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कहानी- प्रतिध्वनि 5 (Story Series- Pratidhwani 5)

“जीवनभर अपने आपको, अपनी इच्छाओं को दबाते-दबाते वह ज्वालामुखी बन चुकी थी. इस ज्वालामुखी का बनना मुझे नहीं दिखाई दिया. किंतु फटना मुझे दिख रहा था. फटते हुए ज्वालामुखी को कोई रोक नहीं पाता. कोई हिम्मत भी नहीं करता. मैं नहीं कर पाया. उसने हमेशा हर काम मुझसे पूछ कर किया था. परन्तु उस दिन उसने कुछ पूछा नहीं. बस, अपना निर्णय सुनाया. मैंने उसके निर्णय के आगे सिर झुका दिया. बेटा वो मुझसे दूर रहते हुए भी मेरे दिल में रहती है. उसका वह छोटा-सा संगीत विद्यालय मेरा मंदिर है. मैं प्रतिदिन सुबह-सुबह वहां जाता हूं, अंदर नहीं जाता. शायद मुझे देखकर उसकी शान्ति भंग हो. और ऐसा मैं बिलकुल नहीं चाहता. प्यार का अर्थ तो मैं अब जाना हूं. काग़ज़ के टुकड़े पर हस्ताक्षर कर देने से प्यार नहीं समाप्त होता.” “... हां! महसूस किया जाता है... वो उस प्यार को कैसे महसूस करती विवेक, जिसको मैं ही तब जान पाया, जब वो मेरे जीवन से दूर जा चुकी थी. वो तो जब तक मेरे साथ रही, अपने वजूद को मारकर मेरा प्रतिबिम्ब बनी रही. हर सांस मेरे लिए जीती रही. तुम्हें आश्‍चर्य होगा, किंतु अतीत की ओर पलटकर देखता हूं, तो पाता हूं कि मुझसे दूर जाने और अपनी मर्जी से जीने की बात भी कभी मैंने ही उससे कही थी.” “क्याऽऽऽ?” विवेक फटी-फटी आंखों से उन्हें देख रहा था. “मेरी दोनों बेटियों का चयन एक साथ हो गया था, एक का मेडिकल व दूसरी का इंजीनियरिंग में. उनके हॉस्टल चले जाने के बाद उसका समय नहीं कटता था. एक दिन शाम को उसने बताया कि जहां वह इंटरव्यूू देकर आई थी, उस स्कूल में संगीत शिक्षिका के पद पर उसकी नियुक्ति हो गई है. सच बताऊं, तो मुझे उसका नौकरी करने का विचार ही अच्छा नहीं लगा और मैंने खीझकर कह दिया, अभी नौकरी रहने दो. जब दोनों बेटियों को ब्याह लेना तब संन्यास ले लेना और आश्रम में जाकर जी भरकर गा-बजा लेना. जितना संगीत छूट गया है न, उस समय पूरा कर लेना... उस दिन के बाद उसने कभी नौकरी की बात नहीं की. परंतु जिस दिन मेरी छोटी बेटी की डोली बिदा हुई और घर मेहमानों से खाली हो गया, वह शान्ति से मेरे पास आई और बोली, “मैं तुमसे और तुम्हारी ज़िंदगी से दूर जा रही हूं. तुम्हें तो मेरी कभी भी ज़रूरत नहीं थी... बेटियों को थी, पर अब नहीं होगी. तुम भी यही चाहते थे कि मैं अपनी ज़िम्मेदारी निभा दूं, तो आज मेरी ज़िम्मेदारियां पूरी हो गईं... मेरी दस-बारह बच्चों से बात हो गई है, एक कमरा किराए पर ले लिया है. वहीं रहूंगी, उन्हें संगीत सिखाऊंगी. मैं अपनी संगीत की दुनिया में वापस जा रही हूं. ये तलाक़ के काग़ज़ हैं, मैंने हस्ताक्षर कर दिया है. तुम जब चाहो इस पर हस्ताक्षर कर दूसरी शादी कर सकते हो. मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है... और वह चली गई.” “आपने रोका नहीं?” “नहीं.” “लेकिन क्यों?” यह भी पढ़े: कहीं आपको भी तनाव का संक्रमण तो नहीं हुआ है? “जीवनभर अपने आपको, अपनी इच्छाओं को दबाते-दबाते वह ज्वालामुखी बन चुकी थी. इस ज्वालामुखी का बनना मुझे नहीं दिखाई दिया. किंतु फटना मुझे दिख रहा था. फटते हुए ज्वालामुखी को कोई रोक नहीं पाता. कोई हिम्मत भी नहीं करता. मैं नहीं कर पाया. उसने हमेशा हर काम मुझसे पूछ कर किया था. परन्तु उस दिन उसने कुछ पूछा नहीं. बस, अपना निर्णय सुनाया. मैंने उसके निर्णय के आगे सिर झुका दिया. बेटा वो मुझसे दूर रहते हुए भी मेरे दिल में रहती है. उसका वह छोटा-सा संगीत विद्यालय मेरा मंदिर है. मैं प्रतिदिन सुबह-सुबह वहां जाता हूं, अंदर नहीं जाता. शायद मुझे देखकर उसकी शान्ति भंग हो. और ऐसा मैं बिलकुल नहीं चाहता. प्यार का अर्थ तो मैं अब जाना हूं. काग़ज़ के टुकड़े पर हस्ताक्षर कर देने से प्यार नहीं समाप्त होता.” अपनी बात में वे इतना डूब गये थे कि विवेक सिंह की पत्नी का आना जान ही नहीं पाए. “चलें?” “अ... नहीं... वो... एक चक्कर तुम्हारे साथ टहल लेता हूं, फिर चलते हैं.” विवेक उठता हुआ बोला. “सच?” पत्नी की आंखों की चमक विवेक से छुपी नहीं थी. आंखों ही आंखों में उसने बुज़ुर्ग का शुक्रिया अदा किया और पत्नी के साथ आगे बढ़ गया. आज पहली बार पार्क से बाहर जाते हुए मेहरा साहब के अधरों पर मुस्कान थी.        नीलम राकेश
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