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कहानी- दादी डॉट कॉम (Story- Dadi Dot Com)

Hindi Short Story
इंटरनेट के असीम संसार में दादी, सास, सलाहकार, सहेली, लेखिका जैसी कितनी ही भूमिकाओं को निभाकर शारदा अब बहुत ही उत्साहित थीं. उन्हें अपना जीवन फिर से उद्देश्यपूर्ण लगने लगा. कितने ही लोग इंटरनेट के माध्यम से न केवल उनके परिवार के सदस्य जैसे बन गए थे, बल्कि सब आपस में भावनात्मक डोर से बंधे भी थे. कहां शारदा अपने को अकेला और निरर्थक महसूस करने लगी थीं और कहां अब उनको एक नया उत्साह मिल गया.
बेडरूम के एक कोने में मेज़ पर रखे कंप्यूटर पर शारदा मुस्कुराते हुए कुछ टाइप करती जा रही थीं. उनकी तन्मयता सहज ही बता रही थी कि वे जो भी काम कर रही हैं, उसे न केवल बहुत मनोयोग से कर रही हैं, बल्कि उन्हें इसमें आनंद भी आ रहा है. वहीं बेड पर लेटे अजय मुस्कुराकर बोले, “अरे भाई, शाम हो रही है. अब तो कंप्यूटर का पीछा छोड़ो. आज क्या चाय पिलाने का इरादा नहीं है?” कंप्यूटर पर टाइप करते हुए और बिना उनकी ओर देखे शारदा बोलीं, “ज़रा दस मिनट रुक जाइए. आज बहू दो दिन बाद ऑनलाइन हुई है. बात पूरी करके चाय बनाती हूं. आइए, अपने पोते की नई फ़ोटो तो देखिए. बहू कल चिंटू के फैंसी ड्रेस कॉम्पटीशन का वीडियो भी अपलोड करेगी.” पोते की नई फ़ोटो की बात सुनते ही अजय को जैसे नई ऊर्जा मिल गई. फुर्ती से चश्मा लगाकर कंप्यूटर के पास आ गए. “अरे वाह! क्या जंच रहा है अपना चिंटू. लग ही नहीं रहा है कि वो इतना दूर रह रहा है. वाह! क्या ज़माना आ गया है. हम लोगों के ज़माने में तो ये सब था ही नहीं, वरना...” “वरना क्या...? हम लोगों का ज़माना चला गया है क्या? आप बूढ़े हो रहे हैं, तो क्या मैं भी बूढ़ी हो गई हूं? मुझे इतना बूढ़ा न समझिए. मैं इसी ज़माने की हूं समझे. बस, वेबकैम और ले लूं, तो वीडियो चैट भी होने लगेगी.” शारदा ने अजय को छेड़ते हुए कहा, तो जाने क्यों अजय जवाब देने की बजाय बस शारदा को निहारते ही रह गए. शारदा कितनी उत्साहित, ऊर्जा से लबरेज़ लगने लगी है और शायद इससे ही उसका सौंदर्य भी कितना निखर आया है. युवावस्था में तो सभी सुंदर लगते ही हैं, पर जो लोग निराशा व अवसाद से परे, उत्साहित हो रचनात्मक कार्यों में लगे रहते हैं, तो वृद्धावस्था में भी उनका सौंदर्य आकर्षक होता है. अजय सोच रहे थे कि आज जब शारदा बड़ी सहजता से ऑनलाइन, फेसबुक, ईमेल, अपलोड, डाउनलोड, चैटिंग जैसे शब्दों का प्रयोग करती है, तो लगता ही नहीं है कि वो हाउसवाइफ़ है और वे उप निदेशक जैसे पद से सेवानिवृत्त होकर भी इन सबसे दूर हैं. अजय को यह भी याद था कि कुछ ही दिन पहले यही शारदा कितनी थकी-थकी, बोझिल, बीमार और निरुत्साहित-सी रहने लगी थी. जीवन के कठिन समय में अजय के हताश होने पर भी शारदा न केवल अपना धैर्य बनाए रहती, बल्कि पूरे परिवार का संबल बनी रहती थी. उसी शारदा के व्यक्तित्व के विपरीत जाने क्यों लगने लगा था, जैसे वो जीवन जी नहीं रही, बल्कि ढो रही हो. आज शारदा को यूं तन्मय और आनंदित देखकर अजय का मन उन्हें डिस्टर्ब करने को न हुआ. वे बोले, “ऐसा करो तुम बहू से चैटिंग करो, आज चाय मैं बनाऊंगा.” “क्या? आप मेरे लिए चाय बनाएंगे?” शारदा के गालों पर सोलह वर्षीया किशोरी-सी लालिमा छा गई. “तो क्या हुआ. तुम बरसों से चाय बना रही हो, तो क्या एक दिन मैं नहीं बना सकता? रिटायरमेंट के बाद इतनी सेवा तो कर ही सकता हूं. चाय पीकर तो देखना, तुम्हारा शागिर्द इतनी भी ख़राब चाय नहीं बनाएगा.” अजय की वाणी में गहरा प्रेम उमड़ आया था. अजय को याद आने लगा कि संपूर्ण वैवाहिक जीवनकाल में पिछले एक साल के अलावा शारदा शायद ही कभी उदास रही हो और वे अनायास ही उन बीते दिनों में खो गए. अजय ने अकाउंटेन्ट की नौकरी शुरू ही की थी कि कुछ दिन बाद शारदा उनकी जीवनसंगिनी बन कर आई. एमए, बीएड शारदा नौकरी करने के पक्ष में न थी. उनका विचार था कि शिक्षित होने का अर्थ यह नहीं है कि नौकरी करना अनिवार्य हो या गृहिणी का जीवन अर्थहीन-सा लगे. शिक्षित व्यक्ति घर-गृहस्थी संभाले या खेती-बाड़ी ही क्यों न करे, पर जीवन में जो भी करे उसे बेहतर तरी़के से कर पाना ही शिक्षा की सार्थकता है. शारदा घर-परिवार सब कुछ इतना बख़ूबी संभाले हुए थीं कि घरेलू उत्तरदायित्वों के मामले में अजय निश्‍चिंत हो गए थे. दोनों बच्चों यानी रोहित और ऋचा को पढ़ाने, होमवर्क करवाने के साथ ही शारदा उनको बचपन से गढ़ती भी जा रही थीं. शिक्षा घर से ही आरंभ होती है, इसे शारदा ने अपनी कुशलता से सिद्ध भी किया. आज रोहित और ऋचा दोनों ही करियर बनाकर शादी करके मुंबई और बैंगलुरू में सेटल हो गए हैं. पिछले वर्ष उप निदेशक पद से सेवानिवृत्त होकर अजय व शारदा लखनऊ के अपने मकान में रहने लगे. बहिर्मुखी प्रवृत्ति के अजय का मन पढ़ने-लिखने से अधिक लोगों से मेलजोल में लगता, इसलिए उन्होंने इसी के अनुरूप अपने को ढाल लिया. सुबह हमउम्र साथियों के साथ सैर कर वे लोग पार्क में योग करते. शेयर मार्केट में रुचि के साथ ही अकाउंट्स विशेषज्ञ होने के कारण वे बाकी मित्रों से अधिक जानकारी रखते थे. ये लोग एक शेयर ब्रोकर के यहां एकत्र होते, जहां शेयरों की ख़रीद-फ़रोख्त के साथ ही निवेश, देश के आर्थिक हालात, राजनीति आदि पर भी चर्चा होती. अजय वहां से वापस आकर शारदा के साथ लंच करते और शाम को फिर पार्क चले जाते. वापस आकर शारदा से बातें करते, फिर डिनर करके सो जाते. अजय तो ख़ूब मगन रहने लगे, पर शारदा के लिए यहां समय काटना कुछ कठिन हो गया था. पत्र-पत्रिकाएं, पुस्तकें ही शारदा की साथी थीं, लेकिन वे कितना पढ़तीं? सेवानिवृत्ति से पहले वे लोग दस साल एक कॉलोनी में रहे थे. टीवी देखने, इधर-उधर का प्रपंच करने या मात्र साड़ी-गहनों की चर्चा करनेवाली महिलाओं से उनकी अधिक न बनती. शारदा ने अपने जैसी जागरूक महिलाओं का क्लब बना लिया था. ये लोग गोष्ठी आयोजित करतीं, जिनमें साहित्यिक व सामाजिक विषयों पर चर्चा तो होती ही, संगीत की महफ़िल भी जमती. इससे वहां कितना अपनापन लगता था, लेकिन यहां तो वो जैसे अकेली-सी पड़ गईं. इन महानगरों की पॉश कॉलोनियों की यही तो विडंबना है. त्योहारों के अलावा आप अपने पड़ोसी तक से मिलने को तरस जाएं. सब अपने-अपने दायरों में जैसे कैद रहना ही पसंद करते. शारदा एक-दो बार पार्क गई भी तो पाया कि वहां महिलाएं कम ही आती हैं. धीरे-धीरे शारदा को अकेलापन घेरने लगा. सच में वृद्धावस्था का मनोविज्ञान कितना अलग होता है. हार्मोंस के बदलाव और शारीरिक परिवर्तनों से व्यक्ति का स्वभाव न चाहते हुए भी बदल जाता है. जिस शारदा ने अपने बच्चों के जीवन को एक नई दिशा दी थी, आज वही स्वयं को जैसे दिशाहीन महसूस करने लगीं. उन्हें लगता पति और बच्चों के प्रति अपना दायित्व बख़ूबी निभाकर वे जीवन का उद्देश्य पूर्ण कर चुकी हैं. अक्सर उन्हें व्यर्थता का बोध-सा घेर लेता, तो कभी उन्हें अपना रिक्त जीवन निरुद्देश्य लगने लगता. कभी उन्हें बेटे-बेटी की याद आती, तो कभी नाती-पोतों से मिलने को मन तरस जाता. एक-दो बार वे लोग बेटे या बेटी के यहां गए भी. ऐसा नहीं है कि वहां ज़रा भी शिकायत का मौक़ा मिला हो, पर शारदा-अजय को ही अपने घर की याद सताने लगती. शारदा की समस्या सुनकर कुछ दिन पहले रोहित पत्नी अनुष्का और दस वर्षीय बेटे चिंटू के साथ आए थे. रात में रोहित ने कहा, “मुझे लगता है कि मां की यह समस्या अकेलेपन के कारण ही है. देखो, पापा तो अपने सर्कल में कितने बिज़ी व ख़ुश रहते हैं, पर मां अकेली-सी हो गई हैं. “यही तो मैं भी सोच रही थी, पर किया क्या जाए? वे हमारे साथ रह नहीं पाते और हम लोग भी यहां नहीं रह सकते. कुछ तो रास्ता निकालना ही पड़ेगा.” अनुष्का बोली. अपने दादा-दादी से चिंटू को बहुत अधिक लगाव था, इसलिए वो भी चुपचाप उन लोगों की बातें सुन रहा था और मन ही मन चिंतित था. सुबह नाश्ते के समय रोहित बोला, “मां, तुम कोई किटी पार्टी ज्वॉइन कर लो.” “अरे नहीं बेटा, तुम तो जानते ही हो कि मैं ऐसे लोगों के साथ समय नहीं बिता सकती. तुम बेकार परेशान हो रहे हो. मुझे कोई समस्या नहीं है.” तब तक चिंटू बोला, “दादी मां, आप इंटरनेट ले लो. उसमें आप बिज़ी भी रहोगी और हम लोगों से रोज़ बातें भी कर सकोगी.” चिंटू की बात सुनकर रोहित और अनुष्का जैसे उछल पड़े. ये तो उन लोगों ने सोचा ही नहीं था. हालांकि शारदा बोलीं, “अरे, इस उम्र में अब कहां कंप्यूटर सीखूंगी.” पर रोहित बोला, “मां, क्या मैं तुमको जानता नहीं हूं. एक दिन में सब सीख जाओगी.” उसी दिन उन लोगों ने नया कंप्यूटर लाकर शारदा के बेडरूम में लगा दिया. सबसे अधिक उत्साहित चिंटू दादी को समझाता जा रहा था. वास्तव में शारदा ने कंप्यूटर की मूलभूत बातें उसी दिन सीख लीं. फिर क्या था, उन्हें जैसे नए पंख मिल गए और उन्होंने इंटरनेट के आकाश का कोना-कोना खंगालना शुरू कर दिया. उन लोगों के मुंबई जाने के बाद शुरुआत तो अनुष्का और चिंटू के साथ चैटिंग से हुई, पर कुछ अनुष्का का मार्गदर्शन और कुछ शारदा की कुशलता और उत्साह कि उन्होंने पहले ब्लॉगिंग सीखी, फिर फेसबुक पर अपना प्रोफ़ाइल भी बना लिया और फिर क्या था, उन्होंने अपनी व्यावहारिकता और अनुभवों को दिल खोलकर नई पीढ़ी में बांटना शुरू किया, तो नई पीढ़ी ने भी उन्हें हाथोंहाथ लिया. उनके अंदर छिपी लेखिका को अवसर मिला, तो उन्होंने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा. ‘दादी-मां’ और ‘घर-गृहस्थी’ नाम के उनके ब्लॉग कुछ ही समय में ब्लॉग जगत में सुपरहिट हो गए. पारंपरिक व्यंजनों की विधियां और त्योहारों में भुलाए जा चुके रीति-रिवाज़ों के बारे में लिखे उनके ब्लॉग इतने लोकप्रिय होंगे, शारदा ने कभी सोचा भी न था. आजकल के एकल परिवारों में शिशुओं की रोज़मर्रा की छोटी-मोटी समस्याओं का हल आजकल की अनुभवहीन युवा मांओं को इतनी सहजता से भला और कहां मिलता? इन ब्लॉग्स के माध्यम से शारदा न केवल शिशुओं को लालन-पालन से संबंधित अनूठे टिप्स देतीं, बल्कि उनके आज़माए हुए घरेलू नुस्ख़ों ने तो जाने कितनी लड़कियों की परेशानियों को चुटकियों में हल कर दिया था. उनके ब्लॉग न केवल घर-परिवार के लिए मददगार होते, बल्कि कितने ही लोग मेल भेजकर उनसे निःसंकोच व्यक्तिगत समस्याओं पर सलाह भी लेते. साथ ही शारदा ़फेसबुक के प्रोफ़ाइल के बहाने किशोरियों से गृहिणियों तक सैकड़ों लोग उनसे जुड़ गए थे. इंटरनेट के असीम संसार में दादी, सास, सलाहकार, सहेली, लेखिका जैसी कितनी ही भूमिकाओं को निभाकर शारदा अब बहुत ही उत्साहित थीं. उन्हें अपना जीवन फिर से उद्देश्यपूर्ण लगने लगा. कितने ही लोग इंटरनेट के माध्यम से न केवल उनके परिवार के सदस्य जैसे बन गए थे, बल्कि सब आपस में भावनात्मक डोर से बंधे भी थे. कहां शारदा अपने को अकेला और निरर्थक महसूस करने लगी थीं और कहां अब उनको एक नया उत्साह मिल गया. “कहां खोई हैं आप! लीजिए बंदा चाय लेकर हाज़िर है.” अजय का स्वर कानों में पड़ा, तो शारदा की भी तन्मयता भंग हुई. तभी शारदा अजय से बोलीं, “सुनिए, आप भी तो कितनी अच्छी फ़ोटोग्राफ़ी करते थे. आपके पिछले जन्मदिन पर रोहित ने जो डिजिटल कैमरा दिया था, उसे तो आप भूल ही गए. उसे निकालकर कुछ नए फ़ोटो खींचिए, फिर हम लोग मिलकर उन फ़ोटो को इंटरनेट में प्रयोग करेंगे.” शारदा की बात सुनकर अजय बोले, “आपका हुक्म सर आंखों पर. बंदा चाय के बाद इंटरनेट की दुनिया में भी आपका शागिर्द बन जाएगा.” और दोनों ने मिलकर ज़ोर का ठहाका लगाया.
ANOOP SRIVASTAVA     अनूप श्रीवास्तव
 
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