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कहानी- बोधिसत्व (Short Story- Bodhisattva)

"... मैं कांप गई थी नीलम. उस दिन मुझे करारा झटका लगा था. मृत्यु शब्द भय उपजा रहा था. पहली बार लगा जीवन कैसा भी हो, मर जाने से बुरा नहीं होता. मरना आसान नहीं, शायद इसीलिए भिक्षुणियां जीवित रहती हैं कि जिजीविषा यही है. मुझे भान तक नहीं था अम्मा मुझे पागल भी समझ सकती हैं और मैं सुंदर नहीं रही..."

घर पहुंचकर भी नीलम को विश्वास नहीं हो रहा था कि वह अभी-अभी बीच बाज़ार में 'साहब साहिबा' शो रूम के ठीक सामने जयमाला से मिल कर आ रही है. इतने वर्षों तक वह यह सोचती रही कि जयमाला अपनी मीठी-सलोनी हंसी भूलकर ठठरी हो गई होगी, लेकिन जयमाला तो अपनी परिचित हंसी के साथ परिचित अंदाज़ में लक-दक करती हुई मिली.
कितने वर्ष… शायद पंद्रह-सोलह वर्ष बीत गए हैं. जयमाला आज भी वही है, सद्यः प्रस्फुटित नवल पत्ते सी कोमल, चमकदार, निखरा रंग और एकदम प्राकृतिक ताज़गी लिए हुए. न समय की धूप उसके उजले रंग को सांवला कर सकी, न धूल-गर्द उसकी ताज़गी को मिटा सके, न समय की मार उसकी चमक और कोमलता को मटमैला कर सकी. शायद इसकी प्रसन्नता ही इसके अक्षुण्ण रूप-रंग का प्रमुख कारक हो. पर यह इतनी प्रसन्न कैसे रह पा रही है? और इसकी हंसी तो कहीं खो गई थी.
कॉलेज के दिनों की सबसे ख़ूबसूरत, सबसे कोमल, सबसे चूज़ी लड़की थी जयमाला. उसके व्यक्तित्व में कुछ ऐसा था कि लगता था वह किसी रॉयल फैमिली से है यद्यपि ऐसा था नहीं.
नीलम को आज भी याद है डिसेक्शन के बाद कटे-फटे जन्तुओं को देख कर जयमाला नाक पर रुमाल रख लेती थी, क्योंकि वह अंग-भंग हुए जन्तुओं को नहीं देख सकती थी. उसके लिए यह सब असहनीय था.
"नीलम, मैं बदसूरती, गंदगी और कुरूपता सहन नहीं कर सकती. मुझे उलझन होती है. सड़क पर भीख मांगते हुए पीले बड़े-बड़े दांतों और कीचड़ सनी मिचमिची आंखों वाली भिक्षुणियों को देखती हूं, तो उबकाई आती है. मैं ऐसी कुरूप होती तो सच! आत्महत्या कर लेती. ये भिक्षुणियां पता नहीं, किस सुख के लिए जी रही हैं. इससे तो मर जाना बेहतर है."

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"जयमाला, जैसा तुम सोचती हो न, उस तरह आसानी से मरा नहीं जा सकता. जो जैसा है, जिस स्थिति में है, जीने की कोशिश करता है. इसी को जिजीविषा कहते हैं. दुनिया में दुख, पीड़ा, कुरूपता ही अधिक है." जयमाला बड़े अहंकार से भृकुटि को भाल पर टांग लेती, "मुझे तो यह सब सोचकर झुरझुरी आती है. देह के सारे रोएं खड़े हो जाते हैं."
नीलम को जयमाला की टुकड़ा टुकड़ा बातें याद आती रहीं, "देख नीलम, वो जो नई लड़की आई है, उसका नाम कितना पुराना है, बेकार-सा… छी: वह कितनी काली है… वह कैसे भद्दे प्रिंट के कपड़े पहने हुए है. बाप रे! कितनी घटिया पसंद है. अरे जब पैसे ख़र्च करने ही हैं, तो अच्छा माल लो… उस लड़के की आवाज़ सुनी, गाना ऐसे गा रहा था, जैसे फूटा हुआ शंख बज रहा हो… दुबे सर की चाल देखी जिग-जैग… कल लालिमा मैडम की शादी में उनके दूल्हे राजा को देखा? जैसे काले कंबल को सफ़ेद शेरवानी में रोल कर दिया गया हो. मैं तो ऐसे कल्लू राजा के साथ एक दिन नहीं रह सकती…"
नीलम आजिज़ आ जाती, "जयमाला, बस-बस. तुम्हारी बातें डराती हैं मुझे. अच्छा हुआ, जो भगवान ने तुम्हें सब कुछ अच्छा और सुंदर दिया."
और जयमाला के अभिमान से भरे उन्नत मुख पर बंकिम मुस्कान बिछल बिछल जाती. प्रभात रश्मियों सी दिप-दिप दमकती जयमाला… सुंदर चेहरा, सुंदर केश, सुंदर आवाज़, सुंदर हाथ, नाख़ून तक सुंदर, जैसे प्रयोगधर्मी ईश्वर ने उसे गढ़-तराश कर सुंदरता पर एक प्रयोग किया हो.
और जब जयमाला का विवाह हुआ तब जयमाला के वर को देख नीलम को याद आ रहा था… लालिमा मैडम के दूल्हे राजा, जैसे काले कंबल को सफ़ेद शेरवानी में रोल कर दिया गया हो… यहां काले कंबल को ब्राउन सूट में रोल किया गया था. काली-गादी रंगत, ख़ूब चौड़ा प्रशस्त ललाट, पीली आंखें, चौड़ी नाक, कुछ स्थूल क़द-काठी जयमाला का दूल्हा रघुनंदन… सर्वथा विलोम संयोजन. इस मज़ाक के तीखेपन को जयमाला पता नहीं कैसे सहन कर पाएगी?
जयमाला चेहरा छाती में गड़ाए हुए काष्ठ की मूर्ति की तरह निस्पंद-निष्प्रभ बैठी थी और उसकी मां किसी रिश्तेदार महिला से बड़ी हौंस और हुलस के साथ बता रही थी, "इतना अच्छा दामाद मिल गया कि बस छाती जुड़ा गई. इन्हें जयमाला भा गई. पता है प्रस्ताव इनकी ओर से ही आया. बहुत बड़े बिज़नेसमैन हैं, हमारा तो छोटा-मोटा व्यवसाय है. इनके कारण हमारे बिजनेस को अच्छा फ़ायदा पहुंचेगा. अकेला लड़का है. बस मां-बेटे. कोई ज़िम्मेदारी नहीं. पिता की मृत्यु के बाद रघुनंदन ने जिस तरह बिज़नेस को संभाला-फैलाया, ऐसा आजकल के लड़कों में कम ही देखने को मिलता है."

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नीलम स्तब्ध थी. जयमाला की मां शायद नहीं जानतीं कि उनकी बेटी को कुरूपता से घृणा है. ईश्वर, अब शायद यह कभी हंस न सकेगी. और आज… आज जयमाला हंसती हुई मिली. ऊष्मा और उत्साह से भरी हुई, साथ में जयमाला का बेटा भी था. आठ-दस वर्ष का होगा. अपने पिता का नन्हा संस्करण, नीलम की आंखों में विस्फार भर गया. जयमाला की क़िस्मत में क्या कुरूपता ही लिखी है. जैसे भगवान पाठ पढ़ाना चाहता हो. वह कुरूपता से जितनी घृणा करेगी, उसे कुरूपता को उतना ही ग्रहण करना होगा. जयमाला यह सब कैसे स्वीकार कर पाई? बच्चे की पीठ थपथपाते हुए कितने प्यार से बता रही थी, "नीलम, ये मेरे बेटे-बहू, हम लोग बाबू का व्रतबंध कर रहे हैं. उसी की तैयारी चल रही है. वैसे तो कार्ड भेजूंगी ही पर आज ही कहे दे रही हूं तुम्हें पूरे परिवार के साथ आना है. अच्छा हुआ, मिल गईं यार… मैं तुम्हें बहुत याद करती हूं, मेरी शादी के बाद तो तुम गायब ही हो गई थीं."
"पापा का स्थानांतरण हो गया था, फिर शादी, फिर व्यस्तताएं, यहां हम छह माह पहले ही तबादले पर आए हैं. मेरे पति जिला अस्पताल में डॉक्टर हैं."
"अच्छा-अच्छा, अब तो हमारी ख़ूब जमेगी."
बाबू के व्रतबंध का भव्य जलसा जयमाला के ऊंचे स्तर को दर्शा रहा था. जयमाला की छटा निराली थी. सफ़ेद लहंगा-चुनरी, सफ़ेद मोतियों के आभूषण, सफ़ेद कांच की कामदार चूड़ियां, जयमाला की दूधिया मरमरी रंगत सफ़ेद पोशाक में निखर आई थी- जैसे आसमान से कोई सफ़ेद परी उतर आई हो. दूसरी ओर सफ़ेद खादी का कुर्ता-पायजामा और कुर्ते से झांकती मोटी सोने की जंजीर रघुनंदन की कुरूपता को ढांप नहीं पा रही थी. यह आदमी जयमाला को किस तरह रास आया होगा? जयमाला ने रघुनंदन को नीलम और उसके पति से मिलवाया, "मैंने उस दिन नीलम के बारे में बताया था न. यही है… और ये डॉक्टर साहब."
रघुनंदन ने विनयपूर्वक हाथ जोड़ लिए, "चलिए साहब, एक डॉक्टर का प्रबंध हो गया. मुझे अपच, हाई बी.पी. कुछ न कुछ लगा ही रहता है."
डॉक्टर साहब हंसने लगे, "हम डॉक्टर जहां भी जाते हैं, दो-चार लोग नाड़ी आगे कर ही देते हैं."
"यह तो आपकी लोकप्रियता मानी जाएगी." रघुनंदन बोले.
जल्दी ही रघुनंदन को किसी ने पुकार लिया और उन्हें जाना पड़ा. इधर डॉक्टर साहब जयमाला से कह थे, "नीलम आपके बारे में बहुत बातें बताया करती है. आपको गंदगी, अभाव, कुरूपता से घृणा है न?"
जयमाला का मुदित मुख कुछ निस्तेज हो उठा, जैसे उसे यह पुराना पुराण अरुचिकर लगा हो.
नीलम ने कुछ विरोध से डॉक्टर साहब को घूरा. ऐसे प्रसंग बताने के लिए होते हैं? जयमाला किंचित सोचमग्न होकर बोली, "वह नादान उम्र की नादान सोच थी. अब मैं जान गई हूं- वास्तविक सुंदरता आत्मा की होती है. अब मुझे कुछ भी गंदा, कुरूप, घृणास्पद नहीं लगता."
नीलम विस्मित थी जयमाला के इस आत्म परिष्कार के पीछे कोई घटना विशेष है अथवा उम्र के बढ़ने के साथ इसमें गंभीरता और समझदारी आ गई है या फिर सामंजस्य की ज़रूरत महसूस होने लगी है? चीज़ों को समझने-पहचानने का विवेक आ गया है. नीलम चकित थी जयमाला में हुए इस गुणात्मक परिवर्तन को देखकर, विदा देते हुए जयमाला ने नीलम से फिर आने का आग्रह किया.
नीलम फिर जल्दी ही जयमाला से मिलने उसके घर आई. जयमाला फ़ुर्सत में थी. नीलम को देखकर उत्साहित हो उठी. नीलम घर की भव्यता और विशालता को देखकर चकित हो रही थी. जयमाला नीलम को अपने शयनकक्ष में ले आई. कक्ष क्या था, आधुनिक उपकरणों से सज्जित आरामगाह था. कमरे की शीतलता और ऊंचे रोशनदानों से झिर कर आता मद्धिम उजास बहुत भला लग रहा था. नीलम गुदगुदे बिस्तर पर बैठ गई.

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"तुम्हारे ठाट तो बहुत ऊंचे हैं जयमाला." नीलम चकित भाव से कक्ष का कोना-कोना, निरखती-परखती हुई बोली.
इस पर जयमाला हंसने लगी.
नीलम आज जयमाला के जीवन के बारे में जानना चाह रही थी. कहां से शुरू करें? जयमाला ने ही उसका भाव ताड़ लिया और कुछ औपचारिक बातों के बाद प्रसंग उठा दिया, "तो नीलम, तुमने डॉक्टर साहब से मेरे बारे में ख़ूब ढिंढोरा पीट डाला? वो सब बेवकूफ़ियां बताने लायक़ थीं?"
"बेवकूफ़ियां बताने में मज़ा आता है, पर ये बताओ तुमने अपनी बेवकूफ़ियों को सुधारा कैसे?"
"नीलम, अब मैं उस सबके बारे में सोचना भी नहीं चाहती, बस समझ लो रघुनंदन के धैर्य और विनय ने यह चमत्कार कर दिया है. कैसी भी परिस्थिति हो, ये धैर्य नहीं खोते. गज़ब का आत्म-नियंत्रण है. इनमें कुछ ऐसे विशिष्ट गुण हैं कि अब इनकी कुरूपता की ओर मेरा ध्यान ही नहीं जाता. अब तो मैं सोचती हूं, इंसान सुंदर या बदसूरत नहीं, बल्कि अच्छा या बुरा हुआ करता है. इंसान की अच्छाई उसकी कुरूपता को ढंक देती है और बुराई सुंदरता को नष्ट कर देती है."
"ओ हो! बड़े उच्च विचार हैं. इस परिष्कृत सोच के पीछे कोई घटना विशेष है या अब जब निभाना है, तो निभाना ही पड़ेगावाली स्थिति?"
"मैं ठीक-ठीक नहीं कह सकती कि किसी एक घटना ने मुझ पर प्रभाव छोड़ा होगा. कोई घटना विशेष नहीं है, बल्कि बहुत सी बातों का मेरे अवचेतन में प्रभाव पड़ता गया. हां, कुछ ऐसा ही हुआ, मैं जब यहां आई तब अपने भाग्य पर ख़ूब रोती थी. मुझे इनकी सूरत, उपस्थिति, अस्तित्व, स्पर्श, चितवन, एहसास सबसे नफ़रत होती थी. ये तरह-तरह से मेरी मनावन रिझावन करते और मैं कह न पाती कि मैं कुरूपता से घृणा करती हूं और तुम दुनिया के सबसे कुरूप आदमी हो.
मैं कहती नहीं थी, फिर भी उन्होंने अनुमान लगा लिया था कि मैं इनमें रुचि नहीं लेना चाहती. मुझे जिस तरह अपनी सुंदरता का बोध था, उसी तरह इन्हें अपनी कुरूपता का रहा होगा. मैं पहली बार यहां आठ दिन रही थी और इन्होंने मुझे इसलिए स्पर्श तक नहीं किया कि मेरी इच्छा के विरुद्ध कुछ नहीं करेंगे, तब तो मैंने बड़ा स्वतंत्र महसूस किया था, पर अब लगता है, ऐसा धैर्य विरले ही दिखा सकते हैं."
"तुमने शादी के पहले इन्हें नहीं देखा था?"
"नहीं. मैं इसी शहर में अपने मामा के घर शादी में आई थी. वहां अम्मा (सास) ने मुझे देखा और यह सब रच-बुन डाला. इन्होंने मुझे देखने की ज़रूरत नहीं समझी. मुझे इनकी तस्वीर दिखाई गई थी, जो मुझे पसंद नहीं आई थी. पर इतने बड़े घर से प्रपोजल आया था तो मेरे मां-पिताजी बौरा गए और समझाते रहे, तस्वीर ठीक नहीं आई है, लड़का अच्छा है. मुझे तब मां-पिताजी पर बहुत भरोसा था. मैं नहीं जानती थी कि वे लोग. मेरे साथ ऐसा धोखा करेंगे."
जयमाला कुछ देर चुप रही, फिर आगे बोली, "रघुनंदन समझ चुके थे कि मैं इन्हें पसंद नहीं करती हूं, फिर भी ये अपनी निराशा कभी प्रकट नहीं करते थे. अपनी व्यथा अम्मा से भी नहीं कहते थे. मेरी स्थिति ये थी कि इनकी सहनशीलता देख कर मैं प्रण करती कि भले मुझे ये पसंद नहीं, पर इनके अच्छे व्यवहार का लिहाज़ करते हुए मैं कभी उपेक्षा और तिरस्कार प्रकट नहीं होने दूंगी, पर इन्हें देखते ही मुझे न जाने क्या हो जाता था. एक उदासी घेर लेती, वितृष्णा होती. लगता सब कुछ बेकार है. मेरे लिए अब कुछ भी अच्छा और सार्थक नहीं बचा है. इनके एहसास से ही घृणा होती. जी चाहता इस घर से कहीं भाग जाऊं, लेकिन संस्कारों की वर्जनाएं भागने न देतीं. लगता मेरा जीवन हर तरह से बाधित हो गया है. मैं गहरी उदासी और निराशा में पीठ फेर कर एक ओर सिकुड़ कर लेट जाती.
मेरा कहीं चित्त न लगता. मैं गुमसुम रहने लगी और बीमार पड़ गई. मैं अपना स्वास्थ्य और सुंदरता खोने लगी. डॉक्टर मुझसे मेरी परेशानी की वजह पूछते, लेकिन मैं कह न पाती कि मेरी परेशानी एक ही है- रघुनंदन. अगर मैं ऐसा कहती तो डॉक्टर शायद मुझे पागल समझ लेते, क्योंकि तमाम लोगों की तरह रघुनंदन के सद्भाव, कार्यक्षमता और विनय से डॉक्टर साहब भी प्रभावित थे."
"और तुम?"
"अब तो मैं भी… नीलम, इनके विनय ने मुझे हरा दिया. मैं समझ गई हूं- असली सौंदर्य आत्मा का होता है. काश! यह बोधिसत्व मुझे पहले मिल गया होता. डॉक्टर ने मुझे किसी मनोचिकित्सक को दिखाने का परामर्श दिया और तब अम्मा का धैर्य टूट गया. एक दिन मैंने उन्हें कहते पाया, "रघु, मुझे तो लगता है कि पागल लड़की हमारे गले बांध दी गई है- पागल और बीमार, तभी तो घूर जैसी पड़ी रहती है. हम इसकी सुंदरता पर छले गए. अब तो सुंदरता भी नहीं रही."
अम्मा की बात सुनकर ये बोले थे, "ऐसा मत कहो अम्मा. जयमाला पागल नहीं है, परेशान है. डॉक्टर बीमारी समझ नहीं पा रहे हैं. मुझे जयमाला की सुंदरता की नहीं, जयमाला की चिंता है. डॉक्टर कहते हैं, यही हाल रहा, तो यह कहीं मर न जाए."

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मैं कांप गई थी नीलम. उस दिन मुझे करारा झटका लगा था. मृत्यु शब्द भय उपजा रहा था. पहली बार लगा जीवन कैसा भी हो, मर जाने से बुरा नहीं होता. मरना आसान नहीं, शायद इसीलिए भिक्षुणियां जीवित रहती हैं कि जिजीविषा यही है. मुझे भान तक नहीं था अम्मा मुझे पागल भी समझ सकती हैं और मैं सुंदर नहीं रही. मैं तकिए पर औंधे मुंह पड़ी देर तक रोती रही. ये न जाने कब मेरे पास आकर बैठ गए थे. मेरे लिए फल लेकर आए थे.
मुझे रोता देख कहने लगे, "जयमाला, मत रोओ. मैं जानता हूं, मैं तुम्हें पसंद नहीं, पर संबंध कपड़े तो नहीं होते, जिन्हें चाहे जब बदल दिया जाए. तुम इस तरह दुखी रहती हो, तो मैं परेशान हो जाता हूं. मेरा काम में मन नहीं लगता. अम्मा भी तुम्हारे लिए चिंतित रहती हैं."
ये चाकू से सेब काटने लगे. मैं उस क्षण बहुत तनाव में थी. यही आदमी है, जिसके कारण मेरी ज़िंदगी, मेरी सुंदरता, हंसी, शांति सब कुछ नष्ट हो गया… मैं इस आदमी से घृणा करती हूं. इन्होंने सेब का एक टुकड़ा हठात् मेरे मुंह में भर दिया और मुझे न जाने क्या हो गया? यह कैसा उन्माद था. आज सोचती हूं, मैं इतनी कठोर और निर्दयी कैसे हो गई थी.
जानती हो, मैंने चाकू उठाया और इनकी हथेली पर वार कर दिया, वार हथेली पर न होकर अंगूठे पर हुआ. अंगूठे से बहते खून को दबाते हुए ये मुझे ठगे से देखते रह गए थे. शायद इन्हें अनुमान नहीं था कि मैं इनसे इतनी घृणा करती हूं. ये सबसे शायद अम्मा से भी यही बताते रहे कि फल काटते हुए हाथ कटा, मैं सदमे में थी. कोई पुरुष, वह भी पति एक स्त्री, वह भी पत्नी की इतनी क्रूरता कैसे सहन कर सकता है?
स्त्री जिसे पतिगृह में बहुत कुछ तजना पड़ता है अपना स्वाद, पसंद, रुचि, आदतें, स्वभाव समय सारिणी, उसकी इतनी ऐंठ कैसे बर्दाश्त की जा सकती है? मुझे उस दिन अपने होने पर बड़ी शर्म आई. लगा मेरी ऐंठ के कारण किसी दिन कोई बड़ा अनर्थ होकर रहेगा. पहली बार मुझे ग्लानि हुई थी. लगा रघुनंदन भले ही मुझे पसंद नहीं, पर जब इस घर की सुख-सुविधा का भोग कर रही हूं, तो अनिच्छा से ही सही, इनके साथ निर्वाह करना चाहिए.
मुझे लगा अब ये मुझसे कभी बात नहीं करेंगे, पर ये इस तरह सामान्य बने रहे जैसे अपराध मैंने नहीं, इन्होंने किया है. उफ़्। ऐसा आदमी नहीं देखा! जानती हो इन्होंने फिर क्या कहा था?
"मैं नहीं चाहता तुम इस तरह ख़ुद को दुखी करती रहो. ऐसे संबंध को बनाए रखने से क्या फ़ायदा? संबंध दबाव में और अपनी ज़रूरत भर के लिए हों, तो उन संबंध में हीनता आ जाती है. संबंध भावनाओं के बंधन होते हैं. संबंधों के लिए प्रतिबद्धता और पारदर्शिता ज़रूरी शर्त है और जब वह नहीं तो.. मैं तुम्हें बांध कर नहीं रखना चाहता."
"बस करो जयमाला." नीलम सहसा कह उठी.
"घबरा गई?" जयमाला बोली.
"इनकी बातें सुनकर मैं भी घबरा गई थी. सचमुच संबंध एक झटके से तोड़े नहीं जा सकते. मैंने तय किया कि संबंधों में आ गई दरारों को दूर करूंगी. मेरे लिए स्थिति को संभालना आसान नहीं था. फिर भी मुझे विश्वास था कि स्थिति मैंने बिगाड़ी है, तो बनाने की पूरी कोशिश करूंगी. ख़ुद को हठात् बदलना आसान नहीं था. फिर भी मैं रघुनंदन की गतिविधियों, आदतों, स्वभाव पर ध्यान केन्द्रित करने लगी. अम्मा भी मुझे अपने तरह से समझाती रहतीं- रघु बस थोड़ा सा सांवला है, वैसे वो लाखों में एक है.
नीलम, अम्मा के इस सौंदर्यबोध पर हंसने को जी चाहता था. इन्हें अपना भद्दा बेटा बस थोड़ा-सा सांवला लगता है. वह तो जब बाबू हुआ तब मुझे अम्मा की बात समझ में आई. बाबू बिल्कुल रघुनंदन जैसा था, पर मुझे कुरूप और भद्दा नहीं लग रहा था. मैं मां बनी थी और मां की ममता सुंदर-असुंदर नहीं देखती. उसे तो बस अपना बच्चा दुनिया का सबसे अच्छा बच्चा लगता है. लेकिन रघुनंदन बाबू को देखकर उदास हो गए थे.
"जयमाला मेरी इच्छा थी कि पहली बेटी होती और तुम्हारे जैसी सुंदर होती."
मैं तुनक गई, "मेरे बच्चे से सुंदर कोई नहीं है." ये मुझे विस्मय और आश्चर्य से देखते रह गए थे.
बाबू को सुंदर कहना एक तरह से मेरा संधि प्रस्ताव था. रघुनंदन की आत्मीयता का परिणाम था अथवा साथ रहते-रहते मनुष्य एक-दूसरे को स्वीकार करने लगता है, मुझे नहीं मालूम.
मैं इनके साथ निभाने की कोशिश करने लगी. निभाते-निभाते न जाने कब मैं इन्हें स्वीकार करने लगी. स्वीकार करने लगी, तो मालूम पड़ा यह एक सहज स्थिति है. परिस्थिति से भागने से अच्छा है उसे स्वीकार करना और उसमें बेहतर तलाशना. लगने लगा ये ऐसे बुरे नहीं हैं, जैसा मैं अब तक समझती रही थी. किसी को मन से स्वीकार कर लो, तो वह अच्छा लगने लगता है. हम भी घुटन और तनाव से छुटकारा पा जाते हैं. मेरा स्वास्थ्य सुधर गया. सुंदरता वापस मिल गई. सब कुछ चमत्कार सा लगता है. मैंने समय रहते ख़ुद को बदल लिया, वरना कब की मर-खप गई होती. और तुम कहतीं एक जयमाला थी, जो अब नहीं रही."
"छीः-छीः ऐसा मत बोलो।"
"हां, ऐसा ही कुछ होता. अब मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं. मैंने अपने पति से सीखा कि दूसरों की भावनाओं का ध्यान रखना कितना ज़रूरी है."
"तुमने ख़ुद को सचमुच बहुत बदला है जयमाला. मुझे अब भी विश्वास नहीं हो रहा कि तुम अपनी धारणा मान्यता में इस कदर बदलाव कर सकती हो."
"अब तो अपने आचरण के बारे में सोचती हूं, तो सिर शर्म से झुक जाता है."
"रघुनंदन जी कभी उन बातों को स्मरण नहीं करते?"
"नहीं. ये कहते हैं जिन बातों को याद करने से मन बोझिल होता हो, उन्हें भूल जाना चाहिए. याद करने के लिए बहुत सी अच्छी बातें भी हैं."
"तो यह है तुम्हारी कहानी."
"कहानी ही कह लो. अब तुम अपनी कुछ कहो."
"तुम्हारे जैसी कहानी मेरे पास नहीं है. साधारण सा जीवन है मेरा."
"साधारण बन कर रहना असाधारण बात होती है नीलम. व्यक्ति सुंदर हो या न हो, उसका व्यक्तित्व सुंदर होना चाहिए बस. मुझे यह बोधिसत्व मिल गया है. अम्मा इस समय गांव गई हुई हैं, वरना उनसे मिलवाती. वह बड़ी सुलझी हुई महिला हैं. अब चलो किचन में. कुछ बनाएं-खाएं." जयमाला हंस रही थी, जैसे प्रस्फुटित होने जा रहे पुष्प की एक-एक पंखुड़ी बहुत आहिस्ता से बड़ी कोमलता से खिलने को उद्धत हो.
"चलो तुम्हें मेरा ख़्याल तो आया. मैं तो सोच रही थी आज बातों से ही पेट भरना पड़ेगा." नीलम बोली, तो जयमाला की हंसी का वेग बढ़ गया. नीलम, जयमाला को हंसते हुए देखती रही, वही पुरानी जयमाला, वही पुरानी हंसी, वही पुराना अंदाज़.

सुषमा मुनीन्द्र

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