सुमिता जानती थी कि अमित उन मर्दों में से है, जो पत्नी की गैरमौजूदगी में अपना और घर का ख़याल बख़ूबी रख सके. सो आख़िरकार हार मानकर उसी ने घर लौटने का निश्चय किया और वो अमित को बिना कोई पूर्व सूचना दिए वापस लौट आई. घर आकर सुमिता हैरान रह गई.
शाम हो चली थी, घर के काम-धाम निपटाकर, रात के खाने की तैयारी करके सुमिता हाथ-मुंह धोने चली गई. इस व़क़्त तैयार होकर घर के आगे चहलक़दमी करना और अपने पति अमित की ऑफ़िस से आने की राह देखना, यही उसका रूटीन था. इसी समय अक्सर उसे सामने के घर में रहनेवाली पारुल मिल जाती थी. दोनों गपशप करतीं और अपने पतियों की राह तकतीं.
आज सुमिता का ध्यान पारुल के कपड़ों पर विशेष रूप से गया. वो तो कह रही थी कि उसे हल्के शेडवाले सूट ही पसंद आते हैं, तो फिर ये चटक ऑरेंज सूट. “क्या बताऊं सुमिता, पतिदेव ने फ़ोन पर निर्देश दिया है कि आज यही सूट पहनूं. मुझे क्या पहनना है, कैसे तैयार होना है, इन बातों का बड़ा ध्यान रहता है इन्हें.” कहते हुए पारुल की आंखों में सहज ही तैर आई शर्म की लाली जैसे कह रही थी, बहुत प्यार जो करते हैं मुझसे.
पारुल की यह बात सुमिता के दिल में कुछ हलचल-सी मचा गई. दो साल हो गए थे उसकी शादी को. उसका पति अमित बेहद अच्छा इंसान था. उसके और घर के प्रति अपनी तमाम ज़िम्मेदारियां बख़ूबी निभाता. लेकिन उनके बीच कहीं कुछ कमी-सी महसूस होती थी उसे. वो क्या थी, ये तो वह ख़ुद भी नहीं समझ पाई थी.
कई बार ऐसा हुआ जब ख़ास मौक़ों पर सुमिता सजती-संवरती और परिचितों से कॉम्प्लीमेंट पाती. मगर एक स्त्री को तो असली संतुष्टि तभी मिलती है, जब उसका पति उसकी सुंदरता की तारीफ़ करे. पर ऐसा कभी नहीं हुआ. अमित सुमिता को नज़रभर देखते, मुस्कुराते और सामान्य बने रहते. क्या हो जाता अगर इतना ही कह देते कि अच्छी लग रही हो, वो सोचती, लेकिन मन मसोसकर रह जाती.
अमित के साथ रहते हुए सुमिता इतना तो जान ही गई थी कि अमित एक अनरोमांटिक, उदासीन प्रकृति के व्यक्ति हैं, जो उससे प्रेम तो करते हैं, मगर उस प्रेम का प्रदर्शन उनके बस की बात नहीं. सुमिता के हसीन रोमांटिक कल्पनाओं के पंख टूटकर यथार्थ के धरातल पर बिखर चुके थे और उसने इस स्थिति से समझौता भी कर लिया था. लेकिन जब कभी वह अपनी सहेलियों के साथ बैठ उन्हें उनके पतियों द्वारा मिलनेवाले सरप्राइज़ ग़िफ़्ट, फूलों के गुलदस्ते और रोमांटिक बातों के क़िस्से सुनती, तो उसके दिल में एक टीस उभर आती.
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आज सुमिता को उसकी एक पुरानी सहेली रीमा का फ़ोन आया था. एक छोटे-से गेट-टुगेदर का न्यौता देने के लिए. न्यौता पाकर वो असमंजस में पड़ गई, “शाम को कैसे आऊं? अमित उसी समय ऑफ़िस से आते हैं, फिर उनकी चाय-डिनर...”
“कभी अपने पतिदेव को भी कुछ करने का मौक़ा दिया कर. क्या एक दिन वो ख़ुद मैनेज नहीं कर सकते?”
“वो तो ठीक है, मगर...”
“अगर-मगर कुछ नहीं. तेरे जैसी औरतों ने ही पतियों के दिमाग़ ख़राब किए हुए हैं, तभी वे हम बीवियों की वैल्यू नहीं समझते. ख़ुद ऑफ़िस से कितना भी लेट आएं, मगर बीवी ज़रा-सी इधर-उधर हुई नहीं कि त्यौरियां चढ़ जाती हैं. पतियों को कभी-कभी उनके कामों के साथ अकेला छोड़ देना चाहिए, तभी उन्हें हम बीवियों की क़द्र समझ में आएगी.”
“ओ़फ़्फ़ो... लेक्चर मत दे. अच्छा आऊंगी...” रीमा का अंतिम वाक्य सुमिता को जंच गया, उसने हामी भर ली और अमित को सूचित करने के लिए फ़ोन मिलाया.
“आज शाम को रीमा ने एक गेट-टुगेदर में बुलाया है, सोचती हूं चली जाऊं.”
“हां... हां... बिल्कुल, तुम चली जाना, जब आना हो मुझे फ़ोन कर देना, मैं तुम्हें पिकअप कर लूंगा.” अमित की सहर्ष स्वीकृति पा सुमिता को कुछ निराशा हुई, उसने सोचा था अमित ना-नुकर करेंगे और वो अपनी बात पर अड़ जाएगी. आख़िर
लड़कर जीती गई चीज़ का तो मज़ा ही कुछ और होता है, चाहे वो एक मामूली-सी स्वीकृति ही क्यों न हो. ख़ैर, वो बेमन से तैयार होकर चली गई.
गेट-टुगेदर में अपनी सभी पुरानी सहेलियों से मिलकर उसे बहुत अच्छा लगा. कितनों से तो वो सालों बाद मिल रही थी. गपशप हो रही थी, हंसी-ठट्ठे चल रहे थे. एक रीमा ही है, जो सभी पुरानी सहेलियों को किसी न किसी बहाने इकट्ठा कर लेती है. काश! मैं भी ऐसा गेट-टुगेदर कर पाती. मगर अमित को ये सब ज़रा भी पसंद नहीं. सुमिता सोच रही थी, तभी उसे ध्यान आया कि वहां उपस्थित नीलू का जन्मदिन अभी पिछले ह़़फ़्ते ही था. “बिलेटिड हैप्पी बर्थडे नीलू, कहो कैसी रही सालगिरह?” सुमिता ने बधाई देते हुए पूछा.
“बहुत अच्छी. इन्होंने रात को बारह बजते ही पहले एक रोज़ बुके दिया, फिर केक कटवाया. मुझसे चोरी-छुपे लाए थे. फ्रिज में ही कहीं छुपाया था और मुझे पता भी ना चला.” नीलू चहकते हुए बता रही थी, “फिर सुबह एक सुंदर-सी साड़ी ग़िफ़्ट की और हम दोनों सारा दिन घूमे-फिरे.”
नीलू अति उत्साहित थी, मगर उसका उत्साह सुमिता के मन में ईर्ष्या उत्पन्न कर रहा था. मेरे जन्मदिन पर तो ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. बस, अमित ने सुबह मुबारक़बाद दी. फिर दोनों मंदिर गए और फिर वो रोज़ की तरह ऑफ़िस और मैं घर में व्यस्त हो गई. तुलना करने पर सुमिता का दिल बुझ गया.
10 बजने को आए थे, चार घंटे हो गए थे सुमिता को घर से आए, मगर अमित का एक बार भी फ़ोन नहीं आया. वो बार-बार अपना मोबाइल चेक कर रही थी. डिनर का समय निकला जा रहा था. क्या अमित को अभी भी मेरी याद नहीं आई? सबके फ़ोन आ रहे हैं सिवाय मेरे. ज़्यादा देरी होती देख उसने ख़ुद ही अमित को आने के लिए कह दिया. वो 15 मिनट में ही उसे लेने आ पहुंचा और दोनों घर की ओर चल दिए.
“कैसी रही तुम्हारी पार्टी?” अमित ने औपचारिक लहज़े में पूछा.
“अच्छी रही... घर कब आए? तुमने फ़ोन भी नहीं किया.”
“मैं तुम्हारी सहेलियों के बीच तुम्हें परेशान नहीं करना चाहता था.”
“तुम्हें भूख लग रही होगी?”
“नहीं... मैंने ब्रेड-बटर खा लिया था.” अमित का नॉर्मल व्यवहार सुमिता को अखर रहा था. न ही उसके लौटने में देरी होने पर झल्लाहट, न ही डिनर न मिलने पर ग़ुस्सा... मेरी कमी ज़रा भी नहीं अखरी... सुमिता ख़ुद को उपेक्षित महसूस कर रही थी.
धीरे-धीरे अमित की उदासीनता सुमिता के लिए असहनीय होती जा रही थी. उसे अपने दांपत्य जीवन में शांत झील का ठहराव नहीं, बल्कि समुंदर की तेज़ तूफ़ानी लहरों का उफान चाहिए था. प्यार नहीं तो तक़रार ही सही... कुछ तो खट्टा-मीठा स्वाद हो जीवन का... देखती हूं कब तक ऐसे ही बने रहते हैं. मन में कुछ निश्चय कर सुमिता शांत झील में कंकड़ फेंक हलचल उत्पन्न करने की कोशिशें करने लगी.
“आज खाना बनाने का मूड नहीं है.”
“कोई बात नहीं, बाहर से मंगा लेंगे.”
“आज मैं ज़ल्दी सो जाऊंगी, तुम दूध ख़ुद गर्म करके पी लेना.”
“अच्छा.”
“शाम को मैं अपनी एक सहेली के यहां जाऊंगी, तुम बाहर से ही डिनर करके
घर आना.”
“ठीक है.”
सुमिता अपनी भरसक कोशिशों पर संक्षिप्त-सा उत्तर पा सिमटकर रह जाती. आज उसने दाल में जान-बूझकर तेज़ नमक डाल दिया था, मगर अमित चुपचाप खाता जा रहा था. उसे यूं चुपचाप खाता देख सुमिता से रहा नहीं गया, “दाल में नमक कुछ ज़्यादा नहीं है?”
“कोई बात नहीं, हो जाता है कभी-कभी, तुमने जान-बूझकर तो नहीं डाला न.”
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सुमिता स्वयं को रोक न सकी, “इंसान है या पत्थर...” बुदबुदाती हुई वो भीतर चली गई और उसकी रुलाई फूट पड़ी. अमित उसे ऐसे देख घबरा गया.
“क्या हुआ?”
“कुछ नहीं, मम्मी-पापा की बहुत याद आ रही है, मुझे उनसे मिलने जाना है.”
“ठीक है, कब जाना चाहती हो?”
“जितनी जल्दी हो सके, कल ही...”
“मैं कल की टिकट देखता हूं और वापसी की भी.”
“वापसी की टिकट मैं वहीं से करा लूंगी. तुम बस जाने की करा दो.”
अमित के लिए सुमिता का ये विचित्र व्यवहार एक पहेली था. शायद मम्मी-पापा की बहुत याद आ रही है, ऐसा अनुमान लगा उसने कुछ पूछताछ करना उचित नहीं समझा और उसकी इस बात से सुमिता और अधिक चिढ़ गई. एक बार भी नहीं पूछा कि क्या हुआ? क्यों जा रही हो? बस, मुझे समझ आ गया कि मैं कहीं आऊं या जाऊं, जीऊं या मरूं, इन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. तो ठीक है, मैं भी भला क्यों परवाह करूं? तब तक वापस नहीं आऊंगी, जब तक ख़ुद आकर सौ-सौ मिन्नतें नहीं करेंगे. रीमा सच ही कह रही थी. आगे-पीछे घूम-घूमकर, जी-हुज़ूरी कर मैंने ही इनकी आदत बिगाड़ दी है. मेरे पीछे अकेले रहकर दो दिन में ही मेरी अहमियत पता चल जाएगी... और मन में अनकहा गुबार समेटे वो मायके चली गई.
तीन सप्ताह बीत गए थे सुमिता को मायके आए. धीरे-धीरे उसे अपने घर-आंगन की याद सताने लगी, साथ ही मन ही मन एक ग्लानि भी घर करने लगी थी. अपने पति को और अपने घर को अनदेखा करने की ग्लानि... क्या खा-पहन रहे होंगे? कैसे रह रहे होंगे? फ़ोन करते हैं, हालचाल पूछते हैं, मगर कभी भूलकर भी यह नहीं कहते कि कब आ रही हो? तुम्हारे बिना घर सूना हो गया है, जल्दी वापस आ जाओ. क्या इतना कहने भर से पुरुष की नाक नीची हो जाती है? क्या उसका अहं स्त्री के सामने छोटा हो जाता है.
सुमिता जानती थी कि अमित उन मर्दों में से है, जो पत्नी की गैरमौजूदगी में अपना और घर का ख़याल बख़ूबी रख सके. सो आख़िरकार हार मानकर उसी ने घर लौटने का निश्चय किया और वो अमित को बिना कोई पूर्व सूचना दिए वापस लौट आई. घर आकर सुमिता हैरान रह गई.
अमित बेहद कमज़ोर और बीमार दिखाई दे रहा था. उसे वायरल इंफेक्शन ने जकड़ा हुआ था. अमित की ये हालत सुमिता से देखी नहीं गई. उसका दिल भर आया और वो रो पड़ी, “क्या हाल बना लिया है आपने? एक बार बता नहीं सकते थे कि इतनी तबीयत ख़राब है? क्या मैं लौट नहीं आती?”
“मुझे मालूम है कि बताता तो तुम भागी चली आती, इसीलिए तो नहीं बताया था...”
“मगर क्यों?”
“इतने महीनों बाद तुम कुछ दिनों के लिए अपने मायके मम्मी-पापा के पास ख़ुशी-ख़ुशी रहने गई थी. अपना हाल बताकर मैं तुम्हारी ख़ुशियों में खलल नहीं डालना चाहता था. आख़िर तुम उनकी बेटी हो, उनका भी तो हक़ बनता है तुम पर...”
“अच्छा, अब ज़्यादा बातें मत करो. क्या हालत कर दी है तुम्हारी इस बुखार ने?” अमित को यूं बेहाल देख पत्थर बनी सुमिता मोम की तरह पिघल उठी.
“हालत ख़राब बुखार ने नहीं, बल्कि तुम्हारी जुदाई ने की है सुमि. अब तुम आ गई हो, तो मैं जल्द ही अच्छा हो जाऊंगा.” कहते हुए अमित ने सुमिता को बांहों में भर लिया. उसकी नम हुई आंखों से छलक आए दो आंसुओं को सुमिता ने अपनी हथेली में थाम लिया. कुछ और कहने-सुनने की लालसा शेष न रह गई थी मन में. सारी इच्छाएं, सारी अपेक्षाएं न जाने कहां हवा हो गई थीं. उसकी मुट्ठी में बंधे ये दो सच्चे मोती ही अमित के प्रेम की सर्वोच्च प्रस्तुति थे, जो उसके सात जन्मों के लिए काफ़ी थे.
दीप्ति मित्तल