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कहानी: अनजाने प्रेम-पत्र (Short Story- Anjane Prem-Patra)

एक कवि हृदय ने उसकी मुखमुद्रा से यह अनुमान लगा लिया था कि उसका पति कठोर है, इसलिए तो चांद से चेहरे पर चिंता के बादल छाए हुए हैं. भला अपनी पत्नी के लिए लिखे गए ऐसे पत्रों से किसे ग़ुस्सा न चढ़ता. विजय भी क्रोध के मारे पागल हो उठा.

आज डाक में चिट्ठियां पहले की अपेक्षा कहीं अधिक है, सोचते हुए विजय सीढ़ियां चढ़ गया.

दोपहर को भोजन के समय जब घर आता है, तब वह रोज़ सीढ़ियों के नीचे लगे पोस्ट बॉक्स में से अपनी चिट्ठियां निकालकर ले आता है. जब से वह यहां इस घर में आया है, तब से उसका यह नित्य का कार्य है. इसमें कभी व्यवधान नहीं पड़ा उन दो-चार अवसरों को छोड़कर जब वह बीमार था और प्रमिला स्वयं नीचे आकर डाक ले गई थी.

ऊपर पहुंचते-पहुंचते उसने ऊपर के पते पढ़ लिए. अधिकांश पत्र मिसेज विजय कुमार' के नाम से थे और दो-एक उसके काम संबंधी, प्रमिला के पत्र वह कभी पढ़ता नहीं, पर उन पर अक्सर भेजनेवाले के स्थान पर उसकी किसी-न-किसी सहेली का नाम होता है. लेकिन इनमें भेजनेवाले के स्थान पर किसी का भी नाम नहीं था.

वह बीमा का कार्य करता है. सो लोगों से मिलने सुबह जल्दी नाश्ता करके निकल जाता है उसे भेजने के पश्चात ही प्रमिला दोनों बच्चों, रोहित और मधु को तैयार करती है, उन्हें स्कूल बस में चौराहे तक पहुंचाने जाती है और तब कहीं जाकर घर का कार्य निपटाती है और स्वयं तैयार होकर स्कूल चली जाती है पढ़ाने.

सुखी एवं स्वस्थ चार प्राणियों का छोटा-सा परिवार है यह. विजय दोपहर में आता है तो उसे भोजन तैयार मिलता है. कभी वह गरम कर लेता है, तो कभी यूं ही ठंडा खा लेता है और तब पत्रों के उत्तर देता है. नए आवश्यक पत्र लिखता है और आराम करता है. शाम के पहले आती है मधु, फिर रोहित और सबसे बाद में प्रमिला, तब चारों प्राणी मिलकर चाय पीते हैं और विजय फिर अपने कार्य से निकल जाता है.

दोपहर के आराम के पश्चात् वह अपने कार्य के लिए पुनः तरोताज़ा हो जाता है और रात को जब लौटता है तो प्रमिला अगले दिन के लिए पढ़ाने की तैयारी कर रही होती है या स्कूल से लाई लड़कियों की कॉपियां जांचने में व्यस्त रहती है.

दोनों बच्चों की पढ़ाई भी वही देखती है या कभी-कभी विजय उन्हें गणित समझा देता है.

आज की डाक में लाए पत्र विजय ने मेज पर रख दिए, अपने पत्रों को खोला और उन्हें पढ़ने के पश्चात् वह फ्रिज की ओर गया. आज उसका मूड भोजन करने का नहीं था, पर फ्रिज में जब उसने मनपसंद सब्ज़ियां देखीं तो ख़ुश हो गया. उसे भूख लग आई. सब्ज़ियां गरम की और खाने बैठ गया. खाने के पश्चात् जब पुनः मेज पर लौटा तो उसने मिसेज विजय कुमार नाम का एक लिफ़ाफ़ा उठाया, उलटा-पलटा और ऊपर दिल्ली की मोहर देखकर खोल लिया.

अंदर का पत्र पढ़कर उसके तन-बदन में आग लग गई. पत्र लेखक ने प्रमिला की सुंदरता की प्रशंसा करते हुए अंत में उनके घर के सामने के होटल में आने के लिए निमंत्रण दिया हुआ था. स्पष्ट था कि पत्र उनके घर के सामने गोलचा होटल में से किसी अजनबी ने भेजा था. फिर क्या था, उसके सुंदर घने केशों का, उसकी चांद-सी पलकों का, उसकी नाक एवं ग्रीवा का कवित्तमय भाषा में वर्णन था. एक ने तो लिखा था कि वह व्यर्थ में अपनी सुंदरता, अपना यौवन विजय जैसे मूर्ख के साथ जाया कर रही है, जबकि वह लखपति का बेटा उसे अपने महलों की रानी बना सकता है. एक ने महीने के अंदर उसे भारत की सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री बनाने का वायदा किया था.

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लखपति के बेटे ने लिखा था कि अगर उसे पत्र की बातें स्वीकार हों तो वह दूसरे दिन प्रातः उसी नीली साड़ी में जिसमें वह दूज की चांद सी लगती है, बाल खोल कर बरामदे में आए, जिसमें वह कल प्रातः काल टहल रही थी.

एक कवि हृदय ने उसकी मुखमुद्रा से यह अनुमान लगा लिया था कि उसका पति कठोर है, इसलिए तो चांद से चेहरे पर चिंता के बादल छाए हुए हैं. भला अपनी पत्नी के लिए लिखे गए ऐसे पत्रों से किसे ग़ुस्सा न चढ़ता. विजय भी क्रोध के मारे पागल हो उठा. उसे सबसे अधिक गुस्सा प्रमिला पर ही आ रहा था. प्रमिला क्यों गई बरामदे में? क्यों प्रमिला ने बरामदे का दरवाज़ा खोलने की धृष्टता की?

उसे याद है, तेरह वर्ष पूर्व जब नई-नई शादी करके वे दरियागंज के इस मकान में आए थे, तब भी यह होटल यहीं था. हां, तब यह इतना बड़ा न था और न इतना महंगा. समय के साथ सामने का होटल बढ़ता गया. अब तो उस होटल में सौ से ऊपर कमरे थे, पांच मंजिलें थीं. सब कमरों के सामने की ओर बरामदा था और उसमें से किसी भी बरामदे से उनके घर का बरामदा और दरवाज़ा खुला हो, तो अंदर तक की चीज़ें दिखाई देती थीं. इस होटल का डाइनिंग हॉल तो बिल्कुल घर के सामने पड़ता है और जब शुरू-शुरू में आकर प्रमिला सामने बरामदे में खड़ी हुई थी, तो केवल पते के आधार पर ही न जाने कितने पत्र आ गए थे.

प्रमिला ने हंसते-हंसते सारे पत्र उसे दिखाए थे और दोनों ने अनुमान लगाया था कि चूंकि प्रमिला सवेरे के नाश्ते के समय नहा-धोकर बाहर बरामदे में सूर्य के प्रकाश में बैठकर अपने बाल सुखाती थी और उसी समय होटल के विभिन्न कमरों में रहनेवाले यात्री अपना नाश्ता लेने डाइनिंग हॉल में आते थे. यह सारे पत्र उन अजनबियों के ही रहे होंगे. कई पत्रों में तो होटल का कमरा नंबर और टेलीफोन नंबर भी दिया हुआ था. उस समय भी विजय को क्रोध आया था, पर फिर यह सोचकर कि होटल वालों को क्या कहा जाए, उसने यह निश्चय किया था कि वह बरामदे का दरवाज़ा ही बंद कर देंगे और बरामदे में जाएंगे ही नहीं. पीछे की ओर खुला आंगन होने के कारण सामने के तंग बरामदे की आवश्यकता भी उन्हें कभी महसूस नहीं हुई थी. इन तेरह वर्षों में वह भूल गए थे कि उनके घर में सामने सड़क की ओर कोई बरामदा भी है.

विजय समझ गया कि प्रमिला आज दरवाज़ा खोलकर अवश्य ही बरामदे में गई होगी. दिल्ली आनेवाले यात्री भी विचित्र जीव हैं? वह यह क्यों भूल जाते हैं कि उनके परिवारों की भांति यहां भी सुखी-स्वस्थ परिवार बसते हैं? वे हर सुंदर स्त्री को अपनी वासना का शिकार बनाने को क्यों आतुर होते हैं? इसमें आज की सभ्यता का दोष है या दिल्ली जैसे बड़े शहरों का जीवन ही ऐसा हो गया है? उसने उन पत्रों को दुबारा पढ़ा और प्रमिला के आने से पहले ही उन सबको एकत्र करके अपने मेज की एक दराज में पीछे की ओर रख दिया.

पत्रों का क्रम कम नहीं हुआ. विजय सबसे पहले डाक में वही पत्र खोलकर पढ़ता, उन पत्रों से उसे पता लगा कि प्रमिला रोज़ नहा-धोकर अपने बाल सुखाने बरामदे में टहलती है, बाहर ही खड़ी होकर दीवार की ओर मुंह करके काफ़ी देर तक कपड़े इस्त्री करती है, रेलिंग पर कोहनी टिकाए सड़क पर आते-जाते लोगों को सुस्त निगाहों से ताकती है.

उसे याद आए अपने विवाह के प्रथम तीन-चार वर्ष कैसे हंसी-ख़ुशी में कटता था उनका समय. फिर पहले रोहित हुआ और दो वर्ष पश्चात् मधु. दिल्ली में चार प्राणियों के परिवार के लिए सामान्य वस्तुएं जुटाने और उन पर प्रतिदिन के ख़र्च के लिए बीमा के काम में कितना व्यस्त हो जाना पड़ा. बच्चे बड़े हुए तो प्रमिला ने दिनभर अकेले बैठे रहने से बेहतर समझा कि वह भी कहीं नौकरी कर ले. आजकल कोई भी कार्य आता हो तो नौकरियों की भरमार है विशेष रूप से महिलाओं को. प्रमिला को फौरन ही एक प्राइवेट स्कूल में स्थान मिल गया और वह प्रसन्न भी है अपनी नौकरी से. अब दोनों व्यस्त रहते हैं और प्रसन्न भी.

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'प्रसन्न? क्या प्रसन्नता व्यस्तता में ही होती है' सोचा विजय ने, फिर याद आई प्रेम-पत्र में लिखी वे बातें कि प्रमिला बरामदे में उदास खड़ी ठंडी आहें भरती है. अवश्य ही देखनेवाले ने सहानुभूति प्रदर्शित करने के लिए यह लिख दिया होगा.

विवाह के पश्चात् तो वे रोज़ शाम को घूमने जाया करते थे. अब तो न जाने कब से वे किसी मित्र के घर भी नहीं गए. दिल्ली में कहां सरल है किसी को मिलने जाना? अब तो महीने में दो बार बच्चों के साथ रविवार सिनेमा देखने जाते हैं, चाहे पिक्चर जैसी भी हो.

प्रमिला को कितना शौक था नाटकों का और आरंभ में वह दिल्ली पर केवल इसीलिए लट्‌टू थी कि यहां कोई-न-कोई अच्छा नाटक होता ही रहता है. इधर न जाने कितने वर्षों से वे कोई नाटक देखने ही नहीं गए. फिर साथ ही उसे याद आईं वो सारी बातें जो अजनबियों, अनजान यात्रियों ने उसकी पत्नी के नख-शिख वर्णन में अपने पत्रों में लिखी थीं. उसे हंसी आ गई, क्या वह नहीं जानता कि उसकी प्रमिला वास्तव में सुंदर है. क्या उसने कई बार प्रमिला के केशों से खेलते समय यह नहीं कहा कि इनके एक-एक तार के सहारे वह एक एक जीवन बिता सकता है. पर पुरानी हो चुकी हैं यह सारी बातें, तो क्या वह बूढ़ा हो गया है. अभी तो उसकी उम्र सिर्फ़ अड़तीस वर्ष है.

इसी प्रकार विचारों में डूबे विजय को ध्यान ही न रहा कि रोहित और मधु लौट आए हैं, उसने प्रेम-पत्रों को उसी दराज में ढकेला और कुछ निश्चय करके बच्चों से मिलने के लिए उठ गया, दूसरे दिन प्रमिला स्कूल से लौटी तो उसे विजय बहुत ही प्रसन्न विखाई दिया. चाय पीते समय उसने बताया कि वह बच्चों के लिए एक नया बढ़िया खिलौना लाया है, जो उन्हें रात को दिया जाएगा और बच्चों की मम्मी के लिए लाया है वह दो टिकटें 'रामलीला बैलेट' के लिए, जो न जाने कितने वर्षों से दिल्ली में हर वर्ष होती थी.

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प्रमिला की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा. विजय मुस्कुराते हुए बोला, "आज तुम वही नीली साड़ी पहनकर चलोगी, जिसमें तुम दूज का चांद' लगती हो." साथ ही विजय सोच रहा था कि प्रमिला को उन प्रेम पत्रों के विषय में बताए‌ या नहीं, जिसके कारण उसमें यह परिवर्तन आया था. उसने यह भी सोचा कि प्रमिला को बरामदे में जाने से मना भी कर दे, क्योंकि वह अनजाने यात्री वैसे ही थे जैसे आज से तेरह वर्ष पूर्व.

उधर प्रमिला सोच रही थी कि विजय में इच्छित परिवर्तन आ ही चुका है, अब कल से उसे बरामदे में जाने की आवश्यकता नहीं रहेगी. उसे तो प्रेम-पत्र देखने की इच्छा भी नहीं थी. उसने उन अजनबियों के प्रेम-पत्रों का मन-ही-मन धन्यवाद अवश्य दिया, जिनके कारण उसके प्रिय विजय में परिवर्तन आ गया था.

- ब्रह्मदेव

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