एक अनजाना-सा डर उसे रातभर जगाता रहा. ठीक है, ये तो नार्मल है. कुछ अजीब बात नहीं हो गई. हर बात पहली बार नई ही होती है. बेटे-बहू से बाहर भी एक दुनिया हो सकती है. ख़ुद पर भरोसा करने की दुनिया. किसी से कोई उम्मीद न करने की दुनिया. अपने बलबूते जीने की दुनिया, जो किसी पर भी निर्भर रहकर जीने की दुनिया से कहीं ज़्यादा सुंदर दुनिया है…
मुकेश ने फोन रखकर सिर पकड़ लिया, तो उनके चेहरे पर उड़ती हवाइयां देख शोभा चौंकी, "क्या हुआ? किसका फोन था?’’
मुकेश ने भर्रायी आवाज़ में कहा, ''शोभा, भइया का एक्सीडेंट हो गया. मुझे अभी निकलना होगा. भाभी अकेली है.''
''ओह, क्या हुआ? ज़्यादा चोट आई है?''
''हां, पड़ोस के अनिल भाईसाहब ने फोन किया था. भाभी तो हॉस्पिटल में ही हैं. वे बहुत परेशान हैं.''
''ठीक है, मैं भी चलती हूं. तुम जल्दी से टिकट बुक कर लो.''
''नहीं, तुम रहने दो. तुम्हारा ब्लड प्रेशर भी हाई चल रहा है. इस कोरोना टाइम में तुम्हारा सफ़र करना ठीक नहीं रहेगा. रीता से बात करता हूं. वह तो वहां होगी ही. अगर ज़रुरी होगा, तो तुम फिर आ जाना. मैं जा कर देखता हूं.'' शोभा परेशान हुई, बोली, "मैं भी जाना चाह रही थी.''
मुकेश ने उसके कंधे पकड़कर समझाते हुए कहा, ''तुम कई दिनों से बीमार भी चल रही हो शोभा. ऐसी महामारी के समय तुम्हे बाहर ज़्यादा एक्सपोज़ नहीं होना चाहिए. आज साल का पहला दिन है शायद नेहा भी तुम्हारे पास आनेवाली हो. अभी बच्चों के साथ रह लो, वहां ज़रुरत होगी, तो चली आना. अभी मैं निकलता हूं.''
शोभा उनकी बात समझ रही थी. उसे लम्बे समय से बुखार चल रहा था. वह काफ़ी कमज़ोर हो चुकी थी. कोरोना का लम्बा समय वह बीमार ही रही थी. पति-पत्नी दोनों ठाणे के इस फ्लैट में अकेले ही रहते. एक बेटा असीम दुबई में अपनी पत्नी और दो छोटे बच्चों के साथ रहता था. उसकी पत्नी नेहा और बच्चे नेहा की किसी कजिन की शादी में दिसंबर में आए हुए थे. नेहा भी मुंबई की ही लड़की थी. प्रोग्राम यह था कि असीम भी थोड़े दिन में आएगा. फिर वे सब साथ चले जाएंगे. नेहा बच्चों के साथ मायके ही रहती. बीच-बीच में एक-दो घंटे के लिए कभी आकर मिल जाती.
शोभा को बहू और बच्चों के साथ समय बिताने का बड़ा चाव था, पर उसे इसका मौक़ा न मिलता. मुकेश का बैग शोभा ने बड़े उदास मन से तैयार कर दिया. शोभा को तसल्ली देकर मुकेश जल्दी ही निकल गए. मुकेश और राकेश दो भाई और एक बहन रीता तीनों के आपस में बहुत स्नेह और सम्मान से भरे रिश्ते थे. राकेश सबसे बड़े थे और रीता सबसे छोटी. ये दोनों दिल्ली में ही रहते थे. मुकेश ही अपने जॉब के चलते मुंबई में क़रीब तीस सालों से थे. मुकेश चले गए. असीम रोज़ एक बार मां से ज़रूर बात करता. आज फोन आने पर सब पता चला, तो कहने लगा, "मां, आप चिंता मत करो. आपको जाना होगा, तो मैं टिकट करवा दूंगा.''
शोभा आज तक कभी अकेली नहीं रही थी. उसे घर में अकेले रहने से रात को बड़ा डर लगता था. आज तक ऐसी नौबत ही नहीं आई थी कि उसे कभी ज़िंदगी में अकेली रहना पड़े. उसने कहा, ''आज ही साल का पहला दिन है और मैं अकेली. अब तो शाम भी होनेवाली है.''
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असीम हंसा, ''यह क्या मां, अब भी डरती हो?''
''तुम्हे कितनी बार तो बताया है न कि मैं रात को अकेली नहीं रह सकती.''
''अरे, कुछ नहीं होता माँ. घर सेफ है. डरने की कोई बात ही नहीं."
शोभा का स्वर धीमा हो गया. उदास होकर बोली, ''अकेली नहीं रही कभी. बस, यही नहीं होगा मुझसे."
''हा…हा… अरे मां, कुछ नहीं होगा.''असीम ज़ोर से हंसा, तो शोभा ने कहा, ''मां की परेशानी भी नहीं समझ रहे हो?''
''बेटा हूं आपका, क्यों नहीं समझूंगा?''
थोड़ी बातें करने के बाद असीम ने फोन रखा, तो शोभा को पूरा यक़ीन हो गया था कि असीम उसे चिढ़ा ही रहा था. ऐसा हो ही नहीं सकता कि वह नेहा को आज उसके पास रुकने के लिए न कहे. मां-बेटे की बॉन्डिंग तो कमाल है. वह जानती है अपने बेटे को लापरवाही दिखाता है, पर मां को प्यार करता है. शोभा अपने विश्वास पर हल्के से मुस्कुराती हुई गुनगुना उठी.
अभी नेहा को कहेगा कि मां के पास ही रात में रुको और नेहा दस बजे तक आकर उसे सरप्राइज़ देगी और वह भी बिल्कुल ऐसी एक्टिंग करेगी कि वह नेहा के आने पर हैरान है. शोभा मन-ही-मन पता नहीं क्या-क्या सोच! मुस्कुराने लगी थी.
मुकेश ने पहुंचकर फोन किया. बताया कि भैया को बहुत चोट लगी है. रीता और उसके पति भी साथ ही हैं. अब वे भाभी को घर भेजकर हॉस्पिटल में ही रुकेंगे.
फिर पूछा, ''रात में अकेली डरोगी तो नहीं?''
''नहीं, मुझे लगता है नेहा बच्चों के साथ आ जाएगी अभी. जब असीम को पता है मैं अकेले डरती हूं, तो वह नेहा को ज़रूर भेज देगा.''
''न भी भेजे, तो डरने की कोई बात नहीं है. आजकल किसी को घर बुलाकर रुकने के लिए भी नहीं कह सकते. वायरस का डर भी मन में बैठ चुका है. जिनसे अच्छी दोस्ती है, सब के घर में किसी-न-किसी को कोरोना हुआ था. डर ही लगता है. नहीं तो कह देता कि आसपड़ोस में से किसी को बुला लो.''
''तुम चिंता मत करो, बहू आ जाएगी, मुझे पता है.''
इस समय रात के नौ बज रहे थे. शोभा ने ख़ुद तो दिन का बचा हुआ खाना खा लिया था. फिर सोचा बहू और बच्चों के लिए कुछ बना लेती है. पर उससे पहले नेहा को एक फोन करना ठीक रहेगा. नेहा को फोन मिलाया. शोभा को हंसी आ गई, जब नेहा ने ऐसा दिखाया कि उसे तो पता ही नहीं कि मुकेश जा चुके हैं. कितनी एक्टिंग करते हैं ये आजकल के बच्चे. ऐसा हो ही नहीं सकता कि व्हाट्सएप्प पर सारे दिन एक-दूसरे से टच में रहनेवाले राहुल और नेहा ने इस बारे में बात न की हो. शोभा ने पूछा, "डिनर कर लिया?''
''हां, मां. आज जल्दी कर लिया. बच्चों को भी सुला दिया. बहुत दिन लॉकडाउन की बोरियत के बाद फ्रेंड्स के साथ बढ़िया दिन बिताया आज. साल का पहला दिन, तो बहुत अच्छा रहा. दिनभर कॉलेज की फ्रेंड्स के साथ बाहर थी. थक गई थी. मैं भी आज जल्दी सो जाऊंगी. आप भी सो जाइए अब. कल बात करती हूं. टेक केयर.'' कहकर नेहा ने फोन रख दिया. शोभा को लग रहा था कि अभी असीम उसे फिर फोन करेगा. पूछेगा. चिढ़ाएगा कि डर तो नहीं लग रहा. वह भी ये शो करेगी कि वह तो आराम से सोने की तैयारी कर रही है और इतने में डोरबेल बजेगी और नेहा बच्चों के साथ हंसती हुई अंदर आ जाएगी. तब उसी समय असीम फोन करके पूछेगा कि देखा कितने लायक हैं आपके बच्चे. आपको डरने नहीं दिया. शोभा का यह फ्लैट सातवे फ्लोर पर था. इस सोसाइटी में सात-सात फ्लोर की सिर्फ़ दस बिल्डिंग्स थीं. पुरानी छोटी सोसाइटी थी.
शोभा को कुछ घबराहट-सी होने लगी, तो उसने मेन डोर कई बार चेक करके लॉक तो कर लिया, पर मन में एक अटूट विश्वास था कि नेहा आ ही रही होगी. यह सब जानते थे कि शोभा की अकेले रहने से हालत ख़राब होती थी. हर फ्लोर पर चार-चार फ्लैट्स थे. चांस की ही बात थी कि कुछ महीनों से शोभा की फ्लोर पर किसी फ्लैट में कोई नहीं रह रहा था. सब बंद थे. दस बजे तो उसने यूं ही थोड़ी देर फिर मुकेश से बात की. मुकेश पत्नी की मनोदशा समझ रहे थे कि अकेले दिल घबरा रहा होगा. कई महीनों से बीमारी झेल रही शोभा काफ़ी कमज़ोर हो गई थी, इसलिए उन्हें अपने साथ नहीं लेकर आए थे. लेकिन उन्हें भी शोभा की ही तरह मन में कहीं यह विश्वास था कि असीम के कहने पर नेहा रात में आ जाएगी, बेटे-बहू को ख़ूब प्यार करनेवाली शोभा को बच्चे अकेले रहने भी नहीं देंगे. घर में इधर से उधर घूमते हुए शोभा बार-बार टाइम देखने लगी.
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अब बस किसी टाइम पहुंचने ही वाली होगी नेहा. असीम छोटा था, तब मुकेश टूर पर जाते, तो असीम के साथ पूरा समय बीत ही जाता. आम भारतीय मां की तरह नेहा का जीवन भी असीम के ही इर्दगिर्द घूमता रहा था. पहले बेटे, अब बहू-बच्चों में ही उसका मन रमा रहता.
अब तक साढ़े दस बज चुके थे. फ्लोर पर लिफ्ट रुकने की आवाज़ सी आई, तो शोभा मुस्कुरा उठी. अपने फ्लैट के अंदरवाले दरवाज़े को खोल दिया. वॉचमैन था. छत पर जानेवाली सीढ़ियां इसी फ्लोर से ऊपर जाती थीं. वॉचमैन के ऊपर रखी पानी की टंकी के चक्कर में दिन-रात कई चक्कर लगते. लिफ्ट छत तक नहीं जाती थी. वॉचमैन ने यूं ही कह दिया, ''मैडम, पानी देखने आया हूं. साहब नहीं आए क्या?''
यह वॉचमैन पुराना था. इसका पूछना अजीब बात नहीं थी, पर शोभा कुछ अलर्ट सी हुई, "अभी नहीं." कहते हुए दरवाज़ा बंद कर लिया.
शोभा का दिल अब बैठने लगा था. क्या सचमुच नेहा उसके पास रात को नहीं आ रही है?.. क्या वह लाइफ में पहली बार रात को घर में अकेली रहेगी?.. असीम ने नेहा को नहीं कहा कि वह रात को मेरे पास आ जाए… वह तो बहुत अच्छी तरह जानता है कि मैं अकेले रात नहीं बिता सकती… नेहा यहां न होती, तो बात अलग थी. वह कुछ और इंतज़ाम किसी भी तरह कर लेती या ज़िद करके मुकेश के साथ ही चली जाती. उसने भी यह सोचकर ज़िद नहीं की थी कि नेहा और बच्चे आ जाएंगें. उसे नेहा से कोई शिकायत नहीं थी. लाइफ में पहली बार असीम से कुछ निराशा हुई. बहुत-सी बातों पर उसे असीम पर ग़ुस्सा आने लगा. इतना तो कर ही सकता था कि नेहा को ज़ोर देकर कहता कि जब तुम एक घंटे की दूरी पर ही हो, तो मां के पास रात को पहुंच जाओ. वह तो कभी कुछ कहती भी नहीं. मायके रहने का मन करता है, तो रह ले. उसने तो कभी भी इस बात पर क्लेश नहीं किया कि वह एक महीने में मुश्किल से किसी दिन दो घंटे की हाजिरी उसके पास आकर लगा जाती है बस. पर आज तो आ ही सकती थी. कभी भी कोई उम्मीद नहीं की बच्चों से, लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि वे एक छोटी-सी बात पर उसका ध्यान नहीं रखेंगे.
हमेशा एक-दो घंटे के लिए आती है, तो बच्चों से बातें करने से,! उनके साथ खेलने से मन भी नहीं भरता अब तो बच्चों को भी नानी के ही घर रहने की आदत हो गई है. जब बच्चे थोड़ी देर बाद चलो… चलो… की रट लगाते, तब शोभा छुप-छुपकर अपने आंसू पोंछती. कभी मुंह से कुछ नहीं कहा. बच्चे अभी इंडिया में ही हैं, तो उन्हें दादी-दादा के बारे में भी जानने दो. पर नहीं, ख़ैर जब ग्यारह बज गए, तो मुकेश का फोन आया. शोभा ने फौरन अपने को संभाला. मुकेश ने पूछा, "नेहा आई क्या?''
''नहीं.''
दोनों ओर एक उदास चुप्पी कुछ पल रही. फिर शोभा ने भैया की हेल्थ के बारे में पूछना शुरू कर दिया. मुकेश भी पत्नी के स्वभाव को भली-भांति जानते थे. वे समझ गए कि शोभा का मन बुरी तरह आहत-निराश है. और वह इस समय इस बारे में एक शब्द भी नहीं कहेगी. थोड़ी-बहुत बातचीत के बाद दोनों ने फोन रख दिया.
बारह बजे तक शोभा की आंखों में नींद नहीं थी. एक अवसाद-सा मन को घेरे रहा. फ्लैट में चार बालकनी थीं. चारों पर ग्रिल लगी थीं. ग्रिल में एक छोटी-सी खिड़की भी थी. कुछ आहट-सी हुई, तो जाकर चारों खिड़की पर लगे छोटे-छोटे ताले भी कई बार चेक कर लेती.
अपनी कुछ दवाइयां यह सोचकर खा लीं कि शायद इनसे ही कुछ आंख लग जाए. फिर एक पत्रिका उठा ली. पढ़ने का शौक था. पढ़ने बैठी, तो एक बार में पूरी पत्रिका पढ़ ली. फिर टीवी यूं ही खोल लिया. थोड़ी देर एक पुरानी मूवी देखी. उसमे भी ज़्यादा देर मन नहीं लगा. मन अंदर से दुखी था, तो कुछ भी करने से मन की उदासी जा ही नहीं रही थी. फिर छत पर कुछ आवाज़ सी हुई, तो डर कर पूरे घर की लाइट्स जला दी. लगा कोई है ऊपर. ओह, आज मुकेश की कार तो खड़ी ही है. याद आया, फिर क्यों वॉचमैन ने पूछा कि साहब आए नहीं क्या अब तक? उसने तो शायद मुकेश को सुबह टैक्सी से जाते देखा ही होगा. सोसाइटी से बाहर जाने के लिए एक छोटा-सा गेट ही तो है. वहीं केबिन में ही तो बैठे रहते हैं सारे वॉचमैन. शोभा का दिल हर आहट पर जैसे हद से ज़्यादा अलर्ट होता रहा. सारे खिड़की-दरवाज़ों पर नज़र डालती घूमती रहीं.
तीन बज रहे थे. तकिए से सिर टिका कर लेटी, तो मन फिर असीम की तरफ़ दौड़ पड़ा. कौन-सी बात है आज तक जो उसने बेटे की पूरी न की हो. वह इकलौते बेटे के विदेश में सेटल होने के फेवर में ज़रा भी नहीं थीं. फिर भी असीम की ख़ुशी देखते हुए कुछ न बोलीं. उसने विजातीय नेहा से शादी की इच्छा जताई, तो ख़ुशी ख़ुशी नेहा को बहू बना लाई. पोता-पोती हुए तो असीम के कहने पर दुबई पहुंचकर उसकी गृहस्थी के सब काम संभाल लिए. बेटा जो-जो कहता रहा, वे करती रहीं और आज एक छोटी-सी बात पर बेटे ने इतना भी ध्यान नहीं दिया. आंखों से अब आंसू बह निकले थे. अचानक लगा दरवाज़े पर कोई आहट हुई है. एकदम डर से पसीने-पसीने हो गई. की होल से झांका, कोई भी नहीं दिखा. कुछ पल सांस रोकर की होल में देखती रही. जब तसल्ली हो गई कि कोई नहीं है, तभी वहां से हटी. पूरे घर की लाइट्स अब तक जल रही थी. एक चक्कर फिर चारों बालकनी में लगाया और जाकर फिर लेट गई. इतने में फिर फ्लोर पर लिफ्ट रुकने की आवाज़ आई, तो फिर की होल से झांका. वॉचमैन था. छत पर जा रहा था. शोभा ने टाइम देखा.
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अरे, चार बज गए. ये तो इसका पानी भरने का टाइम भी हो गया. वह फ्रेश होने लगी. ब्रश किया. एक कप चाय बनाकर पी. इतने में कहीं दूर से चिड़ियों की चहचहाहट सुनाई दी, जो आज कानों को भली-सी,! अपनी-सी लगी. बालकनी में जाकर बाहर देखा. सुबह इतनी सुंदर, इतनी शांत शायद ही कभी लगी थी. बालकनी में ही बैठकर कुछ देर बाहर देखती रही. इक्का-दुक्का आवाजाही शुरू हो चुकी थी. दूधवाला, पेपरवाला सोसाइटी में आने लगा था. नए साल की पहली रात कुछ अलग ढंग से बीत चुकी थी, जो उसे बहुत कुछ सिखा गई थी.
शोभा ने मॉर्निंग वाॅक पर जाने के लिए कपड़े बदले. घर अच्छी तरह से बंद किया और सोसाइटी के गार्डन में सैर करने लगी. वॉचमैन उसे देखकर मुस्कुराया, पूछा, "मैडम,आज इतनी जल्दी?''
वह बिना कुछ कहे मुस्कुराकर आगे बढ़ गई.
ट्रैक पर चक्कर लगाते हुए आज सोच रही थी कि बेकार में रात में वॉचमैन की बात पर वहम कर लिया. उसने ऐसे ही आदतन पूछ लिया होगा कि साहब नहीं आए क्या. हमेशा ही कुछ-न-कुछ पूछ लेता है. सुबह कितनी सुंदर है. रातभर छायी उसके मन की उदासी सुबह के शीतल वातावरण से जैसे एक झटके में गायब हो गई थी. कट तो गई रात. क्यों वह इतनी उम्मीद कर रही थी कि कोई आए और उसके पास सोए. इतनी निर्भर वह क्यों हो रही थी. एक अनजाना-सा डर उसे रातभर जगाता रहा. ठीक है, ये तो नार्मल है. कुछ अजीब बात नहीं हो गई. हर बात पहली बार नई ही होती है. बेटे-बहू से बाहर भी एक दुनिया हो सकती है. ख़ुद पर भरोसा करने की दुनिया. किसी से कोई उम्मीद न करने की दुनिया. अपने बलबूते जीने की दुनिया, जो किसी पर भी निर्भर रहकर जीने की दुनिया से कहीं ज़्यादा सुंदर दुनिया है.
साल की पहली रात तो बहुत कुछ सिखा गई थी. अब उसका मन शांत हुआ, तो चलते-चलते आंखें नींद से भारी होने लगीं. वह पौन घंटा घूमकर घर लौट आई. फिर आकर कपड़े बदल लिए. मुकेश को एक हंसती हुई इमोजी डालकर मैसेज किया कि 'सैर से लौटी हूं. ठीक हूं. अब सोने जा रही हूं. साल की पहली रात मन मज़बूत कर गई है, चिंता न करना…'
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