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कहानी- प्रतिध्वनि 2 (Story Series- Pratidhwani 2)

“पिछले कुछ दिनों से तुम्हें और तुम्हारी पत्नी को देख रहा हूं. तुम्हारे जीवन में अपने जीवन की प्रतिध्वनि सुन रहा हूं, महसूस कर रहा हूं, इसीलिए आनेवाले तूफ़ान से तुम्हें आगाह करना चाहता हूं. जो मेरे साथ हुआ वो तुम्हारे साथ न हो, इसलिए अभी से संभल जाओ और जीवन की ख़ुशियों को दोनों हाथों से बांधकर सहेज लो. अभी नहीं चेतोगे, तो ख़ुशियां मुट्ठी में बंद रेत की तरह फिसल जाएंगी और पता भी नहीं चलेगा.” “आपकी भावना की कद्र करता हूं अंकल... आप जो भी कहना चाह रहे हैं खुलकर बताइए, प्लीज़.” विवेक सिंह के चेहरे पर से कठोरता की परत उतरकर अनुरोध की कोमलता फैल गई. “बुरा लगा न?... जानता हूं...” गहरी दृष्टि से उन्होंने विवेक को देखा जैसे परख रहे हों. फिर ठहरे हुए शब्दों में बोलना आरंभ किया. “बेटा, मुझे देख रहे हो. दो साल बाद मैं रिटायर हो जाऊंगा. आज जीवन के इस पड़ाव पर आकर मैं नितांत अकेला हो गया हूं.” “आई एम सॉरी!” अंग्रेज़ी में कहे इन शब्दों के साथ ही विवेक का हमदर्दी भरा हाथ उनके घुटने पर आ टिका. “नहीं, तुम ग़लत समझ रहे हो विवेक... मेरी पत्नी जीवित है और स्वस्थ है.” मौन विवेक सीधे उनकी आंखों में देखने लगा जैसे कुछ तलाश रहा हो. “जानता हूं, सोच रहे हो कैसे उलझे हुए व्यक्तित्व के इंसान से पाला पड़ा है. इससे बात करूं या नहीं.... है न? मेरे ये स़फेद बाल देख रहे हो? ये पिछले दो सालों में इतने स़फेद हो गए. सच तो यह है कि इन्हीं दो सालों में मैंने जीवन को जाना है, ज़िंदगी को पहचाना है.” विवेक ने ध्यान से उनके स़फेद बालों की ओर देखा. उन श्‍वेत बालों में उनकी लंबी-चौड़ी काया को गरिमायुक्तकर दिया था. विवेक की नज़रें उनके बालों से फिसलकर उनकी आंखों पर ठहर गई थीं. उन गहरी काली आंखों में दर्द का सागर हिलोरे मार रहा था. इससे पहले कि विवेक उस दर्द के सागर में डूब जाए, मेहराजी की ठहरी हुई गंभीर वाणी ने उसका ध्यान आकर्षित कर लिया. “पिछले कुछ दिनों से तुम्हें और तुम्हारी पत्नी को देख रहा हूं. तुम्हारे जीवन में अपने जीवन की प्रतिध्वनि सुन रहा हूं, महसूस कर रहा हूं, इसीलिए आनेवाले तूफ़ान से तुम्हें आगाह करना चाहता हूं. जो मेरे साथ हुआ वो तुम्हारे साथ न हो, इसलिए अभी से संभल जाओ और जीवन की ख़ुशियों को दोनों हाथों से बांधकर सहेज लो. अभी नहीं चेतोगे, तो ख़ुशियां मुट्ठी में बंद रेत की तरह फिसल जाएंगी और पता भी नहीं चलेगा.” यह भी पढ़े: वेट लॉस टिप ऑफ द डे: 8 इटिंग हैबिट्स फॉर वेट लॉस  “आपकी भावना की कद्र करता हूं अंकल... आप जो भी कहना चाह रहे हैं खुलकर बताइए, प्लीज़.” विवेक सिंह के चेहरे पर से कठोरता की परत उतरकर अनुरोध की कोमलता फैल गई. उसके चेहरे पर नज़रें टिकाए हुए मेहरा साहब अतीत के गलियारे में उतरने लगे. “बेटा, मैं बचपन से पढ़ाई में काफ़ी अच्छा था. खेल-कूद का भी चैम्पियन था. जो मिलता घर, बाहर या स्कूल, हमेशा मेरी प्रशंसा ही करता. धीरे-धीरे शायद यह धारणा मेरे अंदर बैठ गई कि मैं सबसे योग्य हूं. पढ़ाई करते ही एक बड़ी कंपनी में मैनेजर हो गया, फिर मैनेजिंग डायरेक्टर और आज चेयरमैन हूं. अपनी योग्यता, मेहनत और लगन के बल पर ही मैंने सफलता की इस ऊंचाई को प्राप्त किया है. मेरी पहचान एक योग्य, कर्मठ प्रशासक, सफल नेतृत्व देनेवाले अधिकारी के रूप में है. इसी मुकाम को पाने का सपना देखा था मैंने. आज वो सपना पूरा हो गया है. पर बेटा, क्या यही सपना था मेरा?... बोलो, क्या मैं बस यही चाहता था?” “जी... मैं कैसे बता सकता हूं? मेरा तो आज ही आपसे परिचय हुआ है...” विवेक सिंह असमंजस की स्थिति में बोला. “बता सकते हो बेटा... क्योंकि हर इंसान का सपना एक ही होता है. बस, उसका थोड़ा-थोड़ा रूप बदल जाता है... जैसे कोई डॉक्टर बनना चाहता है, कोई इंजीनियर, कोई प्रशासक, कोई व्यापारी.... लेकिन हर किसी का सपना एक ही होता है कि वह अपने काम में महारत हासिल करे, अपनी एक पहचान बनाए और सफलता की ऊंचाइयों को छू ले, है न?”          नीलम राकेश
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