Close

कहानी- आखर की जोत (Story- Aakhar Ki Jyot)

“देख सीमा, तेरी बेटी के सजाए नन्हें दीयों से तेरा पूरा घर जगमगा रहा है.” सीमा मुझसे लिपट गई, “इन दीयों की ज्योति तो दो दिन के त्यौहार तक ही है, लेकिन जो आखर की जोत आपने मेरे मन में, मेरे जीवन में जलायी है उसकी ज्योति ने तो मेरे पूरे जीवन के अंधकार को दूर कर उजाला ही उजाला भर दिया है.”

कामवाली बाई को मेरा काम छोड़े हुए अभी मात्र ह़फ़्ता भर हुआ था, पर इन सात दिनों में मेरे घर की ज्योग्राफ़ी बदलने लगी थी. ‘बाई खोजो’ अभियान पूरे ज़ोर-शोर से चल रहा था. अपने स्टाफ़ की सभी सहयोगी टीचर्स, पति के दोस्तों, परिचितों, पड़ोसियों सभी से मैं एक अच्छी बाई दिलवाने की गुहार लगा चुकी थी, पर मेरे इस बुरे व़क़्त में न मेरे पड़ोसी काम आए, न शुभचिंतक. आख़िरकार एक ख़ुशनुमा सुबह मेरे स्कूल की चपरासिन ने मुझे आकर ख़ुशख़बरी दी कि बाई मिल गई है. “अरे वाह! गोदावरी कब ले के आएगी बाई को?”
“मैडमजी साथ ही लेकर आई हूं, ऐ सीमली इधर आ...” उसने जब अपने पीछे खड़ी बारह-तेरह साल की लड़की को मेरे सामने किया, तो मेरी ख़ुशी कपूर-सी उड़ गई.
“ये!... क्या काम कर पाएगी?”
“काम करवाकर देख लो मैडमजी, नहीं समझ में आवे तो मत रखना. कल अपनी मां के साथ आ जाना री छोरी.”
दूसरे दिन सीमली अपनी मां के साथ आ गई. उसकी मां तनख़्वाह आदि की बात करके उसे छोड़ कर चली गई, दस उपदेशों के साथ “ठीक से काम करजे री छोरी. मैडम साबजी डांट के राख जो. पहले भी कई घरां में काम किया, पर इसका जी काम में कम खेलबा में ज़्यादा रह छै.” जिसके लिए यह सब कहा जा रहा था, वह निर्विकार भाव से खड़ी सब सुन रही?थी. शायद मां द्वारा विभूषित गालियों की वह अभ्यस्त थी.
उसे अंदर लेकर आई, तो मेरी बेटियां तनु-मनु विस्मित होकर देखने लगीं, “यह कौन है मम्मी?”
“हमारी नई बाई.”
“इतनी-सी भी बाई होती है क्या मम्मा?” मुझे हंसी आ गई, “इतनी-सी का क्या मतलब? कई बच्चे छोटी-सी उम्र में ही काम पर लग जाते हैं.” “तो मम्मा फिर यह पढ़ती कब है?”
“मेरी मां ने पढ़ाई छुड़ा दी मेरी.” नन्हीं बाई का उदास स्वर आया. मनु अपनी इस समवयस्का के बारे में जानना चाहती थी. “ऐई तुम्हारा नाम क्या है?” “सीमली, पर... मैडमजी आप मुझे सीमा ही बुलाना, ‘सीमली’ मुझे अच्छा नहीं लगता,” उसने थोड़ा सकुचाते हुए कहा. उसकी बालसुलभ इच्छा पर मैंने मुस्कुराकर सहमति जतायी. “ठीक है तुझे मैं सीमा ही कहकर बुलाऊंगी.”
सीमा ने धीरे-धीरे झाडू, पोंछा, बर्तन सब काम अच्छी तरह संभाल लिया. बस, एक ही शिकायत मुझे उससे रहती थी, इतना साफ़-सुथरा काम करनेवाली ख़ुद साफ़ नहीं रहती थी. एक दिन मैंने उसे प्यार से समझाया, “देख सीमा, तू इतने साफ़ बर्तन मांजती है, तो ऐसे ही अपने शरीर को भी साफ़-सुथरा रखा कर. कल से कपड़े भी अच्छी तरह साफ़ कर के आना और ख़ुद भी नहाकर आया कर.”
“नहाकर आयी हूं मैडमजी.”
“पर बेटे तू तो नहायी हुई नहीं लग रही. देख कल साबुन से अच्छी तरह नहाकर आना.”
“साबण से? साबण से तो बस मेरा भाई रामसिंह नहाता है. हम तीनूं बहणा को साबण नई देती मेरी मां. मैडमजी हम तो छोरियां हैं, हम तीनूं बहणा को तो वो परणा (विवाह) देगी. रामसिंह तो छोरा है, वही कमाकर खिलाएगा. मेरी मां कहती है छोरा सूं बंस री बेल चालै है, छोरयां तो पिछला जणम रा पाप होवे.” कहते-कहते उसकी आंखों में आंसू छलक आए. मेरी छोटी बेटी मनु की आंखों में पीड़ा थी, विस्मय था और होंठों पर प्रश्‍न, “छी-छी मम्मा कितनी पार्शलिटी है. क्या लड़की होना इतना बुरा है?”
“नहीं बेटे, बेटी तो ईश्‍वर से मांगी हुई दुआ होती है. ये लोग अनएजुकेटेड और ग़रीब होते हैं ना, ऊपर से बच्चे ज़्यादा, तो ग़रीबी से तंग आकर इसकी मां ने ऐसे ही कह दिया होगा.” सीमली विद्रोहिणी-सी हुंकार उठी, “नहीं ऐसे ही नहीं मैडम, वो तो हर बात में हम बहणों को ही कोसती रहती है. इतनी बुरी हालत भी नहीं है घर की. दो बखत की रोटी का जुगाड़ है, हम तीन बहनें हैं और तीनों अपने खाने का ख़र्च निकाल लेती हैं. रामसिंह हम तीनों से बड़ा है, बस वही काम पर नहीं जाता. मां उसे ही स्कूल भेजती है, अच्छा कपड़ा पहराती है. हम बहणों को तो वो चीथड़े पहराती है. अच्छा खाना मांगती हैं, तो गालियां काढ़ती है.”
दिन गुज़रते गए और सीमा घर में अच्छी तरह घुल-मिल गई.
उस दिन स्कूल की छुट्टी थी- बच्चे किसी बर्थडे पार्टी में गए थे और पति अपने मित्र के यहां. सोचा थोड़ा सफ़ाई कर डालूं. सीमली को आवाज़ लगाई, पर कोई जवाब नहीं आया. बच्चों के कमरे में जाकर देखा तो वो मनु की किताबों में खोई हुई थी. मैंने उसके कंधे पर हाथ रखा, वह झेंप गई, “मनु दीदी की किताब देख रही हूं.”
“पढ़ना आता है?”
“हां मैडमजी छठी पास की है, पूरी कक्षा में प्रथम आई थी, पर मां ने पढ़ाई छुड़ा दी. उस दिन मैं बहुत रोयी, रोटी भी नहीं खाई.”
“तू पढ़ना चाहती है?”
“हां, बहुत मन करता है पढ़ने का, पर कौन पढ़ाएगा मुझे?” उसका स्वर उदास हो गया.
“मैं पढ़ाऊंगी.”
“सच्ची! आप पढ़ाओगे?”
“अगर तू मन से पढ़ेगी तो ज़रूर पढ़ाऊंगी.”
मैंने सीमा को कहा, “तुझे मैं स्कूल में डाल दूंगी. तेरी मां से मैं बात कर लूंगी.”
“नहीं-नहीं मैडमजी, ऐसा मत करना. मेरी मां आपके यहां से मेरा काम छुड़ा देगी, क्योंकि उसे मेरी पगार मिलनी बंद हो जाएगी.”
आख़िरकार तय हुआ कि दोपहर को सीमा जल्दी से और घरों का काम ख़त्म करके मेरे पास आएगी और मैं रोज़ उसे एक-दो घंटा पढ़ा दूंगी, फिर प्राइवेट इम्तहान दे देगी. लड़की दिमाग़ की तेज़ थी, तीन साल तक वह दिल लगाकर पढ़ी. उसके इम्तहान के महीने में मैंने 'काम ज़्यादा है' का बहाना करके घर पे रोक लिया. इस महीने की तनख़्वाह डबल दूंगी कहने से उसकी लालची मां तैयार हो जाती. उसका रिज़ल्ट अच्छा रहा. मार्कशीट सब उसने मेरे पास ही सहेजकर रख दीं.
“बस, इस साल मेहनत करके तू दसवीं पास हो जाएगी.”
उसका दसवीं में एडमिशन कराया, पर एक ह़फ़्ते बाद ही उसका आना बंद हो गया. उसकी छोटी बहन कमली मेरे बर्तन कर जाती. कमली से कई बार उसे बुलवाया तो एक दिन उसकी मां उसे लेकर आयी. “अब से यह काम न करेगी. इसका ब्याह हो रहा है.” मैं जैसे आसमान से धरती पर आ गिरी. “अभी से! बहुत छोटी है ये अभी.”
“छोटी काहे की मैडमजी? देह की उठान देखो. पंद्रहवें में लग पड़ी है, इस उमर में तो मैं एक बच्चे की मां बन गई थी.” उसकी मां दुकान पर कुछ लेने गई, तो मैंने उसे समझाया, “तू बहुत छोटी है सीमा, ब्याह की उम्र नहीं है तेरी. क्या दसवीं का इम्तहान नहीं देना है तुझे?”
“अब न पढ़ूं मैडमजी. एक बात बोलूं, मेरी सास बहुत सुंदर ज़री-गोटे का लहंगा-ओढ़ना लाई है. राखड़ी और बाजूबंद भी सासरे से आएगा, टणके और हसली मेरा बापू देगा. ढेर सारा गहना-कपड़ा पहरूंगी मैं.” राखड़ी और बाजूबंद के आकर्षण ने पढ़ाई को कहीं पीछे ढकेल दिया था. काश! मैं उसे समझा पाती कि स़िर्फ गहने-कपड़े के लालच में अपनी कच्ची उम्र को घुन मत लगा. अबोध कंधों पर गृहस्थी का भार और कच्चे नाज़ुक शरीर पर शारीरिक संबंधों का भार क्या उसका शरीर झेल पाएगा. मैंने आख़िरी कोशिश की उसकी मां को समझाने की, लेकिन वो नहीं मानी.
स्कूल का ग्रीष्मावकाश शुरू हो गया था. तनु-मनु ने ग्रीष्मकालीन हॉबी क्लासेज़ का शिविर ज्वाइन कर रखा था. वे वहां गई थीं और अजय ह़फ़्ते भर के टूर पर थे. घंटी बजी. दरवाज़ा खोलने पर सामने सीमा खड़ी थी. 7-8 महीने की मरियल-सी बच्ची उसके गोद में थी. पूरे दो साल बाद मैं उसे देख रही थी. एक पल को मेरा मन ख़ुशी से भर गया, “अरे, सीमा तू. आ अंदर आ,” पर दूसरे ही पल मेरे भूले-बिसरे क्रोध में उफान आने लगा, “हां तो ब्याह करके ख़ूब गहने-कपड़े मिल गए. गलती मेरी थी जो तुझे पढ़ाने में अपना टाइम बर्बाद किया. अरे दसवीं कर लेती, तो तेरी कहीं नौकरी...” रोने की आवाज़ सुनकर मैंने पलटकर देखा. वह दरवाज़े पर पूर्ववत खड़ी थी और रो रही थी. मेरा मन ग्लनि से भर उठा कि शादी के बाद पहली बार वो मुझसे मिलने आई. न उसके ससुराल के बारे में पूछा, न बच्ची की ख़ुशी ज़ाहिर की. बस लगी डांटने. मैं उसे प्यार से अंदर लेकर आयी, पर वह तो फूट-फूटकर और ज़ोर से रोने लगी. अब तक मैं समझ रही थी कि वह मेरे डांटने की वजह से रो रही है, लेकिन बात कुछ और थी. ख़ूब रो चुकने के बाद सीमा ने जो बताया, उसका सार यह था कि वह अपने आदमी को छोड़कर गर्भावस्था के पूरे दिनों में भाग आई थी, क्योंकि उसके आदमी के अपनी विधवा भौजाई के साथ ग़लत संबंध थे. “थोड़ा तो सब्र करती पगली. क्या पता तेरा प्रेम उसे वापस तेरी तरफ़ खींच लेता.”
“सौत तो मिट्टी की भी नहीं सही जाती, फिर वो तो जीती-जागती रात-दिन मेरे ही घर में मेरे सामने थी. मुझ पर हुकूम चलाती. मेरे बाप ने कोरट में अरजी दी थी. मुझे तलाक़ भी मिल गया है पर..” वह फिर फफककर रो पड़ी. मेरी मां मुझे नाते बिठाना चाहती है. “मैं नाते नहीं बैठूंगी, मुझे बचा लो मैडमजी.”
“यह नाते बिठाना क्या होता है?” मैं राजस्थान की इस कुप्रथा से अनभिज्ञ थी.
“हमारी जात में चाहे लड़की कम उमर की हो, छोड़ी हुई हो या विधवा, जो मां-बाप को ज़्यादा पैसा देता है, वह लड़की को अपने घर बिठा लेता है. चाहे फिर उमर में वह कितना ही बड़ा हो. मेरी मां मुझे मेरी बाप की उमर के पचपन साल के बूढ़े के यहां बिठा रही है. वह मेरे मां-बाप को बीस हज़ार रुपया दे रहा है. मेरी छोरी को भी वह बूढ़ा रखने को तैयार नहीं, उसे मेरी मां रखेगी. मुझे बचा लो”. कहकर वह बुरी तरह सिसकने लगी. मैं देख रही थी समय और परिस्थितियों ने उसका बचपन छीनकर उसे एकदम परिपक्व बना दिया था. वह अब मां थी, जो अपनी बेटी को पालने के लिए जीवन से संघर्ष करना चाहती थी.
मेरा मन द्रवित हो गया. मैंने पुनः नए सिरे से उसे पढ़ाने का बीड़ा उठाया और उससे दसवीं का फॉर्म भरवाया. सीमा ने भी कमर कस ली थी. उसने दो-तीन घर का काम ही हाथ में लिया, आधी तनख़्वाह वह घर में देती. आधी मेरे पास जमा कर देती. मैंने अजय से पुलिस की धमकी भी उसकी मां को दिला दी थी कि बिना सीमा की इच्छा के उसे कहीं ज़बरदस्ती भेजा या शादी की तो पुलिस में दे देंगे. अपनी लड़की को मां को सौंपकर उसने इम्तहान में दिल लगाकर मेहनत की और अच्छे नंबरों से पास हो गई. उसका रिज़ल्ट आने पर मैंने अपनी डॉक्टर मित्र को पत्र लिखा- मैं तुम्हारी आभारी रहूंगी, यदि किसी तरह तुम इस लड़की सीमा को नर्स की ट्रेनिंग करवा दो. अपनी एक जयपुर जा रही टीचर के साथ सीमा को मैं जयपुर की बस में बिठाकर आयी. मेरे पास जो उसकी जमा राशि थी, उसमें और पैसे डालकर उसे थमाए तो उसकी आंखों में कृतज्ञता के आंसू थे. मेरा मन भर आया. कुछ समय बाद डॉ. नंदिता का पत्र आया कि सीमा का एडमीशन विशेष आरक्षण कोटे में आसानी से हो गया है, लड़की बहुत मेहनती है और शीघ्र ही नर्सिंग का कोर्स पूरा कर लेगी. मैंने चैन की सांस ली.
Aakhar Ki Jot 2

कुछ महीने बाद ही मेरे पति का ट्रांसफर हो गया. फिर कभी सीमा से मिलना नहीं हो पाया. सालों गुज़र गए और वह मेरे जीवन का भूला-बिसरा प्रसंग हो गई. मेरे भी दोनों बच्चे सैटल्ड हो चुके थे. मैं और अजय अब ज़िम्मेदारियों से मुक्त थे. साल में एक बार हम घूमने निकल जाते. इस बार हमने उदयपुर का प्रोग्राम बनाया. रास्ते में सामने से आते हुए ट्रक से बचाने के लिए जैसे ही ड्राइवर ने गाड़ी मोड़ी, गाड़ी उलट गई. जब मुझे होश आया मैं हॉस्पिटल में थी. मेरी हालत सीरियस थी. मैंने अजय को अपने सामने खड़े पाया और राहत की सांस ली. भगवान की कृपा से वे ठीक थे. डॉक्टर मुझे दर्दनिवारक गोलियां और इंजेक्शन दे रहे थे. कभी जब होश में आती, तो देखती एक ममता भरा चेहरा मेरी सेवा में लगा है. कौन थी यह नर्स? कुछ-कुछ जाना-पहचाना-सा चेहरा था, कहां देखा है इसे? मैं दिमाग पर ज़ोर डालती. माना अस्पतालों में नर्स देखभाल करती हैं, पर इतना कोई नहीं करता. उन आंखों में मेरे लिए कितना प्यार था. रात को आंख खुलने पर देखती, मेरे पलंग से सटी कुर्सी पर अजय सो रहे हैं, मगर वह कुर्सी पर बैठी किताब पढ़ रही है. मेरे हल्का-सा कराहने पर भी वह दौड़कर आती.

मुझे ठीक होने में महीनेभर से ज़्यादा समय लग गया. आज छोटी दीवाली थी और अपना घर मुझे बेहद याद आ रहा था. डिस्चार्ज से पहले मैंने अजय से पूछा, “अजय यह नर्स कौन है? बहुत सेवा की है उसने मेरी.” “उसने तुम्हारी बहुत सेवा की इतनी कि शायद तुम्हारी तनु-मनु भी नहीं कर पातीं. पर क्या सच में तुम उसे नहीं पहचान पायी?”
“नहीं अजय. चेहरा देखा हुआ लगता है, पर कहां, याद नहीं आ रहा.” तभी नर्स आ गई. “चलिए अब आपको मेरे घर चलना है. वहीं से खाना खाकर आप रात की बस से कोटा चली जाएंगी. मैंने तो सर से बहुत रिक्वेस्ट की कि दो-तीन दिन मेरे घर रहकर हमें आपकी सेवा का सौभाग्य दें, पर सर कल त्यौहार पर घर पहुंच जाना चाहते हैं.”
हॉस्पिटल के अहाते में ही कुछ दूरी पर नर्सेज़ क्वार्टर बने हुए थे. मैं घर के द्वार पर ही रुक गई, “जब तक तुम बताओगी नहीं कि तुम कौन हो, मैं अंदर नहीं जाऊंगी. कितनी सेवा की है तुमने मेरी. मैं पहचान नहीं पा रही हूं.”
“आपने ही तो मुझे सेवा के योग्य बनाया है. आज जो कुछ हूं, आपकी वजह से ही हूं. यह नर्स की यूनिफॉर्म, मेरी नौकरी, पढ़ाई सारा श्रेय आपको ही जाता है. मैडमजी मैं आपकी सीमली हूं, सीमा...” मेरा मन ख़ुशी से भर गया. मैं उसे पहचानती भी कैसे, कल की किशोरी सीमा पूर्ण युवती थी. सलीके से बंधी साड़ी, आत्मविश्‍वास से भरी आवाज़, एक संवरा हुआ व्यक्तित्व.
सीमा के पति ने आगे बढ़कर मेरे व इनके पैर छुए. फिर बोला “इतना सुना है आपके बारे में, रात-दिन आपके ही गुण गाती हैं. सच मैडमजी आपने इसे नया जीवन दिया है.” सीमा की बेटी बारह-तेरह साल की हो चुकी थी और अच्छे स्कूल में पढ़ रही थी. छोटा-सा घर, सुंदर सलीके से सजा रखा था. बहुत प्यार और मनुहार से उसने व उसके पति ने हमें खाना खिलाया. वह तनु-मनु के बारे में पूछती रही, मैंने उसके पति को अपने घर का पता देते हुए कोटा आने का निमंत्रण दिया.
एकांत पाकर मैंने उससे उसके विवाह, परिवार के बारे में पूछा तो उसने बताया “सुनील मेरे पति मुझसे तीन साल सीनियर थे. इन्होंने भी मेल नर्स की ट्रेनिंग की है, मेरी नौकरी लगवाने में बहुत मदद की. सुनील ने मुझसे शादी की इच्छा ज़ाहिर की और मुझे बच्ची के साथ अपनाने को तैयार हो गए और हमारा विवाह हो गया.”
“और तेरे मां-बापू, भाई रामसिंह वो सब कैसे हैं?”
“बापू तो कुछ साल पहले ख़तम हो गया था, रामसिंह ब्याह करने के बाद इतना बदल गया कि दो कमरों के घर पर कब्ज़ा करके मां को धक्के देकर बाहर निकाल दिया. मेरी नौकरी लग गई थी. मैं मां को अपने पास ले आई. सुनील भी मां की सेवा करते हैं. जो मां बेटियों को बोझ मानती थी, अब असीस देते नहीं थकती. छोटी कमली का ब्याह भी हमने कर दिया. अभी मां उसी के यहां गई हुई है.”
चलते व़क़्त मैंने देखा उसकी किशोरी बेटी ने पूरा घर नन्हें दीपकों से सजा दिया है.
“देख सीमा, तेरी बेटी के सजाए नन्हें दीयों से तेरा पूरा घर जगमगा रहा है.” सीमा मुझसे लिपट गई, “इन दीयों की ज्योति तो दो दिन के त्यौहार तक ही है, लेकिन जो आखर की जोत आपने मेरे मन में, मेरे जीवन में जलायी है उसकी ज्योति ने तो मेरे पूरे जीवन के अंधकार को दूर कर उजाला ही उजाला भर दिया है.”

- वंदना त्यागी
अधिक कहानी/शॉर्ट स्टोरीज़ के लिए यहां पर क्लिक करें – SHORT STORIES

Share this article