Close

कहानी- शायद और कुछ (Short Story- Shayad Aur Kuch)

"आप मुझे बहुत अच्छी लगती हैं. मैं आपसे प्यार करने लगा हूं." वह एक सांस में पूरी बात कह गया. चटाक्, मैंने ज़ोर से उसे एक तमाचा मारा. मैं तो जैसे आसमान से गिरी. मैं ग़ुस्से में तमतमा रही थी, न कुछ कहते बन रहा था, ना कुछ करते, जैसे-तैसे मैंने अपने आपको संभाला.

"दीदी चाय पियोगी." रिंकू लगभग चिल्लाते हुए बोला, "हां... मैंने धीरे से सिर हिलाकर अपनी स्वीकृति दी. आज सुबह से ही मन कुछ उदास उदास सा था. सुबह बिस्तर से उठकर सीधे लॉन में ही आकर बैठ गई.

कुछ देर बाद ही रिंकू चाय ले आया और सामने वाली कुर्सी पर बैठकर आज का अख़बार पढ़ने लगा.

"चाय अच्छी बनी है." मैंने चाय ख़त्म की ही थी कि उसने एकदम से चिल्ला कर पूछा, "रश्मि दीदी, आज का अख़बार पढ़ा?"

"नहीं, अभी नहीं." मैंने कहा.

"ज़रा देखो तो सही." उसने अख़बार मेरी तरफ बढ़ाते हुए कहा. मैंने भी उत्सुकतावश शीघ्रता से उससे अख़बार छीनते हुए पूछा, "ऐसा क्या लिखा है?" और मैं अख़बार का प्रथम पृष्ठ देखने लगी. "ओ माई गॉड, ये क्या हो गया, ऐसा नहीं होना चाहिए था." रिंकू अपने में ही बड़बड़ाता जा रहा था. पर मुझे तो जैसे सांप सूंघ गया. एक पल के लिए ऐसा लगा कि जैसे शरीर में जान ही न हो. मैं कुछ भी सोचने-समझने की स्थिति में नहीं थी. मैं कुछ नहीं बोली, चुपचाप वहां से उठकर अपने कमरे में आकर लेट गईं. मन में न जाने कितने विचार उठने को मचल रहे थे. आंखों के सामने हर पल हज़ारों चित्र बनते और बिगड़ते जा रहे थे.

अभी कल की ही तो बात है जैसे क्लास रूम में बच्चों का शोर तेज़ होता जा रहा था. मैं तेज़ कदमों से क्लास रूम की ओर बढ़ रही थी. वहां पहुंचते ही मैंने अपना आज का टॉपिक ब्लैक बोर्ड पर लिख दिया और पढ़ाना शुरू कर दिया. सारे लड़के-लडकियां अपने आप शांत

हो गए. कुछ देर बाद मैंने अपना लेक्चर समाप्त कर उपस्थिति ली और पीरियड ख़त्म होते ही स्टाफ रूम में आ गई. जैसा सामान्यतः हर रोज़ होता था.

यह भी पढ़ें: टीनएजर्स में क्यों बढ़ रही है क्रिमिनल मेंटैलिटी? (Why Is Criminal Mentality Increasing Among Teenagers?)

मैं इस विद्यालय में छह महीने पहले नियुक्त होकर आई थी. उच्च कक्षाओं में पढ़ाने का यह प्रथम अवसर था, इसे चुनौती मानते हुए मैंने भी अपनी ओर से पूरा प्रयास किया कि मैं विद्यार्थियों की सभी जिज्ञासाओं का समाधान कर सकूं. साथ ही साथ मेरा यह भी प्रयास रहता था कि छात्रों को इस ढंग से विषय सामग्री प्रस्तुत की जाए कि

वह रोचक होकर आसानी से ग्राह्य हो.

अपने घर से इतनी दूर यहां आकर बहुत अच्छा तो नहीं लगता था, पर मेरी महत्वाकांक्षी प्रवृत्ति मुझे यहां तक ले आई थी.

मेरी कक्षा में वैसे तो सभी विद्यार्थी सीधे-सादे, अनुशासनप्रिय थे, परन्तु अपनी नियुक्ति के कुछ ही दिनों बाद मुझे कक्षा के २-३ शरारती लड़कों के बारे में जानकारी मिल गई थी, पर मैंने उस ओर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया. परन्तु जब एक दिन उन्हीं छात्रों ने कक्षा में पढ़ाते समय मुझसे प्रश्न पूछना शुरू कर दिया, मैंने भी यथा-सम्भव उनको संतुष्ट करने योग्य उत्तर दिया. पर धीरे-धीरे मैंने महसूस किया कि ऐसा सिर्फ़ मुझे परेशान करने के उद्देश्य से किया जा रहा है. मेरे द्वारा दिए गए उत्तर में उनकी कोई रुचि मुझे दिखाई नहीं दी. इस तरह अब तो यह लगभग रोज़ की बात हो गई.

एक दिन उन छात्रों में से एक छात्र ने मुझसे विषय से संबंधित एक प्रश्न पूछा.

मैंने उसकी पुरानी आदत को ध्यान में रखते हुए उसे पढ़ाते समय व्यवधान समझा और उससे कक्षा के बाद बाहर मिलने को कहा.

कक्षा के बाहर वह मुझसे मिला और अपनी समस्या का उत्तर पूछने लगा. मैंने भी उसके प्रश्नों का यथाशक्ति उत्तर दिया. पर पता नहीं क्यों वह मुझे इन उत्तरों से सन्तुष्ट सा नहीं दिखा. मैंने उससे पूछा, "क्या बाल है, कोई समस्या है क्या?" "टीचर, मुझे कुछ समझ में नही आया." वह बोला.

मैंने कहा, "ठीक है, तुम आज शाम को मेरे घर आ जाना मैं तुम्हें इस बारे में और विस्तार से समझा दूंगी. और तुम्हें कुछ किताबें भी दे दूंगी, जो इन्हीं प्रश्नों से संबंधित हैं. मुझे उम्मीद है फिर तुम्हें कोई कठिनाई नहीं होगी." स्वीकृति में सिर हिलाकर वह नमस्ते करके चला गया.

इसके बाद तो मुझे ख़ुशी हुई और मुझे लगने लगा कि मेरी मेहनत व्यर्थ नहीं जाएगी. अब तो यह लड़का पढ़ाई की ओर ध्यान देने लगा है. मैंने देखा उसने अपने साथियों की दोस्ती भी छोड़ दी थी. कक्षा में वह अधिकतर मुझसे प्रश्न करता. उसे ढंग से समझता और कभी-कभी घर आकर भी मुझसे कुछ न कुछ पूछता रहता.

मैं उसमें आए इस बदलाव से बहुत ख़ुश थी. मैं अपने अंदर आत्मविश्वास और बढ़ता हुआ पा रही थी.

उस दिन इतवार था. मैं भी देर से सोकर उठी थी, हफ़्ते भर के बाद एक यही तो दिन या जिस दिन में थोड़ा तनाव मुक्त रह कर आराम करती. कुछ अपने मनपसंद कार्य करती और अगले दिन के लिए फिर तैयार होती.

अभी दोपहर के क़रीब तीन बजे थे. मैं थोड़ा सोने की तैयारी में थी कि दरवाज़े पर दस्तक सुनाई दी.

'इस समय कौन होगा!' यही सोचती हुई में दरवाज़े तक पहुंची, "कौन है?" मैंने पूछा, "जी, में सुदीप..." आज इसको क्या समस्या आ गई. आज तो वैसे भी इतवार है और आज के दिन बच्चों का पढ़ाई में तो कम ही मन लगता है. मैं यह सोचते-सोचते दरवाज़ा खोलने लगी, "अरे तुम..! आओ अन्दर आ जाओ." मैने उससे कहा.

यह भी पढ़ें: चाइल्ड ट्रैफिकिंग: जानें गायब होते बच्चों का काला सच (The Shocking Reality of Child Trafficking in India) 

"कहो क्या बात है?" पर वह कुछ नहीं बोला, बस मुझे देखे जा रहा था. मैंने फिर पूछा "सुदीप क्या बात है, बताओ..?"

"मैनी हैप्पी रिटर्न ऑफ द डे, टीचर." यह कहते हुए उसने एक लाल गुलाब मेरी तरफ़ बढ़ाया, मैं थोड़ा अचकचाई और पूछा, "तुम्हें कैसे मालूम कि आज मेरा जन्मदिन है?"

"सॉरी टीचर, कल आपके घर से विद्यालय में यह पत्र आया था, जो मैंने आपकी इजाज़त के बिना खोल लिया, उसी से यह पता चला कि आज..." वह इतना बोलकर रुक गया, "ओ, मुझे तो याद भी नहीं था. अच्छा थैंक्यू वेरी मच. पर आगे कभी ऐसा मत करना, दूसरों के पत्र बिना इजाज़त पढ़ना ग़लत बात है."

"जी टीचर, आई एम सॉरी टीचर..." उसने कहा,

"ओ.के. इट्स ऑल राइट." मैंने मुस्कुराते हुए कहा.

मैंने सोचा अब वह जाने को कहेगा, पर वह बहुत गुमसुम सा वहीं बैठा रहा. मैंने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा "क्या बात है सुदीप, कुछ परेशान हो."

"जी, जी टीचर..!"

"कहो, क्या बात है?"

"जी, वो बात ये है कि...!"

"हां बोलो."

"आप..."

"हां मैं, क्या?"

"आप मुझे बहुत अच्छी लगती हैं. मैं आपसे प्यार करने लगा हूं." वह एक सांस में पूरी बात कह गया.

चटाक्, मैंने ज़ोर से उसे एक तमाचा मारा. मैं तो जैसे आसमान से गिरी. मैं ग़ुस्से में तमतमा रही थी, न कुछ कहते बन रहा था, ना कुछ करते, जैसे-तैसे मैंने अपने आपको संभाला. उसे देखा तो वह अभी वहीं पर सिर झुकाए खड़ा था. मैंने उससे तुरन्त यहां से चले जाने को कहा.

उसके जाने के बाद मेरी नींद तो कोसों दूर थी. मैं यही सोचती रही कि क्या हो गया है इस लड़के को, क्या वह सिर्फ़ इसीलिए मेरे पास आता था. मैं जो सोच रही थी कि वह सुधर गया है, वह सब ग़लत था. मैं उस रात पूरे समय यही सोचती रही. फिर आख़िर मैंने अपने मन को समझाया कि चलो कोई बात नहीं, अभी वह बच्चा है, उम्र ही क्या है उसकी, कल उसे समझा दूंगी सब ठीक हो जाएगा.

दूसरे दिन में नियत समय पर विद्यालय पहुंची, फिर कक्षा में पहुंचकर मैंने पाया कि आज सुदीप नहीं आया है. मैंने उस बात को दिमाग़ से निकाल कर अपना पाठ्यक्रम पूरा किया. कक्षा समाप्त होने पर जैसे ही मैं बाहर निकली कि विद्यालय के चपरासी ने आकर ख़बर दी कि मेरे मां-बाबूजी आए हैं.

मैंने प्रिंसिपल साहब से आधा दिन की छु‌ट्टी ली और जल्दी से घर पहुंचने का सोचकर ऑटो रिक्शा कर लिया. घर पहुंचने पर मैंने देखा कि वहां तो कोई नहीं था. आसपास देखते हुए मैं गेट से होकर घर के दरवाज़े तक पहुंची. वहां देखा तो ताला ज्यों का त्यों लगा था. मैंने अपने पड़ोसी से पूछा कि कोई आया था क्या? उन्होंने भी अनभिज्ञता ज़ाहिर की. शायद मां-बाबूजी मुझे देर होने के कारण विद्यालय ही न चले गए हों. यही सोचकर मैंनें भी विद्यालय वापस जाना ही उचित समझा और मुड़कर जाने लगी कि अचानक मेरी नज़र सामने गेट पर खड़े सुदीप पर गई.

"सुदीप तुम!" मैनें पूछा, "तुम आज विद्यालय क्यों नहीं आए?"

"जी, टीचर मेरी तबियत ख़राब है." उसने कहा.

"तो फिर घर जाकर आराम करो, यहां क्या कर रहे हो?"

कहा, "जी आपसे बात करनी थी..." उसने कहा.

यह भी पढ़ें: वास्तु गाइडः ताकि बच्चों का लगे पढ़ाई में मन (Vastu Guide: To Help Children Focus On Their Studies)

"क्या बात करनी है और तुम्हें यह कैसे मालूम कि मैं इस समय घर पर हूं?" मैंने ज़ोर से पूछा, "जी, यह ख़बर मैंने ही आप तक भिजवाई थी कि आपके मां-पिताजी आ रहे हैं. दरअसल, मुझे डर था कि आप आज कक्षा में सबके सामने मेरा अपमान न कर दें. इसलिए मैं आज वहां नहीं आया. पर आपसे बात करनी थी, इसलिए ऐसा करना पड़ा." वह जल्दी से इतना कुछ बोल गया. मेरे ग़ुस्से की तो कोई सीमा नहीं थी. ज़रा सा लड़का और इतना दिमाग़. मन में तो आ रहा था, उसे कान पकड़ कर विद्यालय ले जाऊं, पर पता नहीं क्या सोच कर मैं ऐसा नहीं कर पाई. पर मैं अन्दर ही अन्दर उबल रही थी, "तुम्हें शर्म नहीं आती, ऐसा करते हुए और सुनो, मुझे तुमसे कोई बात नहीं करनी. आगे से तुम मुझसे मिलने की कोशिश भी मत करना. ये सब और कुछ नहीं तुम्हारी उम्र का तकाज़ा है. इन सबसे ध्यान हटाकर पढ़ाई पर ध्यान दो तुम्हारी परीक्षा सिर पर है." इतना कहकर मैं तेज कदमों से वहां से चली आई. उसके बाद दो-तीन बार इसी तरह उसने कुछ न कुछ करके मुझसे बात करने की कोशिश की, पर मैंने हर बार उससे बात करने से इन्कार कर दिया.

इसके पश्चात् विद्यालय में परीक्षा शुरू हो गई. परीक्षा समाप्त होते ही छुट्टियों में मैंने घर जाने की तैयारी शुरू कर दी. इस बीच सुदीप भी कहीं नज़र नहीं आया. मैं अपने आपको मानसिक रूप से बहुत तनावमुक्त महसूस कर रही थी कि शायद वह समझ गया.

मुझे आज घर जाना था. ट्रेन अपने नियत समय से दो घंटे विलम्ब से आ रही थी. अभी तो काफ़ी समय है, यह सोचकर मैं थोड़ा आराम करने के लिये लेट गई. लेटी ही थी कि झपकी लग गई. थोडी देर बाद नींद खुली तो देखा घड़ी पौने तीन बजा रही थी. यानी ट्रेन आने में सिर्फ़ १५ मिनट बाकी है. मैं हड़बड़ी में ऑटो रिक्शा लेकर स्टेशन पहुंची. ट्रेन आ चुकी थी, जल्दी से दौड़कर मैंने अपना सामान ट्रेन में चढ़ाया और खिड़की के तरफ़ वाली खाली सीट देखकर वहीं बैठकर चैन की सांसें लेने लगी. कुछ ही पलों में वह मेरे सामने था. वह खिड़‌की के पास आकर बोलने लगा, "टीचर प्लीज़, एक बार मेरी बात सुन लिजिए, प्लीज़ टीचर... एक बार, सिर्फ़ एक बार...."

ट्रेन की गति धीरे-धीरे तेज होती जा रही थी. मैं कुछ नहीं बोली शायद आसपास के लोगों के कारण. मैं जानती थी, यदि मैने उससे कुछ बोलना शुरू किया तो मैं अपने पर नियंत्रण नहीं रख पाऊंगी और एक सार्वजनिक स्थल पर इस तरह का व्यवहार अशिष्टता होगी. यही सोचकर मैं चुप रही. वह दौड़ता हुआ यही बात दोहराता रहा, मैं सिर्फ़ उसे देखती रही. उस क्षण वह मुझे बहुत बेबस सा लगा. इस बीच ट्रेन प्लेटफर्म छोड़ चुकी थी, वह मेरी नज़रों से बहुत दूर एक बिन्दु सा दिखाई पड़ रहा था.

घर आकर भी एक-दो दिन तक मुझे उसका इस तरह ट्रेन के पीछे भागना और चिल्लाना ध्यान आता रहा, परन्तु धीरे-धीरे सब सामान्य हो गया. मैं अपनी साल भर के बाद मिली छुट्टियों का आनन्द लेने लगी, पर आज ये क्या हो गया? मैं जैसे निद्रा से जागी. दौड़कर फिर लॉन में गई, आज का अखबार वहीं पड़ा था.

सुदीप, हां, सुदीप ही तो नाम था उसका..! क्या वो ऐसा कर सकता है, ये बात मेरे दिमाग़ में कभी क्यों नहीं आई. वो इस दुनिया में नहीं रहा, इस बात पर मैं यक़ीन ही नहीं कर पा रही थी. उसने स्वयं को ख़त्म कर लिया, मेरा मन यह मानने को तैयार ही नहीं था. क्या उसके ऐसा कदम उठाने की ज़िम्मेदार मैं हूं! क्या उसकी मौत का कारण मैं हूं? यह सवाल मुझे बार-बार कचोट रहा था. वह उस दिन क्या कहना चाहता था..! मैंने उसकी बात क्यों नहीं सुनी, शायद कुछ और कहना चाहता था वह. हां, सच वह कुछ और कहना चाहता था.

मेरा यह मानसिक अंतर्द्वंद्व अन्दर ही अन्दर खाए जा रहा था. समझ में नहीं आया किसे दोष दूं? ख़ुद अपने आपको या इस आज की युवा पीढ़ी को, जो न जाने किस दिशा में जा रही है. कौन संभालेगा इसे? कौन इसे सही रास्ता दिखाएगा, शायद समाज को आज फिर किसी महापुरुष की ज़रूरत है. है कोई इस दुनिया में जो इस नई पीढ़ी का नायक बन उसे उसके उचित गंतव्य तक पहुंचा सके, नई दिशा दे सके, उसे भटकने से बचा सके. काश! मैं ऐसा कर पाती..!

- मंजरी सिंह

अधिक कहानियां/शॉर्ट स्टोरीज़ के लिए यहां क्लिक करें – SHORT STORIES

Share this article