वादियों में पहुंच जाती. वहीं प्रकृति को निहारते मेरी मुलाक़ात हुई थी श्यामल से. वह डॉक्टर था. कानपुर में प्रैक्टिस करता था और लंबी छुट्टी पर देहरादून आया था. देखने में सुदर्शन और मासूम, पर बेहद शरारती. एक पल चुप नहीं बैठता था, पर दिल बेहद साफ़था उसका. हम जल्दी ही अच्छे दोस्त बन गए. हम दोनों के विपरीत स्वभावों के बावजूद हमें बांध रखा था हमारे प्रकृति प्रेम, गज़लों-शायरी के शौक़ और शायद एक अनकही-सी समझ ने. श्यामल को क़रीब से जानकर लगा कि वह उतना सतही नहीं जितना लगता था. जीवन को बहुत करीब से देखा-समझा था उसने. कभी-कभी उसकी खनकती हंसी में एक उदासी की ख़ुशबू भी आ जाती थी. तब लगता था जैसे उसने कोई आंसू कहीं छुपा रखा है. मैंने उससे इस बारे में पूछा भी, पर वो हर बार बात टाल जाता. वो अपने बारे में जल्दी बात नहीं करता था. बस, कभी-कभी यूं ही लगता कि वो कुछ कहना चाहता था, पर ख़ामोशी ही अपनी ज़ुबां आप बन जाती. यह भी पढ़ें: पहला अफेयर: हार्डवेयरवाला प्यार (Pahla Affair: Hardwarewala Pyar) धीरे-धीरे मेरे जाने का दिन क़रीब आ रहा था. कई बार एक अजीब-सा एहसास होता कि मैं श्यामल को ही नहीं, ख़ुद को भी पीछे छोड़ जा रही हूं. जिस दिन मुझे वापस जाना था, उस दिन श्यामल मेरे लिए पीले गुलाब के फूल लाया था. साथ में एक चिट थी जिस पर लिखा था- आपसे मिलकर तमन्ना इतनी रही, एक बार फिर मिलें अगर ज़िंदगी रही... पढ़कर मैं तड़प उठी थी और श्यामल से वादा लिया था कि वो जल्दी ही मुझसे मिलने दिल्ली आएगा. उसने उदास आंखों से वादा कर दिया. फिर मैं दिल्ली आ गई, पर श्यामल की यादें ज़ेहन में ताज़ा थीं बिल्कुल महकते गुलाबों की तरह. पर उसका न फ़ोन आया, न कोई चिट्ठी. मैं मोबाइल ट्राई करती तो वो भी ऑफ़ मिलता. मैं बहुत बेचैन थी. तभी एक दिन श्यामल की बहन का फ़ोन आया. उसने जो बताया उससे तो जैसे मेरी दुनिया ही बिखर गई. श्यामल कैंसर के लास्ट स्टेज पर था, जब मुझसे मिला. उसने कहा था कि उसके आख़िरी दिनों में मेरी मुस्कान ने ही उसे मौत को हंसते-हंसते गले लगाने की ताक़त दी थी. ज़िंदगी से मौत के बीच का सफ़र ख़ुशगवार बनाने के लिए उसने मेरा शुक्रिया अदा किया था. श्यामल चला गया था और मेरे पास ज़िंदगी गुज़ारने के लिए थी उसकी शायरी और ढेरों महकती यादें. उसके बाद मैं देहरादून में नौकरी ढूंढ़ यहीं बस गई, उसकी मौजूदगी के एहसास के साए में ज़िंदगी बिताने की ख़्वाहिश लिए. बस, अक्सर फ़िज़ां में उसका एक शेर कौंध जाता है. रोओ कुछ इस तरह कि अश्क़ न बहें, दर्द सहो इस तरह कि ज़ख़्म न रहे लबों पे आह, आंखों में पानी, रोको कुछ इस तरह कि कोई ग़म न कहे

- दीपाशिखा श्रीवास्तव

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