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कहानी- मोह के धागे (Short Story- Moh Ke Dhage)

"तुम ना वसु, एकदम अजीब-सा रिएक्शन दे रही हो… दिनभर अरुण के बारे में बात कर सकती हो, ढूंढ़-ढूंढ़कर उनकी फोटो फेसबुक पर देख सकती हो, यहां तक कि कपड़े भी अब उनकी पसंद के पहनती हो, लेकिन एक भ्रम में जीना है बस! कब तक उन्हीं कड़वी यादों से लड़ती रहोगी, बाहर आओ.. गुलज़ार साहब इंतज़ार कर रहे हैं." वो मुस्कुरा दी.

अलार्म बंद करके मैं रजाई में दुबकी रही. सवा छह ही था, आधा घंटा और सही. वैसे भी टहलने तो जाना नहीं था… पार्क याद आते ही मन खिन्न हो गया. कल तक तो केवल यही वजह ही रह गई थी ख़ुश रहने की, अब वो भी ख़त्म हो चुकी थी. सामनेवाले घरों की सफ़ेद, पीली बत्तियां जल चुकी थीं. एक-एक करके सब ताला लगाकर पार्क की ओर निकलने भी लगे होंगे… सरिता अपने उसी पुराने लाल-पीली पट्टियों वाले रोएंदार स्वेटर में तेज चाल से चलती हुई, मंकी कैप पहनकर कुर्ते की जेब में बांहें डालकर एक गर्म कोना तलाशते हुए शर्मा अंकल, सुबह-सुबह काला चश्मा लगाकर टहलनेवाला उस अमीर बिल्डर का नाटा-सा लड़का और?.. और कोई नहीं! मैंने सिर झटका, मैं उनके बारे में सोचना भी नहीं चाहती थी… बिल्कुल भी नहीं… मैंने रजाई सिर तक खींच ली. मेरे आस-पास सब कुछ काला-काला था, लेकिन अरुण मुझे एकदम साफ़ दिखाई दे रहे थे; काल रंग का ट्रैक सूट, आंखों पर भूरे फ्रेमवाला चश्मा, बालों मे हल्की सफ़ेदी और चेहरे पर असामान्य संजीदगी! इतने अंधेरे में दिमाग़ और तेज भाग रहा था…
साल भर हो गए हमें इस तरह पार्क में मिलते-जुलते, हंसते-मुस्कुराते. बात राजनीति, क्रिकेट, सम-सामयिक जैसे मुद्दों से आगे बढ़कर उनकी शादी, तलाक़ की वजह, घर-परिवार से होते हुए साहित्य पर आकर ठहर गई थी.
"कल मैं एक उपन्यास पढ़ रहा था.. उसमें नायिका को आपकी तरह कॉटन की साड़ियां पसंद थीं." क़रीब तीन महीने पहले की बात होगी, एक अजीब-सी दृष्टि से मेरी तरफ देखते हुए अरुण मुस्कुराने लगे.
"आपको बैंक से आने के बाद उपन्यास पढ़ने का टाइम मिल जाता है?" मैंने बात टाली.
"बिल्कुल मिल जाता है वसुंधराजी. घर में पत्नी तो है नहीं, जो किताब छीनकर रख देगी.. टाइम ही टाइम है." ज़िन्दगी से मिली कड़वाहट अक्सर उनकी बातों मे छलक आती थी और वही एक पल होता था, जो मेरे सारे घाव भी हरे कर जाता था.
मैंने भी कब सोचा था कि कॉलेज में किसी एक झूठे वादे से टूटा दिल कभी किसी और पर विश्‍वास करने लायक नहीं बचेगा, और ज़िंदगी घर से स्कूल, स्कूल से घर में बीत जाएगीे… रटी-रटाई बातें वही बातें, हर साल बच्चों को पढ़ाना, पैरेंट्स-टीचर मीटिंग, कॉपी- जांचना और स्टाफ रूम की खुसुर-फुसुर में बिना मन के मुस्कुराने की कोशिश करना… कहने को तो सब चल रहा था, महसूस करो तो सब रुका हुआ था! अलार्म एक बार फिर चीखा.. मैंने हड़बड़ाकर रजाई फेंकी, सात बज गए थे. साढ़े सात तक रमिया आ जाएगी, फिर तैयार होना, स्कूल जाना… घड़ी जैसा बीतना जीवन का- बारह से तीन, तीन से छह, छह से नौ और फिर नौ से वापस सुई का बारह पर आना.
"आज आप पारिक नहीं गईं दीदी?" अपनी चाभी से दरवाज़ा खोलकर अंदर आई रमिया मुझे देखकर चौंक गई.
"हां… देर से आंख खुली… ये क्या भेष बनाकर आई हो आज?" मैं उसको ऊपर से नीचे तक देखते हुए बोली; एकदम चमकता हुआ गाढ़े हरे रंग का कुर्ता, लाल सलवार और लाल चुन्नी.. पान से रंगे दांत और चवन्नी जितनी बड़ी बिंदी!
"गोपाल के पप्पा लेके आए ये सूट…" गुनगुनाते हुए वो खाना बनाने में लग गई.. मैं भन्ना कर रह गई! अभी पिछले हफ़्ते इसने अनगिनत गालियों को कभी संज्ञा, कभी विशेषण की तरह प्रयोग किया था इसी 'गोपाल के पप्पा' यानी अपने पति के लिए और आज चली आई उसके नाम की माला जपते. खिड़की से झांककर देखा, लोग पार्क से लौट रहे थे.. मन फिर डूबने लगा, रह-रहकर कल वाली बात याद आ रही थी. सब कुछ ठीक तो चल रहा था, अचानक अरुण का वो संदेश आना… नहीं, वो बात कहीं से भी सही नहीं थी.

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"वसुंधरा, ऐसा नहीं लग रहा है कि हमें जहां जाना है, हम वहीं से भाग रहे हैं? मैंने पहले भी तुमसे इस बारे में बात करने की कोशिश की, तुम टाल गई. ग्रो अप… ऐसे कब तक चलेगा? तुम्हे नहीं लगता, अब इस दोस्तीवाले भ्रम से हमें बाहर आना चाहिए?"
मैने मोबाइल फोन उठाकर ये संदेश फिर से पढ़ा, कल से अनगिनत बार ये संदेश पढ़ चुकी हूं… ना जवाब दिया, ना अरुण का फोन उठाया. आख़िरी डर था सुबह की सैर में आमना-सामना होने का.. उससे भी बच गई. मोबाइल फोन वायब्रेट हो रहा था, "हैलो! हां पापा, गुड मॉर्निंग! नहीं.. आज टहलने नहीं गई, बस निकलूंगी अभी स्कूल के लिए!"
"कल से छुट्टियां लग रही हैं ना, आ जाओ इधर ही… नया साल साथ मना लेंगे. रिंकी-पिंकी भी बहुत याद कर रही थीं तुमको, देख लेना बिट्टो.. ठीक है, ठीक है, स्कूल से आकर फोन मिलाना."
ऑटो में बैठते ही मोबाइल का नेटवर्क बंद कर दिया, हर थोड़ी देर में पीं-पीं करता एक संदेश…"आपका दिन शुभ हो", " नए साल की बधाई एडवांस में"… जैसे चलताऊ संदेश और गजक की एक फोटो के साथ "सर्दियों में गजक मेरी ओर से" जैसे वाहियात संदेश. कितना समय है लोगों के पास बर्बाद करने के लिए, फ़ालतू बातों पर हंसने के लिए… अगर चाहो कि दो घड़ी किसी के कंधे पर सिर रखकर सुस्ता लो, तो कोई नहीं. पापा घर बुला रहे हैं, चली जाऊं क्या? दस दिनों की छुट्टियां हैं तो… भइया से, बच्चों से, सबसे मिलना हो जाएगा और भाभी? मन कसैला हो गया.. दो दिनों तक सब ठीक चलता है फिर तीसरे दिन घुमा-फिराकर वही एक बात "तुम शादी कर लेती, तो हम लोग भी फ्री हो जाते"… अरे! कौन-सी अपनी ज़िम्मेदारी सौंप रखी है मैंने किसी के कंधे पर? अकेले रहती हूं,अपना ख़र्चा उठाती हूं… बीमार हो जाऊं, परेशान हो जाऊं, तब भी किसी को फोन नहीं करती. हां, मां थीं, तो बात अलग थी… अब तो वो भी नहीं हैं. ऑटो रिक्शा बहुत तेज चल रहा था, आंसू गाल पर गिरकर चेहरे को और ठंडा कर रहे थे, मैंने शॉल कसकर लपेट लिया.. मां बहुत याद आ रही थीं.
"हमने तो साफ़ कह दिया इनसे, " शैलजाजी ने स्टाफ रूम में अपने घर की बातों का पुलिंदा खोलना शुरू किया, "ना हम मायके जाएंगे, ना ससुराल… छुट्टियां हैं, कहीं बढ़िया जगह ले चलो घुमाने.. है कि नहीं?"
"मैंने ख़ुद यही कहा.. और जानती हैं, जवाब में वो पीली साड़ीवाला कांड लेकर बैठ गए… बताया था न मैंने?" मोनिका खुफिया हंसी हंसती हुई कोई बेहद व्यक्तिगत बात सार्वजनिक कर रही थी.. और श्रोताओ को असीम आनंद की अनुभूति हो रही थी. मैं फिर फोन निकालकर उसी संदेश में खो गई… ऐसे थोड़ी मैं 'दोस्ती से आगे बढ़कर' सोच लूंगी! वैसी कोई बात भी नहीं थी मेरे मन में, बेचैनी हो रही थी… अभी तक शिखा क्लास ख़त्म करके आई नहीं थी।
"चलें, चाय पीने? या ऐसे ही मुँह बनाती रहोगी इनके फूहड़ मज़ाक पर…" शिखा मेरा कंधा थपथपाते हुए फुसफुसाई.
"चलो यार… वैसे ही दिमाग़ ख़राब है आज"… मैं बड़बड़ाते हुए उठी.
कैंटीन में आकर बैठते ही मैने मन खोला, "शिखा, बहुत ज़रूरी बात करनी है तुमसे.."
"क्या हुआ, तुम्हारे गुलज़ार साहब ने तुमको लाल गुलाब दे दिया क्या?" वो आंख मारकर मुस्कुरा दी. मैं अवाक रह गई! ये कैसे जान गई?"
"अब बताओगी भी, क्या हुआ?" वो झुंझला रही थी… मैंने फोन निकालकर, संदेश उसको दिखाया..
"तुमने क्या जवाब दिया? या शायद दिया ही नहीं, है ना! "शिखा मेरा चेहरा पढ़ते हुए बोली.
"इसमें जवाब देने लायक है ही क्या? फिल्मोंवाली बातें हैं.. दोस्ती से आगे बढ़ना, बकवास." मैंने चाय का एक घूंट भरा.
"तुम ना वसु, एकदम अजीब-सा रिएक्शन दे रही हो… दिनभर अरुण के बारे में बात कर सकती हो, ढूंढ़-ढूंढ़कर उनकी फोटो फेसबुक पर देख सकती हो, यहां तक कि कपड़े भी अब उनकी पसंद के पहनती हो, लेकिन एक भ्रम में जीना है बस! कब तक उन्हीं कड़वी यादों से लड़ती रहोगी, बाहर आओ.. गुलज़ार साहब इंतज़ार कर रहे हैं." वो मुस्कुरा दी.
"मैं अब पिछला कुछ याद नहीं करती शिखा, सब भूल चुकी हूं… और ये तुमसे किसने कहा कि मैं उनके पसंद के कपड़े पहनती हूं?" कहने को तो मैं कह गई, लेकिन ये दोनों बातें झूठ थीं. जब से अरुण ने कॉटन साड़ियोंवाली बात कही थी, मैं ज़्यादातर वही पहनती थी… यहां तक कि सुबह सैर के वक्त भी. जहां तक सवाल था, दूसरे झूठ का… मैं अभी तक उसी झूठ से आहत, यादों के उसी जंगल में भटक रही थी जहां मोहित मुझे छोड़कर गया था.


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घर आकर बहुत देर तक फेसबुक देखती रही. ये फेसबुक की दुनिया भी ना… किसी ने अपने पति को जन्मदिन की शुभकामनाएं देते हुए लिखा था, "दुनिया के सबसे अच्छे पति को जन्मदिन मुबारक हो!" जिसके जवाब में उसके पति ने "मैं सौभाग्यशाली हूं, जो मुझे तुम मिली…" लिखा और ये सब पढ़कर ताली बजानेवाले अनगिनत लोग, उंह! ऐसे रिश्तों की दुकान लगाते हुए मन नहीं ऊब जाता? और भी बहुत सारे 'प्रदर्शन' देखते हुए, अपने को रोकते हुए भी, ना चाहते हुए भी मैं फिर से मोहित के प्रोफाइल में चली गई. बीवी, बच्चों और बंगला-गाड़ी के साथ अनगिनत तस्वीरें… बीच-बीच में अमेरिकी समुद्र तटों पर धूप का चश्मा लगाकर लेटे हुए तस्वीरें. मन भर आया.. कितनी आसानी से मुझसे इतने बड़े-बड़े झूठ बोले गए,
"बस नौकरी लगने की देर है… फिर तो कोई नहीं रोक सकता तुम्हे मिसेज़ मोहित मेहरा बनने से, बस तुम ऐसे घबराया मत करो."
"और क्या, अब तो अमेरिका मे रहेंगे… आराम से, बस शादी के बाद तुम ये लंबे-लंबे कुर्ते ना पहनना…"
"बिज़ी रहता हूं वसुंधरा, अब हर दिन तो बात नहीं कर सकता ना."
‌दिनों से हफ़्तों और फिर हफ़्तों से महीनों के फ़ासले… और फिर वो फोन, "वसुंधरा, मां बिल्कुल तैयार नहीं है हमारे रिश्ते के लिए, हमें अपने परिवार के लिए सब कुछ भूलना होगा… तुम सुन रही हो ना?" मैंने फोन पटक दिया था, इससे ज़्यादा और मैं क्या सुनती? असलियत तो ये थी कि शहर के बड़े उद्योगपति की बेटी को अपनी पत्नी बनाना मोहित के लिए एक बड़ी छलांग थी… फिर मैं कहां और मेरा प्यार कहां?
"अंधेरा किए काहे बैठी हैं दीदी? साम हो गई…" रमिया ने आते ही टप्प से लाइट जला दी, "रो रही हैं? सिर पिरा रहा है?"
बिना मेरा जवाब सुने, तेल की शीशी लाकर सिर दबाने लगी… मेरे आंसू और तेज गिरने लगे थे. कितना अपनापन लग रहा था इस स्पर्श में… मैंने उसकी गोदी में सिर टिका दिया.
"दीदी… पांच सौ सातवाली बंगालन हमसे पूछ रही थीं, तुम्हारी टीचर दीदी ने शादी क्यों नहीं की? हमने कहा, दीदी के जैसा कोई सुंदर आदमी मिलेगा क्या उनको…"
उसके भोलेपन पर मैं आंखें बंद किए हुए मुस्कुरा दी… ये सब बातें केवल मुझे ख़ुश करने के लिए वो बोल रही थी. सिर हल्का लग रहा था, मैंने उससे चाय बनाने को कहकर फोन उठाया, ओह! फोन की घंटी बंद थी… सात छूटी हुई काॅल पड़ी थीं! एक पापा की, तीन शिखा की और तीन अरुण की… इतनी देर में संदेश भी बहुत सारे आ चुके थे.
पापा ने मेरी भतीजियों की कुछ तस्वीरें भेजी थीं.
स्कूलवाले समूह पर कुछ चुटकुले,
और…
अरुण का एक छोटा सा संदेश… "क्या आज हम मिल सकते हैं?.."
मैं बहुत देर तक उनकी फोटो देखती रही. शिखा सही कहती है. कुछ सालों बाद अरुण एकदम गुलज़ार साहब जैसे दिखने लगेंगे. वही संजीदगी, वही प्रबुद्धता और वैसी ही उदास आंखें! तीन-चार बार संदेश टाइप किया, फिर हटाया.. कितनी उलझन हो रही थी, कब तक ऐसे टालना ठीक है? क्यों नहीं साफ़-साफ़ मना कर देती? पता नहीं क्या सोचकर, रमिया को रात के खाने के लिए समझाकर सीधे मैं उनके फ्लैट पहुंच गई.
"साहब हैं?" दरवाज़ा श्यामू ने खोला.
"साहब तो अस्पताल में हैं ना…" उसने ऐसे बताया जैसे मुझे ये बात पता होनी चाहिए थी.
"अस्पताल में हैं मतलब," मेरी आवाज़ में घबराहट आ चुकी थी. मेरी अनभिज्ञता से आश्वस्त होकर उसने पूरी बात खोली, "थोड़ी देर पहले पेट में दरद हुआ साहब को, इस तरफ़… फिर बेहोस हो गए, हम सब जनी तुरंत ले गए अस्पताल…"
"तुम सब, मतलब और कौन?" मेरे हाथ-पैर ढीले हो रहे थे.
"भाटिया मैडम, सर्मा जी और हम…"
मिसेज़ भाटिया को फ़ोन करके बात की और अगले आधे घंटे के अंदर मैं अस्पताल में थी.
"अरुण को हल्का दर्द रहता था, ही जस्ट इग्नोर्ड!, " मिसेज़ भाटिया बोलीं, "इट वाज़ एपेन्डिसाइटिस. आज तेज़ दर्द उठा, अचानक बेहोश हो गया. श्यामू मेरे घर आया, हम लोग फटाफट यहां लेकर आए… यू नो वसुंधरा, डॉक्टर ने कहा एक घंटा भी देर से आते तो रिस्की था."
मैंने फोन में संदेश आने का समय देखा, शायद ये सब इसके तुरंत बाद ही हुआ होगा… मेरी आंखें भरी हुई थीं, क्यों भरी हुई थीं, पता नहीं. जितनी देर ऑपरेशन चला, मैं वहीं बाहर कुर्सी पर सिर टिकाए अधमरी सी बैठी रही.. मुझे हो क्या रहा था? ऐसा तो कुछ है नहीं ना, एक 'दोस्ती' ही ना? उसमें ऐसी घबराहट जैसे मेरे हाथों से रेत फ़िसली जा रही हो…
"सब ठीक है अब तो… रूम में शिफ्ट कर रहे हैं." शर्माजी ने आकर बताया, "आप लोग घर जाइए, मैं हूं यहां."
पता नहीं मेरे अंदर से कौन बोला, "मैं रुक रही हूं यहां… आप मुझे पेपर्स दे दीजिए."
ये एक ऐसा पल था, जहां ना मुझे बदनामी दिख रही थी, ना लोगो की खुफ़िया निगाहें… ना अरुण और मेरे संबंध पर उठती लोगों की उंगलियां, मुझे सिर्फ़ और सिर्फ़ अरुण दिखाई दे रहे थे.
क़रीब चार घंटे बाद अरुण को होश आया, डॉक्टर और नर्स से घिरे हुए बस वो आँखों में कुछ सवाल लिए लेटे रहे, मैं जान-बूझकर उनकी ओर कम से कम देख रही थी…
"कल से इनको हल्का खाना दे सकते हैं… सूप या खिचड़ी जैसा कुछ, और चार दिन बाद यहां से छुट्टी. नया साल आप घर पर मनाइएगा मिस्टर अरुण." डॉक्टर मुस्कुराते हुए चला गया.


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‌अरुण आंखें बंद किए लेटे थे और मैं थोड़ी दूर रखे पतले से बेड पर दीवार से सिर टिकाकर बैठी थी. पूरी रात ऐसे ही बीती. बीच-बीच में जब नर्स ड्रिप चेक करने आती थी.. सन्नाटा तभी टूटता था.
"आप लोग थोड़ी देर यहां हैं ना अभी, मैं घर से फ्रेश होकर आती हूं." सुबह बिल्डिंग के लोग उन्हें देखने आए, तो मैंने अपना सामान उठाते हुए पूछा.
"ये लोग हैं यहां, आप… मतलब, हो जाएगा मैनेज." अरुण की हल्की-सी आवाज़ सुनाई दी, और जो नहीं कहा गया वो भी सुनाई दिया (आप हैं कौन जो इतना परेशान हो रही हैं)… किसी तरह हिम्मत बटोरकर मैंने कहा, "स्कूल बंद है, मैं फ्री हूं… बाकी लोगों का ऑफिस होगा."
ऑटोरिक्शा में बैठकर मैं अपने मन की थैली को टटोलती रही… केवल यही कारण है यहां रुकने का? अगर स्कूल होता तो? मैं छुट्टी ले लेती… जो जवाब आ रहा था, वो मुझे और व्यथित कर रहा था, जिसके लिए एक और सवाल- मैं क्यों छुट्टी ले लेती?
"हां, मैं समझ रही हूं, लेकिन तुम रो क्यों रही हो?.. हैलो! वसुंधरा, कुछ बोलो…" घर आते ही मैने शिखा को फोन किया और बताते-बताते रो पड़ी.
"पता नहीं यार, इस तरह से अस्पताल में अरुण को देखकर अजीब-सा लगा." मैंने किसी तरह अपनी बात समझानी चाही.
"ऐसा लगा जैसे कुछ है जो मुझसे छूटनेवाला है.. कोई जानेवाला है…"
"तो मत जाने दो वसु! कब तक भागोगी इस तरह, अंकल भी तो तुम्हें सेटल्ड देखना चाहते हैं… 40 की होने जा रही हो,अरुण भी तुमसे दो-चार साल बड़े ही होंगे.. सुन रही हो ना."
"वही तो." मैंने उसकी बात काटी, "ये कोई उम्र है क्या साथी ढूंढ़ने की… "
"वसुंधरा, इसी उम्र में तो हमें एक कंधा चाहिए होता है सिर टिकाने के लिए… किसी के पास बैठकर बिना कहे सब कुछ कहने और सुनने के लिए, अब तो तुम भी मान रही हो ना कि ये दोस्ती से ज़्यादा कुछ है.. बोलो?"
मेरे पास जवाब था भी और नहीं भी… अस्पताल में जितनी देर अरुण के साथ रहती, सब कुछ पूर्ण लगता था. थोड़ी देर के लिए भी घर आती, तो जैसे अपना एक हिस्सा वहीं छोड़ आती थी. चार दिन कैसे बीत गए, पता नहीं…
"कल छुट्टी मिल जाएगी आपको इस कैदखाने से." मैंने अरुण के आगे सूप रखते हुए कहा.
"हां, और तुमको भी इस नाटक से… है ना? " एकदम से 'आप' से 'तुम' पर आना और वो भी इस सवाल के साथ, मैं चुपचाप सामान समेटती रही.
"मैं तुमसे बात कर रहा हूं वसुन्धरा! इतने दिन मेरे लिए बर्बाद करने की क्या ज़रूरत थी?.. क्या नाटक नहीं है ये सब?" अरुण सूप को एक तरफ़ कर चुके थे.
"चलिए नाटक ही सही.. आप सूप पीजिए." मैंने पास आकर टेबल सीधी की. अरुण ने मेरा हाथ पकड़ कर वहीं बैठा लिया, "वसुंधरा, मैंने तुमसे कुछ पूछा था.. तुम्हारी चुप्पी में मुझे तुम्हारा जवाब मिल गया था. लेकिन अब ये सब? इतने दिनों से ये सब, इस तरह से… प्लीज़ कुछ बोलो." वो अभी भी मेरा हाथ पकड़े हुए थे.
"आपको सब साफ़ सुनना है क्या?" मैंने अपना हाथ छुड़ाने की कोशिश भी नहीं की थी… ना चाहते हुए भी एक रंग था, जो मेरे चेहरे पर फैल रहा था, एक मुस्कुराहट भी… जो धीरे-धीरे बड़ी होती जा रही थी. अरुण एकदम से मुस्कुराने लगे थे, "पता है, नाइट शिफ्ट वाली नर्स क्या कह रही थी? कह रही थी, तुम्हारा वाइफ बहुत ग़ुस्सा करता है… तुम लड़ ली थी ना उससे जाकर?"
मैं अपने को रोकते हुए भी खिलखिलाकर हंसने लगी थी. अरुण मुझे एकटक देखते हुए हंस रहे थे… दरवाज़े पर हुई खट-खट से हमारे हाथ अलग हुए. सफ़ाईवाला लड़का खड़ा था.
"साहब, नए साल की बख्सीस…" वो हाथ में झाड़ू-बाल्टी लिए मुस्कुरा रहा था.
"आज तो 31 दिसंबर है, आने तो दो नया साल…" मैं उससे बोली.
"हमारे लिए तो आ गया है नया साल, " अरुण शरारत भरी आंखों से मुझे देख रहे थे, " वसु! पर्स से सौ रुपए निकालकर इसको दे दो.. ये वाला न्यू इयर बहुत हैप्पी है!.."

Lucky Rajiv
लकी राजीव

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