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कहानी- सच की परछाई (Short Story- Sach Ki Parchhai)

यह नोट हाथों हाथ बारूद बन गया और ठीक सुखदेव के सिर फूटा. पता नहीं कैसे इस नोट के पैर लग गए और वह कार्मिक विभाग में जाने की बजाय यूनियन के ऑफिस की तरफ़ मुड़ गया और यूनियन वाले अपने सभी ज़रूरी काम छोड़ कर सुखदेव के पीछे पड़ गए.

इस बार स्थानांतरणों के लिए जो सूची ज़ारी की गई है, उसमें सुनन्दा बाजपेयी का भी नाम है. इन चार सालों में वह तक़रीबन सभी विभागों और अनुभागों में चक्कर काट आई है और लगभग सभी जगहों से एक तरह से धकियायी ही गई है. सिर्फ़ सुनन्दा ही क्यों, उस जैसे कई हैं, जिनसे पीछा छुड़ाने के लिए इसी तारीख़ का इंतज़ार किया जा रहा था. जिस किसी विभाग में सुनन्दा, पुजारी या प्रधान जैसे कामचोर, आलसी, आधे पागल या पूरे पागल लोग थे, उन सबसे मुक्ति पाने की सभी विभागाध्यक्ष न जाने कब से राह देख रहे थे. वैसे अगर कुछ विभाग अपने यहां सालाना सफ़ाई करवाने में सफल हो गए हैं, तो तय है कि यह कंडम माल किसी के तो सिर पर गिरेगा ही. जितने विभागों में राहत की सांस ली जा रही है, उतने ही दूसरे अधिकारी सिर थाम के बेठे हैं कि किस तरह पूरे एक साल तक इन आदमकद मुसीबतों से काम करवा पाएंगे. सब जानते हैं ये लोग सिर्फ़ स्टाफ संख्या में गिने जाने के लिए हैं, ये लोग काम के लिए तो बने ही नहीं हैं.

सुनन्दा बाजपेयी के लिए यहां प्रशासन में आना एक तरह से उसकी घर वापसी है. यहीं से वह चार साल पहले अकाउंट्स में भेजी गई थी, वहीं से घूमते-घामते वापस लौटी है. अलबत्ता इस बीच प्रशासन में सभी लोग बदल चुके हैं और आमतौर पर वे उसके बारे में ज़्यादा कुछ नहीं जानते. हालांकि उन्होंने भी उसके बारे में उड़ती-उड़ती ख़बरें सुनी हैं, लेकिन वे भी जानते हैं, इन सालाना तबादलों के विरोध में कोई भी कुछ नहीं कर सकता सिवाय एक साल इंतज़ार करने के.

सुनन्दा जब प्रशासन में रिपोर्ट करने के लिए पहुंची, तो वहां सिर्फ़ डिस्पैचर की ही जगह खाली थी. सिर्फ़ डिस्पैचर ही वहां से स्थानांतरित होकर गया था. सुनन्दा आई. अपनी मेज साफ़ की, पुराने काग़ज़ वगैरह संभाले, चार्ज लिया और जाने वाले क्लर्क से जो कुछ भी समझना था, समझा.

एक बार वह सीट पर बैठी, तो सारा काम ख़त्म करके ही उठी. उसने सारी चिट्ठियां रजिस्टरों में दर्ज कीं, लिफ़ाफ़े बनाए, उन पर पते लिखे और, चपरासी से टिकटें लगवा कर डाक में डलवा दीं.

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अगले दो दिन सुनन्दा ने अपना काम मुस्तैदी से किया. अपने साथियों से बात की. उनके साथ खाना खाया, बिल्कुल एक सामान्य कर्मचारी की तरह व्यवहार किया.

सेक्शन इंचार्ज सुखदेव ने राहत की सांस ली. उसे तो बताया गया था कि सुनन्दा बाजपेयी एकदम पागल है और ज़रा सा भी काम ठीक तरह से नहीं कर सकती. यहां तो गज़ब हो गया था. वह तो पहले वाले डिस्पैचर से भी ज़्यादा चुस्ती से काम निपटा रही थी.

सुखदेव को यही लगा, शायद काम की व्यस्तता ही उसका दिमाग़ी संतुलन बनाए रखती है. अगर आदमी के पास काम न हो, तो अच्छा ख़ासा आदमी पागल हो जाए. उसने सोचा, सुनन्दा का यही इलाज है कि उसके पास भरपूर काम हो.

लेकिन चौथे दिन सुबह ही से जो हंगामा शुरू हुआ, उसने सुखदेव के सारे उत्साह पर पानी फेर दिया. आधी से ज़्यादा डाक पोस्ट ऑफिस से वापिस आ गई. किसी पर पूरा पता नहीं था, तो किसी लिफ़ाफ़े पर तीन-चार पते एक साथ लिखे हुए थे. टिकटों का भी कोई हिसाब नहीं था. एक रुपए की जगह कहीं बीस रूपए की फ्रैंकिंग की गई थी तो कहीं लिफ़ाफ़े यूं ही डाक में डलवा दिए गए थे. जो पत्र किसी तरह अपने ठिकानों पर पहुंच भी गए थे, वहां से पार्टियों के फोन आने शुरू हो गए, हमारे पास ग़लत पत्र आ गए हैं. कहीं पूरे केस पेपर्स भेज दिए गए थे, तो कहीं पत्र की सारी प्रतियां एक ही जगह जा पहुंची थीं. सुखदेव ने समझ लिया, सुनन्दा की चार दिन की व्यस्तता.

उसने सुनन्दा को बुलवाया. उससे प्यार से पूछा, "यह सब गड़बड़ी कैसे हो गई." सुनन्दा ने भोलेपन से कहा, "कोई बात नहीं, मैं दोबारा भेज दूंगी." सुखदेव जानते थे यह डेस्क इतनी महत्वपूर्ण है, जिसे सुनन्दा के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता. वह इस बात पर भी अफ़सोस करते रहे कि मैंने पहले ही दिन से उसके कामकाज पर ध्यान क्यों नहीं दिया, कम-से-कम इतनी अव्यवस्था तो न होती. फिर भी उसे एक और मौक़ा देने की नीयत से सुखदेव ने उसे सारी चीज़ें सिलसिलेवार समझाईं. ख़ुद उसके पास बैठकर काम करके दिखाया, लेकिन जब सुनन्दा को फिर कुछ पत्र दर्ज करने के लिए कहा, तो नतीज़ा अब भी ज़ीरो ही था. सुखदेव ने फिर भी अपना पारा नीचे रखते हुए एक बार फिर सुनन्दा से पूछा, "अब तो तुम्हें सब कुछ समझ में आ गया होगा."

"बिल्कुल सर, सब समझ में आ गया है. अब मैं जाऊं सर?"

लेकिन सारा दिन उसके साथ सिर खपाने के बावजूद सुखदेव दस पत्र भी सही ठिकानों पर रवाना नहीं करवा पाए. अब समस्या यह हो गई कि उस डेस्क का काम कौन संभाले, कोई भी उस काम को हाथ लगाने को तैयार नहीं था. जो भी वह काम करने के लिए राजी होगा सालभर के लिए उसी पर बन जाएगा. एक दिन की बात हो तो कोई आगे भी आए, अपनी डेस्क का काम भी संभालो और यह बेगार भी करो. मजबूरन सुखदेव ने ख़ुद बैठकर इन चार दिनों में भेजी गई सारी चिट्ठियों का रिकॉर्ड चेक किया, जो वापस आ गई थीं. उन्हें भिजवाया.

जहां ग़लत पत्र पहुंचे थे, सही पत्र भिजवाए. पूरे दो दिन इसी में उलझा रहा. क्या करें, क्या न करें, कुछ सूझता ही नहीं था.

उसने कोशिश की सेक्शन में कोई सुनन्दा से अपनी डेस्क बदल ले, लेकिन कोई भी तैयार नहीं हुआ. सुखदेव के सामने अब एक ही उपाय बचा था कि अपने वरिष्ठ अधिकारियों और कार्मिक विभाग को इस पूरे मामले की जानकारी दे दे और ऑफिस के हित में किसी सही विकल्प की मांग करें और इसी चक्कर में यह हंगामा हो गया है.

यूनियन ने उसका घेराव कर दिया है. सुखदेव ने अपनी तरफ़ से पूरी सावधानी बरतते हुए नम्र भाषा में कार्मिक विभाग को नोट भेजा था. उसकी ग़लती सिर्फ़ यही रही कि उसने सच लिख दिया था कि श्रीमती सुनन्दा बाजपेयी की मानसिक स्थिति ऐसी नहीं है कि डिस्पैच जैसी महत्वपूर्ण डेस्क संभाल सकें. उसने उन चार-पांच दिनों में उसके द्वारा किए गए सही-ग़लत काम के ब्यौरे देते हुए किसी योग्य कर्मचारी की तैनाती के लिए अनुरोध भर किया था कि सुखदेव के सिर पर बम फूट गया. यह नोट हाथों हाथ बारूद बन गया और ठीक सुखदेव के सिर पर फूटा. पता नहीं कैसे इस नोट के पैर लग गए और वह कार्मिक विभाग में जाने की बजाय यूनियन के ऑफिस की तरफ मुड़ गया और यूनियन वाले अपने सभी ज़रूरी काम छोड़कर सुखदेव के पीछे पड़ गए.

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पहले तो वह समझ ही नहीं पाया कि ये सब लोग उसका घेराव किस लिए कर रहे हैं, वह घबरा गया. उसकी ज़िंदगी में यह पहला मौक़ा था कि कोई उसके पास आकर ऊंची आवाज़ में बात भी कर रहा था. वह घेराव करने वालों को वहीं छोड़कर अधिकारियों की एसोसिएशन के सचिव के पास भागे जो संयोग से साथ वाले सेक्शन में ही बैठे थे.

सचिव ने पूरी बात सुने बिना ही मुस्कुराते हुए कहा, "अरे, ऐसा कुछ भी नहीं करेंगे ये लोग, थोड़ा बोलेंगे, हाय-हाय करेंगे और फिर चले जाएंगे."

सुखदेव ने फिर समझाया, "वे लोग बहुत ज़्यादा हैं, और ग़ुस्से में भी हैं. आप ज़रा आइए तो सही, उन्हें रोकें. आख़िर मैंने किया ही क्या है, जो यह सब मेरे साथ हो रहा है."

बड़ी मुश्किल से सचिव इस बात पर राज़ी हुआ कि वह सेक्शन के बाहर खड़ा दूर से देखता रहेगा कि कोई उसके साथ हाथापाई न करें. एसोसिएशन के सचिव का यह ठंडा और असहयोगी रवैया देखकर सुखदेव विभागाध्यक्ष के पास भागे. उन्हीं की सलाह पर तो उसने यह नोट भेजा था. उन्होंने भी हाथ झाड़ लिए, "अब मैं क्या कर सकता हूं. आपको पहले यूनियन से बात करके देख लेना चाहिए था."

जब सुखदेव ने देखा कि इन दोनों ने भी अपनी पीठ दिखा दी है, तो वह निढाल होकर अपनी सीट पर आ बैठा, हो जाने दो जो भी होता है. आख़िर खा तो नहीं जाएंगे. उनके वापस आने तक तीन-चार मिनट बीत चुके थे. यूनियन वालों ने उसके आते ही उसे आड़े हाथों लिया, "हमसे असहयोग का नतीज़ा जानते हैं. हम यहां आपसे बात करने के लिए आए हैं और आप है कि मटरगश्ती करने खिसक लिए, शरम आनी चाहिए आपको."

सुखदेव चुपचाप अपनी सीट पर बैठ गए. तुरन्त आवेश हुआ, "आपमें इतनी भी तमीज नहीं है कि यूनियन के दस लोग आपसे मिलने आए हैं और आप खड़े भी नहीं हो सकते."

सुखदेव चुपचाप सिर झुकाकर खड़े हो गए. बोलने दो जो कुछ भी बोलते हैं. मैं भी कोई जवाब नहीं दूंगा. तभी प्रेसिडेंट ने गरज कर कहा, "कहिए, क्यों करते हैं आप ऐसी हरकतें, जिससे कोई आपके साथ काम ही नहीं करना चाहता."

"यह ग़लत है, मैंने ऐसा क्या..."

"हम बताते हैं, आपने क्या किया है. एक शरीफ, मेहनती और सीधी-सादी महिला को आपने पागल कहा. आप अपने स्टाफ को विक्टिमाइज करते हैं. उनसे पर्सनल काम कराते हैं."

"लेकिन मेरी बात तो सुनिए." सुखदेव को लगा, सच क्या है, यह बताना बहुत ज़रूरी है, लेकिन चारों तरफ़ से जो शोर उठा, सुखदेव को बात ही पूरी नहीं करने दी गई.

"तुम ख़ुद को समझते क्या हो? तुम्हारे जैसे कई आए और गए." सुखदेव हक्का-बक्का, बेबुनियाद आरोप, बदतमीजी उसने फिर सफ़ाई में कुछ कहना चाहा, तभी उसने देखा सचिव दूर खड़े, चुपचाप सब कुछ देख-सुन रहे हैं.

फिर कोई चिल्लाया, "तू अपने आप को बड़ा तीसमार खां समझता है. बड़ा डॉक्टर आया है जो देखते ही बता देता है कि कौन पागल है." एक और आवाज़ उभरी, "साला ख़ुद पागल है, तभी तो."

एक दूसरी आवाज़ उभरी, "ख़बरदार अगर हमारे किसी भी मेंबर को कुछ कहा तो, वह यहीं और इसी डेस्क पर काम करती रहेगी. देखते हैं तू क्या कर लेगा." धीरे धीरे सारा हुजूम हो हो करके लौट गया है.

सुखदेव सिर थामे बैठा है. कितना अपमान... अपनी सफ़ाई में कुछ कहने की इजाज़त नहीं और सब सुनते रहे, सिर झुकाए काम करते रहे. उन स्टाफ सदस्यों ने भी कुछ नहीं कहा, जो कल तक यही कह रहे थे कि हममें से कोई भी इस पगली का काम नहीं करेगा और एसोसिएशन वाले सचिव साले से तो वह बाद में निपट लेगा. हद है दोगलेपन की. यह हमारी एकता है कि बीस-पच्चीस यूनियन वाले आपके साथी, आपके मेम्बर को लतिया रहे हैं और आप तमाशायी बने देखते रहें. बाद में सुखदेव को पता चला कि सुनन्दा की इस पूरे प्रकरण के बारे में पता ही नहीं था. इन्हीं लोगों ने उसे मना कर दिया था, एक दिन ऑफिस न आने के लिए.

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मिसेज सुनन्दा बाजपेयी साइकिक केस है. वैसे एम. कॉम. पास है. देखने में भी अच्छी है. जब ठीक होती हैं और ढंग से तैयार होकर आती है, तो इस बात का साफ़ आभास मिलता है कि कितनी नफ़ासत पसंद हैं. कभी बहुत अच्छी वर्कर मानी जाती थीं. उन दिनों दिल्ली ऑफिस में थी. एक दिन ऑफिस में आते समय बस का एक्सीडेंट हो गया. सिर पर गहरी चोट लगी थी. तीन दिन तक कोमा में पड़ी रहीं, बाद में होश तो आ गया था. लेकिन दिमाग़ी संतुलन बिगड़ चुका था. कुछेक दिन बाद अस्पताल से तो छुट्टी मिल गई थी, लेकिन लम्बे, महंगे और निरंतर इलाज की सलाह के साथ, घरवालों ने बाद में हैसियत भर इलाज करवाया. कभी ठीक भी हो जाती, लेकिन जहां इलाज रुका, दौरे पड़ने लगते. लगातार कुछ भी अनाप-शनाप बोलने लगती. न कपड़ों की सुध रहती, न नहाने-धोने की. कभी सड़क पर निकल जाती, लगातार चलती रहती, बोलती रहती. पर्स में न जाने कहां-कहां के काग़ज़ भर लेती और उन पर कुछ भी लिखती रहती. बोलती रहती. कभी ऑफिस वक़्त पर न पहुंच पाती और कभी घर वापस न जा पाती. काग़ज़ सामने रख कर घूरती रहती.

डॉक्टरों ने बताया इसका विधिवत पूरा इलाज होना चाहिए, ज़रा भी चूक हुई कि हर बार नए सिरे से इलाज शुरू करना पड़ेगा. मां-बाप की और भी औलादें थीं, एक-दो महीने इलाज कराते, ज़रा-सा भी ठीक होने के आसार नज़र आते, तो इलाज बंद कर देते. फिर वहीं हालत. मां-बाप ने पता नहीं क्या सोचा, आधा-अधूरा इलाज कराके वैवाहिक विज्ञापन के ज़रिए जैसा भी पति मिला, उसी से शादी कर दी. लड़का फैक्टरी वर्कर था. उस बेचारे से सारी बात छुपा ली गई. पहले जब-जब लड़की दिखाई गई या लड़के से उसे मिलवाया गया, तो उससे पहले सुनन्दा को तेज इंजेक्शन दिलवा दिए गए थे. बस-पंद्रह दिन भरपूर खुराक और दवाएं दी गई. यहां तक कि सुनन्दा की शादी भी एक तरह से इंजेक्शनों के असर में ही की गई थी. उसने कमाऊ लड़की देखी. ऑफिस से मिलने वाली सुविधाओं का हिसाब लगाया और शादी हो गई. दोनों यहां आ गए. शादी के कुछ ही दिन पहले दिए गए तेज इंजेक्शन और दवाओं के असर में सुनन्दा ने कुछ दिन तो ठीक-ठाक खींच लिए, लेकिन दवाओं के ख़त्म होते ही सुनन्दा अपने पूर्व रंग में आ गई. अपने घर पर तो कोई भी दवा दिलवा देता था. यहां कौन दिलवाता. पति को पता नहीं था. सुनन्दा की हालत बिगड़ती चली गई. वह अनाप-शनाप बोलने लगी. कभी चाकू उठा लेती, तो कभी रसोई में नाचना शुरू कर देती. वह घबराया बीवी को पता नहीं क्या हो गया है. भागाभागा डॉक्टर के पास गया. डॉक्टर ने देखते ही कह दिया, "यह आज का रोग नहीं है. दो-तीन साल पुरानी समस्या है. लगता है दवा बंद कर देने से यह हालत हो गई है. इलाज के पुराने काग़ज़ात कहां हैं?"

अब उसे लगने लगा, बीच-बीच में जो सुनन्दा का व्यवहार एकदम बदल जाता था, वह लगातार एक ही चीज़ को घूरने लगती थी. उसकी क्या वजह थी. मजे की बात, वह यहां ट्रांसफ़र लेकर आई और अपने नए ऑफिस भी जाती रही. किसी ने भी कोई भी शिकायत नहीं की थी. सुनन्दा के घर वालों से बात करना बेकार था. उन्होंने तो सारी बात छुपा कर उसके साथ इतना बड़ा मज़ाक किया था. डॉक्टर ने साफ़ कह दिया, " इलाज जब तक चलता रहेगा, वह ठीक रहेगी, जहां चूक हुई..." वह सुनन्दा को घर ले आया था.

उसने सभी पहलुओं पर ग़ौर किया. यह सब कैसे और क्यों हुआ? यह तो तय है, उसे धोखा दिया गया है. नौकरी और नौकरी की सुविधाओं के चक्कर में उसके पल्ले एक पगली बांध दी गई है. अब क्या वह तलाक़ ले ले, जो उसे सुनन्दा को मनोरुग्ण साबित कर आसानी से मिल जाएगा या नौकरी छुड़वा कर घर बिठाए अथवा इलाज करवाता रहे. किसी तरह दवाओं के बल पर सुनन्दा को ठीक ठाक रखे.

उसने देखा कि जब सुनन्दा दस-बीस दिन तक इलाज कराने के बाद ठीक होकर ऑफिस जाने लगी, तो सब कुछ नॉर्मल हो गया. जैसे कुछ हुआ ही न हो. उसने पता लगाया. दिल्ली में भी ऐसा ही चलता रहा था दो-ढाई साल तक. वहां भी न घर पर किसी को उसकी परवाह थी, न ऑफिस में. उस जैसे कई पागल भरे पड़े हैं. कुछ बने हुए पागल हैं, लेकिन सबके सब बरसों से नौकरी किए जा रहे हैं और पूरी पगार उठा रहे हैं, जो काम नहीं करते या नहीं कर सकते, उनके तो और भी मजे हैं. कोई काम देता ही नहीं. बस, मौक़ा मिलते ही ऐसे पागलों को गेंद की तरह लुढ़का दिया जाता है. लेकिन उससे क्या फ़र्क़ पड़ता है, नौकरी तो फिर भी बनी रहती.

मिस्टर बाजपेयी ने यह भी देखा कि बेशक सुनन्दा की शादी हो गई है, उसे पता भी है. कभी-कभी ढंग से तैयार होकर विवाहित होने का एहसास भी दिलाती है. लेकिन कुल मिलाकर वह दीन-दुनिया से परे है. जो पहन लिया, उसी में ख़ुश, जो मिल गया या पका लिया, खा-पी लिया. ऑफिस जाती है और सीधे घर लौट आती है. हां, पूरी पगार लाकर उसे थमा देती है. उसकी अपनी पगार से ठीक दुगुने, जबकि सुनन्दा की ख़ुद की कोई भी मांग नहीं है. वह हर वक़्त अपने में मस्त है.

तो, तो क्या ज़रूरत है. उसका इलाज कराने की, जबकि बिना इलाज कराए, ठीक हुए भी वह कमा कर ला सकती है, तो वह तलाक़ की क्यों सोचे या उसकी पक्की नौकरी क्यों छुडवाए. जब उसका ऑफिस बिना काम करवाए उसे पूरे पैसे देने को तैयार बैठा है, तो उसी को लेने में क्यों तकलीफ़ हो. चलने दो इसी तरह. आख़िर उसे भी तो धोखा दिया ही गया है वह अपने तरीक़े से बदला लेगा.

एक-दो बार वह उसे लेने या छोड़ने ऑफिस गया, तो उसे यूनियन की ताक़त का पता चला. उसने देखा, पांच-सात ही लोग हैं, जो पूरी यूनियन और यूनियन के ज़रिए पूरे ऑफिस पर कब्जा किए हुए हैं. वह उन लोगों से मिला, उनके आगे अपने दुखड़े रोए, "टेम्परेरी नौकरी, पागल बीवी, उसका इलाज तो करवा ही रहा हूं. ज़रा आप लोग हैं. इसका ऑफिस में ख़्याल रखें. कहीं इसके साथ कोई ऊंच-नीच न होने पाए, बाकी मैं हूं ही सही, कभी भी मेरे लायक कोई सेवा हो तो कहें."

अगली बार जब वह यूनियन के ऑफिस में आया, तो उसके बैग में बहुत सारी इंपोर्टेड चीज़ें थीं, जो उसने आफिस के सामने वाली कस्टम नोटिफाइड शॉप से ख़रीदी थीं. उसने बताया, "गल्फ में मेरा दोस्त रहता है. मुझे बहुत मानता है. जब भी आता है, मेरे लिए वे सब चीज़ें ले आता है. अब मैं ठहरा फैक्ट्री वर्कर, ये सब चीज़ें मेरे किस काम की. मैने सोचा, हैं हैं हैं..." इस तरह हैं-हैं करके चीज़ें देने का सिलसिला उसने कई दिन तक और कई लोगों के लिए चलाया.

उस दिन से यूनियन वाले इस बात का पूरा ख़्याल रखते हैं कि सुनन्दा को किसी भी तरह की तकलीफ़ न होने पाए. बेशक वैसे भी उसे कोई तंग नहीं करता. वह काम करे या बिगाड़े, सब चलता है. वह ख़ुद कभी यूनियन वालों के पास नहीं जाती, लेकिन जब उसकी तबीयत ज़्यादा बिगड़ने लगती है या उसकी हरकतें हद पार करने लगती हैं, तो उसके पति को बता दिया जाता है कि कुछ दिन तक उसे ऑफिस न भेजें या एकाध सुई लगवा दे.

वह जैसी है, उसी में ख़ुश है. जिन दिनों इलाज चल रहा होता है, खूब ख़ुश रहती है. पति की बहुत तारीफ़ करती है. नहीं तो उसकी अपनी दुनिया है, जिसमें वह मस्त है. शिकायतों, तनावों और रोज़-रोज़ की परेशानियों से परे, उसे न आजकल के फैशन का पता है, न महंगाई भत्ते की नई किस्त का. वह तो एक चलती-फिरती मशीन है, जो दिनभर ऑफिस में बैठने का रुपया पाती है, यह पैसे वह अपने पति को दो-चार जोड़ी कपड़ों, दो वक़्त की रोटी और एक बिस्तर के एवज में देती है. अब यह आरोप उस पर कैसे लगाया जा सकता है कि वह पागल है. इतना अधिक करने, कमाने के बावजूद वह अपने लिए कितना कम रखती है.

सच, वह कितनी भोली है, उस बिचारी को तो यह भी पता नहीं कि उसके पति ने अपनी फैक्टरी के पास ही एक और घर बसा रखा है और उस घर में रहने वाली दूसरी औरत का सारा ख़र्च सुनन्दा के वेतन से ही पूरा किया जाता है.

- सूरज प्रकाश

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