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कहानी- बाऊजी (Short Story- Bauji)

मेरी आंखें छलछला उठीं. ‘विचारों के कितने भयंकर झंझावातों से गुज़रे हैं बाऊजी! ऊपर से शांत नजर आने वाला सागर गर्भ में कितनी उथल-पुथल समेटे रहता है, अंदाज़ा लगाना कितना मुश्किल है?’ धुंधलाती नज़रें अब भी पन्नों पर टिकी थीं.

पन्द्रह दिनों की समस्त औपचारिकताएं और धार्मिक क्रियाकलाप पूरे कर मेहुल आज मधु और बेटे गुड्डू के संग अपने शहर लौट गए थे. बाहर से आए सभी नाते-रिश्तेदार भी लौट गए थे. सूने घर का कोना-कोना बाऊजी की यादों और बातों को प्रतिध्वनित कर रहा था. थक-हारकर मैं बालकनी में रखी उनकी प्रिय आराम कुर्सी पर जाकर पसर गई. बंद आंखों में रह-रहकर बाऊजी की यादों के साथ-साथ मेहुल की स्मृतियां भी उभर आतीं. इन पन्द्रह दिनों में जिस मेहुल को मैंने देखा, कहीं से भी ऐसा नज़र नहीं आ रहा था कि वे अपनी याददाश्त खो चुके हैं. कहीं ऐसा तो नहीं कि उनकी याददाश्त लौट आई है?
"हं…" यकायक गरम शॉल के स्पर्श ने मुझे चौंका दिया. आंखें खोलकर देखा, सरल सामने खड़े थे.
"इतनी ठंड में खुले में बैठी हो, बीमार पड़ जाओगी. आओ, अंदर चलते हैं. तुम्हें बाऊजी की एक अमानत भी सौंपनी है." सरल के अंतिम वाक्य से मेरी आंखों में एक प्रश्नचिह्न उभर आया. लेकिन कुछ पूछने की बजाय मैं उनके साथ अंदर जाने के लिए उठ खड़ी हुई. सरल ने आगे बढ़कर मेरा हाथ थाम लिया, तो दिल अचानक भर आया. ‘कितना ख़्याल है सरल को मेरा? बाऊजी की पसंद कभी ग़लत हो ही नहीं सकती.'
बाऊजी के कमरे में पहुंचकर मैं उनकी तस्वीर को निहारने लगी, तो तस्वीर से जुड़े यादों के पन्ने स्वतः ही फड़फड़ा उठे. बरसों पूर्व मेहुल की दुल्हन के रूप में इस घर में कदम रखा था. तब पहली बार अपने सिर पर बाऊजी के स्नेहिल हाथ का स्पर्श पाकर मन एक आत्मीय गर्माहट से भर गया था. आज उनकी तस्वीर पर हाथ फिराते हुए मन वही आत्मीय गर्माहट पाने के लिए व्याकुल हो उठा. बाऊजी का वह स्नेहिल स्पर्श अंत तक मेरे सिर पर बना रहा. मां-बाप के प्यार से वंचित मेरा शुष्क मन उनकी आत्मीयता से लहलहा उठा था. शायद जितनी शिद्दत से मैंने अपनी ज़िंदगी में मां-बाप की कमी महसूस की थी, उतनी ही शिद्दत से बाऊजी ने अपनी ज़िंदगी में एक बेटी की कमी महसूस की थी. दो रिक्त मन सहजता से एक-दूसरे के पूरक बनते चले गए. हमारा आपसी प्यार देखकर कभी-कभी मेहुल भी बाऊजी से शिकायत कर बैठते, "क्या बाऊजी, इतना प्यार तो आपने कभी मुझे यानी अपने बेटे को भी नहीं किया?"
"अच्छा, तो तू ऐसे ही बड़ा हो गया? अरे, उमा के जाने के बाद तुझे मां-बाप दोनों का प्यार दिया है हमने!दिशा को तो वो भी नहीं मिला. माता-पिता दोनों का साया दुर्घटना में एक साथ ही उठ गया. फिर भी देख कितनी संस्कारी है! यदि तूने कभी उसका दिल दुखाया तो कान खींच लूंगा तेरे."
"समझ ही नहीं आता आप मेरे पिता हैं या दिशा के?" मेहुल झूठा ग़ुस्सा दिखाते, तो बाऊजी के साथ-साथ मैं भी मुस्कुरा उठती थी. जानती थी बाप-बेटे का यह लड़ाई का नाटक मुझे ही ख़ुश करने के लिए है, वरना बाऊजी अपने बेटे को कितना चाहते हैं, उस पर कितना गर्व करते हैं, यह सब जानते हैं. वैसे मेहुल थे भी गर्व करने योग्य. लड़ाकू विमान उड़ानेवाले जाबांज देशभक्त पायलट बेटे पर कौन पिता गर्व नहीं करेगा? और फिर जब एक खुफिया अभियान के तहत वही आंख का तारा लापता हो गया, तब उस पिता पर क्या गुजरी होगी, यह कल्पना करना भी बेहद दुखपूर्ण है.
तीन दिनों के खोजी अभियान के बाद घने जंगलों से विमान का मलबा ही बरामद हो सका. मेहुल का कुछ पता न लगा. रो-रोकर मेरी आंखों के आंसू सूख गए थे. लेकिन दिल कतई यह मानने को तैयार न था कि मेहुल अब इस दुनिया में नहीं हैं. कैसे मान लेती? यदि मर गए होते, तो उनके शव का कोई तो अवशेष मिलता. एक समयावधि के बाद सरकार की ओर से खोज अभियान बंद करा दिया गया. उसी दिन शाम अचानक मेरी तबियत गड़बड़ा उठी. बाऊजी तुरंत डॉक्टर के पास ले गए. यह जानकर कि मैं गर्भवती हूं, हमें समझ नहीं आ रहा था कि इस ख़बर से ख़ुश हुआ जाए या परेशान. लेकिन बाऊजी के विचार जानकर मैं दंग रह गई थी. वे चाहते थे मैं अपना गर्भ गिरा लूं, ताकि भविष्य में आसानी से दूसरी शादी कर अपना जीवन संवार सकूं. मेरे प्रति उनका दृष्टिकोण अब ससुर का नहीं एक पिता का हो गया था. एक बेटी के नाते मुझे उनके विचारों का सम्मान करना चाहिए था. लेकिन एक बहू के नज़रिए से मुझे उनका यह प्रस्ताव घृणास्पद लगा. आख़िर मेरी जीत हुई.
बाऊजी ने अपनी सेवानिवृत्त सुकूनभरी ज़िंदगी त्यागकर एक निजी संस्थान में एकांउटेंट की नौकरी कर ली, तो मैंने भी पास ही के एक स्कूल में पढ़ाना आरंभ कर दिया था. बाऊजी अपने दुख को बिसराकर मुझसे नई ज़िंदगी आरंभ करने का आग्रह करने लगे. उनके अनुसार, अब मैं उनकी बहू नहीं बेटी थी. और मेरे आगे के जीवन को सुखपूर्ण बनाना उनकी एक महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी थी. मैं उनके इस आग्रह पर तड़प उठती. यह कहकर लड़ने पर उतारू हो जाती कि वे कैसे बाप हैं, जो अपने बेटे को जीते जी मृत मान बैठे हैं? अपने रिसते घावों को भूलकर बाऊजी मेरे ज़ख्मों पर मरहम लगाने लगते. अपने बुढ़ापे और मेरी लंबी सूनी ज़िंदगी की दुहाई देने लगते.


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हद तो तब हो गई, जब वे मुझसे सरल से शादी करने के लिए दबाव डालने लगे. सरल मेहुल का दोस्त था ओैर अक्सर घर आता रहता था. मेहुल को खोजने में भी उसने हमारी बहुत मदद की थी. और अब भी घर-बाहर के कई छोटे-बड़े काम वह सहर्ष आकर कर देता था. मैंने यह कहकर बाऊजी के प्रस्ताव को सिरे से नकार दिया कि जब तक मेरे दिल में मेहुल के लौटने की आस है, मैं दूसरी शादी के बारे में सोच भी नहीं सकती. और मेहुल के लौटने की आस मेरे मरने पर ही ख़त्म होगी. बाऊजी उस दिन एकदम टूट गए थे. एकबारगी तो मुझे भी अपनी साफ़गोई पर बहुत अफ़सोस हुआ था.
"यह डायरी बाऊजी ने उनके जाने के बाद तुम्हें देने को कहा था." कहते हुए सरल ने एक बंद लिफ़ाफ़ा मुझे पकड़ाया तो मेरी चेतना लौटी.
"डायरी?"… चौबीसों घंटे साथ रहनेवाले बाऊजी भला 'डायरी कब लिखते थे? कभी पता ही नहीं चला… डायरी में तो अक्सर वे बातें लिखी जाती हैं, जो इंसान रू-ब-रू नहीं कह पाता. तो क्या बाऊजी के दिल में कुछ ऐसा था, जो वे मरते दम तक मुझसे नहीं कह पाए?’ बेचैनी में मैंने लिफ़ाफ़ा फाड़ डाला. मेरी उद्विग्नता सरल से छुपी नहीं रह सकी.
"बिट्टू नींद में कुनमुना रहा है. उसे हल्का-सा बुखार है. मैं उसके पास बैठता हूं. तुम इत्मीनान से डायरी पढ़ो." मैं एक बार फिर सरल की सज्जनता की कायल हो गई. कैसे यह इंसान मेरे दिल की हर बात समझ जाता है? कब मुझे एकांत चाहिए, कब मुझे उसके कंधे का सहारा चाहिए, कब क्या..? पर अभी वक़्त इन बातों के बारे में सोचने का नहीं था. मैं भूखी आंखों से डायरी को निगलने लगी. पहली ही पंक्ति ने मुझे भावविभोर कर दिया.
…दिशा बेटी हमारे दिल के सबसे क़रीब है. उसने बहू बनकर हमारी सेवा की, बेटी बनकर प्यार लुटाया, बहन बनकर अपनत्व दिखाया, तो मां बनकर हमारी लापरवाहियों के लिए हमें झिड़का भी है. हम भी उसकी ज़िंदगी में यही सब भूमिकाएं निभाना चाहते हैं. लेकिन वह हमें ससुर की भूमिका से ऊपर ही नहीं उठने देती. हम उसे दुबारा सुहागन के रूप में देखकर एक पिता का फर्ज़ निभाना चाहते हैं. मेहुल के प्रति उसका प्यार और संवेदना हमसे ज़्यादा कौन जान सकता है? लेकिन भावनाओं और संवेदनाओं से ज़िंदगी नहीं चलती. यह हम उसे कैसे समझाएं? सरल बहुत नेक लड़का है, पर वह तो कुछ सुनने को ही तैयार नहीं…
डायरी क्या थी, एक छोटा-मोटा उपन्यास था. न जाने कब से बाऊजी अपनी संवेदनाओं को इसमें अभिव्यक्ति दे रहे थे? मैं गहरे पश्चाताप से भर उठी. बाऊजी हर सुख-दुख में मेरे हमेशा क़रीब रहे. लेकिन मैंने उन्हें कभी उनकी भावनाओं को उजागर करने के लिए प्रोत्साहित नहीं किया. मुझसे अच्छी तो यह निर्जीव डायरी है, जो उनके हर सुख-दुख की संगी रही है. उत्सुक निगाहें शब्द निगलने लगी.
… यह जानकर दिल बल्लियों उछलने लगा कि दिशा गर्भ से है. मेहुल का अंश उसमें मौजूद है. इस बार ज़्यादा सावधानी बरतनी होगी. दिशा पहला गर्भ सीढ़ियों से गिरकर गंवा चुकी है. मेहुल की यह निशानी हमें अच्छे से सहेजनी होगी. यह हम क्या सोचने लगे? कितने स्वार्थी हो गए हैं हम? यदि दिशा मां बन गई, तो उसकी आगे की ज़िंदगी पर तो पूर्ण विराम लग जाएगा. कौन अपनाएगा उसे? नहीं… नहीं, दिशा को अपना गर्भ गिराना होगा…
मेरी आंखें छलछला उठीं. ‘विचारों के कितने भयंकर झंझावातों से गुज़रे हैं बाऊजी! ऊपर से शांत नजर आने वाला सागर गर्भ में कितनी उथल-पुथल समेटे रहता है, अंदाज़ा लगाना कितना मुश्किल है?’ धुंधलाती नज़रें अब भी पन्नों पर टिकी थीं.
… अजीब बेवकूफ़ लड़की है यह दिशा भी. ज़िद ही ठान बैठी हेै, बच्चे को जन्म देने की. ज़्यादा कुछ कह भी तो नहीं सकते हम. कैसी मजबूरी है? मेहुल, कहां हो तुम? यदि कहीं हो, तो आकर हमसे मिलते क्यों नहीं?
‘कैसे आकर मिलते बाऊजी? याददाश्त जो खो चुके थे. ओह, कितना तलाशा था हमने मेहुल को? कोई ज़रा-सा भी संकेत देता, तो हम तुरंत चल पड़ते थे. आख़िर हमारे प्रयास रंग लाए. एक पते पर मेहुल मिल गए थे. छह महीनों बाद देख रही थी अपने मेहुल को. लेकिन लग रहा था मानो सदियां गुज़र गई थीं. कुछ भी तो नहीं बदला था… वही रूप, वही रंग… बस भाल पर एक लंबा चोट का निशान उभर आया था. में उम्मीद कर रही थी वे आगे बढ़कर मुझे बांहों में समेट लेंगे. लेकिन उनकी आंखों में अपने लिए निहायत अजनबीपन के भाव देख मैं सिहर उठी थी.
"विजय अपनी याददाश्त खो चुका है."
"विजय?" बाऊजी और में चिहुंक उठे थे.
"जब यह कुछ नहीं बता पाया, तो हमने इसका नाम विजय रख दिया. आप लोग इतने महीनों तक कहां थे?"
"ज… जी हम तो खोजने का बराबर प्रयास कर रहे थे. कहीं से भी उम्मीद की किरण नज़र आती, तो दौडे़ चले जाते. पेपर में फोटो भी दिया था."
"पेपर देखने का वक़्त किसे था? हर वक़्त तो विजय की तीमारदारी में लगे रहते थे. सप्ताहभर तो बेहोशी में ही रहा. मैंने तो जीवन की उम्मीद छोड़ दी थी. ये तो मधु के अथक प्रयास थे, जो उसे मौत के मुंह से निकाल लाई. लो आ गई मधु… मेरी बेटी और विजय की पत्नी."
मुझे लगा मेरा सिर घूम जाएगा और मैं यहीं बेहोश हो जाऊंगी. बाऊजी ने मज़बूती से मेरा हाथ थाम लिया था.
"मैं आपकी मनोदशा समझ सकता हूं, पर आप भी मेरी मजबूरी समझिए प्लीज़." मधु को देखते हुए उसके पिता की आंखों में जो याचना के भाव उभरे, कमोवेश वे ही भाव मेहुल की नज़रों में देख मैंने और बाऊजी ने तब और कुछ भी कहना उचित नहीं समझा था. थके कदमों से हम लौट आए थे. बाऊजी उस दिन अचानक बहुत बूढ़े लगने लगे थे. अब तक की संजोई हिम्मत, आशाओं पर क्षणमात्र में तुषारापात हो गया था. देर रात तक वे निःशब्द मेरे पास बैठे रहे थे. वे मूक शब्द आज मेरे सम्मुख डायरी में मुखरित हो उठे थे.
… समझ नहीं आ रहा, हम मेहुल के जीवित मिलने की ख़ुशियां मनाएं या शोक? बेटा ज़िंदा है, सोचकर दिल को राहत तो मिलती है पर… इस स्थिति की तो कभी कल्पना भी नहीं की थी. अब तो सब कुछ भगवान पर छोड़ दिया है. वे जो करेंगें, सबके भले के लिए ही करेंगें. बस दिशा का ख़्याल चैन नहीं लेने देता… हमारे जीवन की लौ तो अब टिमटिमाने लगी है. काश! इसके बुझने से पूर्व दिशा के जीवन को कोई सही दिशा मिल जाए. वह किसी का हाथ थाम ले…
मेरी आंखें एक बार फिर पनीली हो उठीं. ‘विषम से विषम परिस्थिति में भी बाऊजी को मेरे ही हित का ख़्याल रहता था. तभी तो एक दिन उन्होंने ज़िद ही पकड़ ली थी.


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"हमने सरल से बात कर ली है. वह तुम्हें इस अवस्था में भी अपनाने को तैयार है. मेहुल की याददाश्त अब नहीं लौटेगी. हम उसे बड़े-बड़े डॉक्टर्स को दिखा चुके हैं." इधर मेरी तबियत ज़्यादा ख़राब रहने लगी थी. इसलिए गत दो बार तो बाऊजी और सरल ही जाकर मेहुल से मिलकर आए थे. वैसे भी मुझे अब वहां जाने में संकोच होने लगा था. मधु को शक तो पहले दिन ही हो गया था और हमारे बार-बार जाने से उसका शक यक़ीन में बदल गया था. मेरे जाते ही वह वहां से हट जाती थी. ऐसे में मेरी स्थिति विचित्र हो जाती थी. लगता था पराई अमानत में ख्यानत कर रही हूं. अब तो मेहुल मेरे लिए पराई अमानत ही था. बाऊजी और सरल के ख़ूब याद दिलाने पर भी मेहुल शून्य में ही ताकते रहते, बल्कि कई बार तो झुंझला उठते थे. मैंने परिस्थितियों से समझौता करने में ही अपनी भलाई समझी. एक सादे समारोह में सरल से मेरा विवाह संपन्न हो गया था.
… लेकिन… लेकिन यह क्या? बाऊजी की डायरी तो कुछ और ही सच बयां कर रही थी.
… उस दिन हम और सरल मेहुल को पिछली बातें याद दिलाने का प्रयास कर रहे थे कि सीढ़ियों से मधु नाश्ते की ट्रे लेकर आती दिखी. पिछली मुलाक़ात में मधु के पिताजी ने बता दिया था कि मधु को दो माह का गर्भ है. तब से हमें मधु पर भी बहू-सा प्यार आने लगा है. आख़िर उस बेचारी का दोष ही क्या है? पर दिशा से हम अपनी भावनाएं छुपा गए. आख़िर है तो वह उसकी सौत ही. अचानक मधु का पांव फिसला और वह सीढ़ियों पर लुढ़कने लगी, तो हमें दिशा के गिरने और गर्भपात का दृश्य याद आ गया. हम ज़ोर से चिल्ला उठे, "मेहुल बचा उसे, वरना वह भी दिशा की तरह अपना बच्चा खो बैठेगी." मेहुल हक्का-बक्का कभी हमें, तो कभी लुढ़कती मधु को देखता. उसके चेहरे पर हर सेकंड नए भाव आ रहे थे. अचानक वह ज़ोर से चिल्ला उठा, "बाऊजी…" तब तक सरल ने मधु को संभाल लिया था.
हम सब तुरंत उसे लेकर अस्पताल गए. मधु को ऑपरेशन थिएटर में ले जाया गया. भगवान का लाख-लाख शुक्र था कि मधु और बच्चे की जान बच गई. इस दौरान मेहुल बराबर हमारे आस-पास "बाऊजी… बाऊजी…" करता मंडराता रहा. अब हमें होश आया कि उसे सब कुछ याद आ गया है. वह हमसे लिपटकर बिलख उठा. हम घटनाओं का तारतम्य जोड़कर उसे वस्तुस्थिति समझाने लगे. वह दिशा से मिलाने की ज़िद करने लगा. तब तक मधु के पिता भी आ चुके थे. उन्हें देखकर मेहुल संयत हुआ. मधु को बाहर लाकर वाॅर्ड में लिटा दिया गया. उसे सकुशल पाकर हम सबके चेहरे खिल उठे. मेहुल उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरने लगा. मधु के पिता के चेहरे पर सुकून उभर आया. हम अनजाने ही स्वयं को अपराधी-सा महसूस करने लगे. हम एक पिता से उसकी बेटी का सुख, एक पत्नी से उसके पति का सुख, एक अजन्मी संतान से उसके पिता का सुख कैसे छीन सकते हैं ? सब कुछ किसी फिल्मी दृश्य की भांति लग रहा था. कभी-कभी फिल्मों जैसे नाटकीय घटनाक्रम असल ज़िंदगी में भी घट जाते हैं. लेकिन फिल्मों की तरह उनका नाटकीय अंत करना हम इंसानों के वश में नहीं होता कि नायक-नायिका या किसी एक को मार दें या किसी एक को विलेन साबित कर दें.
हम हमारी आंखों के आगे चल रहे घटनाक्रम के चारों ही पात्रों की लंबी उम्र की दुआ करते हैं. अपने महान कार्यों के कारण वे असल ज़िंदगी के नायक-नायिका हैं. सरल हमें बेटे के समान ही प्रिय लगने लगा है और हम जानते हैं वह दिशा से बेहद प्यार करने लगा है. दिशा उसके संग हमेशा सुखी रहेगी. मधु के प्रति भी हमारे दिल में कोमल भावनाएं जन्म लेने लगी हैं. उसने हमारे बेटे को नई ज़िंदगी दी. सब कुछ जानते हुए भी हमें हमेशा सहयोग किया. उसके और उसके पिता की आंखों में मंडराते आशंका के बादलों का अर्थ, उनका दुख-दर्द सब हमें समझ आने लगा है. मेहुल जो अभी कुछ क्षण पूर्व दिशा से मिलने को बेताब हो रहा था अब कितने प्यार से मधु का सिर सहला रहा है. दो टुकडों में बंटकर क्या वह सुकून की ज़िंदगी जी पाएगा? हमारी चिंता ने अब एक नया मोड़ ले लिया था. कल तक हम मेहुल की याददाश्त चले जाने से दुखी थे और अब लौट आने से दुखी थे. हमारे सामने तराजू के दो पलड़े थे. एक में मेहुल और दूसरे में विजय. जितनी बार तौला, विजय का पलड़ा भारी पाया. हम समझ गए मेहुल का विजय बनकर जीने में ही हम सबका हित है. मेहुल को अकेले में सब समझाकर हम लौट आए. सीने पर पत्थर रखकर हमने दिशा से कह दिया कि मेहुल की याददाश्त अब कभी नहीं लौटेगी. दिशा हमारी बेटी… प्लीज़ हमारे इस झूठ को क्षमा करना…
एक लंबे अंतराल तक डायरी में कुछ नहीं लिखा गया था. याद आया, मेरी शादी, बिट्टू का जन्म, गुड्डू का जन्म… बाऊजी बहुत व्यस्त हो गए थे.


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… दो परिवार पूरे बस गए हैं. हालांकि हम बंट गए हैं, पर इस बंटने में भी एक सुकून है. सबके साथ न्याय कर पाने का सुकून. पर… शायद हम दिशा के साथ पूरा न्याय नहीं कर पाए. कहते हैं, जो दिल के सबसे क़रीब होता है, इंसान उसी के साथ थोड़ा अन्याय करने की हिमाकत कर पाता है. इस भरोसे पर कि वह मेरी मजबूरी आसानी से समझकर मुझे माफ़ कर देगा. और हमारे दिल के सबसे क़रीब है हमारी दिशा बेटी.
"बाऊजी…" मैं तस्वीर के आगे नतमस्तक होकर बिलख उठी. सिर पर एक स्नेहिल स्पर्श से मेरी रूलाई थमी और मैं मुड़कर सरल के चौड़े सीने में समा गई.

संगीता माथुर

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