पुष्पा भाटिया
हर व्यक्ति, भावनाओं के धरातल पर प्रशंसा का पात्र बनना चाहता है. परिवार की वरिष्ठ सदस्या होने के नाते दादी चाहतीं, तो मैं भी अपनी पहचान बना सकती थी, लेकिन उन्हें तो भाभी के गुणों की माला जपने से ही फुर्सत नहीं थी.
"अपूर्वा बहू, अपूर्वा बहू." बुटवल (नेपाल) से गोरखपुर अपनी ससुराल आए हुए बमुश्किल हमें तीन दिन ही हुए थे और इन तीन दिनों में लगभग तीस बार दादी अपूर्वा भाभी की प्रशंसा कर चुकी थीं. अपूर्वा भाभी यानी ताईजी की सबसे छोटी बहू. हालांकि मैं उनसे कभी नहीं मिली थी, क्योंकि हमारे विवाह के समय वो गर्भवती थीं. राघव भैया अकेले ही आए थे लंदन से. लेकिन मन में नारी सुलभ जिज्ञासा थी. ऐसे कौन-से सुर्ख़ाब के पर लगे हैं अपूर्वा भाभी में. ताईजी की दो बहुएं और भी तो हैं. सुलक्षणा भाभी और शालिनी भाभी. फिर अपूर्वा भाभी की ही प्रशंसा क्यों करती रहती हैं दादी? उनके अनुसार अपूर्वा भाभी इतनी सुंदर और सुघड़ महिला हैं कि वहां तक कोई नहीं पहुंच सकता. मैं भी चाहे भरसक प्रयत्न कर लूं, उनकी बराबरी कभी नहीं कर सकती. एक तो सफ़र की थकावट, दूसरे इतने बड़े बंगले से निकलकर संयुक्त परिवार के एक अदद कमरे में ख़ुद को व्यवस्थित करना. ऊपर से उठते-बैठते, सोते-जागते, अपूर्वा भाभी की प्रशंसा. मन अड़ियल घोड़े-सा पिछले पैरों पर खड़ा हो गया, चाहे जो भी हो, मैं अपूर्वा भाभी को पराजित करके ही रहूंगी. मैंने सबसे पहले अपने कमरे की साफ़-सफ़ाई की और नए सिरे से संजाया-संवारा. इन सब में काफ़ी समय बीत गया. मां और ताई सुबह से ही पापा के साथ शहर गई थीं. उन्हें लौटने में देर हो जाएगी, ये जानते हुए भी मुझे अपने व अश्विनी के लिए कुछ बनाने का ख़्याल ही नहीं रहा. थकान के कारण कुछ भी बनाने की हिम्मत नहीं थी, इसलिए अश्विनी को नूडल्स ही बनाकर खिला दिया. लेकिन दादी ने कूड़ेवाली को कचरे के डब्बे में से नूडल्स का खाली पैकेट ले जाते देख लिया. आंगन में बैठे-बैठे हाथ का पंखा झुलाते हुए उन्होंने जुमला फेंका. “घर में सारे साधन जुटे हैं. फ्रिज सामान से भरा है, फिर भी बहू ने नूडल्स पकाकर अश्विनी को खिला दिए. पति को ख़ुश रखने का रास्ता, उसके पेट से होकर जाता है. अपूर्वा बहू ये बात अच्छी तरह समझती थी. ऐसा खाना पकाती थी कि उसकी सुगंध ही इंसान को बेताब कर देती थी. राघव तो दो-दो सीढ़ियां चढ़ता हुआ किचन तक पहुंच जाता था. पति के खानपान का ध्यान रखना पत्नी की पहली ज़िम्मेदारी है.” शर्म से मेरी गर्दन झुक गई. ऐसा लगा, जैसे दादी ने मुझे रंगे हाथों पकड़कर कठघरे में खड़ा कर दिया हो. दादी का भाषण अनवरत जारी था. वो सांस लेने के लिए एक क्षण को रुकीं, फिर बोलीं, “पति कुछ दिनों तक ही पत्नियों के आगे-पीछे घूमते हैं. गर्मजोशी ख़त्म हुई नहीं कि उसकी नज़र पत्नी की सुघड़ता और घर चलाने की प्रवीणता पर टिक जाती है. मर्द लोग पूरा दिन दौड़भाग में लगे रहते हैं. घर पर भी उन्हें ये ऊल-जुलूल खाने को मिले, तो एक दिन ऐसा आएगा, जब उन्हें दवाइयां खाकर पेट भरना पड़ेगा.” दादी के शब्दों ने मुझे तीर का दंश दिया था. उन्हें ख़ुश करने के उद्देश्य से मैंने पाककला की पुस्तकों और टीवी चैनलों पर प्रसारित कार्यक्रमों को देख-देखकर, कई व्यंजन पकाने में निपुणता हासिल कर ली. कभी चाइनीज़, मुग़लई और कॉन्टीनेंटल डिश बनाती, कभी डोसा, सांबर-इडली, वड़ा और उत्तपम. अश्विनी शुरू से ही बाहर खाना खाने के शौक़ीन थे, पर अब उनकी भी शामें घर पर ही बीतती थीं. थोड़ा वज़न ज़रूर बढ़ा, लेकिन सूखे गाल भरने लगे थे. मुझे लगा दादी बहुत ख़ुश होंगी, लेकिन उनकी नाराज़गी जस की तस थी. मौक़ा मिलते ही उन्होंने मुझे घेर लिया और अधिक तेल-घी, मसाले डालने पर लेक्चर दे डाला. मेरा उदास चेहरा देखकर अश्विनी ने हंसी में बात टालनी चाही, “कुछ दिन अपूर्वा भाभी के साथ रहो. कम मसालों और घी के प्रयोग के बावजूद भी ऐसा खाना पकाती हैं कि उंगलियां चाटते रह जाओ. क्या मजाल जो किसी का आधा किलो वज़न भी बढ़ा हो.” मैंने मन ही मन निश्चय किया कि अब किसी को शिकायत का मौक़ा नहीं दूंगी. अपूर्वा भाभी को पराजित करके ही रहूंगी. धीरे-धीरे मैं थकने लगी. शरीर से ही नहीं, मन से भी थकने लगी. न ढंग का पहनती-ओढ़ती, न खाती-पीती. कुछ दिन तक शांति और सौहार्द का वातावरण पसरा रहा. अचानक दादी ने अपनी चुप्पी तोड़ी. “अपूर्वा, हम सबके उठने से पहले ही नहा-धोकर पूजा-पाठ भी कर लिया करती थी. हमेशा साफ़-सुथरी व बनी-संवरी आती थी. सच, बहू हो तो ऐसी.” दादी की शिक्षा में दम था, मैंने उनके शब्दों का अक्षरशः पालन किया. दादी ख़ुश हुईं या नहीं, अश्विनी हर समय खिले-खिले रहते. इस बीच मैं गर्भवती हो गई. घर का माहौल थोड़ा ख़ुशगवार हो गया. लेकिन दादी की नज़रें अक्सर मुझे घूरती रहती थीं. दादी का एक और नया भाषण शुरू हो जाता, “अपूर्वा ने अपने होनेवाले बच्चे के लिए हर चीज़ अपने हाथों से तैयार की थी. बेबी सेट, स्वेटर, यहां तक कि पोतड़ों के किनारों पर बेल और कंगूरे भी उसने ख़ुद ही काढ़े थे. बच्चों को भी इतना अच्छा पालती है कि लोग मिसालें देते नहीं अघाते.” यह तो पराकाष्ठा थी. मुझे खाना पकाना नहीं आता, घर संभालना नहीं आता, सीना-पिरोना नहीं आता, मेरी ग़लती थी, लेकिन दादी की इच्छानुसार मैंने ख़ुद को बदलने की कोशिश तो की, लेकिन जो बच्चा अभी तक पैदा ही नहीं हुआ, उसे पालने की कला में मैं पारंगत कैसे हो सकती थी? अपूर्वा, अपूर्वा, अपूर्वा. मन अपनी अनदेखी प्रतिद्वंद्वी के प्रति ईर्ष्या से भर उठा. उनका नाम ही मुझे ज़हर-सा लग रहा था. कई दिनों से मेरे अंदर ज्वार-भाटा सुलग रहा था. आज दादी के शब्दों ने मेरे स्वाभिमान पर चोट करके इस आंच को और सुलगा दिया था. अरसे से संजोया बांध, भावों के तीव्र प्रवाह से स्वतः टूट गया था. बोली, “पोतड़ों के किनारों पर झालरें लटकाना, कढ़ाई करना कोई सुघड़ता नहीं है दादी. डॉक्टर कहते हैं, बच्चों के कपड़े बेहद सादे और कंफर्टेबल होने चाहिए.” दादी के बूढ़े जर्जर शरीर में न जाने कहां से ताक़त आ गई. इससे पहले कि वो असल भाषण आरंभ करतीं, बड़बड़ाती हुई दूसरे कमरे में चली गईं, “यही तो कमज़ोरी है नई पीढ़ी की. अक्ल रत्तीभर भी नहीं और आत्मविश्वास ज़बर्दस्त. न किसी की सुनेंगे, न मानेंगे. सारा विज्ञान और डॉक्टरी जानकारी जैसे इन्हीं के पास जमा है. कोई इनके फ़ायदे की भी बात बताए, तो वो भी बुरी लगती है.” उस रात मैं, अश्विनी के कंधे पर सिर रखकर घंटों सिसकती रही. अपने आंसू पोंछते हुए बोली. “अश्विनी, मैं यह सब कहकर दादी का दिल दुखाना नहीं चाहती थी, पर यह ज़रूरी भी तो नहीं है न कि हमारी भावी संतान की हर चीज़ पर अपूर्वा भाभी की अमिट छाप हो. क्या मैं अपने तरी़के से, अपने बच्चे को पाल भी नहीं सकती? उठते-बैठते, दादी के उपदेश मुझे कचोटते हैं. इन्हें न तो मेरी भावनाओं की कद्र है, न संवेदनाओं की. कम से कम इतना तो सोचें, इस माहौल का मेरे पेट में पल रहे बच्चे पर क्या प्रभाव पड़ेगा? अब हम चाहे यहां रहें या अलग मकान लेकर रहें, दादी जब भी अपूर्वा भाभी की प्रशंसा करेंगी, मैं अपना थोड़ा-बहुत मतभेद अवश्य प्रकट करूंगी.” मेरा पारा सातवें आसमान पर पहुंच चुका था. अश्विनी मेरे बालों को सहलाते हुए बोले, “बुटवल छोड़ने से पहले ही मैंने तुम्हें अलग घर लेकर रहने के लिए कहा था, लेकिन तुम्हें ही संयुक्त परिवार में रहने का शौक़ था. चलो, देर आए, दुरुस्त आए. तुम्हें एक सरप्राइज़ दे रहा हूं. कंपनी ने मुझे प्रमोशन दिया है. प्रमोशन के साथ मेरा वेतन भी बढ़ा है. अब हम आसान किश्तों में अपना घर ख़रीद सकते हैं. अपने घर को तुम अपनी इच्छा से सजाना-संवारना. जैसा दिल चाहे काम करना. न कोई नियम, न क़ानून, न ही दादी का ख़ौफ़. अपूर्वा भाभी भी प्रतिद्वंद्वी बनकर तुम्हारा पीछा नहीं करेंगी.” मेरे चेहरे पर सन्नाटे की लकीरें खिंच गईं. ऐसा तो मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था. मैं तो इसी घर में रहकर परिवार के हर सदस्य का दिल जीतना चाह रही थी. पर अपूर्वा भाभी की छाप, इन सबके दिल में इतनी अमिट थी कि मेरा अस्तित्व ही सिमटकर रह गया था. हर व्यक्ति, भावनाओं के धरातल पर प्रशंसा का पात्र बनना चाहता है. परिवार की वरिष्ठ सदस्या होने के नाते दादी चाहतीं, तो मैं भी अपनी पहचान बना सकती थी, लेकिन उन्हें तो भाभी के गुणों की माला जपने से ही ़फुर्सत नहीं थी. मां हमेशा कहती थीं, पुराना सामान हटाया जाता है, तभी नया सामान अपनी जगह बना पाता है, लेकिन यहां इस घर में ये सब कदापि संभव नहीं था. “क्या सोच रही हो?” अश्विनी शायद मेरी मनःस्थिति समझ गए थे. “कुछ नहीं.” मेरा स्वर भीग गया था. “कुछ तो है निशि. इस अवस्था में तुम्हारा यूं उदास रहना ठीक नहीं है.” “अश्विनी! यहां से जाने से पहले मैं एक बार अपूर्वा भाभी से मिलना ज़रूर चाहूंगी. मैं भी तो देखूं, वो आदर्श और विशिष्ट महिला कौन हैं?” “लगता है अपूर्वा भाभी का ख़ौफ़ तुम्हारे दिमाग़ से अभी तक नहीं निकला है. चलो तब तक इंतज़ार कर लेते हैं.” दो महीने बीत गए. आख़िर वो दिन भी आ गया. मेरी गोद भराई की रस्म पर सभी मित्रों और परिजनों को आमंत्रित किया गया. ताई की ज्येष्ठ बहू और मंझली बहू शालिनी भाभी, बैंगलुरू से दो दिन पहले ही पहुंच गई थीं. दोनों से विवाह पर मिली थी, इसीलिए विशेष उत्कंठा भी नहीं थी. सब कुछ सहज-सा दिखाई दे रहा था. मन तो अपूर्वा भाभी से मिलने के लिए अधीर था. मुझे पूरी उम्मीद थी, वो नहीं आएंगी. एक तो ख़र्चा, दूसरे लंदन से दिल्ली तक दो बच्चों के साथ हवाई यात्रा. बच्चे रो-रोकर ही बेहाल कर देंगे. लेकिन दादी को पूरा विश्वास था, वो ज़रूर आएंगी, क्योंकि इस परिवार की बहुओं को मर्यादा का पालन करना आता था. मैंने राहत-सी महसूस की, क्योंकि पहली बार मैंने दूसरी बहुओं का नाम सुना था, वरना अब तक तो अपूर्वा भाभी का नाम सुन-सुनकर ही कान थक गए थे. मन में उम्मीद की किरण जगी, क्या पता इनकी ज़ुबान पर इसी तरह कभी मेरा नाम भी सुनाई दे? ‘अपूर्वा बहू आ गई’ का शोर सुनाई दिया, तो नज़र मुख्य द्वार पर टिक गई. एक बड़े बैग को खींचती हुई गोल-मटोल बच्चों के पीछे खड़ी अपूर्वा भाभी को निहारती रह गई मैं. लगभग मेरी ही आयु की पतली-दुबली और आम-सी शक्ल-सूरत की महिला थीं वो. पहुंचते ही वो दर्जनों बांहों और आंखों के बीच बंट गईं. कोई कुछ कहता, कोई कुछ पूछता. कमज़ोर-सी आवाज़ में वो सब की जिज्ञासा शांत करती जा रही थीं. चाय-नाश्ते के बीच, बातचीत का सिलसिला जारी रहा. सबसे मिलने के बाद वो मेरे पास आकर बैठ गईं. “शादी के बाद, यह हमारा पहला घर था.” उन्होंने मुझे सूचना-सी दी, फिर दादी की तरफ़ देखकर बोलीं, “हम लगभग दो वर्ष यहां रहे.” “मुझे मालूम है.” फिर कहने को हुई कि मुझे यह भी मालूम है कि जिस तरह आप रहती थीं, उस तरह कोई दूसरा तो नहीं रह सकता. लेकिन शब्द होंठों के बीच ही अटके रहे. एक अजीब-सी नज़र से मैंने उनका निरीक्षण किया. ऐसी अलौकिक और असाधारण महिला तो वो नहीं थीं, जिसका रेखाचित्र मैंने अपने मस्तिष्क में बना रखा था. न ही असाधारण सुंदर थीं. फिर भी हमेशा प्रशंसा क्यों? मैं चाहती थी गोदभराई की रस्म की तैयारी में पूरी भूमिका मेरी हो. मुझे दौड़भाग और काम करते देख भाभी ने कई बार प्यार दर्शाया, लेकिन उनके प्रति मेरे व्यवहार में उपेक्षा थी. मैं इस प्रकार दर्शाती रही, जैसे मुझे पहले से बच्चे पालने का अच्छा अनुभव है. यदि वो दूसरे किसी काम में मेरी मदद करना चाहतीं, तो मैं उसे उनके पहुंचने से पहले ही निपटा देती. एक सुबह मैं दोनों बड़ी भाभियों के साथ अपने कमरे में बैठी मटर छील रही थी. सासू मां गुड़िया को दलिया खिला रही थीं. ताई आराम कुर्सी पर अधलेटी-सी दादी के सिर में तेल से मालिश कर रही थीं. यह रोज़ का नियम था. अपूर्वा भाभी हाथ में दवाइयां लेकर मुन्ना के साथ प्रविष्ट हुईं, तो सबका ध्यान उन्हीं की ओर खिंच गया. मौसम बदलने के कारण उनके दोनों बच्चों की तबीयत कुछ ख़राब थी. शाम तक सारे स्थानीय मेहमान जुड़ने वाले थे. मेरे कमरे का निरीक्षण करते हुए बोलीं, “निशि, तुमने कमरा तो बहुत सुंदर सजाया है. बिल्कुल किसी होटल के कमरे जैसा दिखता है.” मैं चुप रही. उन्होंने प्रति प्रश्न किया, “ये परदे तुमने सिले हैं?” “हां.” मैंने कनखियों से उनकी ओर देखकर उत्तर दिया, मुझे उनका बोलना ज़हर लग रहा था. “बहुत सुंदर. जितने सुंदर तरी़के से तुमने सजावट की है, दूसरा कोई कर नहीं सकता. सुघड़ता में तुम्हारा जवाब नहीं.” “सुघड़ तो आप हैं भाभी. सर्वगुण संपन्न.” ईर्ष्या की अग्नि में मेरा तन-मन जल रहा था. मेरी आवाज़ भी ऊंची हो गई थी. “मैं नहीं, शालिनी भाभी. वो हर काम में दक्ष हैं. सीना-पिरोना, खाना पकाना. घर बैठे-बैठे ट्यूशन भी पढ़ाती हैं. मैंने हर काम श्रेष्ठतम करने के लिए अपनी जान लड़ा दी, लेकिन दादी की ज़ुबानी मुझे सदा यही पता चला कि शालिनी भाभी हर काम मुझसे बेहतर अंदाज़ में करती हैं. मैं किसी भी क्षेत्र में उनसे आगे नहीं निकल सकती. तुम सोच भी नहीं सकती, दादी के मुंह से ये सब बातें सुन-सुनकर मेरी क्या हालत होती थी?” अपूर्वा भाभी का चेहरा कंधे तक लटक आया. चेहरे पर बेचारगी के भाव तिर आए. “मुझे अंदाज़ा है. बहुत अच्छी तरह अंदाज़ा है.” मैं सपने जैसी अवस्था में बड़बड़ाई. मेरी नज़र शालिनी भाभी से टकराई. मटर छीलते हुए उनके हाथ रुक गए. असमंजस की स्थिति में वो अपूर्वा भाभी के चेहरे पर उतरते-चढ़ते भावों को निहारती रहीं, फिर जैसे दादी के मंतव्य को समझने का असफल-सा प्रयास भी किया था उन्होंने. अचानक उनके मुंह से शब्द फूटे, “भई, मैंने तो ख़ुद को कभी प्रशंसा के योग्य समझा ही नहीं. मैं ब्याह करके आई तो दादी हमेशा सुलक्षणा भाभी का ही गुणगान करती रहती थीं. हमेशा कहतीं, “सुलक्षणा जैसी सुसंस्कृत, सुघड़ और गुणी महिला दूसरी कोई हो ही नहीं सकती. वो नाम से ही नहीं, स्वभाव से भी सुलक्षणा है.” हम तीनों बहुओं की नज़र एक-दूसरे से मिली और बरबस हंसी छूट गई. सासू मां और ताई भी हमारी हंसी में शामिल थीं. उम्र में चाहे वो हमसे बड़ी थीं, पर थीं तो दादी की ही बहुएं. मैं ख़ुश थी कि मेरे बाद जो भी नई बहू आएगी, वो मेरा अनुसरण करने में भी एक समय तक जद्दोज़ेहद करेगी, लेकिन किसी भी क्षेत्र में मुझे पराजित नहीं कर पाएगी और फिर एक दिन अच्छी गृहस्थिन ज़रूर बन जाएगी. शायद, दादी का यही उद्देश्य था कि नई पीढ़ी की विवाहित लड़कियां भी कुछ गृहस्थी के काम सीख लें. कितनी सही सोच थी, लेकिन अंदाज़ बहुत अजब था.अधिक शॉर्ट स्टोरीज के लिए यहाँ क्लिक करें – SHORT STORIES
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