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कहानी- मध्यमा (Short Story- Madhyama)

महिमा देखती रही. प्रणव का ऐसा रूप उसने पहले कभी नहीं देखा था. महिमा ने प्रणव को अपने से अधिक, किसी और के क़रीब पहले कभी नहीं देखा था.
जब अर्थी को उठाया गया, तो प्रणव फफक उठा. क्यों रोया वह? एक प्रश्नचिह्न उभरा महिमा के सामने. निरीहता से भरकर प्रणव ने एक बार महिमा की तरफ़ देखा. कैसा अजीब सा लग रहा था प्रणव, बेबस सा… एक अपरिचित भाव चेहरे पर ओढ़े..

आंखों को मलते हुए उनींदे स्वर में महिमा ने 'हेलो' कहा दूसरी तरफ़ से सुमन की हड़बड़ाई सी आवाज़ आई. "महिमा, आज का अख़बार देखा?”
"नहीं… क्या है अख़बार में?"
"इडियट… अभी तक सो रही थी क्या?" पहले तो सुमन चीखी पर तुरंत नरम होती हुई बोली, "यार, मिसेज़ परिहार इज नो मोर."
"व्हॉट…" चौंक गई महिमा. नींद उड़न छू हो गई थी, "क्या कह रही है?"
"यस… शी इज़ डेड… फोटो के साथ अख़बार में ख़बर छपी है."
"लेकिन यह हुआ कैसे?"
"हॉर्टफल था शायद… तुम अख़बार देख लो, सब जान जाओगी."
पहली बार थोड़ी-सी कन्फ्यूज्ड हो गई थी महिमा, इसीलिए पूछ बैठी, "सुमन, मैं क्या करूं? प्रणव से फोन पर बात करूं या फिर…"
"यह कैसा सवाल है महिमा? ये भी कोई फोन पर बात करने का समय है. तुम्हें प्रणव के जीवन के इस कठिन दौर में उसके समीप होना चाहिए."
"लेकिन, मैं इस तरह प्रणव के घर कभी गई भी तो नहीं."
"न सही… पर यह तो मानती हो कि जीवन में कई दौर पहली बार ही आता है. तुम जो हो प्रणव के लिए वो किसी से छुपा नहीं है. यदि तुम्हें अकेले जाने में संकोच हो रहा है, तो मैं भी चलूं?"
"हां सुमन आई विल बी सो ग्रेटफुल टू यू…"
"ओह… शटअप नाऊ. तुम तैयार रहना मैं भी तैयार होकर आती हूं…" सुमन ने फोन पटक दिया था. महिमा रजाई फेंकते हुए उठ गई. प्रणव से मिलने तो जाना था, लेकिन जाकर क्या सहानुभूति प्रदर्शित करने का नाटक कर पाएगी. महिमा तो जानती है कि प्रणव अपनी पत्नी को प्यार नहीं करता था… सिर्फ़ उसे झेलता था.
वसुंधरा परिहार की बड़ी प्यारी-सी तस्वीर छपी थी. नीचे लिखा था, 'शोकाकुल- प्रणव परिहार.' देखकर हंसी आ गई महिमा को. शोकाकुल शब्द प्रणव ने नहीं छपवाया होगा, यह तो निश्चित ही किसी नज़दीकी रिश्तेदार की ग़लतफ़हमी थी, वरना प्रणव और शोकाकुल.
महिमा ने ध्यान से वसुंधरा की तस्वीर को देखा. माथे की गोल बिंदिया और गले का मंगलसूत्र जैसे कुछ अधिक स्पष्टता से नज़र आ गया उसे. प्रणव ने भले ही हृदय का सारा प्यार महिमा पर उंडेल दिया हो, पर मंगलसूत्र की पवित्रता और लाल बिंदिया की गरिमा भी नजदीकी प्यार की सुखद अनुभूतियों से कम नहीं होती. वसुंधरा कितनी शांत लग रही थी. महिमा देर तक प्रणव की जीवन संगिनी को देखती रही.
'कब की होगी यह तस्वीर?' महिमा सोच रही थी. पिछली बार जब समुद्र के किनारे प्रणव और वसुंधरा को देखा था तो काफ़ी मोटी लग रही थी. चेहरे पर तनाव इतना अधिक था कि उनका गहरा मेकअप भी असमर्थ हो गया था उन्हें ख़ूबसूरत बनाने में.


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"नमस्ते…" महिमा ने बड़ी विनम्रता से हाथ जोड़ दिया था और 'माई फुट' कहते हुए अपनी अभद्रता का परिचय देती वो घमंडी महिला बड़ी तीव्रता से आगे बढ़ गई थी. शायद अपनी बेरुखी से वसुंधरा महिमा को अपमानित करने का इरादा रखती थी, लेकिन उसे पता नहीं था कि महिमा तो अपमान और सम्मान की भावना से काफ़ी ऊपर उठ चुकी थी. प्रणव से जुड़ने के बाद उसके जीवन में सिवाय संतुष्टि के कुछ और शेष नहीं था.
वसुंधरा से अपमानित होने के बाद भी महिमा देर तक वहीं समुद्र के किनारे खड़ी वसुंधरा को जाते देखती रही. प्रणव महिमा का सब कुछ था, अतः प्रणव की पत्नी होने के नाते वसुंधरा भी उसकी कुछ तो थी ही. क्या थी? महिमा नहीं जानती. हर रिश्ते को नाम कहा दिया जा सकता है.
प्रणव तो महिमा के हृदय का एकमात्र स्वामी था, इसीलिए तो ३३ वर्ष होने के बाद भी वह अविवाहित है. प्रणव को टूटकर प्यार करने के बाद किसी और की पत्नी बनने का नाटक करना महिमा के लिए संभव नहीं हो पा रहा था.
प्रणव और महिमा के इस भावनात्मक रिश्ते को कदाचित सिर्फ़ 'प्लेटोनिक लव' की ही उपमा दी जा सकती है.
महिमा की नज़र में प्रणव संसार का सर्वश्रेष्ठ इंसान था. यही विचार महिमा में तब भी था, जब पहली बार अपनी लूना सहित प्रणव के मोटर साइकिल से जा टकराई थी और कच्ची सड़क की मिटटी से सने सलवार-कमीज को देख बिलख पड़ी थी. प्रणव ने अपने छिल गए हाथों की परवाह किए बगैर महिमा को सहारा देकर उठाया था. उसके सलवार-कुर्ते को अपने ज़ख़्मी हाथों से झाड़-पोंछकर साफ़ किया था. और अपलक उसकी मासूमियत को ताकता रह गया था.
महिमा स्तब्ध रह गई. पहली बार एक पुरुष ने उसके शरीर को छुआ था. लेकिन कितना पवित्र, कितना स्नेहिल था वो स्पर्श कि महिमा को लगा वो नन्हीं सी बच्ची बन गई है. प्रणव के दुःस्साहस के लिए न वो उसे झिड़क पाई, न ही आंखें तरेरकर अपने ग़ुस्से का इज़हार कर पाई.
वहीं, उसी पल महिमा के हृदय ने स्वीकार किया था कि प्रणव ही उसके जीवन का प्रथम पुरुष है और वही हाल प्रणव का भी… महिमा को स्नेह से ताकता प्रणव कब का भूल चुका था कि वो विवाहित है, एक नन्हें से बच्चे का पिता है.
महिमा ने जीवन के उस ख़ूबसूरत क्षण को ईश्वर की सौग़ात मान स्वीकार किया था. तब से आज तक ऐसा कोई दिन नहीं था, कोई पल नहीं था, जब उसने अपने आपको प्रणव से अलग पाया हो.
हर शाम महिमा ने प्रणव के नाम लिख दी थी. किसी भी पार्क के कोने में महिमा गोद पर सिर रखकर लेटा प्रणव पूछता, "मही जानती हो… अभी मैं कहां हूं?"
"धरती पर…"
"नहीं… स्वर्ग में…"
"प्रणव तुम मुझे मही कहते हो न? जानते हो, मही का अर्थ क्या होता है, भूमि, इसीलिए मैंने कहा कि तुम भूमि पर हो."
"तुम्हारी गोद स्वर्ग है मही. तुम्हारी गोद में लेटकर मैं स्वर्गीय सुख का अनुभव करता हूं. तुम बदक़िस्मत हो मही जो इस स्वर्गीय सुख की अनुभूति से रोमांचित नहीं…"
"क्यों नहीं हो सकती. तुम बैठ जाओ, मैं तुम्हारी गोद में सिर रख लेती हूं. वो सुख मुझे भी मिल जाएगा."
"नहीं… यह सुख सिर्फ़ तुम्हारी गोद में है."
"मैं जब भी तुम्हारी गोद में सिर रखता हूं ना मही, तो मुझे लगता है आकाश नीचे आ गया है… तुम्हारे सिर पर…"
"इच्छा नहीं होती आकाश को छूने की?"
"न… बल्कि आकाश ललकता है तुम्हारी गोद में आने को."
प्यार भरा जवाब होता प्रणव का और महिमा प्रेम अभिभूत प्रणव के माथे पर एक स्नेह चिह्न अंकित कर देती. जी चाहता प्रणव के सारे दुखों को हर ले, पर प्रणव को दुख बांटने की आदत कहां थी.


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"प्रणव… वसु से फिर से झगड़ा तो नहीं हुआ न?"
"उससे झगड़ा न हो ऐसा दिन मेरे जीवन में है ही नहीं. प्लीज़… सिर्फ़ एक बात याद रखना… हम दोनों के बीच उसकी उपस्थिति मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता."
"प्रणव… तुम्हारे और तुम्हारी पत्नी वसु के बीच आ गई हूं, कहीं यही उसकी चिड़चिड़ाहट का कारण तो नहीं?"
"तुम्हारे कारण चिड़चिड़ाहट नहीं एक आत्मिक शांति मिलती है मुझे. मेरी पत्नी से मेरी दूरी उसके उलाहनों और बदतमीजियों के कारण है. जानती हो मही, वसुंधरा के पास सब कुछ है, पर प्यार का अभाव है और तुम प्यार का सागर हो."
प्रणव की आंखों से स्नेह बहने लगता और महिमा उस कण-कण स्नेह को अपने आंचल में समेट लेती.
प्रणव की इच्छाओं के आगे नत मस्तक हो जाने के अलावा कोई और इच्छा मही के आगे शेष नहीं थी. वसुंधरा ने महिमा को ख़ूब गालियां दीं, अपने भाइयों द्वारा महिमा को पिटवाने का भी उसने प्रयास किया, पर महिमा पीछे नहीं हट पाई. किसी भी क़ीमत में प्रणव को खो देना उसे स्वीकार नहीं था.
वसुंधरा प्रणव के नाम का सिंदूर अपनी मांग में भरकर अपने आपको अधिक सच्चा सिद्ध करना चाहती थी और महिमा प्रणव के स्नेह से अपने आंचल को भरकर सिर्फ़ स्नेह से लबालब भरे जगह वो किसी और सुख या दुख को स्थान दे सके, वो किसी से भी कुछ भी स्वीकार नहीं करती. न लोगों के उलाहने, न लोगों की सहानुभूतियां… उसकी एक अलग दुनिया थी.
"महिमा…" कार के हॉर्न के साथ सुमन की आवाज़ से महिमा चौंकी. जल्दी से घर को ताला लगाया और सुमन की कार में जा बैठी.
"सुमन… मुझे लग रहा है, वहां जाना बेकार है. मेरे और प्रणव के बीच कभी कोई औपचारिकता रही ही नहीं है. सहानुभूति और आश्वासन जैसे शब्द हमारे शब्दकोष में नहीं है. मुझे इस तरह प्रणव का सामना करने में हिचक-सी हो रही है."
महिमा को इस बात में खीझ हो रही थी कि आज अचानक उसे सुमन के मशविरे की ज़रूरत कैसे पड़ गई? आज तक जीवन की उलझन को उसने स्वयं सुलझाया है. विशेष तौर पर प्रणव के मामले में उसने किसी और के निर्णय को कभी स्वीकार नहीं किया. शायद यही वजह थी कि सुमन के कहने पर वो जा तो रही थी, पर मन से नहीं.
पत्नी से पीड़ित प्रणव तो शायद अब राहत महसूस कर रहा होगा. वसुंधरा ने तो कभी प्रणव की परवाह नहीं की. कभी उसका सम्मान नहीं किया. फिर भला उसके लिए प्रणव वियोग क्यों और कैसे करता?
प्रणव का घर आ गया था. वसुंधरा को श्मशान ले जाने की तैयारियां शुरू थीं. उसे नहलाया गया… सोलह श्रृंगार किए गए. दुल्हन सी दमकने लगी थी वसुंधरा. प्रणव ने उसकी मांग भरी, गोद में अपने छह वर्षीय पुत्र को उठाए प्रणव लगातार लोगों के आदेश का पालन करता जा रहा था.
महिमा देखती रही. प्रणव का ऐसा रूप उसने पहले कभी नहीं देखा था. महिमा ने प्रणव को अपने से अधिक, किसी और के क़रीब पहले कभी नहीं देखा था.
जब अर्थी को उठाया गया, तो प्रणव फफक उठा. क्यों रोया वह? एक प्रश्नचिह्न उभरा महिमा के सामने. निरीहता से भरकर प्रणव ने एक बार महिमा की तरफ़ देखा. कैसा अजीब सा लग रहा था प्रणव, बेबस सा… एक अपरिचित भाव चेहरे पर ओढ़े.. आज उसकी आंखों में महिमा से किसी स्वर्गीय सुख की मांग नहीं थी. महिमा के मधुर संवाद की, उसके मनुहार की आकांक्षा भी नहीं थी. कुछ और था.. जाने क्या? महिमा ने प्रणव के चेहरे पर से अपनी नज़रों को हटा लिया.
प्रणव अर्थी को कंधे पर उठाए आगे बढ़ा ही था कि छह वर्षीय उसका पुत्र उसके पैरों से लिपट गया. "पापा..पापा…" कई लोगों ने उस बिलखते बच्चे को प्रणव के पैर से खींचकर अलग करने का प्रयास भी किया, लेकिन बच्चा अपनी पकड़ मज़बूत किए रोए जा रहा था. बच्चे के रूदन और प्रणव की विवशता से वहां मौजूद हर व्यक्ति की आंखों में आंसू आ गए, महिमा भी सिसक पड़ी थी. अंततः मन को कठोर कर प्रणव को बच्चे को झटककर आगे बढ़ना पड़ा. बड़ी निरीहता से महिमा की तरफ़ देखते हुए वो चल पड़ा… महिमा की सिसकी रुक गई. आज अचानक प्रणव के देखने का अंदाज़ बदल
गया था. बच्चे को गोद में उठाए एक व्यक्ति प्रणव के साथ-साथ चल रहा था. बच्चा अब भी रोए जा रहा था.
प्रणव के भावों का महिमा चुपचाप खड़ी अर्थ समझने का प्रयास कर रही थी.
"महिमा, क्या सोच रही है?" कंधे पर हाथ रखते हुए सुमन ने पूछा, तो चौंक गई महिमा.
" अं, कुछ नहीं… अब हमें चलना चाहिए."
"अरे… प्रणव को तो आ जाने दे, देखा नहीं, कितना परेशान सा लग रहा था. मही, अब तो तू ही प्रणव की सब कुछ है. तुझे तो अब उस बच्चे की मां बनकर सम्हालना होगा…"


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"व्हॉट डू यू मीन सुमन…" चीख पड़ी महिमा और तेजी से उस दमघोंटू माहौल से निकल आई.
अब तक कई लोगों की तेज़-तर्रार व्यंग्यात्मक नज़रों का सामना बड़ी सहजता से किया था उसने. कहीं कोई लज्जा भाव नहीं था चेहरे पर, लोगों की उपेक्षा का दर्द भी नहीं था. पर सुमन का कथन… लगा अंदर हृदय में कुछ टूटने-फूटने सा लगा है.
साहस कैसे कर लिया सुमन ने?
सुमन तेजी से पीछे भागती आ रही है, यह जानने के बाद महिमा को रुकने की इच्छा नहीं हुई. सामने से आ रही टैक्सी हाथ दिखाया और उसमें बैठ गई. विवशता से सिर झुकाए बाहर खड़ी सुमन को देखकर भी उसे अपने किए पर पछतावा न हुआ.
सुमन यदि महिमा के स्नेहिल सौंदर्य को महसूस कर पाती कदाचित ऐसी बात कभी न कहती. वसु थी तो प्रणव से जुड़ाव कितना सहज था. अब वसु के जाते ही सब कुछ सहनशक्ति के बाहर होता जा रहा था. एक ओर तो प्रणव का निरीह चेहरा प्रश्नचिन्ह बना खड़ा था और दूसरी ओर सुमन की जिज्ञासा से मन भारी होने लगा.
लगा वसु का जाना ग़लत हो गया.
प्रणव कहता था, वसु उन दोनों के बीच कभी नहीं रही, पर आज महसूस कर रही है महिमा कि वो हर पल, हर क्षण
उसके और प्रणव के बीच‌ थी. तभी तो रिश्ते में पवित्रता थी, सहजता‌ थी. और आज वसु नहीं थी, तो सब कुछ असहज, समझ के परे होता जा रहा था और प्लेटोनिक लव की गूढ़ता कहीं खोने सी लगी थी.

- निर्मला सुरेंद्रन

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