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कहानी- एक टुकड़ा धूप‌ (Short Story- Ek Tukda Dhoop)

आकाश ने अपने प्यार का इज़हार मुझसे कर दिया था. वो अपने घर पर मेरा इंतज़ार करने लगा था. लेकिन मैं चाहकर भी नवीन से कुछ कह नहीं पाती थी. पता नहीं इस शांत, सीधे सरल व्यक्तित्व में क्या था कि मैं नवीन के सामने मूक बन जाती थी. एक बार फिर वो औरत के दर्द को समझ नहीं सके थे या… नवीन मेरे व्यस्त रहने में ही मेरी ख़ुशी समझतते थे. मेरी अनुपस्थिति में बड़ी आसानी से हालात से समझौता कर लेते थे. कभी-कभी मैं उनके धीरज, सहनशीलता के सामने झुक जाती थी, लेकिन… मैं आकाश को भी तो छोड़ नहीं सकती थी.

दिनभर की उमस के बाद आज अचानक शाम से ही बादल घिर आए थे. अभी भी बारिश की बूंदें गिर रही थीं. अंधेरा गहरा कर वातावरण को ख़ामोश और भयानक बना रहा था. मैंने देखा, नवीन एक बच्चे की मानिंद अपने बिस्तर पर सिकुड़े हुए सो रहे थे. मैंने उनके बदन पर चादर डाली, तो अनजाने ही उन्होंने आदतन मुझे अपने क़रीब करने की कोशिश की. धीरे से मैंने उनके बंधन को ढीला कर ख़ुद को मुक्त किया और बरामदे में आ गई.
ठंडी हवा का झोंका एक बार तो सिहरा गया. चारों ओर ख़ामोशी और नींद से डूबी दुनिया को देखते हुए मैंने सोचा, 'बस आज की रात… इस घर में हूं. कल सुबह ही तो नवीन से, इस घर से, चार सालों की ज़िम्मेदारी से आज़ादी मिल जाएगी मुझे. फिर… मैं आकाश के साथ अपनी नई दुनिया बसाऊंगी और घुट-घुटकर जीने से मुक्ति मिल जाएगी. फिर… मेरे पास ढेर सारा पैसा, एक कामयाब पति और कुछ दिनों बाद एक बच्चा भी होगा… बस, किसी तरह कल नवीन से कहना होगा मुझे…
मैंने बरामदे से ही नवीन की ओर एक बार देखा. वो मेरे ख़्यालों से बेख़बर, थका-मांदा अपने सपनों की दुनिया में खोया था. नहीं, मैं इस आदमी से प्यार भी करती हूं या नहीं. शायद… चार वर्षों से मैं एक समझौते के तहत ज़िंदगी गुज़ारती आ रही थी. एक ऐसा समझौता, जो मेरी गरीब मां ने तय किया था और मुझसे उम्रभर निभाने को कह गई थी. मुझसे ये दिखावा…
मेरी सोच पर अचानक ही एक प्रहार हुआ. दरवाज़े की घंटी तेज़ी से बज उठी दरवाज़े के उस ओर से हमारी आया गौरी के ज़ोर-ज़ोर से रोने की आवाज़ आ रही थी. मैंने लपककर जीने से उतरते हुए दरवाज़ा खोला, तो सकते में आ गई. गौरी अपने दुधमुंहे बच्चे को गोद में लिए भीगी हुई अस्त-व्यस्त खड़ी मिली. मां-बच्चा दोनों ही अपने-अपने सुर में रो रहे थे.
मैं उनका हाल देखकर ही समझ गई कि गौरी के पति राघव ने आज फिर पीकर इसे पीटा होगा और भागकर वो जान बचाने यहां आ गई. गौरी को संभालकर अंदर लाते वक़्त मैंने देखा कि उसके माथे व हाथ पर कुछ चोटें भी हैं. उसके कपड़े भी फट गए हैं. मुझे गौरी की हालत देखकर उस पर बेहद ग़ुस्सा आया.

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"इस औरत से मैंने कितनी बार कहा कि छोड़ दे अपने शराबी पति को फिर भी यह है कि… पिटती रहेगी, लेकिन उस राक्षस को नहीं छोड़ेगी. आख़िर क्या है उसमें? इसी तरह मार खाते-खाते एक दिन ख़ुद भी मरेगी और बच्चे को भी मारेगी." मैंने ग़ुस्से में बड़बड़ाते हुए फर्स्ट एड बॉक्स से दवा और रुई निकाली, तो देखा नवीन भी नीचे आ रहे हैं. नवीन ने नींद में डूबी आवाज़ में कहा, "चलो… पुलिस में शिकायत दर्ज कर ही देते हैं."
गौरी उस दर्द में भी बोल पड़ी, "नहीं… नहीं... बाबूजी, पुलिस से हमें कोई काम नहीं."
मैंने देखा उस औरत को, जो पिछले चार वर्षों से मेरे साथ ही इस घर से जुड़ी हुई है. उसे अक्सर मैंने अपने नालायक पति की बेरहम मार का शिकार होते हुए देखा है. कभी-कभी तो बेचारी अधमरी-सी होकर बिस्तर से कई दिनों तक उठने लायक भी नहीं रहती. फिर भी… मैंने कभी उससे पति की शिकायत थाने में दर्ज कराने की बात नहीं सुनी, ना ही वो अपने नकारा पति को छोड़कर जा सकती है. पता नहीं, इस बेवकूफ़ औरत को अपने पति में कौन-सा देवता नज़र आता है.
मैंने घड़ी की ओर देखा तो रात के दो बज रहे थे. रोती हुई गौरी व उसके बच्चे को ज़बर्दस्ती थोड़ा-सा दूध पिलाकर मैंने बाहर के कमरे में ही सुलवा दिया. नवीन के साथ जब मैं बेडरूम में आई, तो देखा जाने कैसे एक खिड़की के खुले रहने से तेज हवा के झोंकों के साथ आती बारिश की बूंदों ने बिस्तर के एक हिस्से को गीला कर दिया था. मजबूरन नवीन के साथ दूसरे हिस्से पर ही मैं सिमट गई थी. समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे नवीन से मैं उसे छोड़कर जाने की बात कहूं, नवीन मुझसे इतना प्यार करते हैं कि शायद उन्हें यक़ीन भी न हो…
"क्या हुआ बरखा… नींद नहीं आ रही?" नवीन ने अंधेरे में जैसे मुझे देख लिया था.
"गौरी की हालत ठीक ही है. हां… दो-चार दिनों तक वो तुम्हारी मदद नहीं कर सकेगी. इसलिए परेशान हो न तुम. लेकिन इतनी सी बात के लिए अपनी नींद मत ख़राब करो. परेशानी हर नौकर को लेकर होती ही है."
नवीन को अंधेरे में भी मेरी नींद से दूर आंखें तो दिख गई थीं, लेकिन मेरे मन में चलने वाली परेशानी का कारण पता नहीं था. हां… ये सच था कि हर बार गौरी के पिटने के बाद मैं परेशान होती थी, क्योंकि काम का सारा बोझ मुझ पर ही आ जाता था. लेकिन इस बार… मेरी परेशानी की वजह गौरी नहीं थी…
नवीन सो चुके थे. मैं सोच रही थी… पिता की अचानक मौत के बाद मां एकदम टूट-सी गई थी. मेरे पिता एक शिक्षक थे और एक बंधी बंधाई कमाई पर ही हमारा परिवार चल रहा था. छोटा भाई मेडिकल की महंगी पढ़ाई कर रहा था. उन्हीं दिनों कोई नवीन का रिश्ता लेकर हमारे घर आया था. नवीन एक प्रेस में काम करते थे. माता-पिता के अलावा एक भाई भी था, जो एक बड़ी कंपनी में कार्यरत था. मेरी मां को इस रिश्ते से कोई एतराज़ नहीं था. उन्होंने एक बार भी मेरी इच्छा-अनिच्छा जानने की कोशिश नहीं की और मेरी शादी नवीन से हो गई. यहां आकर नवीन से मुझे कोई शिकायत नहीं थी शुरू में. पर धीरे- धीरे मुझे लगने लगा कि मेरे सास-ससुर का झुकाव मेरे देवर के प्रति ज़्यादा था, क्योंकि उसके पास अधिक पैसा जो था.

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अपने ईमानदार पति को मैंने कभी बेईमानी या झूठी कमाई करते नहीं देखा. पर मायके की तरह ही मुट्ठी भर ईमानदारी के पैसे पर… मैं नवीन से कुछ कहना चाहती, तो वो ईमानदारी पर लंबा-चौड़ा भाषण देकर मुझे ख़ामोश कर देते. मेरी ख़ामोशी को वे मेरी सहमति समझ लेते. पर मेरी ख़ामोशी के पीछे छिपी परेशान व बेचैन मन को वह समझ न पाते.
दो सालों बाद मुझे दूसरा धक्का तब लगा, जब डॉक्टरों ने हमारी मेडिकल जांच के बाद मुझे ये बताया कि नवीन की कुछ कमज़ोरियों की वजह से हमें बच्चा नहीं हो सकता. मेरे दर्द को समझते हुए नवीन ने मुझे सांत्वना देते हुए बच्चा गोद लेने की बात भी की थी.
फिर एक रात उन्होंने ही कहा था, "मैं जानता हूं बरखा, जाने-अनजाने तुम्हें यहां ख़ुशी नहीं मिल रही है." मैंने चौंककर नज़रें उठाकर अपने पति के चेहरे को पढ़ने की कोशिश की थी, पर उनकी नज़र किसी किताब पर ही टिकी थी.
"बरखा… तुम चाहो तो अपना समय काटने के लिए कोई महिला समिति या समाज सेवा वगैरह का काम कर सकती हो. शादी से पहले तो तुम लिखा भी करती थी ना. तुम फिर से वो सब…" नवीन ने अपनी आंखें किताब के पन्नों से उठाकर मेरे चेहरे पर टिकाते हुए कहा.
फिर से एक समझौता! मेरे दिमाग़ में ये ख़्याल आता था. बच्चा नहीं हो सकता और मैं घर में बोर हो रही हूं तो… मुझे हालात से समझौता करना चाहिए. मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था. क्या शादी के बाद मेरे यही सपने थे. फिर भी… ख़ुद को समझाने या नवीन की इच्छा को पूरी करने के विचार से ही सही मैंने एक थिएटर गुप में प्रवेश लिया. शुरू में तो मुझे कुछ लिखने को दिया गया. फिर मैं गंभीरतापूर्वक अपने काम से जुड़ने लगी थी. जगह-जगह घूमकर हमें नाटक करने का मौक़ा मिलने लगा था.. नए-नए दोस्तों से मुलाक़ात… मुझमें एक नई ख़ुशी का संचार होने लगा था.
उसी दरमियान मेरी मुलाक़ात आकाश से हुई. एक चंचल-बेफ़िक्र इंसान. ख़ूब सारा पैसा घर में था और करने को कोई काम नहीं था, तो उसने थियेटर को ही अपने शौक से काम में तब्दील कर लिया था. किसी ख़ामोश शाम को भावुक होकर मैंने अपने घर-परिवार का सारा ब्यौरा उससे कह डाला था. उसके आकर्षक शारीरिक व्यक्तित्व से प्रभावित होकर मैं नवीन के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों को नज़रअंदाज़ भी करने लगी थी.
आकाश ने अपने प्यार का इज़हार मुझसे कर दिया था. वो अपने घर पर मेरा इंतज़ार करने लगा था. लेकिन मैं चाहकर भी नवीन से कुछ कह नहीं पाती थी. पता नहीं इस शांत, सीधे सरल व्यक्तित्व में क्या था कि मैं नवीन के सामने मूक बन जाती थी. एक बार फिर वो औरत के दर्द को समझ नहीं सके थे या… नवीन मेरे व्यस्त रहने में ही मेरी ख़ुशी समझते थे. मेरी अनुपस्थिति में बड़ी आसानी से हालात से समझौता कर लेते थे. कभी-कभी मैं उनके धीरज, सहनशीलता के सामने झुक जाती थी. लेकिन… मैं आकाश को भी तो छोड़ नहीं सकती थी.
नवीन का मैं सम्मान करती थी, लेकिन प्यार शायद मुझे आकाश से ही होने लगा था. कभी-कभी तो मेरा ज़्यादा वक़्त नवीन से दूर रहने में ही बीतता था. थिएटर का आकर्षण मुझे बांधने लगा था. नवीन अख़बारों में मेरी तस्वीर देखकर मुझे प्रोत्साहित तो करते थे, लेकिन अपने काम से वक़्त निकालकर कभी मेरे शो देखने नहीं आ सके थे. पहले तो एक-दो बार मैं उनसे कहा करती थी, "प्रेस में काम करते हो. कभी तो रिपोर्टर की हैसियत से ही हमारे शो में आ जाया करो."
"अगर मैं रिपोर्टर का काम करने लगा, तो संपादन का काम कौन करेगा?" मुझे उदास देखकर वो मुझे अपनी बांहों में भर लेते. फिर कहते, "तुम जानती हो, मेरी अपनी ज़िम्मेदारियां हैं. फिर मैं तुमसे दूर कहां हूं? तुम्हारे हर काम पर तो मेरे रिपोर्टर नज़र रखते ही हैं. फिर भी… कभी मौक़ा मिला तो, मैं तुम्हारे शो पर चुपके से चला आऊंगा."
नवीन की इन बातों से मैं पलभर के लिए कांप उठी थी. तब तो नवीन को मेरे और आकाश के बारे में भी…
पर गंभीर प्रवृत्ति के नवीन ने कभी मुझसे कोई सवाल नहीं किया था. हालांकि मैंने कई समाचार-पत्रों में आकाश और मेरे बारे में हल्की-फुल्की ख़बरें छपी देखी थीं. लेकिन नवीन ने पता नहीं क्यों, कभी कोई प्रश्न मुझसे नहीं पूछा था. मैं चाहती थी कि नवीन कभी तो कोई सवाल करें, ताकि मुझे आकाश के विषय में बात करने का मौक़ा मिले, लेकिन…
आकाश का फोन भी कई बार आता था. तब भी मैंने नवीन के चेहरे पर कोई उत्सुकता या जिज्ञासा कभी नहीं देखी. शायद नवीन मेरा धैर्य देख रहे थे. दूसरी ओर आकाश चाहता था कि अब मुझे और देर न करते हुए नवीन से स्पष्ट शब्दों में बात कर लेनी चाहिए.

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नवीन की बांहों के घेरे से निकलना मेरे लिए बेहद मुश्किल था. जाने कब.. मेरी पलकों ने मेरी जागती आंखों को ढंक लिया.
सुबह जब आंखें खुलीं, तो धूप का एक टुकड़ा कमरे में चमक रहा था और फोन की घंटी बज रही थी. चौंक कर मैंने घड़ी की ओर देखा, तो नौ से ऊपर हो रहे थे. आकाश होगा. फोन उठाते हुए मेरा दिल ज़ोरों से धड़क रहा था. बिस्तर पर नवीन नहीं थे. शायद अब तक वे ऑफिस के लिए निकल भी चुके होंगे.

"गुडमॉर्निंग मैडम!" मेरी आवाज़ सुनते ही आकाश ने कहा, मैंने धीरे से जवाब भी दिया.
"क्या मैडम… अब तक आपको यहां से आ जाना चाहिए था और तुम…. वैसे तुम कर क्या रही हो?" आकाश मेरे इंतज़ार में उतावला हो रहा था.
“आ.. का.. श… मैं थोड़ी परेशान हूं. मैं तुमसे बाद में बात करती हूं." मैंने इधर-उधर देखते हुए नवीन को टटोलने की कोशिश की.
"बात तो मुझे तुमसे करनी है बरखा. तुम्हें एक घंटे में यहां आना ही है, तुम जानती हो, मैं यहां किस तरह… ख़ैर, तुम नहीं समझोगी! वैसे तुम परेशान क्यों हो?" शायद आकाश को अचानक मेरी परेशानी का ख़्याल हो आया था.
"वो… कुछ नहीं..!" मैं अभी आकाश से ज़्यादा बातें न कर उसे टालना चाहती थी, पर वो आज मुझे छोड़ नहीं रहा था.
“बीबीजी, आप उठ गईं?” पीछे से गौरी की आवाज़ सुनकर मैं अनजाने ही कांप गई. रिसीवर को बिना सोचे-समझे ही नीचे रख दिया मैंने.
"मैं आपका ही इंतज़ार कर रही थी. नाश्ता मैंने तैयार कर दिया है. …मैं घर जाना चाहती हूं.” गौरी ने चाय का कप मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा. मैंने देखा उसके चेहरे पर खून की लकीरें स्पष्ट दिख रही थीं. मैं अपने सामने बैठी उस औरत को देख रही थी, जो अपने मर्द से पिटने, मार खाने के बावजूद उसे छोड़ नहीं सकती थी. एक नालायक मर्द से जुड़ी भारतीय नारी..!

मेरे होंठों पर एक उपेक्षित सी मुस्कान आ गई. नज़रें उठाई तो सामने आईने में भी तो भारतीय नारी नज़र आईं. ये भी तो भारतीय नारी‌ है, लेकिन ये अपने निरीह, लायक व ईमानदार पति को छोड़ने वाली नारी थी. पति का गुनाह यही था कि उसने अपनी पत्नी पर हद से ज़्यादा विश्वास किया था.
"गौरी… साहब कहां हैं?" मैंने गौरी से जानना चाहा.
"वो तो फूल ख़रीदने गए हैं."
"फूल..?" मुझे अचरज हुआ कि आज अचानक नवीन को फूल की क्या ज़रूरत आ पड़ी. रोज़ तो मैं बगीचे से ही फूल तोड़कर फूलदानों को सजाया करती हूं.
"साहब कह रहे थे कि आज आप लोगों के शादी का दिन है और..." गौरी कहते जा रही थी. मैं सिर को हाथों से थामकर धम्म से बैठ गई.
"बीबीजी… क्या हुआ? आप ठीक तो हैं ना!" गौरी को अचानक मेरा ख़्याल आया और उसने मेरे माथे को छुआ.
“हां… गौरी ठीक हूं." मुझे शर्मिन्दगी महसूस हो रही थी कि अब मैं अपनी शादी की वर्षगांठ भी भूलने लगी थी.
"शादी की चौथी सालगिरह मुबारक हो!" नवीन ने फूलों के गुच्छों के साथ मुझे बांहों में भर लिया, तो मेरी आंखें बरस पड़ीं. इन बांहों के बंधन से निकलकर जाना अब मेरे लिए नामुमकिन था.

- सीमा मिश्रा

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