न जाने उस वक़्त मुझमें इतनी हिम्मत कहां से आ गई, "सुन लो सब. ख़बरदार जो इसे ख़त्म करने की भी सोची. मैं इसकी मां हूं, इसे जन्म देने या न देने का अधिकार सिर्फ़ मेरा है. आप लोग यह अधिकार मुझसे नहीं छीन सकते. ज़िद करेंगे तो मैं न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाऊंगी."
शादी के बाद सात-आठ दिन भी नहीं लगे थे मुझे प्रदीप को समझने में. इन सात-आठ दिनों में मैं और प्रदीप कभी अकेले होते हुए भी अकेले नहीं रहे. प्रदीप के हर वाक्य में मां प्रकट हो जातीं.
इस अंधे कुएं में कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था. ठंडे पानी ने मेरी कमर को स्पर्श कर लिया था. शनैः शनैः मैं गले तक पानी में डूब गई. खून डर के मारे जम गया. आवाज़ कंठ में अटक गई. बस, यही है आख़िरी सफ़र.
छपाका सहसा किसी के कूदने की आवाज़ आई. "बचाओ." घुटी-घुटी सी चीख मेरे गले से निकली. कौन आया है? मारने वाला या बचाने वाला? कौन जाने?.. मैं विश्वास से जिसका हाथ थाम लूं, वही हाथ झटक कर डुबो दे. मुंह से हल्की सी चीख निकल जाती है और यह डरावना सपना टूट जाता है. माथे पर आई पसीने की बूंदें मैंने पोंछ लीं. अनजाने में पेट पर हाथ चला गया, वहां वह नन्हा जीवन इधर-उधर डोल रहा है, पैर पटक रहा है. क्या मां के अंतस का भय इसके भी मन को व्याप रहा है? कुएं के पानी में तड़पती-छटपटाती मेरी वेदना मेरे गर्भ जल में तैरते मेरे अंश की भी वेदना बन गई है. सहसा मेरा सारा भय तिरोहित हो गया, "घबराओ नहीं, मैं हूं न, तेरी मां... मैं तेरे विश्वास की रक्षा करूंगी."
मेरा स्वर शायद कुछ ज़्यादा ही ऊंचा हो गया था. "दिनभर का थका हूं, रात को कम से कम सोने तो दिया करो यार." प्रदीप का खीझा सा स्वर मेरे कानों से टकराया. करवट बदलकर के सो गए. मैं सचमुच आश्चर्यं से भर उठती हूं, ये कैसे भावनाशून्य हैं प्रदीप, दो-दो बच्चों की मृत्यु ने भी इनके मन को विरागी नहीं बनाया. वही ऑफिस का काम, उतना ही आराम, वैसा ही खाना और वहीं शारीरिक उत्ताप. मन तार-तार होने लगता है. माना कि दुनिया को सिर्फ़ नेहा की मृत्यु के बारे में पता है. मगर वह अनामिका, जो दुनिया का मुंह देखने से पहले ही दुनिया से चली गई. उसके बारे में हम तीनों तो जानते ही हैं.
मांजी का आग्रह था, दूसरी बार बेटा ही हो, प्रदीप ने तो सदा की तरह समर्थन में गर्दन हिला दी थी. बेटा हो या बेटी, इस बारे में उनका कोई ख़ास अभिमत या आकांक्षा नहीं थी. मां की अधूरी इच्छाओं को पूरा करने के लिए ही जैसे जन्म लिया था उन्होंने. मैं तो सिर्फ़ वह माध्यम थी, जिसके बिना मां की इच्छा पूरी नहीं की जा सकती थी. एक स्त्री, एक नारी देह, संयोग से मैं उनकी तरह पत्थर नहीं थी, मेरे भीतर एक मन भी था. यह उनका कसूर नहीं था.
शादी होते ही सात-आठ दिन भी नहीं लगे थे मुझे प्रदीप को समझाने में. इन सात-आठ दिनों में मैं और प्रदीप कभी अकेले होते हुए भी अकेले नहीं रहे. प्रदीप के हर वाक्य में मां प्रकट हो जाती. मांजी प्रदीप के जन्म के दो वर्ष बाद विधवा हो गई थी. संयुक्त परिवार में अनेक समस्याओं का सामना करते हुए उन्होंने प्रदीप को पाला था. माना वे आदर्श और जुझारू थीं. यह भी माना कि बेटे की गृहस्थी में वे अब सुख और सम्मान की अधिकारिणी थीं, लेकिन उनके सुख का रास्ता मेरे मन, मेरी भावनाओं को रौंदकर ही क्यों निकलता था. यह मेरी समझ में नहीं आता था. रात का प्रणयी, अनुनयी पति दिन में अपनी मां का विनय आज्ञाकारी पुत्र बन जाता. मुझे उनके आज्ञाकारी होने पर भी कोई एतराज़ नहीं था. दुख था तो इस बात का कि उनका अपना व्यक्तित्व रीढ़विहीन क्यों है? यानी ये कभी अपनी स्वयं की पसंद-नापसंद मुझे बताते, तो मैं उसे सिर माथे पर लेती. कभी उन्हें सुझाव देती, कभी उनका विरोध करती, लेकिन मां का निर्णय मुझ तक पहुंचाने वाले दूत को भला मैं क्या कहती.
मुझे याद है पहली मिलन की रात, प्रदीप ने मंगलसूत्र और टॉप छोड़कर मेरे सारे गहने उतार दिए थे. शरम से बोझिल पत्नी के लिए मैं प्रदीप के किसी रोमांटिक वाक्य का इंतज़ार कर रही थी कि सहसा उन्होंने बड़े से रुमाल में सारे गहने बांधते हुए कहा, "मां को देकर आता हूं."
पहले मिलन की इतनी रूखी शुरुआत मेरे हृदय में शुल बनकर चुभ गई.
एकाएक दर्द की एक जानी-पहचानी लहर हृदय को व्यापती चली गई. रात के तीन बज रहे थे. प्रदीप को जगाने की सोची, फिर विचार बदल दिया. दर्द की पहली ही लहर से घबरा उठने का यह मेरा पहला जाया थोड़े ही था. इतनी जल्दी थोड़े ही कुछ होना था. यह तो मैं जानती थी, लेकिन सिर पर एक स्नेहसिक्त हाथ का सहारा चाहती थी. विलास के दो मीठे बोल चाहती थी, पर उनके भी मिलने की उम्मीद नहीं थी. सहसा मां की बेहद याद आई. लगा उनके आंचल में मुंह छुपाकर तमाम दुश्चिन्ताएं, दुख-दर्द और तनाव भूल जाऊं. नेहा के जन्म के समय उसने उतना ही दर्द झेला था जितना कि मैंने झेला था. मेरी वेदना से वह व्याकुल हो उठती. मेरी कमर सहलाती, अपने आंचल से मेरा पसीना पोंछती जाती. इस बार मैं स्वयं ही मायके नहीं गई. न जाने कैसे यह निर्णय मैंने स्वयं किस अधिकार भावना के तहत लिया था. सिर्फ़ एक यही निर्णय नहीं, वह भी... मन फिर यादों की खोह में भटकने लगा.
अभी साल भर नहीं हुआ था वह हादसा हुए. नेहा स्कूल जाने के लिए तैयार हो रही थी. उसे पता था कि मेरी तबियत आजकल ठीक नहीं रहती, इसलिए बगैर ज़िद किए नहाना, नाश्ता, दूध पीना वगैरह सब कुछ लगातार करती जा रही थी. वो ढाई महीने हुए थे और मेरा उलटियों के मारे बुरा हाल था. चेहरा सुख सा गया था. नेहा को सब कुछ समझा दिया था कि यदि उसे दीदी बनना है, तो मां को तंग नहीं करना होगा. मुझे आज भी याद है उसकी चौकस, जिज्ञासाभरी, गोल-गोल आंखें, इस घर में शिशु के आगमन में उसकी भूमिका और ज़िम्मेदारी को समझती हुई वे बोलती आंखें, मैंने उसे लाड़ से अंक में भरते हुए पूछा था कि उसे बहन चाहिए या भाई. मेरी बात सुनकर वह कुछ विचारमग्न हो गई. उसका एक हाथ उसके घुंघराले बालों से खेलने लगा. फिर जैसे उसका निर्णय बहुत ही अहमियत रखता हो, इस अंदाज में उसने सुनाया, "मुझे तो मम्मी, बहन ही चाहिए. मेरी गुड़िया जैसी सुंदर, वह मेरे साथ खेलेगी, मेरे साथ सोएगी..."
"चुप भी कर. सुबह-सुबह कैसी असगुनी बातें कर रही है लड़की." मांजी अचानक प्रकट हो गई थीं.
"इसे भी समझ नहीं है. जो मन में आया बोलती जा रही है." मुझे सुनाते हुए वे बोलीं.
नेहा को यूनिफॉर्म पहनाते हुए, उसके बाल संवारते हुए, उसके गाल चूमते हुए मुझे एक पल के लिए भी नहीं लगा कि मैं यह सब आख़िरी बार कर रही हूं.
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उसे स्कूल भेजकर मैं और मांजी अल्ट्रासाउंड क्लीनिक में दाख़िल हुए. धड़कते दिल से मैं टेबल पर लेट गई, सपाट, भावहीन चेहरे वाले डॉक्टर साहब पेट पर कोई लसलसा पदार्थ लगाकर जांच करने लगे. मॉनीटर पर अनजानी आकृतियां उभरने लगीं. बनती-बिगड़ती, विचित्र आकृतियां पेट के जीव के भविष्य का निर्धारण करती.
"क्या है डॉक्टर साहब?" मैंने टेबल से उतरते हुए पूछा. "फीमेल चाइल्ड." डॉक्टर का सपाट जवाब था. मैंने दोनों हाथों से पेट कसकर थाम लिया, जैसे इस तरह में उसे बचा लूंगी. लेकिन मांजी का निश्चय पक्का था. आज ही एबॉर्शन कराना होगा. देर ख़तरनाक हो सकती है, प्रदीप को फोन किया.
मेरे मन प्राण जैसे बधिर हो गए थे. एनेस्थीसिया की गंध ने मेरी रही सही चेतना भी हर ली. हदय सिर्फ़ खरोंचे महसूस कर रहा था.
खाली कोख और भारी मन लिए घर पहुंची. अभी एक घंटा भी नहीं गुज़रा था कि स्कूल बस के एक्सीडेंट की ख़बर आई और एक ही दिन मेरी कोख और मेरी गोद दोनों खाली हो गए.
मन जैसे पत्थर हो गया, वह हंसना, रोना, बोलना सब कुछ भूल गया. मशीन की तरह दिनभर काम करना और रात को नेहा की एक-एक बात याद करना. जग से तो जैसे मेरा नाता ही टूट गया था. कंठ तक रुलाई आती पर आंखों से बरसना भूल जाती. सगे-संबंधी, पड़ोसी सहानुभूति से कहते, "आख़िर मां है, कैसे सहेगी पहाड़ जैसा दुख." मांजी हाथ नचा-नचाकर कहतीं, "बड़ी अनोखी मां है. मेरे तीन-तीन गुज़रे, तब भी मैंने अपने आपको संभाले रखा. हुंह नाटक करती है."
"आपकी कृपा रही तो यहां भी तीन गुज़र सकते हैं, वह भी अजन्मे." मेरा मन कडुवाहट से भर जाता.
उस रात मुझे अपने आप से नफ़रत होने लगी थी. अभी नेहा की मृत्यु हुए पूरे पंद्रह दिन भी नहीं गुज़रे थे कि यह व्यक्ति जानवर बन गया था. वासना के इस दलदल में धंसते हुए मुझे अपनी विवशता पर जोर-जोर से रोने का मन करने लगा. घोर अपमान लगा था मुझे वह प्रसंग अपना, साथ में नेहा का भी. नेहा की मौत क्या कुछ महीनों की गमी की भी हक़दार नहीं थी. इतनी सस्ती थी उस बेचारी की जान.
"दुख भुलाने का यह भी एक तरीक़ा है." प्रदीप ने तृप्त भाव से बस इतना ही कहा था और सदा की तरह करवट बदलकर सो गए. निस्संग, निर्लिप्त.
मांजी को जैसे ही मेरे गर्भवती होने का पता चला, सबसे पहले उन्होंने यही पूछा कि हमने यह तरीक़ा अपनाया था या नहीं, जो उनकी सहेली की बहू ने बेटा होने में कारगर बताया था. मेरे मौन से वह सब कुछ समझ गई और मेरी बेवकूफ़ी का रोना रोने लगीं.
चार-छह दिन बाद प्रदीप ने सपाट स्वर में कहा, "चलो अल्ट्रासाउंड करवाना है." मेरे सामने सारी दुनिया घूम गई. कांपते स्वर में मैंने कहा, "बेटी होगी भी तो वह पहली ही होगी, इसे बख्श दो. क्या पता नेहा ही वापस आ गई हो."
"बकवास बंद करो, मां का कहना है जब विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है, तो एक बार भी जोख़िम लेना मूर्खता है."
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मैं फटी-फटी आंखों से प्रदीप को देखती ही रह गई. नेहा की मृतदेह मैंने सबके विरोध के बावजूद देखी थी. इस गर्भस्थ शिशु की मृतदेह में देख नहीं पाऊंगी. नेहा की हत्या करने वाले उस ट्रक ड्राइवर को पकड़े जाने पर सज़ा ज़रूर मिलेगी. लेकिन इसके हत्यारों को कौन सा दंड मिलेगा. इसकी हत्या का निर्णय लेने वाले इसके अपने माता-पिता होंगे. हां, मां भी. यदि मैं मौन रही, तो यह समर्थन ही तो कहलाएगा.
"इस तरह क्यों देख रही हो."
"देख रही हूं, तुम मां-बेटे कितना गिर सकते हो." "क्या कह रही हो?" प्रदीप की आंखें फैल गई.
न जाने उस वक़्त मुझमें इतनी हिम्मत कहां से आ गई, "सुन लो सब. ख़बरदार जो इसे ख़त्म करने की भी सोची. मैं इसकी मां हूं, इसे जन्म देने या न देने का अधिकार सिर्फ़ मेरा है. आप लोग यह अधिकार मुझसे नहीं छीन सकते. ज़िद करेंगे तो मैं न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाऊंगी."
मांजी न जाने कब कमरे में आकर भौंचक सी मेरा यह नया रूप देख रही थीं. प्रदीप ठगे से खड़े थे. कोई कुछ नहीं बोल पाया. सच है, व्यक्ति अपने अधिकारों के प्रति जब सचेत होता है, तभी अपने दुर्भाग्य से उबर पाता है. दूसरे उसे सहानुभूति भले ही दें, अन्याय से लड़ने हेतु हिम्मत स्वयं ही जुटानी पड़ती है.
मेरी हार्दिक इच्छा यही है कि यह शिशु लड़की ही हो. कभी-कभी इस गर्भस्थ शिशु से मेरे संवाद भी चलते. मन से मन की राह, मां की नाल से जुडी, मां के रक्त, मां से पली-बडी देह भला मां की बात क्यों नहीं समझेगी. यदि तू लड़की है तो इस घर में स्वागत की आशा मत करना. तेरा जन्म, तेरे पिता और दादी को कोई ख़ुशी नहीं देगा. कोई मिठाई नहीं बांटी जाएगी. नामकरण एक औपचारिक रस्म की तरह निबटाया जाएगा. कोई सोहर गीत नहीं गाए जाएंगे. तेरी नन्हीं सी मुट्ठी में कोई कुछ नहीं थमाएगा. परंतु चुपचाप सबकी नज़रें बचाकर हम दोनों ने आपस में क्या कुछ लिया-दिया है, यह कोई नहीं जानता. तूने मुझे दिया है अकल्पनीय साहस और मैंने तुझे जीने का अधिकार. इस जीवन को आत्मसम्मान से लबरेज़ बनाना अब तेरा काम है.
घड़ी की और निगाह डाली. सुबह के पांच बज रहे थे. अभी भी थोड़ा अंधेरा फैला था, पर थोड़ी देर बाद वह भी छूट जाएगा. दर्द की लहरों के बीच अंतराल घटने लगा. मैंने प्रदीप का कंधा झकझोर उन्हें उठाते हुए कहा, "उठो मुझे अस्पताल छोड़ दो, समय आ गया है."
- स्मिता भूषण
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