स्वभाव से शंकालु केवल पुरुष ही नहीं, बल्कि स्त्रियां भी होती हैं. लेकिन क्या आप जानते हैं कि अत्यधिक शंकालु होना कोई स्वभाव नहीं, बल्कि एक मानसिक बीमारी है? इस मानसिक बीमारी को पैरानॉयड पर्सनैलिटी डिसऑर्डर कहा जाता है.

हाल ही में कुर्ला के नेहरू नगर में रहने वाली एक गृहिणी कुसुम लक्ष्मण राव ने अपने पति की लगातार शंका और मानसिक-शारीरिक प्रताड़ना से तंग आ कर आत्महत्या कर ली. उसका पति हर समय उसे शक की निगाह से देखता था और उसकी हर बात पर जांच-पड़ताल करता था. कुसुम उसकी काल्पनिक शंका का शिकार बन गई थी. रोज़ के झगड़ों, तानों और मारपीट से परेशान हो कर उसने आख़िरकार अपनी जान दे दी.
कुसुम जैसी अनेक महिलाएं हैं, जो ऐसे हालात में जीवन समाप्त कर देती हैं. अख़बारों में ऐसे समाचार अक्सर देखने को मिलते रहते हैं. शक की इस मानसिक बीमारी पैरानॉयड पर्सनैलिटी डिसऑर्डर से पीड़ित व्यक्ति को लगातार लगता रहता है कि उसके संबंधों में कोई तीसरा व्यक्ति मौजूद है. वह अपने ही घर में असुरक्षित महसूस करता है और हर बात में शंका करता है. परिणामस्वरूप वह सामने वाले पर विश्वास नहीं करता. उसकी चीज़ें खंगालता है और उसके बारे में नकारात्मक सोचता रहता है.
रिश्तों में गहराती दरार...
ऐसे व्यवहार से रिश्तों में दरार पड़ना स्वाभाविक है. अगर यह स्थिति लंबे समय तक बनी रहे तो यह दरार गहरी खाई का रूप ले लेती है. अगर समझाने से बात न बने तो ऐसे व्यक्ति को साइकोथेरपिस्ट के पास ले जाना ज़रूरी है.
शंकालु व्यक्ति का मानसिक संसार
साइकोथेरपिस्ट बताते हैं कि पैरानॉयड डिसऑर्डर वाला व्यक्ति अपने मन में दूसरों की एक काल्पनिक छवि बना लेता है और उसी के अनुसार व्यवहार करता है. सामान्य इंसान में थोड़ी बहुत शंका या वहम स्वाभाविक है, लेकिन इस बीमारी से पीड़ित व्यक्ति के दिमाग़ में तो लगातार शक का कीड़ा रेंगता रहता है.
पति या पत्नी में शक की बीमारी
अगर पति इस बीमारी का शिकार हो तो उसे लगता है कि उसकी पत्नी किसी और से संबंध रखती है. वह उसकी हर चीज़ की तलाशी लेता है, उसके व्यवहार को ग़लत समझता है और यह मानता है कि पत्नी उसके ख़िलाफ़ साजिश कर रही है.
इसी तरह अगर कोई मां अपने बच्चे पर शक करती है तो उसके स्कूल बैग, दराज या फोन खंगालती है. हर वक़्त पूछती है कि वह कहां गया था, किससे मिला था तो संभव है कि वह भी इस मानसिक रोग से पीड़ित हो.

समाज में बिगड़ता व्यवहार
ऐसे लोगों की सामाजिक स्थिति बेहद दयनीय हो जाती है. उनके सवाल-जवाब और बहसें इतनी लंबी चलती हैं कि परिवार और मित्र दोनों ही उनसे दूरी बना लेते हैं. लोग सोचते हैं कि इससे बहस में कौन पड़े? ऐसे व्यक्ति हर बात में ख़ुद को सही साबित करने की कोशिश करते हैं और अपनी ग़लती दूसरों पर डाल देते हैं.
बीमारी के कारण
विशेषज्ञ इस रोग को कुछ हद तक आनुवांशिक मानते हैं. कुछ शोध बताते हैं कि जिन परिवारों में सिजोफ्रेनिया के रोगी थे, वहां यह बीमारी ज़्यादा देखी गई है. इसके अलावा बायोकेमिकल असंतुलन और मानसिक तनाव भी इसके कारण हो सकते हैं। तनाव बढ़ने पर रोग के लक्षण तीव्र हो जाते हैं और व्यक्ति अस्थाई मानसिक असंतुलन की स्थिति में पहुंच सकता है.
रोग के दो चरण
* पहला चरण: व्यक्ति को लगता है कि लोग उसकी उपेक्षा कर रहे हैं, उसका नुक़सान करना चाहते हैं या उसके ख़िलाफ़ साजिश कर रहे हैं.
* दूसरा चरण: व्यक्ति ख़ुद को अत्यधिक महान समझने लगता है. उसे दूसरों से ईर्ष्या होती है, वह दूसरों पर अधिकार जमाना चाहता है और ख़ुद को निर्दोष मानता है. कई बार उसे लगता है कि वह ईश्वर द्वारा चुना गया श्रेष्ठ व्यक्ति है और लोग उससे जलते हैं.
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इलाज कैसे किया जाए?
इलाज के लिए सबसे पहले रोगी का व्यक्तिगत और पारिवारिक इतिहास जानना ज़रूरी है. साइको थेरपिस्ट और परिवार को पहले रोगी के मन में विश्वास जगाना होता है कि वह अकेला नहीं है, सब उससे प्यार करते हैं और उसकी परवाह करते हैं.
जब यह भरोसा पैदा हो जाता है, तब साइको थेरपी शुरू की जाती है. कुछ मामलों में एंटी-एंग्जायटी दवाएं भी दी जाती हैं.
इलाज में परिवार का सहयोग अत्यंत आवश्यक है. परिजनों को समझाया जाता है कि रोगी की हर हरकत उसकी बीमारी का परिणाम है,
इसलिए ग़ुस्सा करने की बजाय धैर्य रखें. उसकी बातें ध्यान से सुनें, भले ही वह बार-बार एक ही बात दोहराए, उसकी उपेक्षा न करें.
उसे बारबार 'ऐसा मत करो' जैसी बातें कहने से बचें.
साइको थेरपी और परिवार का स्नेहपूर्ण सहयोग, यही दो उपाय रोगी को इस मानसिक बीमारी से मुक्ति दिलाने में मददगार साबित हो सकते हैं.
- स्नेहा सिंह

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