‘'आख़िर किस आधार पर मैं अपनी बात पर अड़ती. मेरे पास किसी का कमिटमेंट भी तो नहीं था.” कातर स्वर में अंजलि के कहे इन शब्दों ने मेरी आत्मा को झकझोर कर रख दिया. डबडबाई नज़रों से वह मेरी ओर देख रही थी. वेदना में डूबे उसके वे शब्द, उसकी आंखों का वह दर्द मुझसे मेरी भूल का जैसे हिसाब मांग रहे थे.
आर्ट गैलरी में अच्छी-ख़ासी भीड़ जमा हो चुकी थी. लोग मुग्ध भाव से एक-एक पेन्टिंग को निहार रहे थे. जिन्हें कला की पहचान थी, वे उनकी बारीक़ियों को समझ रहे थे. पेन्टिंग्स की प्रदशर्र्नी का आज तीसरा और अंतिम दिन था. इनकी सृजनकर्ता, अंजलि माथुर की लोकल न्यूज़पेपर में भूरि-भूरि प्रशंसा हो रही थी. इस समय भी पत्रकारों से घिरी हुई वह उनके प्रश्नों का संजीदगी से उत्तर दे रही थी. रह-रहकर उसकी नज़रें मेरी ओर उठ रही थीं. उन नज़रों में कृतज्ञता के साथ-साथ एक अपनापन था, जो मेरे मन को छू रहा था.
कभी इन झील-सी गहरी आंखों में अपना संसार बसाने की चाहत थी मेरी, लेकिन बचपन की हर काम को कल पर टाल देने की आदत के चलते समय पर मैं उससे कुछ कह नहीं पाया. कॉलेज में वह साथ थी मेरे. हम दोनों का बी.टेक का फाइनल ईयर था, जब मैंने उसकी ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया था, तो उसने ख़ुशी-ख़ुशी उसे स्वीकार कर लिया था.
धीरे-धीरे हमारी दोस्ती प्रगाढ़ होने लगी. कॉलेज कैंटीन में बैठकर हम दोनों पढ़ाई के साथ-साथ पर्सनल बातें भी शेयर करते. हम दोनों की पसंद-नापसंद, ज़िंदगी के प्रति हमारा नज़रिया बहुत कुछ आपस में मिलता था. यही वजह थी कि उसके प्रति मेरा प्यार दिनोंदिन बढ़ रहा था. मुझसे मिलते ही उसकी आंखों में पैदा होनेवाली चमक से मुझे उसकी भावनाओं का एहसास होने लगा था. सोचता था, उससे अपने दिल की बात कह दूं. फिर लगता, कहीं वह नाराज़ हो गई, तो उसकी दोस्ती भी खो बैठूंगा और बात आगे के लिए टल जाती. इस तरह साल गुज़र गया.
एग्ज़ाम के दो दिन बाद अचानक बिना किसी से कुछ कहे पूना से वह अपने घर चली गई. मैं बेहद परेशान था. ऐसा क्या हो गया था, जो उसने बताया भी नहीं. कुछ दिन मैंने प्रतीक्षा की, उससे संपर्क करने का प्रयास किया, पर निराशा हाथ लगी. धीरे-धीरे तीन वर्ष बीत गए. एम.टेक करके मैं जॉब में लग गया. अंजलि के प्रति मेरी चाहत इतनी गहरी थी कि उसके साथ को मैंने अपने अतीत का हिस्सा नहीं बनने दिया, वरन् उसकी यादों को, उसके एहसास को मैंने अपने ज़ेहन में, अपने वर्तमान में बनाए रखा. मेरा यह विश्वास था कि एक न एक दिन वह मुझे अवश्य मिलेगी.
किसी को पूरी शिद्दत के साथ चाहा जाए, उसे याद किया जाए, तो यह कायनात भी उसे मिलाने में मदद करती है. उन दिनों मैंने दिल्ली की एक सॉफ्टवेयर कंपनी में बतौर प्रोजेक्ट मैनेजर ज्वॉइन किया था. पहले दिन ऑफिस पहुंचा, तो अंजलि को देखकर सुखद आश्चर्य में डूब गया. वह भी मुझे सामने पाकर कम ख़ुश नहीं हुई.
मेरे मुंह से बेसाख़्ता निकल गया, “अंजलि, आज मेरा विश्वास जीत गया. मेरा प्यार जीत गया.” सुनकर वह संकोच से सिमट गई. उसका साथ पाकर एक बार पुनः मेरी दुनिया बदल गई थी. जो भूल मैंने पहले की थी, अब फिर से दोहराना नहीं चाहता था. अगले दिन कॉफी की चुस्कियों के बीच मैंने उससे कहा, “अंजलि, अब मैं पुनः तुम्हारा साथ खोना नहीं चाहता हूं.
जीवनभर के लिए तुम्हें अपनी बनाना चाहता हूं. बताओ, जीवन के इस सफ़र में मेरी हमसफ़र बनोगी?” वह सिर झुकाए ख़ामोश बैठी कॉफी से उठती भाप को देखती रही. कुछ क्षण बाद उसने चेहरा ऊपर उठाया, तो उसकी आंखों में आंसू झिलमिला रहे थे.
“तुमने बहुत देर कर दी रजत, मेरा विवाह हो चुका है.” मैं हक्का-बक्का रह गया. रुंधे कंठ से उसने बताया, “मेरे एग्ज़ाम के दूसरे दिन सूरत से वापस लौटते हुए मम्मी-पापा का कार एक्सीडेंट में स्वर्गवास हो गया था. इस हादसे की ख़बर से मैं अपने होशोहवास खो बैठी और बिना तुमसे कुछ कहे घर चली गई. रो-रोकर मैं बेहाल थी. अचानक अनाथ हो जाने का एहसास मुझे दुखी किए जा रहा था. अमेरिका से मेरी बड़ी बहन और जीजाजी भी आए हुए थे.
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तेरहवीं के बाद उन्होंने मुझसे कहा, “अंजलि, हम लोगों ने तुम्हारा विवाह करने का ़फैसला किया है.” मेरे इंकार पर जीजाजी बोले, “तुम पढ़ी-लिखी हो, समझदार हो. समाज में अकेली लड़की का निर्वाह बहुत कठिन है. वक़्त-बेवक़्त तुम्हारी ज़रूरतों पर कौन तुम्हारे साथ खड़ा
होगा? इतनी दूर होने के कारण हम भी जल्दी नहीं आ सकते.”
“रजत, मैं उस समय विवाह नहीं करना चाहती थी. मेरी इच्छा थी कि पहले अपने पैरों पर खड़ी हो जाऊं. इसके अलावा मम्मी-पापा के यूं अचानक चले जाने से मानसिक रूप से भी उस समय विवाह के लिए तैयार नहीं थी. किंतु दीदी और जीजाजी के दबाव के आगे मेरी एक न चली. उन दोनों ने आनन-फानन में मानस का रिश्ता ढूंढ़कर अपने दायित्व से मुक्ति पा ली. इच्छा न होते हुए भी मुझे मानस से विवाह करना पड़ा. आख़िर किस आधार पर मैं अपनी बात पर अड़ती. मेरे पास किसी का कमिटमेंट भी तो नहीं था.” कातर स्वर में अंजलि के कहे इन शब्दों ने मेरी आत्मा को झकझोर कर रख दिया.डबडबाई नज़रों से वह मेरी ओर देख रही थी. वेदना में डूबे उसके वे शब्द, उसकी आंखों का वह दर्द मुझसे मेरी भूल का जैसे हिसाब मांग रहे थे. किंतु अब पछतावे के सिवा मैं कर भी क्या सकता था? अंजलि का साथ मेरी क़िस्मत में नहीं था, फिर नियति ने क्यों उसे पुनः मेरी ज़िंदगी में भेजा?
एक दिन मैंने उससे पूछा था, “अंजलि, एक दोस्त के नाते पूछ रहा हूं, क्या तुम ख़ुश हो?” नज़रें झुकाए हुए वह बोली, “मानस एक बहुत बड़े बिज़नेसमैन हैं. करोड़ों का कारोबार है. कई फैक्ट्रियां हैं.”
“इस सबके बावजूद क्या तुम ख़ुश हो?” मैंने अपनी बात पर ज़ोर दिया. उसने एक गहरी सांस ली और कहा, “अगर रुपया-पैसा, बंगला और गाड़ियां ख़ुशियों के मापदंड हैं, तो मैं बहुत ख़ुश हूं. जानते हो रजत, मानस एक कामयाब बिज़नेसमैन क्यों हैं? क्योंकि उनकी नज़र सदैव अपने नफ़ा-नुक़सान पर टिकी रहती है. पत्नी को समय देना, उसकी भावनाओं का ख़्याल रखना, इसमें कौन-सा नफ़ा है, भला बताओ तो. यूं भी विवाह समान स्तर के परिवार में ठीक रहता है. एक मिडल क्लास फैमिली की लड़की हाई सोसाइटी में पहुंच जाए, तो क्या होगा? हर पल उसे उसकी औकात याद दिलाई जाएगी.”
“तुमने कभी मानस को समझाने का, विरोध करने का प्रयास नहीं किया?”
“बहुत प्रयास किए, पर सब व्यर्थ. तब मैंने मानस को छोड़ने का फैसला लिया था. एक बार पुनः अपनी ज़िंदगी शुरू करना चाहती थी मैं. जॉब तो थी ही मेरी. आर्थिक रूप से कोई परेशानी भी नहीं होनी थी. लेकिन ऐसा भी संभव नहीं हो पाया. उन्हीं दिनों पता चला मैं मां बननेवाली हूं, तो मैंने अपना फैसला बदल दिया. अपने स्वार्थ की ख़ातिर अपने बच्चे की ज़िंदगी ख़राब नहीं करना चाहती थी मैं. मेरी ज़िंदगी के ग़लत फैसले में बच्चे का तो कोई कुसूर नहीं था. फिर वह मां-बाप के अलगाव की त्रासदी क्यों झेले? माता-पिता के तलाक़ का बच्चे पर बहुत बुरा असर पड़ता है. मैं नहीं चाहती थी, वह अपने नैसर्गिक प्यार से वंचित रहे. मां की ममता के साथ-साथ आख़िर बच्चे को पिता के संरक्षण की भी तो आवश्यकता होती है.”
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फिर एक गहरी सांस लेकर वह बोली, “हालांकि बच्चे पर भी उसके दादा-दादी का ही हक़ ज़्यादा रहता है. मैं तो बस नाम की ही मां हूं.” अंजलि की आपबीती सुनकर मेरा मन द्रवित हो उठा. काश! मैंने उससे समय रहते कुछ कहा होता. अपने प्यार का इज़हार किया होता, तो अंजलि की कहानी कुछ और ही होती. उस सारी रात बेचैनी से मैं छत पर टहलते हुए सोचता रहा, क्या कोई ऐसा रास्ता नहीं, जिससे अंजलि को ख़ुशी मिल सके. अनजाने में की गई मेरी भूल ने मेरे मन को उस स्थिति में पहुंचा दिया था, जहां किसी के लिए कुछ करने में ही सुख की अनुभूति होती है.
मैंने उसे समझाया, “अंजलि, दुनिया में हर इंसान इतना ख़ुशनसीब नहीं होता कि उसे मनचाहा मिल जाए. हम किन हालात में जीवनयापन करते हैं, यह उतना महत्व नहीं रखता, जितना हम हालात का कितना सुखदायी स्तर पर विश्लेषण करते हैं, यह महत्व रखता है. तुम्हारी जो भी परिस्थितियां हों, उनमें रहकर अपने जीवन को कितना संवार पाती हो, यह तुम पर निर्भर करता है.
अंजलि, अपने आपको ख़ुश रखना हमारी स्वयं की ज़िम्मेदारी है और ख़ुशी अन्यत्र कहीं नहीं, हमारे स्वयं के भीतर विद्यमान है. इंद्रधनुष के सातों रंग हमारे ही भीतर मौजूद हैं. बस, देखनेवाली दृष्टि चाहिए.”
कॉलेज टाइम से ही अंजलि को पेन्टिंग करने का शौक़ था. मेरी प्रेरणा पाकर उसने स्वयं को इस कला के प्रति समर्पित कर दिया. उसकी बनाई हुई एक से एक नायाब पेन्टिंग्स बड़े से बड़े कलाकारों को मात दे रही थीं. अपने एक परिचित से संपर्क करके मैंने उसकी पेन्टिंग्स की एक प्रदर्शनी लगवाई, जो बेहद कामयाब रही.
आज मुझे समझ में आ रहा था कि हमारी ज़िंदगी में किसी का आना महज़ इत्तेफ़ाक नहीं होता है. उसके पीछे सदैव कोई न कोई वजह होती है. कोई उद्देश्य होता है. मेरी प्रेरणा से अंजलि को नई ऊंचाइयां छूनी थीं. अपनी मंज़िल तक पहुंचना था.
कितनी ही देर से मैं अपने विचारों में खोया हुआ था कि तभी मेरे कानों में अंजलि की आवाज़ आई, “रजत.” मैंने मुड़कर देखा, वह मेरे समीप खड़ी थी. मुस्कुराते हुए मैंने उसे प्रदर्शनी की कामयाबी की बधाई दी, तो उसने कहा, “यह सब तुम्हारी वजह से संभव हुआ है. रजत, अगर तुम मुझे न मिले होते तो...” कहते-कहते वह भावुक हो उठी. मैं बोला, “अंजलि, तुम एक कलाकार हो और कलाकार की प्रतिभा कभी छिपती नहीं है. यह तो शुरुआत है. देखना, तुम कितना आगे जाओगी. बस, अपनी लगन को कम मत होने देना.”
यह आवश्यक नहीं कि हर प्यार की मंज़िल शादी ही हो. धरती और आकाश क्षितिज के उस पार दिखाई देते हैं, जबकि वास्तव में वो होते अलग ही हैं. अलग होते हुए भी एक-दूसरे के पूरक होते हैं. मैं और अंजलि आज भी संवेदना के धरातल पर एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं. समाज के बनाए हुए नियमों का पालन करते हुए अपनी-अपनी मर्यादा में रहकर भी तो एक स्वस्थ मित्रता निभाई जा सकती है.
दिनेश खन्ना
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