पुरुष कितना हिंसक है. वह चाहे पढ़ा-लिखा हो या गंवार क्या फ़र्क़ पड़ता है. नारी कुचले और मसले जाने के लिए जन्मी है. पुरुष अपने पौरुष के सारे जौहर अपनी पत्नी पर ही दर्शाता है. मांग में सिन्दूर, माथे पर बिंदी, हाथ में कंगना और पैरों में बिछुए का नाम ही पत्नी है.
चंदा को गुमसुम चुपचाप काम करते देख कर मुझे बड़ा अजीब सा लगा. चंदा को मेरे यहां काम करते हुए दो साल हो गए. जब भी काम करने आती सबसे पहले कहती, "बीवीजी नमस्ते."
और उसके बाद पूरे शहर की झूठी-सच्ची ख़बरें चटखारे ले लेकर सुनाया करती. अभ्यस्त हाथ काम करते रहते और चंदा की ज़ुबान चलती रहती. बच्चे चिढ़ाने के लिए उसे अख़बार कहा करते. जिस दिन चंदा काम पर न आती मुझे बड़ा खालीपन सा लगता. वैसे ऐसा बहुत ही कम और किसी ख़ास वजह से ही होता था.
चंदा की वाचालता शुरू-शुरू में मुझे बड़ी अखरती थी. सिर में दर्द होने लगता था. वैसे भी मेरा अपना स्वभाव तटस्थ है. फ़ालतू की बातें कहना और सुनना मुझे कतई पसंद न था.
एक दिन मैंने चंदा को झिड़क दिया, "क्या बेसिर पैर की ले बैठी. चुपचाप काम किया कर. ज़्यादा बातें सुनकर मेरा सिर दुखने लगता है."
मेरी बातें सुनकर चंदा हतप्रभ रह गई पर मुझे उसका उत्तर सुनकर ग्लानि होने लगी. नाहक चंदा को डांटा, चंदा ने कहा था, "बीवीजी, हम ग़रीबों का यही तो साधन है मन बहलाने का. सारा दिन खटते रहते हैं. हंसते-बोलते थकान भी नहीं लगती. हमें क्या मालूम नहीं कि हम जो कह रहे हैं वह कितना सच है. हमारे पास न टैम है न पैसा कि सनीमा या सर्कस देख सकें.”
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मैंने सोचा चंदा ठीक कह रही है. मुझे नहीं टोकना चाहिए था. बेचारी अपने मन की कह लेती है. मेरा क्या जाता है? बस इसके बाद मैंने कभी चंदा को नहीं टोका. धीरे-धीरे मुझे आदत पड़ गई. वह बोलती रहती और मैं सुनती रहती. मात्र कहानी की तरह हुंकारी भर कर.
जब भी मैं उसे घर में दिखलाई न पड़ती बच्चों से पूछकर ही दम लेती कि बीवीजी कहां गई हैं. पर आज न उसने नमस्ते की और न कोई क़िस्सा सुनाया. मुझे भी देखकर अनदेखा कर दिया. क्या हुआ चंदा को? मैं अपनी उत्सुकता दबा न सकी. आख़िर पूछ ही बैठी, "क्या हुआ चंदा? आज तू इतनी बदल कैसे गई?"
चंदा ने मुंह ऊपर उठाकर मेरी तरफ़ देखा. उसकी आंखों से झर-झर आंसू बह रहे थे. आंखे गुड़हल के फूल जैसी हो रही थीं. मुंह पर खरोंचों के निशान और सूनी कलाइयां, फटी धोती, उलझे बाल यह तो अपनी चंदा की सूरत नहीं है.
"ये क्या हालत बना ली है? किसी से झगड़कर आ रही है क्या?"
चंदा के सब्र का बांध जैसे टूट गया, "किस से लड़ेगी बीवीजी? है ही कौन? बस एक वही तो है जिसके लिए सारा दिन खटती हूं. आप लोगों के यहां काम करने आती हूं. ज़रा ठीक कपड़े पहनकर सलीके से आती हूं. औरों की तरह मेरे कपड़ों और शरीर से बदबू नहीं आती. बस इसी बात पर उसने मुझे बहुत मारा. मुझ पर शक किया. कहता है इश्क़ लड़ाने जाती है."
चंदा की बातों ने मुझे भावुक बना दिया. मैंने चंदा को उठाया. चुप कराया. चाय के साथ दो रोटी खाने को दी. पर सांत्वना के नाम पर मेरे पास जैसे शब्द समाप्त होते जा रहे थे. चंदा की सूजी कलाइयों को देख मैंने कहा, "चंदा, खाली कलाइयां अच्छी नहीं लगती. ले मैं चूड़ी लाकर देती हूं पहन लें."
चूड़ियों का डिब्बा खोलकर मैं चूड़ियां छांटने लगी. हाथ चूड़ियां छांट रहे थे और मन विगत में दौड़ा जा रहा था.
ऐसी ही एक रात शायद जेठ का महीना था हम सब बच्चों को लेकर ऊपर छत पर जा लेटे थे. ठंडी हवा के शीतल झोंकों का स्पर्श पाकर बच्चे सो गए थे. मुझे भी नींद आने लगी थी, पर तभी नरेन्द्र ने मुझे अन्दर कमरे में चलने का इशारा किया.
"तुम पहुंचो मैं अभी आई." मैंने कह तो दिया, पर ठंडी हवा के स्पर्श ने मुझे नींद के आगोश में सुला दिया. कब तक सोती रही पता ही नहीं. आंखें खुली तो देखा आकाश गहरा पीला हो रहा है. हवा की सांय सांय बढ़ रही है. शायद आंधी आने वाली थी.
पास की चारपाई पर देखा. खाली पड़ी थी. नरेन्द्र वहां नहीं थे. कमरे की बत्ती जल रही थी. बच्चों को उठाकर अंदर ले चलने के लिए मैं कमरे में नरेन्द्र को बुलाने जा पहुंची. नरेन्द्र दीवार की तरफ़ मुंह किए लेटे थे. मैंने उन्हें झिझोड़ते हुए कहा, "देखो, बहुत तेज़ आंधी आने वाली हैं और तुम यहां आकर सो गए हो."
प्रत्युत्तर में जो कुछ हुआ उसे सोचकर आज भी रोमांचित हो जाती हूं. काश! उस समय धरती फट जाती और मैं उसमें समा जाती या फांसी का फंदा डालकर आत्महत्या कर लेती. पर कुछ भी न कर पाई. बस एक घाव दिल में लग गया.
मैं आहिस्ते-आहिस्ते चलती उसकी हथेलियों से अपनी हथेलियों का मिलान करने लगी. कोई फ़र्क़ नहीं. हर नारी की एक जैसी हथेली है. एक जैसे कठघरे हैं. मेरी तरह चंदा भी भूल जाएगी...
"अब आई है हरामजादी." कहने के साथ ही एक भरपूर पैर का प्रहार मेरे जबड़े पर पड़ा. मेरी आंखों के आगे तारे नाच उठे. सिर घूम गया. खून का फौव्वारा मुंह से बह निकला. नरेन्द्र किसी वहशी की तरह मुझे घूरे जा रहे थे.
क्षितिज पर छाई पीली आंधी जैसे मेरे भाग्य की आंधी बन गई. तूफ़ान मेरे ऊपर आया था. जिसके पास मैं तूफ़ान से बचने के लिए शरण लेने गई थी, वही मेरे लिए तूफ़ान बन गया था. उस समय शायद मेरे अन्दर की नारी मर गई थी. मैं न रोई थी, न चिल्लाई थी. क्योंकि लाशें रोया नहीं करतीं. वे केवल लाशें होती हैं. मैं भी ज़िंदा लाश बन गई. दिल में एक नासूर बन गया.
अगली सुबह सूजा हुआ मुंह और खून के धब्बे देखकर लोगों ने पूछा, "सीढ़ियों से अंधेरे में फिसल गई."
सुनकर सब चुप हो गए पर मैं उजाले से फिसलकर अंधेरें में आ गई थी. यह मेरे जीवन का सच बन गया था. मुझे लगा था पत्नी पत्नी नहीं बल्कि एक वेश्या है, शायद उससे भी गई गुज़री. वह एक रबर का बेजान खिलौना है जैसे चाहो वैसे खेल लो. इंकार की अवस्था में शरीर का क्षत-विक्षत होना अवश्यंभावी.
पुरुष कितना हिंसक है. वह चाहे पढ़ा-लिखा हो या गंवार क्या फ़र्क़ पड़ता है. नारी कुचले और मसले जाने के लिए जन्मी है. पुरुष अपने पौरुष के सारे जौहर अपनी पत्नी पर ही दर्शाता है. मांग में सिन्दूर, माथे पर बिंदी, हाथ में कंगना और पैरों में बिछुए का नाम ही पत्नी है.
नारी 'इतनी असहाय क्यों है? इस हिंसा का बदला क्यों नहीं ले सकती? अपने ऊपर उठते हाथों को रोक क्यों नहीं सकती? वह कब तक सहेगी यह सब?
आवेश के कारण जाने कब-कैसे हाथ में पकड़ी चूड़ियों को मैंने मुट्ठी में भर भींच डाला. चूड़ियां हाथों में ही टूट गईं और हथेली लहू-लुहान हो गई. मेरे मुंह से निकली चित्कार को सुन चंदा दौड़ी आई. मेरी हथेलियां देखकर चोली "ये क्या हुआ बीवीजी?"
चंदा पानी लाकर मेरी हथेलियां साफ़ करने लगी, "कुछ नहीं हुआ चंदा. बस मैं एक कठघरे में खड़ी हो गई थी. " चंदा शायद नहीं समझ पाई. मैं आहिस्ते-आहिस्ते चलती उसकी हथेलियों से अपनी हथेलियों का मिलान करने लगी. कोई फ़र्क़ नहीं, हर औरत की एक जैसी हथेली है. एक जैसे कठघरे हैं. मेरी तरह चंदा भी भूल जाएगी. पीड़ा के अतिरेक को अपने अंदर समेट लेने के लिए मैं अपने होंठ तेज़ी से बंद कर लेती हूं. दूसरे हाथ में चंदा की कलाई के लिए रंगबिरंगी चूड़ियां है. मैं हाथ बढ़ा देती हूं. चंदा थाम लेती है. चंदा की कलाइयां फिर चमक उठती है.
- सुधा गोयल

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