गुबरेलेजी पसोपेश में पड़ गए. वह एक रिश्ता तोड़कर दूसरा जोड़ना नहीं चाहते थे. बच्चों की ख़ातिर ही तो उन्होंने अब तक अपने बारे में नहीं सोचा था. अप्पू को जब भी ज़रूरत पड़ी, वह उसके हर फ़ैसले में साथ खड़े थे. उसने अंतरजातीय विवाह किया, बावजूद उसके उन्होंने जाति बंधन की दीवारें खड़ी नहीं कीं. यह सही है कि एकाकीपन अब सहा नहीं जाता. अकेलापन काटने को दौड़ता है. घड़ी की सुइयां ठहरी हुई-सी प्रतीत होती हैं. सबसे बड़ी बात तो यह है कि कई बातें ऐसी होती हैं, कुछ दुख-दर्द ऐसे होते हैं, जिन्हें जीवनसाथी के साथ ही बांटा जा सकता है.
उनके नाम की पुकार लगते ही वे सकुचाते हुए स्टेज पर आए. पहले भी कई प्रतियोगिताओं में भाग लेने वे स्टेज पर गए थे. उस समय के रोमांच की बात कुछ अलग थी. लेकिन आज पैरों में कंपन था, चेहरे पर हल्की पसीने की बूंदें झलक आई थीं. घबराहट के कारण सीना धौंकनी के समान चल रहा था. माइक के पास आकर वे ठिठक गए. सामने की पंक्ति में बैठी अपनी बहन विमला की ओर देखा. उसने सिर हिलाकर उन्हें बोलने का इशारा किया, पर आवाज़ हलक से बाहर ही नहीं निकल पा रही थी. वे बहुत असहाय महसूस कर रहे थे अपने आपको. बैंक में उच्च अधिकारी के पद पर थे वे. उनकी रौबदार आवाज़ से सभी मातहत डरते थे, पर आज उनकी ख़ुद की आवाज़ घुटी जा रही थी.
आख़िरकार हकलाते हुए बोलने लगे, “मैं अशोक गुबरेले… निवासी ग्वालियर… आयु पचपन वर्ष… बैंक से वॉलेंटरी रिटायरमेंट… पेंशन बीस हज़ार… एक बेटा और एक बेटी… दोनों विवाहित हैं… बेटा विदेश में और बेटी ललितपुर में… स्वयं का फ्लैट ग्वालियर में… मैं डायबिटिक हूं…”
अपने बारे में बताकर गुबरेलेजी स्टेज से उतरकर अपनी कुर्सी पर आकर बैठ गए. उन्हें लग रहा था कि ज़िंदगी की रील रिवर्स हो गई है. विवाह के लिए स्वयं का परिचय देना, वो भी सबके सामने कितना मुश्किल होता है.
पुरुषों का परिचय समाप्त हो गया था. अब महिलाओं का परिचय शुरू हो गया. एक-एक करके महिलाएं आ रही थीं और अपना परिचय देकर जा रही थीं. एक नाम अनाउंस हुआ- वंदना रावत… एक महिला अपने स्थान से उठी, लेकिन कुर्सी पकड़कर वहीं खड़ी हो गई. स्टेज तक जाने का उसमें साहस नहीं आ पा रहा था. वह फिर से बैठ गई. उसके साथ आई युवती ने उसे सहारा दिया और उसे स्टेज तक लेकर आई.
युवती माइक के पास आई और बोली, “ये मेरी मौसी हैं वंदना रावत… उम्र पचास वर्ष… बरेली में रहती थीं. पति और दो बेटे थे, जिनकी एक कार एक्सीडेंट में मृत्यु हो गई.”
तब व्यवस्थापक ने कहा, “कुछ उन्हें भी कहने दो…”
“कहां तक पढ़ी हैं आप?” व्यवस्थापक ने पूछा.
महिला ने हॉल में नज़र दौड़ाई. सब लोग उसे ही देख रहे थे. लाज की गठरी बनी वह कांपती आवाज़ में बोली, “मैं ग्रेजुएट हूं.”
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“कोई हॉबी?”
“संगीत.” अब तक वह सामान्य हो चली थी. अपनी बात जारी रखते हुए बोली, “दोस्त के रूप में हमसफ़र चाहिए, जो मेरे दुख को समझ सके, मेरा साथ दे सके… ब्लड प्रेशर हाई रहता है… सर्दी में सांस उखड़ती है…”
वृद्ध महिला-पुरुष परिचय सम्मेलन समाप्त हो गया. गुबरेलेजी और उनकी बहन स्टेज पर आनेवाली हर महिला को ध्यान से देख रहे थे. अभी तक ज़्यादातर महिलाएं सर्विस वाली ही आई थीं. हर महिला के जाते ही विमला आंखों से प्रश्न करती और हर बार गुबरेलेजी सिर हिलाकर नकारात्मक उत्तर दे देते. गुबरेलेजी की निगाहें किसी ज़रूरतमंद को ढूंढ़ रही थीं, जिसका जीवन वे संवार सकें.
वंदना के स्टेज पर आते ही वे उसका रूप देखकर ठगे से रह गए.
श्वेत वर्ण… कपोलों पर रक्तिम आभास… एक अनोखा तेज लिए हुए चेहरा… चौड़ा माथा… बड़ी-बड़ी हिरणी जैसी आंखें… जिन्हें देखकर गुबरेलेजी को अपनी दिवंगत पत्नी सुनीता की याद हो आई. जब वह बोल रही थी तो उसके शब्द कानों के रास्ते मन में जलतरंग-सी ध्वनि पैदा कर रहे थे. उन्हें लगा कि वंदना ही उनके योग्य रहेगी.
लौटते समय विमला ने पूछा, “भैया, आपको कौन अच्छी लगी?”
गुबरेलेजी विमला के पति नवीन की ओर मुख़ातिब होकर बोले, “तुम अपनी राय बताओ?”
नवीन बोले, “भैया, मुझको तो नंबर 11 अच्छी लगी… क्या नाम था? हां… वंदना?”
विमला हंसते हुए बोली, “रावत… हां, भैया मुझे भी वही पसंद है.”
गुबरेलेजी का चेहरा शर्म से गुलाबी हो चला था. वे धीरे-से बोले, “ठीक है, जैसा बहुमत हो.” पर जल्द ही बेटी अप्पू का ध्यान आते ही चेहरे पर परेशानी छा गई.
सम्मेलन से मिली पत्रिका में वंदना का पता मिल गया. फ़ोन पर मिलने का स्थान और समय तय किया गया. दोनों परिवारों के बीच बातें हुईं. कुछ समय गुबरेलेजी और वंदना ने साथ व्यतीत किया. एकांत पाते ही गुबरेलेेजी ने ध्यान से वंदना को देखा, वे निर्निमेश ताकते रह गए. सली़के से उसने साड़ी बांध रखी है. उसका साइड ़फेस देखकर तो वे और भी चौंक गए. हूबहू सुनीता जैसा चेहरा. वैसी ही कांति, वैसी ही शांति लिए… उन्होंने उसकी चुप्पी तोड़ने के लिए बात करना शुरू किया. वंदना के एक-एक शब्द गुबरेलेजी के ज़ेहन में उतरते जा रहे थे.
विवाह के लिए रविवार का मुहूर्त निकला. विमला ने अप्पू (अमिता) को फोन लगाया. हाल-समाचार लेने के बाद विमला ने अप्पू से कहा, “मैं सोचती हूं भैया विवाह कर लें तो अच्छा है. इस समय उन्हें एक हमसफ़र की सबसे अधिक ज़रूरत है.”
पापा की शादी की बात सुनकर अप्पू चौंक गई और बोली, “ऐसी भी क्या ज़रूरत पड़ गई? इतने साल गुज़ार दिए, अब कौन-सा पहाड़ टूट पड़ा है, जो इस उम्र में शादी करना चाहते हैं.”
अमिता को फिर से समझाते हुए विमला बोली, “भैया बहुत अकेलापन महसूस करते हैं, कोई उनकी देखभाल करनेवाला नहीं है. वैसे भी वह शुगर के मरीज़ हैं और इस बीमारी में जितनी देखभाल होनी चाहिए, वह तो कोई अपना ही कर सकता है. ऐसे में तुम्हें या मुझे किसी को भी इतनी फुर्सत कहां है कि उनकी देख-रेख कर सकें. इसलिए मैंने बहाने से भैया को जयपुर बुलाया है. यहां वृद्ध महिला-पुरुष का सम्मेलन था. हम लोगों के आग्रह करने पर भैया को एक महिला पसंद भी आई है. मुहूर्त के मुताबिक़ अगले रविवार को दोनों का गठजोड़ है.”
अमिता बौखलाकर बोली, “बुआजी, आप क्या कह रही हैं? भला इस उम्र में भी कोई शादी करता है क्या? अब तो भगवान का भजन करने का समय है. क्या इस उम्र में भी उन्हें पत्नी की आवश्यकता है?”
“देखो अप्पू, भैया बड़ी मुश्किल से माने हैं, तुम सहमत हो जाओगी, तो भैया का एकाकी जीवन समाप्त हो जाएगा. मैं व तुम दोनों ही उनकी देखभाल नहीं कर पाते, ऐसे में उन्हें एक साथी की ज़रूरत है, जो उनके अकेलेपन को भर सके.”
उधर से कोई आवाज़ नहीं आई.
अब तक गुबरेलेजी फोन के पास आ गए थे. विमला से रिसीवर लेकर अप्पू को समझाते हुए बोले, “बेटी, ग़ुस्सा थूक दो, जल्दी से परिवार सहित यहां चली आओ.”
दूसरी ओर से आवाज़ आई, “पापा, मैं आपसे बात नहीं करना चाहती. इस उम्र में शादी का शौक आया है आपको?” कहकर अप्पू ने फोन रख दिया.
गुबरेलेजी पसोपेश में पड़ गए. वह एक रिश्ता तोड़कर दूसरा जोड़ना नहीं चाहते थे. बच्चों की ख़ातिर ही तो उन्होंने अब तक अपने बारे में नहीं सोचा था. अप्पू को जब भी ज़रूरत पड़ी, वह उसके हर फ़ैसले में साथ खड़े थे. उसने अंतरजातीय विवाह किया, बावजूद उसके उन्होंने जाति बंधन की दीवारें खड़ी नहीं कीं. यह सही है कि एकाकीपन अब सहा नहीं जाता. अकेलापन काटने को दौड़ता है. घड़ी की सुइयां ठहरी हुई-सी प्रतीत होती हैं. सबसे बड़ी बात तो यह है कि कई बातें ऐसी होती हैं, कुछ दुख-दर्द ऐसे होते हैं, जिन्हें जीवनसाथी के साथ ही बांटा जा सकता है.
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कुछ देर तक वे हताश होकर बैठे रहे. उन्होंने हिम्मत जुटाई और अपने दोस्त जीवनलाल को फोन लगाकर गठजोड़ की ख़बर सुनाई. दूसरी तरफ़ एकदम सन्नाटा छा गया. गुबरेलेजी सोच रहे थे, जीवनलाल उन्हें बधाई देगा, तो वे कहेंगे, अब तू भी जल्दी से ख़ुशख़बरी सुनाना. लेकिन उसने भी रिसीवर रख दिया. उन्हें एक बार फिर से लगने लगा कि वे ग़लत फैसला ले रहे हैं. सब लोग क्या सोचेंगे? मेरा मख़ौल उड़ाएंगे. रात भर उनके मन में द्वंद्व चलता रहा.
सुबह जब वे घूमकर लौटे तो विमला किसी से फोन पर बात कर रही थी. विमला के चेहरे पर चिंता साफ़ झलक रही थी.
गुबरेलेजी के पूछने पर उसने बताया कि वंदना के घर से फोन था. वंदना के ससुरालवालों ने दो साल से उसकी कोई ख़बर नहीं ली, पर अब जैसे ही उन्हें पता चला है कि वंदना शादी कर रही है, उन लोगों ने उस पर दबाव बनाना शुरू कर दिया है. वे लोग नहीं चाहते कि वंदना शादी करे.
गुबरेलेजी नहीं चाहते थे कि इतनी विसंगतियों में शादी हो. उन्हें लग रहा था कि अब शादी नहीं होगी. इस विचार के साथ ही उनके मन का द्वंद्व भी ख़त्म हो गया.
शाम को वंदना संगीता के साथ उनके घर आई. वंदना के चेहरे पर चिंता साफ़ झलक रही थी. कुछ देर वातावरण में ख़ामोशी छाई रही. बात संगीता ने ही शुरू की. विमला की ओर देखते हुए वह बोली, “मौसीजी, आज सुबह से ही परेशान हैं. इनके ससुरालवालों को इनकी शादी की भनक लग गई. सुबह वहां से धमकी भरा फोन आया था.”
थोड़ी देर रुककर वह फिर बोली, “दरअसल इनके देवर इनसे शादी करना चाहते हैं, वे तलाक़शुदा हैं.”
विमला कुछ सोचते हुए बोली, “यह तो और भी अच्छी बात है. ये उसी कुटुंब में अपने आप को जल्दी एडजस्ट कर लेंगी.”
इस बार उत्तर वंदना ने दिया. बड़े ही संयत, किंतु सहमे स्वर उसके मुंह से निकले, “वो मुझे नहीं, मेरी संपत्ति हड़पना चाहते हैं. सुबह तो उन्होंने यही कहा जो कुछ तुम्हारे नाम है, हमारे नाम कर दो. फिर चाहे ब्याह रचाओ या किसी के भी साथ मुंह काला करो…”
एक सन्नाटा छा गया वहां. किसी को समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे.
चुप्पी फिर से वंदना ने तोड़ी, “देवर शराब पीते हैं और दूसरी महिलाओं से भी उनके नाजायज़ संबंध हैं, इसीलिए देवरानी ने तलाक़ ले लिया. दो वर्षों से किसी ने मेरी कोई खोज-ख़बर नहीं ली. मैं कैसी हूं? पति व बच्चों के अंतिम संस्कार में जो ख़र्चा हुआ था, वह भी मुझसे ही लिया था. यदि मायकेवालों ने साथ नहीं दिया होता तो मैं आज…” थोड़ा रुककर वह फिर बोली, “वहां जाकर मेरा दुख और बढ़ जाएगा और अगर शादी नहीं की तो मुझे और परेशान करेंगे. हो सकता है मुझे मरवा दें, फिर सारी जायदाद उनको मिल ही जाएगी.”
गुबरेलेजी को वंदना का बोलना अच्छा लग रहा था. अचानक वंदना ने गुबरेलेजी की ओर देखा. उन्हें अपनी ओर ताकता हुआ पाकर वह सकुचा गई. वंदना की आंखों में उन्हें अपने प्रति आकर्षण की गहराई दिखाई दी. उन्हें भी उससे जुड़ाव महसूस होने लगा. बातों से पता चला कि वंदना गुबरेलेजी से शादी करना चाहती है, लेकिन चूंकि गुबरेलेजी बच्चों के विरोध के कारण फ़ैसला नहीं ले पा रहे हैं, इसलिए समस्या का समाधान नहीं हो पाया.
रात को खाना खाते समय गुबरेलेजी ने विमला से कहा, “मैं कल वापस जा रहा हूं, अब क्या करना यहां रुककर?”
नवीन ने कहा, “अभी आप क्या करेंगे वहां जाकर?” तभी गुबरेलेजी के मोबाइल पर रिंग बजी. वे चौंक गए. विमला उनके चेहरे के भावों को पढ़ते हुए बोली, “किसका फोन है?”
“अरे, आज तो वरुण का फोन आया है.” गुबरेलेजी सहित सभी लोग आश्चर्यमिश्रित हर्षातिरेक में आ गए. गुबरेलेजी ने स्पीकर ऑन कर दिया. कॉल रिसीव करके उत्साहित होते हुए कहा, “बेटा, कैसे हो?”
इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं आया, बल्कि उनसे ही प्रश्न पूछा गया, “पापा, क्या आप शादी कर रहे हैं?”
वे अचकचा गए. क्या उत्तर दें? “तुम्हें किसने बताया? सात समंदर दूर मेरी बीमारी की ख़बर तो नहीं पहुंची, अलबत्ता शादी की ख़बर ज़रूर पहुंच गई.”
“अप्पू का फोन आया था.”
“क्या कहा अप्पू ने?”
उधर से झल्लाया हुआ वरुण बोला, “पापा, आप शादी न करें. इस उम्र में शोभा देगा क्या? देखिए, हम लोगों की भी इमेज का सवाल है?”
पश्चिमी सभ्यता में रचा-बसा उनका बेटा आज अच्छे-बुरे की वकालत कर रहा है.
“फिर आप समझते क्यों नहीं? प्रॉपर्टी का क्या होगा?” इस वाक्य ने उनके पैरों तले ज़मीन खिसका दी. अब उन्हें समझ आया कि वरुण क्यों ज़िद कर रहा था कि सब कुछ बेचकर उसके पास चले आओ.
गुबरेलेजी बेटे के मोह में सब कुछ बेचकर जाने को तैयार भी हो गए थे. अख़बार में विज्ञापन भी दे दिया था. उन्होंने ख़ुशी-ख़ुशी फोन करके बेटे को इसकी सूचना भी देनी चाही, पर बातों-बातों में पता लगा कि वो उन्हें अपने साथ नहीं, वरन् ‘सीनियर सिटीज़न हाउस’ में रखना चाहता है, जो एक तरह से वृद्धाश्रम है.
उन्होंने वरुण को कोई उत्तर नहीं दिया, मोबाइल बंद कर दिया. वे कुछ फ़ैसला नहीं ले पा रहे थे. विमला और नवीन भी अचंभित थे वरुण की बात सुनकर. इतने वर्षों बाद फोन, वो भी इस तरह से.
गुबरेलेजी के हृदय में तूफ़ान उठ रहा था. उन्हें अब समझ आ रहा था कि अब तक वरुण शांत था, क्योंकि उनकी सारी संपत्ति उसी की तो थी, पर अब संपत्ति छिनने का भय उसके मस्तिष्क पर हावी हो रहा था. वे कमरे में चहलकदमी करने लगे. सब शांत थे, पर अंदर हलचल लिए. उन्होंने सबके चेहरों की ओर देखा, फिर मोबाइल पर कॉल करने लगे. उधर अमिता थी.
उसने पापा से सबसे पहला प्रश्न किया, “पापा, आपने क्या सोचा?”
“बेटा, तुम क्या चाहती हो ?”
“पापा, इतनी उम्र गुज़र गई, अब क्या करेंगे शादी करके…?”
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“वंदना को भी ज़रूरत है मेरी…”
“दो दिन में ही आप अपने ख़ून के रिश्तों को भूलकर दूसरे के बारे में सोचने लगे?”
“नहीं, यह बात नहीं है बेटा. मुझे समझने की कोशिश करो…”
“तो ठीक है, लुटा देना अपना पूरा पैसा उस दूसरी औरत पर…”
यह दूसरा अवसर था, जब गुबरेलेजी हक्के-बक्के रह गए. अब उन्हें समझ आ रहा था कि बच्चे उनकी शादी का विरोध क्यों कर रहे हैं.
वे रातभर करवटें बदलते रहे, एक निश्चित किंतु दृढ़ निर्णय लेने के लिए, जैसे दही मथने के बाद मक्खन ऊपर तैर आता है.
वे निरंतर सोच में डूबे रहे. मैंने अपने बच्चों के सुख के लिए, अपने सुख-वैभव के दिन यों ही अकेले गुज़ार दिए. जब जिसने जो इच्छा की, हर संभव पूरी की. बेटे ने विदेशी लड़की से शादी करनी चाही, मैंने विरोध नहीं किया. लड़की ने अंतरजातीय विवाह करना चाहा, मैंने सहमति दी. समाज और रीति-रिवाज़ों, परंपराओं के विरुद्ध जाकर उन लोगों के हर सुख के आगे अपनी इच्छाएं, आकांक्षाएं सब कुर्बान कर दीं. सुनीता की मृत्यु के बाद कितने रिश्ते आए थे कुंवारी लड़कियों के भी. आख़िर मैं बैंक की नौकरी में था और हर दृष्टि से योग्य भी. बच्चों को कोई असुविधा न हो या समाज बच्चों के मन में ‘सौतेला’ शब्द न उगा दे, यही सोचकर मैं बच्चों में ही डूबा रहा. अब मैं अकेला हूं. नितांत अकेला. पर उन लोगों को मेरी संपत्ति से मोह है, मुझसे कोई सरोकार नहीं. मेरे प्यार का, मेरे विश्वास का, मेरी आत्मीयता का अच्छा सिला दे रहे हैं ये लोग. उनके मन में एक ज़िद पलने लगी.
जयपुर आने से पहले वे भी नहीं चाहते थे विवाह करना, पर यहां आकर, वंदना से मिलकर एक ख़्वाब पलने लगा है मन में. जीवन में फिर से वो बहार लौटती लग रही है. उधर वंदना के परिजन भी उसकी संपत्ति चाहते हैं. हम किसी की परवाह नहीं करेंगे. हम विवाह ज़रूर करेंगे. यह तय करते ही उनका मन उत्साह से भर उठा. वे सुखद कल्पनाओं में विचरण करने लगे. सुनीता और वंदना… वंदना और सुनीता… दोनों चेहरे एकमेव हो रहे थे. वही एहसास… वही चाहत… वही आकर्षण और वही जलतरंग…
इसी ऊहापोह में सुबह हो गई. सुबह की सैर के लिए लोग निकलने लगे थे. आज गुबरेलेजी ने जल्दी ही बिस्तर छोड़ दिया और नित्य कर्म से निबट गए. उन्होंने विमला और नवीन को बुलाकर अपना फ़ैसला सुना दिया कि वे वंदना को ही अपना जीवनसाथी बनाएंगे. वे तैयार हुए और वंदना के घर की ओर चल दिए.
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