“क्यों मुझे भी जीते जी मारने पर तुली है तू? अगर तुझे कुछ हो जाता तो? अंजली तो यही कहती कि आप तो घर में ही थीं. आख़िर कर क्या रही थीं, जब आपकी लाड़ली पोती... आप ही तो ज़िद करके इसे संसार में लाई थीं. फिर क्यों मर जाने दिया?”
अनुमान ठीक ही था, अंजली का ही फ़ोन था. विमलाजी ने उठकर फ़ोन उठाया, धीरे से यही कहा था, “ठीक है, मैं सुबह निकल रही हूं, वहीं बात करेंगे!”
फ़ोन रखकर घड़ी देखी, रात के ग्यारह बज रहे थे, आठ से ग्यारह के बीच तीन फ़ोन आ चुके हैं उसके. विमलाजी समझ नहीं पा रही थीं कि क्या करें. इसी बात को लेकर पति सुरेशजी से इतनी बहस हो चुकी है, पर वह क्या करे? छोड़ दे पोती श्वेता को उसके हाल पर?
बहस का मुद्दा ही श्वेता थी और सुरेशजी की वही पुरानी दलील थी, “विमला, अब तो बाहर निकलो इन घर-गृहस्थी के पचड़ों से, बहुत मर-खप लीं तुम और अब हमारी यह उम्र भी नहीं रही है कि हम बच्चों की हर छोटी-बड़ी बातों में अपनी दलील दें और बच्चे, अब वे वयस्क हो चुके हैं.”
अब वह कैसे समझाए कि बात श्वेता की शादी की ही नहीं, बल्कि उसके भविष्य की भी है. अभी बारहवीं पास की है, अठारह की हुई है पिछले महीने. दो बड़ी बहनें हैं, जो इंजीनियरिंग और डॉक्टरी की पढ़ाई कर रही हैं, श्वेता तो सबसे छोटी है, फिर उसके विवाह की इतनी जल्दी क्यों?
अंजली से हुई फ़ोन की लंबी बातचीत के शब्द फिर से विमलाजी के कानों में गूंजने लगे थे, “मां, श्वेता जब ज़िद ठाने बैठी है कि उसे अब आगे पढ़ना ही नहीं है और शादी करके घर ही बसाना है, तो हम कर ही क्या सकते हैं. आप जानती हो कि पढ़ाई-लिखाई में उसका मन लगता ही नहीं है. अभी तो एक ठीक-ठाक लड़का मिल रहा है, घर का बिज़नेस है उनका, लड़की सुखी रहेगी. अब आप ही बताओ.”
पहले तो बात सुनते ही बिगड़ी थीं विमलाजी अंजली पर कि इतनी पढ़ी-लिखी होकर भी ऐसी बातें कर रही है, पर आख़िर में यही कहा उसने, “ठीक है मां, आप ही आकर समझाइए अपनी लाड़ली पोती को कि कॉलेज में एडमिशन ले ले.”
जब भी अंजली ग़ुस्से में होती है, श्वेता को उनकी ‘लाड़ली पोती’ कहकर ही संबोधित करती है.
रातभर विमलाजी सोचती रहीं कि सुरेशजी को कैसे मनाएंगी अपने भोपाल जाने के बारे में? आशा के विपरीत सुबह कुछ शांत थे सुरेशजी. सुबह उठकर विमलाजी को खटपट करते देख कह भी दिया था उन्होंने, “अपना सामान जमा लेना और हां, ज़्यादा मत रुकना. श्वेता से एक बार कहकर देख लेना, मान जाए तो ठीक, नहीं तो हमारी समस्या नहीं है यह अब.”
विमलाजी ने एक राहत की सांस ली. तैयारी तो क्या ख़ास करनी थी, दो-चार जोड़ी कपड़े डाल लिए बैग में. रामू आ गया था, तो बस स्टैंड तक वही छोड़ गया. पर बस में बैठते ही फिर से श्वेता का चेहरा विमलाजी की आंखों के सामने घूमने लगा. खिड़की के बाहर झांकते हुए विमलाजी का मन कहीं अतीत में ले जा रहा था उन्हें...
अंजली तब अपने बैंक की ट्रेनिंग में थी और विमलाजी उसके पास ही थीं. दो-तीन महीने बाद पता चला था अंजली को अपनी प्रेग्नेंसी के बारे में, तो वह चौंक गई थी.
“मां, मैं अभी इस बच्चे को जन्म देने की स्थिति में नहीं हूं. एक तो ट्रेनिंग लंबी चलेगी और दूसरे रीता और मीता भी अभी छोटी ही हैं, मेरे लिए तो ये दो बच्चे ही बहुत हैं.”
अंजली तब बिना बताए चुपचाप अपनी सोनोग्राफ़ी भी करवा आई थी. “मां, इस बार भी लड़की ही है, मैं तो अब इसे बिल्कुल जन्म नहीं दे सकती.” विमलाजी बुरी तरह चौंक गई थीं.
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“क्या कह रही है यह? इतनी पढ़ी-लिखी होकर भी यह भेदभाव?” बड़ी मुश्किल से समझाकर विमलाजी ने उसे रोका था. फिर भी एक तरह से अनचाही संतान ही रही श्वेता. श्वेता को पालने का सारा भार विमलाजी पर ही था. अंजली ने भी उसे विमलाजी की गोद में ही डाल दिया था, “लो संभालो अपनी ‘लाड़ली पोती’ को.”
धीरे-धीरे श्वेता बड़ी होने लगी. वह विमलाजी को ही अपनी मां समझने लगी थी. उनके आगे-पीछे साड़ी का पल्ला थामे घूमती. उसके तोतले बोल अभी भी विमलाजी को याद हैं. बड़ी होकर भी जब स्कूल की लंबी छुट्टियां होतीं, तो वह जबलपुर उन्हीं के पास आ जाती.
विमलाजी के पास रहकर वह सिलाई, बुनाई, कुकिंग, संगीत, नृत्य में पारंगत हो गई थी. पर पता नहीं क्यों? पढ़ाई में उसे शुरू से ही अरुचि थी और इसी बात से अंजली से उसके मतभेद भी थे.
फिर वह दिन याद आते ही बस में बैठे-बैठे विमलाजी का कलेजा कांप गया था. उन दिनों वह अंजली के पास ही थीं, श्वेता का हाई स्कूल का रिज़ल्ट आनेवाला था. पता चला कि इस साल भी फेल थी. अंजली का तो पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया था. वो उसे डांट-डपटकर ऑफ़िस चली गई, पर फिर श्वेता का घर में पता ही नहीं चल रहा था. ढूंढ़ते-ढूंढ़ते जब विमलाजी नीचे के कमरे में पहुंचीं, तो सन्न रह गईं. देखा तो एक लंबी साड़ी का फंदा बनाकर पंखे से लटक रही थी श्वेता.
“यह... यह क्या...?” दौड़कर श्वेता को बांहों में जकड़ा था उन्होंने.
“छोड़ दो मां मुझे. मर जाने दो. मैं हूं ही इस लायक.” बड़ी मुश्किल से विमलाजी उसे खींचते हुए कमरे से बाहर लाई थीं. दिल बुरी तरह धड़क रहा था. हे भगवान! वहां पहुंचने में मिनट भर की भी देर हो जाती, तो बड़ा अनर्थ हो जाता?
“क्यों मुझे भी जीते जी मारने पर तुली है तू? अगर तुझे कुछ हो जाता तो? अंजली तो यही कहती कि आप तो घर में ही थीं. आख़िर कर क्या रही थीं, जब आपकी लाड़ली पोती... आप ही तो ज़िद करके इसे संसार में लाई थीं. फिर क्यों मर जाने दिया?”
“क्या... क्या कहा मां...?”
“हां बेटा, तेरी मां तुझे जन्म देने के पक्ष में ही नहीं थी, वो नहीं चाहती थी कि दो बेटियों के बाद फिर एक तीसरी भी बेटी हो, वो तो मैंने ही रोका था उसे और तू यह सिला दे रही है हमें?”
श्वेता एकदम चुप हो गई थी, फिर धीरे से विमलाजी के गले से चिपट गई. “मां, अब मैं कभी आपको दुख नहीं दूंगी.” फिर भी दोनों देर तक सिसकती रही थीं.
पर श्वेता इसके बाद से अंजली से और दूर होती गई. कई बार ग़ुस्से में कह देती, “मैं तो अनचाही संतान हूं ना? तो क्यों रीता दी और मीता दी से मेरी तुलना करती हैं?” और तब अंजली को लगता कि शायद विमलाजी ने ही श्वेता को भड़काया है. हालांकि विमलाजी ने अंजली से कहा भी था कि श्वेता कितना ग़लत क़दम उठाने जा रही थी, मुश्किल से उसे रोका है, अब उसे प्यार से संभालना होगा. फिर भी अंजली कहीं न कहीं अपनी सास को ही कुसूरवार समझने लगी थी.
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बस में बैठे-बैठे बीती बातें याद करते-करते कब भोपाल आ गया, विमलाजी को पता ही नहीं चला. भोपाल बस स्टैंड पर अंजली उन्हें लेने आ गई थी. “अच्छा हुआ मां, आप आ गईं. अब अगर आप ही श्वेता को कुछ समझा सको तो ठीक है.”
घर पहुंचते ही श्वेता उसी प्रकार लपककर मिली थी. “मां, आ गईं आप. चलो मेरे कमरे में, वहीं सामान रखना.”
“वो सब तो ठीक है, पर अब तू थोड़ी देर मेरे पास बैठ और यह बता कि अचानक यह शादी का भूत क्यों सवार हुआ है तुझ पर?” विमला ख़ुद को रोक नहीं पाई थीं.
“आपको तो ख़ुशी होनी चाहिए कि इतने दिनों बाद घर में उत्सव का माहौल होगा. आपकी लाड़ली पोती की शादी है.” श्वेता हंसकर बता रही थी.
“देख बेटा...” उन्होंने श्वेता को टोका. “तू स्वयं अपने भविष्य की सोच. आगे पढ़ेगी नहीं तो क्या करेगी? तेरी मम्मी पढ़ी-लिखी है, तो बैंक में बड़ी ऑफ़िसर है, पापा और मम्मी दोनों की कमाई है, तभी तो तुम लोगों के इतने ठाठ हैं, सब कुछ है...”
“पर मां.” श्वेता बीच में ही बोल पड़ी थी. “आप चाहती हो कि मम्मी की तरह पढ़-लिखकर मैं भी आगे चलकर अपनी किसी अनचाही संतान का गला घोंट दूं? नहीं, जो भी आएगा, मैं उसे ख़ूब प्यार दूंगी. शादी करके मैं मम्मी, पापा का बोझ ही हल्का कर रही हूं, अनचाही बेटी से उन्हें छुटकारा मिलेगा.”
विमलाजी सन्न रह गई थीं, यह अनचाहा शब्द कितनी गहराई से इसके दिमाग़ में घुस गया है. विमलाजी समझ नहीं पा रही थीं कि अपनी इस हार के बारे में क्या कहें? बेमन से रसोईघर में जाकर नौकरानी को कुछ निर्देश दे रही थीं कि दरवाज़े की घंटी बजी...
“अब कौन आ गया?” दरवाज़ा खोला तो देखा यह तो हरीश की पत्नी उषा है. दो महीने पहले हरीश का एक्सीडेंट में निधन हो गया था. वहीं अंजली के साथ बैंक में ही काम करता था.
उन्होंने ऊषा को बैठाया और कहने लगीं, “तुम्हारे पति के बारे में जानकर बहुत दुख हुआ बेटा.”
ऊषा रोते हुए बोली, “मम्मीजी, मैडम नहीं हैं क्या?”
“हां बेटा, अभी-अभी ही निकली है बैंक के लिए, क्यों कोई काम था क्या?”
“हां, उन्हें दरख़्वास्त देनी थी, इनकी जगह पर मुझे बैंक में लेने की बात थी.”
“अरे, तो क्या तुम नौकरी करोगी? वहां क्या क्लर्क वग़ैरह की...?”
“नहीं मम्मीजी, मैं इतनी पढ़ी-लिखी कहां, चपरासी की ही नौकरी मिल जाए, तो बहुत है. कम से कम सरकारी नौकरी होगी. दोनों बच्चों को पाल-पोष तो सकूंगी.” वह फिर रोने लगी थी. विमलाजी अवाक् थीं. भले घर की लड़की अब चपरासी बनेगी.
कुछ देर बाद ऊषा लौट गई, पर विमलाजी सोच में ही डूबी थीं, उन्हें तो पता ही नहीं चला कि श्वेता कब-से पीछे खड़ी हुई सारी बातें सुन रही थी. उसके कुछ शब्द ही पड़े थे विमलाजी के कानों में, “मां, मैं भी अब कॉलेज में एडमिशन लूंगी... आप मम्मी से कह दें.”
- डॉ. क्षमा चतुर्वेदी
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