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काव्य- बहाव के विपरीत बह कर भी ज़िंदा हूं…‌ (Poetry- Bahav Ke Viprit Bah Kar Bhi Zinda Hun…)

बहाव के विपरीत बहती हूं
इसीलिए ज़िंदा हूं
चुनौती देता है जो पुरज़ोर हवाओं को
खुले गगन में उड़ता वो बेबाक़ परिंदा हूं..

नहीं भाता मुझे हर रिवायत को
मंज़ूर करते जाना
नहीं आता मुझे
हर सही ग़लत के आगे सिर झुकाना..

हिमाकत कर बैठती हूं अक्सर
जर्जर हो चुकी कुरीतियों को तोड़ने की
गुंजाइश नज़र आती है जब सदियों से बहती
फिर भी रुकी सी हुई लगती नदियों का रुख मोड़ने की..

वो क्या है ना
कि एक ही दिशा में बहते हैं
तो रुक जाने का वहम पैदा करते हैं
और रुका हुआ पानी हो या हवा
दुर्गंध और घुटन ही पैदा करते हैं..

वो जो गर्भ में ही विसर्जित कर दी जाती हैं
उन मांस पिंडों का नाली में बहना मुझे स्वीकार नहीं
एक औरत के माथे की बिंदी और हाथों की
चूड़ियों के लिए सिर्फ़ सुहाग ही दरकार नहीं..

किसी बाल विधवा का दिल जब धड़कता है
अपनी उम्र के राजकुमार को देख कर
आंखों में किसी की सम्मान दिखता है
जब दो गज लंबा घूंघट पीछे फेंक कर..

ऐसी रंग बिरंगी तितलियां ही तो
नाक की सीध में चलते समाज में तिरस्कृत होती हैं
पर बहाव के विपरीत जाने को उद्धत
मेरी दृष्टि में सर्वथा परिष्कृत होती हैं..

उकेर देता है जो ख़ूबसूरत डिज़ाइन अचानक ही
बुनाई की सलाइयों पर उल्टा पड़ा वो फंदा हूं
ज़ोर आजमाइश करती हूं
ख़ुद के अस्तित्व को भीड़ में खो जाने से बचाने के लिए इसीलिए तो
बहाव के विपरीत बह कर भी ज़िंदा हूं…

- शरनजीत कौर


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Photo Courtesy: Freepik

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