“ग़लती मेरी भी थी मौसी. आज मुझे अफ़सोस होता है कि मैंने उनकी मूक भाषा को कभी पढ़ने का प्रयास नहीं किया. यदि ये कहानियां पहले पढ़ ली होतीं, तो मैं बहुत पहले अपने प्रति उनके अटूट प्रेम व संवेदनाओं को समझ जाता.”
"मौसी, मैं पराग बोल रहा हूं.”
“इंडिया के नंबर से?” मैं चौंक गई.
“हां मौसी, मैं इंडिया आ गया हूं.”
“ओह, शायद घर के लिए ग्राहक मिल गया दिखता है.” मैंने मन ही मन कयास लगाया. लेकिन पराग की पूरी बात सुनी, तो मैं आश्चर्यचकित रह गई.
“... यहीं अपने घर हमेशा के लिए.”
“मीता और आहना भी हैं? तो फिर उन्हें लेकर घर पर आज शाम डिनर के लिए आ जा. आज छुट्टी भी है.”
“नहीं मौसी, आप ही को आना होगा. दरअसल, कल कार्गो से सब सामान भी आ गया है, उसे भी व्यवस्थित करना है. तीन दिन बाद तो मुझे यहां ऑफिस जॅाइन करना है, तो उससे पहले...”
“मैं समझ गई. तू चिंता मत कर, तेरे मौसाजी कल फैक्ट्री जाते वक़्त मुझे तेरे यहां छोड़ देंगे. मैं सब करवा दूंगी. पर तू अचानक इस तरह... अभी 2 महीने पहले ही तो जीजाजी की बरसी पर मिलना हुआ था, तब तो तेरा ऐसा कोई इरादा नहीं था.”
“हां मौसी, बस ऐसे ही मन बदल गया.”
मैं समझ गई कि वह फोन पर ज़्यादा बातें करने का इच्छुक नहीं है. अगले दिन जल्दी आने का वादा कर मैंने फोन रख दिया.
इस उम्र में भी कोई मुझे इतना अपना और किसी क़ाबिल समझता है, सोचकर ही मन ख़ुशी व गर्व से भर उठा था. मन पूरे दिन पराग व उससे जुड़ी यादों के इर्द-गिर्द ही भटकता रहा. दीदी गुज़रीं, तब पराग की स्कूली शिक्षा भी पूरी नहीं हुई थी. कुछ समय तक जीजाजी के पुनर्विवाह की ख़बरें आती रहीं. फिर इन ख़बरों पर विराम लग गया. जीजाजी का कहीं दूर तबादला हो गया. पराग को हॉस्टल भेज दिया गया. फिर वहीं से वह उच्च शिक्षा के लिए विदेश चला गया. जीजाजी ट्रांसफर होकर फिर इसी शहर में आ गए थे. उनके रिटायरमेंट को अब थोड़ा ही समय बचा था. उन्होंने मकान में नए सिरे से काम करवाया शायद भविष्य में पराग की शादी और गृहस्थी को ध्यान में रखते हुए. लेकिन पराग की शिक्षा पूरी हुई, तो उसे वहीं विदेश में अच्छी नौकरी मिल गई. शादी के लिए दबाव बढ़ा, तो उसने वहीं अपने साथ पढ़ी मीता से विवाह कर लिया. सर्वथा अलग परिवेश में पली-बढ़ी मीता से विवाह में राहत की एक ही बात थी कि वह भी भारतीय थी. फिर उसे बेटी होने की ख़बर भी मिली.
जीजाजी रिटायरमेंट के बाद और भी एकाकी हो गए थे. सुनने में आया था कि काफ़ी लिखने-पढ़ने लगे हैं. पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कहानियां छपने लगी हैं. पारिवारिक समारोहों में ही उनसे मुलाक़ात हो पाती थी. काफ़ी दुबले और कमज़ोर लगने लगे थे. कई बार मन होता उन्हें अपने घर बुलाकर रख लूं, पर मन की बात मन में ही दबा लेनी पड़ती. लोग कहीं ग़लत मतलब न समझ लें कि हमारी नज़र उनकी संपत्ति पर है. वैसे भी उन्हें संभालनेवालों की कहां कमी थी? माता-पिता नहीं रहे थे, पर उनके अपने दो भाई थे. भाइयों के बच्चे थे. बेटा पराग तो था ही और अब तो पराग के ससुरालवाले भी थे.
जीजाजी के निधन पर पराग, मीता और उसकी प्यारी-सी बेटी आहना से मिलना हुआ था, पर तब ज़्यादा छुट्टी न मिलने की वजह से उसे जल्दी ही लौटना पड़ा था. जल्दी वापस आने का कहकर वह लौट गया था, पर लौटना हुआ था जीजाजी की बरसी पर ही और वह भी अकेले. तब सुनने में आया था कि अब वह शायद कभी इंडिया न लौटे. मकान-जायदाद आदि बेचने के लिए भी चाचा से कह गया है. और अब दो ही महीने बाद यह अचानक पूरी तरह घर वापसी? यदि लौटना ही था, तो जीजाजी के रहते ही लौट आता. जीजाजी बहुत कम बोलने वाले इंसान थे. कुछ कहते नहीं थे, पर हम उनके मन की बात तो समझते ही थे. लेकिन पराग के मन में आख़िर यह सब क्या चल रहा है? पराग से मिलने की मेरी बेचैनी पल-प्रतिपल बढ़ती ही जा रही थी.
सवेरे मैं जल्दी ही तैयार हो गई थी. पराग के घर के रास्ते से मैंने आहना के लिए कुछ चॉकलेट्स ख़रीद लिए थे. वैसे तो अब वह स्कूल जानेवाली समझदार बच्ची हो गई है, पर चॉकलेट्स तो हर उम्र के बच्चों को लुभाते ही हैं. हॉर्न सुनते ही पराग नीचे आ गया था और आदर सहित मुझे सहारा देते हुए ऊपर ले गया. पराग दोनों मां-बेटी ने भी मेरे पैर छूकर आशीर्वाद लिया, तो मैं सुखद आश्चर्य से भर उठी. मीता रसोई में घुसी, तो मैं भी पीछे-पीछे पहुंच गई.
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“मैं चाय-नाश्ता करके निकली हूं और वैसे भी मैं तुम्हारी मदद करने आई हूं, काम बढ़ाने नहीं.”
“मौसी सच बताऊं, तो काम कुछ है ही नहीं. वह तो आपको बुलाने का बहाना भर था. घर तो बरसों से सेट ही है. बस, थोड़ी साफ़-सफ़ाई कर ली है. अमेरिका से जो सामान आया है, उसमें से ज़रूरतभर का खोल लिया है. बाकी स्टोररूम में रखवा दिया है. सोचा तो था कि पुराना सब फर्नीचर, पर्दे वगैरह हटवाकर हमारा लाया सामान लगवा लेंगे, पर अब लगता है उस सबके लिए थोड़ा रुक जाना ही बेहतर होगा. दरअसल, पापाजी की बरसी से लौटने के बाद से ही पराग बहुत गुमसुम और उदास रहने लगे थे. वे अपने साथ...” मीता की बात अधूरी ही रह गई, क्योंकि पराग मुझे पुकारता रसोई तक आ पहुंचा था.
“आओ न मौसी, लॉबी में बैठते हैं. काम तो होता रहेगा. पहले चाय-नाश्ता कर लेते हैं. मैं तो नाश्ते के लिए आप ही का इंतज़ार कर रहा था.” पराग ने इतने आग्रह से कहा कि मैं और इंकार न कर सकी और उसके साथ लॉबी में चली आई. आहना को हिज्जे जोड़-जोड़कर हिंदी के अख़बार की हेडलाइन्स पढ़ते देख मैं हैरान रह गई.
“कमाल है ज़रा-सी बच्ची अख़बार पढ़ रही है और वो भी हिंदी का. हमारे यहां तो आधुनिक पढ़ी-लिखी युवतियां भी अख़बार को मात्र शीशे चमकाने का साधन मानती हैं.”
“मैं चाहता हूं कि आहना में रीडिंग हैबिट विकसित हो, जो मुझमें नहीं थी. इसके लिए मैं ढेर सारी परीकथाएं व सचित्र कहानियों की पुस्तकें ख़रीदकर लाता हूं और रात को नियम से उनमें से एक-दो कहानी अवश्य पढ़कर सुनाता हूं. इससे उसका ज्ञान व आत्मविश्वास तो बढ़ेगा ही, दूसरों को समझने की क्षमता भी बढ़ेगी.”
“वाह, बहुत अच्छे! अपने दादा की तरह लेखक बनेगी यह तो!” प्यार से आहना के सिर पर हाथ फेरते हुए मैंने पराग की ओर नज़र घुमाई, तो पाया वह कुछ गुमसुम-सा हो उठा था. शायद उसे अपने पापा की याद आ गई थी. जीजाजी और साथ ही दीदी को यादकर मेरा भी मन भारी हो उठा. आंखें दीवार पर उनकी साथ लगी तस्वीर पर जाकर टिक गईं.
“दीदी के जाने के बाद मन तेरे लिए बहुत व्याकुल रहता था बेटे. मौसी ऐसे ही नहीं बन जाता कोई. मां-सी ममता रखनेवाली होती है मासी. पर तुझे तेरे पापा से अलग भी नहीं कर सकती थी. और उन्हें तुझे लेकर हमारे साथ आकर रहने के लिए भी नहीं कह सकती थी. तेरे चाचा वगैरह इसके लिए कभी तैयार नहीं होते. तूने उन्हें बताया अपने इंडिया लौट आने के बारे में?”
“हां, उन्होंने तो इस घर का सौदा ही तय कर दिया था और कुछ एडवांस भी ले चुके थे. अब मेरे लौटकर यहीं आकर रहने से उन्हें थोड़ा धक्का लगा है. ग़लती तो मेरी ही है. मैंने ही अचानक अपना निर्णय बदलकर उनकी साख को बट्टा लगाया है. ख़ैर, धीरे-धीरे मना लूंगा सबको. आप तो मेरेे इस निर्णय से नाराज़ नहीं हैं न मौसी?”
“अरे नहीं, कैसी बात कर रहा है तू? मैं तो बहुत ख़ुश हूं कि तू अपनों के बीच लौट आया है. पर काश! यह निर्णय थोड़ा पहले, मतलब तेरे पापा के जीते जी ले लिया होता. तू तो जानता ही है कि वे कितना कम बोलते थे. दीदी के जाने के बाद तो उन्होंने मन की बात ज़ुबान पर लाना ही बंद कर दिया था. जो सामने रख दो, खा लेते. जो कहते, वो पहन लेते, पर मैं जानती हूं कि वे कभी तुझे अपनी आंखों से दूर नहीं करना चाहते थे. इसीलिए तो इतने दबाव के बावजूद वे दूसरी शादी के लिए तैयार नहीं हुए थे.”
“मैं पापा को कभी समझ ही नहीं पाया. उनकी मूक भाषा को पढ़ ही नहीं पाया. वो तो उनकी बरसी पर आया, तब पता चला उनके कुछ दोस्तों ने मिलकर उनकी प्रथम पुण्यतिथि पर उनकी कहानियों का संकलन प्रकाशित करवाया है. मुझे भी उन्होंने उसकी प्रति दी और वक़्त निकालकर पढ़ने का आग्रह किया.”
“अरे हां, याद आया. हम उपस्थित सभी लोगों को प्रतियां दी गई थीं. मेरी तो यहीं छूट गई थी. आज लेकर जाऊंगी.”
“मैंने तो पापा की कभी कोई कहानी पढ़ी ही नहीं थी. रीडिंग तो थी ही नहीं. मैं तो समाचार आदि भी ऑफिस में नेट पर ही देख लिया करता था. घर पर आनेवाले अख़बार बिना तह खुले ही रद्दी के लिए जमा होते रहते थे. फिर जब पापा से ही कभी अतिरेक लगाव नहीं हो पाया, तो उनकी कहानियों की क़िताब से मुझे क्या लगाव होता?
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बेमन-से मैंने वह पुस्तक शोल्डर बैग में डाल ली थी. जबसे होश संभाला था, पापा को मैंने मात्र एक संरक्षक के रूप में ही देखा था.
दादा-दादी साथ रहते थे और उनके सामने मुझे लाड़ जताना तो दूर रहा, वे मुझे गोद में लेने से भी हिचकिचाते थे.”
“हां, हम पुराने लोगों के कुछ ऐसे ही संस्कार थे, पर इसका यह मतलब नहीं कि वे तुझे प्यार नहीं करते थे. मैंने बताया न, तुझसे असीम स्नेह के मारे ही तो उन्होंने दूसरी शादी नहीं की थी. और यह उन्होंने किसी को जताया भी नहीं, पर किन्हीं भावुक पलों में मुझे बता बैठे थे.”
“जानता हूं. वे मुझे हॉस्टल भी नहीं भेजना चाहते थे, पर जहां उनका ट्रांसफर हुआ, वह नक्सली एरिया था. वहां मेरी जान को ख़तरा था. पापा चौबीस घंटे मेरी निगरानी नहीं रख सकते थे, इसलिए उन्होंने मुझे बोर्डिंग में डलवा दिया. मुझे विदेश भेजने के लिए भी उन्हें अपना मन कड़ा करना पड़ा था. ख़ुद उन्हीं के शब्दों में कि “मैं बेटे की उन्नति की राह में रोड़ा नहीं बनना चाहता था. नाते-रिश्तेदार, दोस्त कितना भी मुझे उसे रोकने को कहें, पर मैं उसे कभी कुछ करने से नहीं रोकूंगा. कोई किसी को रोक भी नहीं सकता है. निर्मला मुझे अकेला छोड़कर चली गई. क्या मैं उसे रोक पाया? कल मैं बेटे को अकेला छोड़कर चला जाऊंगा, तो क्या वह मुझे रोक पाएगा? कहां रोक पाया मौसी मैं उन्हें? काश! उन्होंने जीते जी मुझसे यह सब शेयर किया होता.”
“तो फिर तुम्हें ये सब बातें किसने बताईं? जीजाजी का ऐसा कौन राज़दार था, जिससे वे दिल की ये सब बातें शेयर करते थे?” मैं आश्चर्यचकित थी.
“उनकी कलम! जिससे वे कुछ नहीं छुपाते थे. मैंने आपको बताया था न कि उनकी कहानियों का संकलन मैंने अपने बैग में डाल लिया था. लंबी फ्लाइट थी. मैंने सोचा अमेरिका पहुंचकर तो मैं फिर काम में व्यस्त हो जाऊंगा. इस क़िताब को रास्ते में ही पढ़ लेता हूं. मैंने एक बार पढ़ना शुरू किया, तो खाना-पीना, सोना सब भूल गया.”
“क्यों? ऐसा क्या था उसमें?” मैंने उत्सुकता के साथ पूछा. ख़ुद पर ग़ुस्सा भी आ रहा था कि मैंने वह क़िताब क्यों नहीं पढ़ी?
“मौसी, पापा के तटस्थ व्यवहार से मैं आज तक यही समझता आ रहा था कि पापा की ज़िंदगी में मेरा कोई ख़ास स्थान नहीं है.
मेरे उनके पास होने, न होने से उन्हें कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ता. लेकिन मेरी हैरानी की सीमा नहीं थी. उनकी हर कहानी का कथानक मेरे ही इर्द-गिर्द घूम रहा था. हर कहानी में पात्रों के नाम अलग-अलग थे, पर मैं भलीभांति समझ रहा था कि हर कहानी का मुख्य पात्र मैं ही हूं. हर कहानी चीख-चीखकर बता रही थी कि पापा ज़िंदगीभर मेरे अलावा न कुछ देख पाए, न कुछ सुन पाए और न ही कुछ समझ पाए.
आप जब वे कहानियां पढ़ेंगी, तो आपको मेरी बात की सच्चाई का एहसास होगा. मैं हैरान हूं कि कोई इंसान इतना दूर रहते हुए भी किसी और की ज़िंदगी से इस हद तक कैसे प्रभावित हो सकता है? शायद अपनी हर सांस के साथ वे मेरे ही बारे में सोचते थे. अमेरिका पहुंचने तक मैं पूरी तरह टूट चुका था, क्योंकि उनकी हर कहानी ने मुझे उनसे और गहराई से जोड़ दिया था. काश! उन्होंने एक बार, स़िर्फ एक बार मुझसे अपनी भावनाएं शेयर की होतीं, तो मैं उन्हें अकेला कभी नहीं छोड़ता.”
“हूं.” मैं ग़म व सोच में डूब गई थी. क्या वाक़ई बच्चों से संवाद बनाए रखना इतना ज़रूरी है?
“ग़लती मेरी भी थी मौसी. आज मुझे अफ़सोस होता है कि मैंने उनकी मूक भाषा को कभी पढ़ने का प्रयास नहीं किया. यदि ये कहानियां पहले पढ़ ली होतीं, तो मैं बहुत पहले अपने प्रति उनके अटूट प्रेम व संवेदनाओं को समझ जाता.”
“हूं, यह भी है.” मैंने सहमति में गर्दन हिलाई.
“आहना अभी छोटी है. पापा की कहानियों को पढ़ने-समझने जितनी बुद्धि अभी उसमें नहीं है, पर मैं चाहता हूं कि बड़ी होकर वह न केवल ये कहानियां पढ़े-समझे, बल्कि रिश्तों की गहराई को भी महसूस करे. मेरे और पापा के रिश्ते में अनजाने ही जो दूरियां और ग़लतफ़हमियां पनप गई थीं, वे मेरे और मेरी संतान के बीच कभी न पनपने पाएं. और यह तभी संभव है, जब मैं अपनी जड़ों से जुड़ा रहूं. अपने नवांकुरों को अपने से जुड़ा रखने के लिए एक पौधे को पहले अपनी जड़ों से जुड़ा रहना ज़रूरी है और मेरी जड़ें यहां भारत में हैं. देर तो अवश्य हो गई है, पर शायद अपने इस छोटे से क़दम से पापा की आत्मा को कुछ शांति पहुंचा सकूं.” पराग ने अपनी बात समाप्त की, तो उसके साथ मेरी आंखें भी डबडबा उठीं.
“मौसीजी का पेट बातों से ही भरने का इरादा तो नहीं कर लिया आपने? मैंने डाइनिंग टेबल पर चाय-नाश्ता लगा दिया है.” मीता ने कहा. इतनी देर से एक ही पोज़ीशन में बैठे रहने से मेरे घुटने अकड़ गए थे. यकायक उठकर चलने का प्रयास किया, तो लड़खड़ा गई. पराग एक हाथ से मुझे सहारा देते हुए व दूसरे हाथ से आहना की उंगली को थामे डाइनिंग टेबल की ओर बढ़ लिया.
मीता आहना की प्लेट में नाश्ता परोसने लगी, तो पराग मेरे लिए चाय तैयार करने लगा. मैं मुग्ध भाव से दांपत्य के उस पौधे को जड़ों से जुड़े रहकर अपने नवांकुर को थामे ऊपर की ओर बढ़ते देख रही थी.
शैली माथुर
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