Close

कहानी- दोहरा व्यक्तित्व (Short Story- Dohra Vyaktitav)

“वह मेरा बेटा है, ज़ाहिर है मुझ पर गया है.” राम शरारत से मुस्कुराये और चलते बने. राम की यही तटस्थता मुझे कभी-कभी संदेहास्पद लगती. मैंने एक लेख में पढ़ा था कि विश्‍व के कुख्यात अपराधी बचपन में तोड़-फोड़ की प्रवृत्तिवाले व हिंसक थे. अत्यधिक चंचलता, अतिरिक्त शारीरिक दम-खम ज़्यादा खुराक एवं नकारात्मक वृत्तियां बालकों में भविष्य के लिए ‘अपराधिक’ बीज बो जाते हैं. राम के प्रति मेरा संदेह सच निकला. उस एक घटना ने मुझे चमत्कृत कर दिया. किसी भी प्रकार की अतृप्ति कितनी ख़तरनाक होती है, यह पता चला. Hindi Stories “आज स्कूल से शिकायत आ रही है, कल पड़ोस के घरों के शीशे तोड़ने का आरोप लगेगा, बड़े होने पर लड़कियों के पीछे लगेगा, हे भगवान! मेरा राम तो ऐसा न था, राम का लड़का रावण.” बोलते हुए अम्माजी की सांस फूल गई. इतनी देर से वे अपने पोते यानी अर्जुन की शान में कसीदे पढ़ रही थीं और ‘मेरा राम तो ऐसा न था’ के जुमले से एक तीर से दो शिकार कर रही थीं यानी अर्जुन अपने पिता राम की तरह नहीं, वरन मां यानी मेरी तरह था. अर्जुन चमकती आंखों के साथ खड़ा था. शर्मिंदगी, भय का तो नामो-निशान न था उसके चेहरे पर. उसे पता था, मम्मी और दादी नामक ये दो स्त्रियां हानिरहित हैं, केवल ज़बानी जमा ख़र्च करेंगी, मारने-पीटने की संभावना कम है. आज नौ वर्षीय अर्जुन ने स्कूल में एक लड़के का हाथ इस कदर मरोड़ दिया था कि उसकी कोहनी की हड्डी में फ्रैक्चर हो गया. इसके पहले भी वह इस तरह के ‘कृत्य’ में नाम रोशन कर चुका था. सीढ़ियों पर से धक्का दे देना, दूसरे के टिफिन चुराकर खा जाना, अन्य बच्चों या अध्यापिकाओं को गाली दे देना आदि. किंतु आज की घटना ने मेरी सहनशक्ति तोड़ दी और मैंने उसकी जमकर मरम्मत कर दी. यह आज की बात न थी. अर्जुन पांच-छ: वर्ष की उम्र से ही शरारतें करने लगा था. थोड़ी-बहुत शैतानी तो सभी बच्चे करते हैं, किंतु वह तो जैसे सब पूर्व योजनानुसार करता था. उसके पिता बेहद सीधे और सज्जन थे. उनकी तरह व्यक्तित्व देख पाना तो इस ज़माने में मुमकिन ही नहीं है. अम्माजी के इकलौते पुत्र राम ‘राम’ सरीखे ही थे, पर अर्जुन उनकी तरह अनुशासित नहीं हो पाया. यदि कभी कुछ कहने की कोशिश करते, तो अम्माजी टोक देतीं. अम्माजी के तेजस्वी रूप के सामने राम ज्यों मद्धिम प्रदीप बन जाते. उनकी पुत्र के प्रति टोका-टोकी अस्वाभाविक-सी लगती, किंतु राम मुंह सिये आज्ञा पालन करते रहते. शायद इससे अम्माजी के अहम् की तुष्टि होती थी. मुझे भी उन्होंने ज़ब्त करने की चेष्टा की, किंतु असफल रहीं. छुटपन में मैं अर्जुन के लिए खिलौने व बढ़िया कपड़े ख़रीदती, तो अम्माजी बिगड़ जातीं, “यह क्या बहू, फ़िज़ूलख़र्ची करती हो और बच्चे की आदत भी बिगाड़ रही हो. इतने महंगे खिलौने-कपड़े की क्या ज़रूरत थी? भविष्य की शिक्षा-दीक्षा के लिए पैसे बचाओ.” “अरे अम्मा! बच्चा ज़िद कर रहा था, उसका दिल कैसे तोड़ती?” “अरे, राम क्या कम ज़िद करता था, मगर क्या मजाल जो गेंद और पतंग छोड़ कर कुछ ख़रीदकर दिया हो हमने उसे. कपड़े भी बस होली या दिवाली में, चार हाफ पैंट और शर्ट में पूरा वर्ष गुज़ार देता था वह. क्या मेरा राम इस परवरिश से दूसरों से कम है? आज क्या नहीं है उसके पास-कार, बंगला और ऐशोआराम की सब वस्तुएं.” यह भी पढ़ेरिश्तों के लिए ज़रूरी हैं ये 5 रेज़ोल्यूशन्स (5 Resolutions For Healthy Relationship ) “अम्माजी, ये खिलौने बच्चों को रचनात्मक बनाते हैं, उन्हें एक सपनों की दुनिया में ले जाते हैं. बच्चा बच्चा ही बना रहता है, समय से पूर्व परिपक्व नहीं हो जाता.” मेरा इशारा राम की तरफ़ था. “शिक्षा तो बड़ा दे रही हो, अपने और मेरे पुत्र में अंतर देखा. राम के पिता पेशकार थे, पैसे की कमी थोड़े ही थी, किंतु हमने उसकी आदत बिगड़ने नहीं दी, लेकिन अर्जुन को देखो.” अम्माजी ने मेरा मुंह बंद करा दिया. फिज़ूलख़र्ची तो मैं भी नहीं करती थी, न ढेर सारा पैसा ख़र्च करके बच्चे को बिगाड़ती. उसे अच्छी बातें सिखाती, तब भी वह न जाने किस रहस्यपूर्ण शिक्षा से निरंतर शैतान होता चला जा रहा था. राम तो मां के समक्ष मुंह नहीं खोलते थे, वे उनसे भयभीत रहते. सुबह उठने में ज़रा देर होने पर अम्माजी उन पर चिल्लाने लगतीं. उनके कम खाने या तेल-मसाला ज़्यादा खाने पर रोष प्रकट करतीं, मेरे साथ कहीं आने-जाने पर बड़बड़ातीं. एकाध घंटे से अधिक टीवी देखने पर उपदेश देतीं. तभी मैंने अंदाज़ा लगा लिया कि इतनी तेज़-तर्रार मां के पुत्र का बचपन कैसे बीता होगा और वे इतने अल्पभाषी और सीधे क्यों हैं. अम्माजी के तेज़ स्वभाव के संरक्षण में अर्जुन बड़ा होने लगा, किंतु वह पिता के विपरीत था. हर वाकये पर अम्माजी के पांच मिनट के संभाषण को सुन वह अधिक व्यग्र हो जाता. मैं उसे प्यार व मार दोनों ही तरह से समझा कर हार गई. मैं उसे शिक्षाप्रद कहानियां सुनाती, अच्छी आदतें विकसित करने का प्रयास करती. उस समय लगता वह बदल गया है, किंतु अगले दिन फिर वही ढाक के तीन पात. वह अम्माजी के बराबर कुछ-न-कुछ बोलते रहने की आदत से चिढ़ता था. उनके जूड़े का पिन निकाल देता, उन्हें पैर फंसा कर गिराने की चेष्टा करता. खाने की थाली में पानी डाल देता, फिर उन्हें परेशानी में देखकर ख़ूब आनंदित होता. मैं उसे पीटकर बेदम कर देती. कमरे में बंद कर देती. उसे बाहर खेलने नहीं जाने देती कि ग़लत संगत में न पड़ जाए. स्कूल में शिकायत करती, किंतु सब व्यर्थ! एक दिन मैंने राम से फिर कहा, “आप बच्चे के प्रति उदासीन हैं. उसके लिए आपको सख़्त होना होगा. बचपन में आप तो ऐसे न थे.” “मैं बच्चा था ही कब? सीधे एक समझदार प्रौढ़ के रूप में जन्म हुआ था मेरा.” एक कम बोलनेवाले व्यक्ति ने मात्र एक वाक्य में अपने बचपन के असंतोष को बयां कर दिया. “मनोवैज्ञानिक कहते हैं, बच्चों के सर्वांगीण विकास में खिलौने अहम् भूमिका निभाते हैं, किंतु आपने न इसके लिए ज़िद की, न यह सब मिला आपको?” मैंने कुरेदा. “हो सकता है, लेकिन क्या अभावग्रस्त परिवार के लोगों का सर्वांगीण विकास नहीं होता, छोड़ो न.” “अच्छा यह बताइए, मैं शुरू से सीधी-साधी थी, आपका तो कहना ही क्या, फिर अर्जुन की ऐसी विध्वंसक प्रवृत्तियों के लिए किसे उत्तरदायी मानते हैं आप? किस पर गया है वह?” “वह मेरा बेटा है, ज़ाहिर है मुझ पर गया है.” राम शरारत से मुस्कुराये और चलते बने. राम की यही तटस्थता मुझे कभी-कभी संदेहास्पद लगती. मैंने एक लेख में पढ़ा था कि विश्‍व के कुख्यात अपराधी बचपन में तोड़-फोड़ की प्रवृत्तिवाले व हिंसक थे. अत्यधिक चंचलता, अतिरिक्त शारीरिक दम-खम ज़्यादा खुराक एवं नकारात्मक वृत्तियां बालकों में भविष्य के लिए ‘अपराधिक’ बीज बो जाते हैं. यह भी पढ़ेकहीं आपके बच्चे का व्यवहार असामान्य तो नहीं? (9 Behavioral Problems Of Children And Their Solutions) राम के प्रति मेरा संदेह सच निकला. उस एक घटना ने मुझे चमत्कृत कर दिया. किसी भी प्रकार की अतृप्ति कितनी ख़तरनाक होती है, यह पता चला. उस दिन हमेशा की तरह राम ऑफ़िस से लौटने पर कपड़े बदलकर चाय पी रहे थे, अम्माजी अर्जुन के दिनभर के उपद्रवों का पिटारा खोले बैठी थीं. राम नि:शब्द बैठे चाय-नाश्ता करते रहे, फिर हमारे शयनकक्ष से जुड़े अर्जुन के कमरे में चले गए. वे प्रतिदिन उसे एकाध घंटा पढ़ाया करते थे या स्कूल संबंधी जानकारियां लेते थे. इस दौरान किसी प्रकार का व्यवधान वे नहीं पसंद करते थे. मैं रात के भोजन की तैयारियां कर रही थी कि अचानक मुझे ध्यान आया अर्जुन ने दूध तो पिया ही नहीं. दूध का ग्लास लिए मैं कमरे में पहुंची तो दरवाज़ा बंद पाया. झिर्री में से झांककर देखा, पिता-पुत्र पढ़ने के स्थान पर खिलौनों में मस्त हैं. फ़र्श पर सारे खिलौने बिखरे पड़े थे, उनके बीच में बैठे राम के चेहरे व आंखों में एक उन्माद था. वे एक के बाद दूसरा खिलौना उठा कर खेलते, उनके गले से एक अस्वाभाविक किलकारी निकल रही थी, जो कहीं से भी उनके व्यक्तित्व से मेल नहीं खा रही थी. अर्जुन बोला, “पापा, मैंने आज ऋषभ और अंशुमान की जमकर मरम्मत की. उनके तो ख़ून भी निकल आया, मुझे अगली सीट पर बैठने ही नहीं दे रहे थे.” “बहुत अच्छा किया, मार खाकर कभी घर मत आना, बदला ज़रूर लेना.” “उनको और मारता, लेकिन मैडम आ गईं, मुझे दो थप्पड़ जमाये.” “उसकी इतनी हिम्मत, धकिया नहीं दिया उसे?” राम के स्वर से गुर्राहट निकली. “कल उसे भी मज़ा चखा के आऊंगा. पापा! दादी बड़ा आफ़त करती हैं.” “ज़हर दे दूं क्या? काम ही ख़त्म हो जाये, मुझे भी बहुत परेशान किया है उसने. ऐसे लोगों को ज़िंदा रहने का हक़ नहीं है.” राम की आंखों में हिंसा-पशु से भाव थे. अर्जुन व राम अपने ही कथन पर असभ्यों की तरह हंस रहे थे. फिर राम ने शरारती कारनामों को किस प्रकार अंजाम देना है, इसके गुर अर्जुन को सिखाये. वे अशोभनीय, बल्कि अश्‍लील शब्दावली का प्रयोग कर रहे थे और अर्जुन उसे आत्मसात कर रहा था. अर्जुन के खिलौनों के प्रति उनकी अस्वाभाविक ललक उन्हें अर्द्ध विक्षिप्त सिद्ध कर रही थी. मैं आश्‍चर्य व भय के मिले-जुले भावों से ओत-प्रोत थी. मेरी आहट पर दोनों ने क़िताब-कापियां खोलकर पढ़ने का नाटक शुरू कर दिया. मेरी नाक के ठीक नीचे वर्षों से यह ‘खेल’ खेल रहे थे राम. अर्जुन भी उनका ऐसा विश्‍वसनीय साथी था, जिसने कभी उनके विरुद्ध मुंह नहीं खोला और हम अनभिज्ञ रहे. फिर जाने-अनजाने छुपकर मैंने उनकी बातें सुनीं, जिसका सार यही निकला कि राम अपनी जन्मदायिनी से बेहद घृणा करते थे. वह उन्हें अपने बचपन और सुख-चैन को छीननेवाली मानते थे. वे मां की बक-बक से क्षुब्ध एक ऐसे युवा थे, जो अपने बचपन की अतृप्ति को पुत्र के खिलौनों से दूर कर रहे थे. दोनों मिलकर अम्माजी के शीघ्र मरने की कामना करके आनंदित होते. राम दो व्यक्तित्व के स्वामी थे, एक ज़माने को दिखानेवाला सीधा, सरल, सज्जन और दूसरा इतना हिंसक व भयानक जो आसानी से किसी की हत्या भी कर सकता था. इस स्थिति से बुद्धिमत्ता से निपटना था. जल्दीबाज़ी या क्रोध परिस्थिति को और भयावह बना सकती थी, लेकिन ईश्‍वर की कृपा से जैसा मैंने सोचा था, वैसा ही करती गई और एक के बाद एक मुझे सफलता मिलती चली गई. सर्वप्रथम मैंने दिल्ली स्थित अपने बैंक अधिकारी बड़े भाई को चुपचाप फ़ोन करके स्थिति से अवगत कराया. वे सहर्ष अर्जुन को अपने साथ रखने के लिए राजी हो गये. दिल्ली स्कूल में उसका दाखिला हो गया. दो वर्ष वह मामा-मामी और उनके दो बच्चों के साथ एक स्वस्थ वातावरण में रहा. फिर कुछ बड़ा होने पर मैंने वहीं के एक बोर्डिंग स्कूल में उसका दाख़िला करवा दिया. राम पुत्र की दूरी बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे, उनकी स्थिति जल बिन मछली की तरह हो गई थी, किंतु उनकी विकलता और बेचैनी को मैंने अपने प्यार व मनुहार से दूर किया. उन्हें पूर्ण भावनात्मक संबल दिया. उन्हें समझाया कि तुम्हारे पुत्र के सुंदर भविष्य के लिए हमें यह अलगाव झेलना ही होगा. वे उदास व खिन्न रहने लगे, लेकिन मैं छाया-सी हर पल उनके साथ रही. छुट्टियों में उन्हें लेकर हिल स्टेशन चली जाती, जहां दूर पहाड़ियों की सुरम्यता में हम नवविवाहित जोड़ा बन जाते. जहां रोज़मर्रा की समस्याओं व तनाव से मुक्त रहते, कई वर्ष लग गए राम को सहज होने में. उन्हें दोहरे व्यक्तित्व से छुटकारा दिलाना ही था. हमने उसके लिए योग कक्षाओं में जाना शुरू किया, अम्माजी को भी धीरे-धीरे वस्तुस्थिति से अवगत कराया. वे डर गईं, किंतु वे अनुभवी व बुद्धिमान थीं, अत: उन्होंने भी परिस्थिति से समझौता कर अपने आक्रामक रवैये में परिवर्तन किया. मैंने सब किया, किंतु राम को अर्जुन से मिलने नहीं दिया, जिसे उन्होंने अपना ‘मोहरा’ बनाना चाहा था, जो वह ख़ुद नहीं कर सके उसे, उससे करवाना चाहा. उसके तेज़-तर्रार, शक्तिशाली, किसी से न डरनेवाले रूप में अपनी प्रतिछाया तलाशी. यह भी पढ़ेकमज़ोर बनाता है डर (Kamzore Banata Hai Dar) अर्जुन बोर्डिंग की छुट्टियों में भी मामा के पास ही रहता. वह सोचता रहा कि उसकी शरारतों के कारण मैंने उसे अपने से अलग कर दिया, किंतु यह सच न था. आज वह अट्ठारह वर्ष का था. इंजीनियरिंग प्रथम वर्ष का कुशाग्र व तीव्र बुद्धिवाला स्वस्थ, संतुलित, सभ्य व आज्ञाकारी छात्र, बिल्कुल अपने पिता के समान. वर्षों बाद मिले पिता-पुत्र एक-दूसरे के गले लग कर रो पड़े. उनकी आत्मीयता व प्रेम वैसे ही बरक़रार था, किंतु अब कोई ख़तरा न था. अर्जुन जीवन के उस मोड़ पर था, जहां से कोई उसे भटका नहीं सकता था, क्योंकि उचित-अनुचित का ज्ञान हो गया था उसे और राम भी अपने नकारात्मक व्यक्तित्व को दफ़न कर ‘दोहरे चरित्र’ से निजात पा चुके थे. वे आज भी नहीं जानते कि मैं उनके उस ‘रूप’ से वाकिफ़ थी. उस बात को ज़ाहिर करना सरासर मूर्खता होती, अत: ताउम्र मैंने उन्हें अनभिज्ञता के अंधेरे में रखना ही उचित समझा. Pama Malik पमा मलिक

अधिक शॉर्ट स्टोरीज के लिए यहाँ क्लिक करें – SHORT STORiES

Share this article