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कहानी- समाधान (Short Story- Samadhan)

Hindi Short Story

“मुझे लगता है शादी एक जुए की तरह है, जिसमें पति-पत्नी ही नहीं, बच्चे भी छले जाते हैं. मैं शादी नहीं करूंगी.” रोका हुआ रुदन फूट पड़ा. चीख-चिल्लाकर उपद्रव करनेवाली तेज़ स्वभाव की यह लड़की रो भी सकती है, ज्योति ने नहीं सोचा था. उसका रोना अस्वाभाविक, बल्कि पाखंड की तरह लग रहा था.

 

"दीदी, प्रार्थना परेशान कर रही है.” सेल फ़ोन पर शांति की पुकार.
“फिर वही राग. तुम जब से पूना आई हो, मैं तुम्हारे झगड़े ही निपटा रही हूं.” सीए कर रही ज्योति ऑफ़िस के लिए निकल रही थी, इसलिए छोटी बहन शांति के फ़ोन पर खीझ गई. दरअसल, देर हो जाए तो बॉस (चार्टेड एकाउंटेन्ट, जिनके अण्डर में ज्योति आर्टिकलशिप कर रही है) अनुशासन पर लेक्चर देना शुरू कर देते थे.
“दीदी, तुम जानती हो न कि वह विचित्र लड़की है, फिर भी मुझ पर इल्ज़ाम. कहती है, बुला लो अपनी दीदी, भैया सब को.” रुंधे स्वर में शांति बोली.
“अचानक इस लड़की को क्या हो गया? मुझे कितना मानती थी. अच्छा, रोओ मत. मैं ऑफ़िस जा रही हूं. लौटते हुए तुम्हारे पास आऊंगी.” इतना कह स्कूटी स्टार्ट कर ज्योति ऑफ़िस के लिए निकल गई.
शांति को पूना विद्यापीठ में एमबीबीएस में प्रवेश मिल गया तो मम्मी-पापा संतुष्ट हो गए कि ज्योति भी पूना में रहती है और इस कारण शांति को आसानी होगी. शांति का पहला साल ठीक बीता. प्रथम वर्ष के विद्यार्थियों को छात्रावास में रहना होता है. द्वितीय वर्ष से अपने रहने की अलग व्यवस्था करनी होती है. ज्योति दो अन्य लड़कियों के साथ अपने ऑफ़िस के पास रहती है. वहां से शांति का संस्थान तीस किलो मीटर दूर है. रोज़ यह दूरी तय करना असुविधाजनक था, इसलिए शांति ज्योति के साथ न रह कर, प्रार्थना के साथ मकान शेयर कर विद्यापीठ के समीप रहने लगी.
शुरुआती दिनों में सामंजस्य बना रहा.
“दीदी मेरे तो ऐश हैं. मूवी, रेस्टॉरेन्ट, ऑटो, कॉस्मेटिक्स सबका पेमेंट प्रार्थना करती है. मुझे बिल्कुल ख़र्च नहीं करने देती. अभी एक दिन मैंने इसके एटीएम का बैलेंस देखा. इसके एकाउंट में नब्बे हज़ार रुपए थे.”
“अमीर बाप की औलाद लगती है.”
“अकेली औलाद.”
और जल्दी ही मतभेद उभर कर सामने आने लगे.
शांति पढ़ती तो प्रार्थना तेज़ आवाज़ में टीवी चला देती कि यह कार्यक्रम ज़रूर देखना है. शांति सोती तो प्रार्थना लाइट ऑन रखती कि देर रात पढ़ना है, सहपाठियों को घर बुला लेती कि हंगामा करना है. देर रात घर लौटती और शांति को दरवाज़ा खोलना पड़ता. इधर उसने एक लंबे बाल वाले लड़के से नज़दीकी बढ़ा ली, जो अक्सर आ धमकता. मकान मालकिन आपत्ति करती, पर प्रार्थना को फ़र्क़ न पड़ता. और जब शांति ज्योति या अपने माता-पिता से फ़ोन पर लम्बी बातें करती तो प्रार्थना उसकी हंसी उड़ाती.
“मम्मी-पापा से कितना कन्सल्ट करती हो, कब तक बेबी बनी रहोगी? मुझे देखो, मैं अपने फैसले ख़ुद करती हूं.”
“मम्मी-पापा ने यहां पढ़ने भेजा है
और तुम उनका पैसा बर्बाद कर रही हो.” शांति ने कहा.
प्रार्थना तेवर बिगाड़ लेती, “उनका पैसा? तुम्हें जलन होती है, क्योंकि मेरा एकाउंट रिच रहता है. सुनो, मेरे एकाउंट में क्रेडिट होने के बाद पैसा मेरा हो जाता है.”
“इसलिए उड़ाती हो?”
“तुम्हें मतलब.”
“जो जी चाहे करो.” शांति टाल देती.
अब टालना कठिन था. ज्योति ऑफ़िस से लौटते हुए शांति से मिलने घर गई. प्रार्थना ने वह उत्साह नहीं दिखाया, जो उसके आने पर दिखाती थी. औपचारिक बातों के बाद ज्योति मुद्दे पर आई.
“प्रार्थना, तुम दोनों में तो अच्छी एडजस्टमेंट थीं. फिर अब क्या हो गया?”
प्रार्थना नहीं चौंकी, मानो जानती हो, ज्योति यही कुछ कहेगी.
“दीदी, प्रॉब्लम मुझे नहीं, शांति को है.”
“प्रॉब्लम? यह ठीक से पढ़ नहीं पाती, जबकि मेडिकल पास करना सरल नहीं है.”
“इसे मेरे तौर-तरी़के पसंद नहीं हैं, तो अलग हो जाए.” प्रार्थना ने इतना स्पष्ट कहा कि ज्योति चौंक गई.
“सोच लिया है.”
“सोचना शांति को है.”
“अकेले रहोगी? तुम्हारे पैरेंट्स पसंद करेंगे कि तुम अकेले रहो?”
“वे क्या पसंद करते हैं, क्या नहीं, मैं परवाह नहीं करती.”
“ठीक है. शांति कुछ दिन मेरे साथ रहेगी. इस बीच तुम दोनों को सोचने का समय मिल जाएगा. फिर भी बात नहीं बनती है, तो देखते हैं.”
शांति मानो ज़रूरी सामान बांधे बैठी थी, “बात नहीं बनेगी दीदी. प्रार्थना, इस मकान का डिपॉज़िट तीस हज़ार, हम दोनों ने मिलकर दिया था. मैं मकान छोड़ रही हूं, तुम मुझे पन्द्रह हज़ार दे दो. फिर तुम साथ में जिसे रखोगी, उससे ले लेना.”
ज्योति से बात करते हुए प्रार्थना फिर भी कुछ नम्रता दिखा रही थी, शांति की बात पर हिंसक हो गई, “डिपॉज़िट मोटल्ली (मकान मालकिन) से मांगो.”
“वह तो तब देगी, जब तुम मकान छोड़ोगी.”
“तो जाओ मुझे मरवाने के लिए किसी को सुपारी दे दो. मकान खाली हो जाएगा, तुम डिपॉज़िट ले लेना. मेरे हिस्से का भी.” अंतिम वाक्य उसने ज़ोर देकर पूरा किया.
“तो तुम...?”
शांति ने बात को संभालते हुए कहा, “शांति चुप रहो न. पैसे भागे नहीं जा रहे. प्रार्थना को कुछ सोचने का व़क़्त दो.”
ज्योति शांति को अपने ़फ़्लैट में ले आई. तीस किलोमीटर आने-जाने में शांति त्रस्त हो जाती. अक्सर क्लास मिस हो जाती. ज्योति का मकान मालिक शांति को रहने नहीं दे रहा था कि तीन लड़कियों की बात हुई थी तो चार कैसे? विद्यापीठ के समीप फ़िलहाल मकान खाली नहीं थे. जो थे, उनका डिपॉज़िट और किराया शांति अकेले वहन नहीं कर सकती थी.
ज्योति ने समाधान निकालना
चाहा, “शांति तुम्हारे पास प्रार्थना के घर का नंबर है? मैं उसके पैरेंट्स से बात करूं...? वे उसे समझाएंगे.”
“मेरे पास नंबर नहीं है. वैसे वो उनके समझाने पर नहीं समझेगी. अपने पैरेंट्स से भी ठीक से व्यवहार नहीं करती है. उनके पास जाना नहीं चाहती. कहती है, ‘एग्ज़ाम होते ही तुम लोग घर भागती हो, जबकि मेरा जी करता है यहीं रह कर आवारागर्दी करूं, पैसे उड़ाऊं.’ कहती है कि वह मम्मी-पापा से एक कॉल में पैसे निकलवा सकती है.”
“विचित्र बात है. शांति, तुम्हें यह लड़की मानसिक रूप से परेशान नहीं लगती?”
“शी... ड्रैक्यूला लगती है. कितना सताया है उसने. मैं तो पन्द्रह हज़ार रुपए लेकर ही रहूंगी.”
“हां, हमारी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि इतने पैसे छोड़ दिए जाएं. उसे विश्‍वास में लेना होगा. ऐंठ दिखाने से पैसे नहीं मिलेंगे. मुझसे फिर भी ठीक से बात करती है. तुम्हारी तो सूरत देखकर भड़क जाती है. मैं कभी अकेले जाकर बात करूंगी. शायद दे दे.”
ज्योति अकेले गई.
प्रार्थना एक अलग भाव से मिली. लगता था रोई है और रोना छिपाना चाहती है.
“कैसी हो प्रार्थना?”
गर्दन को थोड़ा-सा हिलाकर उसने अपने ठीक होने का भाव व्यक्त किया.
“कमरे का क्या हाल बना रखा है?”
प्रार्थना ने उपेक्षित नज़र बेड पर डाली, फिर चादर ठीक की, “बैठिए दीदी.”
“प्रार्थना, तुम अकेले रह रही हो, मुझे चिंता होती है. तुम्हारे मम्मी-पापा को नहीं होती?”
“वे तो ख़ुद अकेले... नहीं...
कुछ नहीं...”
ज्योति ने देखा प्रार्थना कुछ कहते हुए थम गई है, उसका दिल भर आया है. वह कुछ देर प्रार्थना के उतरे हुए चेहरे को परखती रही, फिर नरमाई से बोली, “मुझे लगता है तुम कुछ परेशान हो. तुमने मुझे ‘दीदी’ कहा है. बता देने से मन हल्का हो जाता है. मुझ पर भरोसा करो.”
प्रार्थना ने ठहरी नज़र से ज्योति को देखा. उसका शांति से तालमेल नहीं बैठ रहा था, पर ज्योति का लिहाज़ करना उसने शायद नहीं छोड़ा था, “भरोसा मैं किसी पर नहीं करती, पैरेंट्स पर भी नहीं. पर हां, आपको ‘दीदी’ कहा है, इसलिए बता देती हूं. मेरे पैरेंट्स डिवोर्सी (तलाक़शुदा) हैं. मैं सचमुच परेशान हूं.”
“ओह!”
“दीदी, मेरा सच जानने पर लोग इसी तरह अफ़सोस से ‘ओह’ करते हैं. इसीलिए मैं किसी को कुछ नहीं बताती. मैं औरों से अलग हूं.”
“तुम सामान्य लड़की हो.”
“नहीं हूं. जानती हैं, जब शांति आपसे या अपने पैरेंट्स से बहुत ख़ुश होकर
बड़े प्यार से फ़ोन पर बात करती है,
तब मुझे लगता है मैं उसका सिर फोड़ दूं कि यह सुखी क्यों है? जी चाहता है मेज़ उलट दूं कि मैं ऐसी सुखी क्यों नहीं? बस, मैं उसे सताने लगती हूं. मैं परेशान हूं, तो वो भी परेशान रहे.”
“तो शांति के बिना तुम सुखी हो?”
“एक सुखी लड़की मेरे सामने नहीं है, यह एहसास मुझे सुख देता है.”
“प्रार्थना, मुझे लगता है इस तरह तुम ख़ुद को कॉम्प्लीकेटेड बना लोगी. अभी तुम्हें अड़चनें हैं, आगे शादीशुदा जीवन में भी आ सकती हैं. तुम ख़ुद को बदलो.”
प्रार्थना का बोझिल स्वर शुष्क हो गया. वह तन गई, “मुझे शादी से नफ़रत है. मेरे पैरेंट्स की लव मैरिज थी. दोनों डॉक्टर हैं और अब हाल देखिए. मुझे लगता है शादी एक जुए की तरह है, जिसमें पति-पत्नी ही नहीं, बच्चे भी छले जाते हैं. मैं शादी नहीं करूंगी.”
रोका हुआ रुदन फूट पड़ा. चीख-चिल्ला कर उपद्रव करने वाली तेज़ स्वभाव की यह लड़की रो सकती है, ज्योति ने नहीं सोचा था. उसका रोना अस्वाभाविक, बल्कि पाखंड की तरह लग रहा था.
ज्योति को लगा इस व़क़्त पैसे की बात करना क्रूरता होगी. ज्योति आक्रांत-सी बैठी रही. समझ नहीं पा रही थी कैसे उसे सांत्वना दे. उसने उसे रोने दिया. कुछ देर बाद बोली, “तुम परेशान हो?”
“मैं सचमुच परेशान हूं. अभी तक मैं सहती रही, पर अब मुझे ़फैसला लेना है, मैं किसके साथ रहना चाहती हूं. बालिग होने तक मैं मम्मी की कस्टडी में रहती थी और नियम के अनुसार पापा से मिलने जाती थी. अब मैं बालिग हूं और जहां चाहे रहने के लिए स्वतंत्र हूं. तो कभी मम्मी के घर में रहती हूं, तो कभी पापा के. मेरा पापा के घर में रहना मम्मी पसंद नहीं करतीं. वे मुझ पर दबाव बना रही हैं कि मैं पापा से संबंध न रखूं. मैं पापा के घर में रहती हूं तो वे निराश होने लगती हैं. अब तो साफ़ कह दिया है कि मैं या तो पापा को चुन लूं या उन्हें. दीदी, ये डिवोर्सी हम बच्चों से क्यों नहीं पूछते कि हम क्या चाहते हैं? मैं तो दोनों से मिल कर बनी हूं, फिर किसी एक को कैसे चुन सकती हूं? मैं जब घर जाती हूं, कभी मम्मी के साथ रहती हूं, कभी पापा के साथ. दो हिस्सों में बंट कर रहना कठिन है, फिर भी ठीक ही चल रहा था. अब फैसला करना है, मैं परेशान हूं. मेरे लिए यह बहुत बड़ा ़फैसला होगा.”
तो इसका रोना पाखंड नहीं है. यह सचमुच आंतरिक पीड़ा से गुज़र रही है.
“तो तुम किसके साथ रहना पसंद करोगी?”
“नहीं जानती, आप कुछ कहें.”
“पूछना नहीं चाहिए, फिर भी पूछती हूं, ग़लती अधिक किसकी रही?”
“यदि कहें तो ग़लती पापा की अधिक रही. मम्मी अपनी जगह सही होती थीं. वे पापा से अधिक सक्षम और शानदार पर्सनैलिटी की हैं, यह बात पापा को बर्दाश्त नहीं होती थी. वे अक्सर मम्मी को अपमानित कर देते थे. तब मुझे भी लगता था कि मम्मी इतना अपमान सहन क्यों करती हैं? अब लगता है, जैसी भी थी, वही ज़िंदगी अच्छी थी. तब मुझे भी लगता था कि मां के टैलेंट और एनर्जी का पूरा उपयोग होना चाहिए, पर अब सोचती हूं कि अपना काम छोड़ कर मां घर में रहतीं, तो शायद उनमें तलाक़ न होता. दीदी, आप मुझे स्वार्थी कह लीजिए, पर मैं जिस मानसिक तनाव से गुज़री हूं, मैं ही जानती हूं. तब हम तीनों एक घर में रहते थे. अब दो घर हैं, जो घर कभी हम तीनों का था, वह पापा का घर हो गया. मम्मी छोटे-से घर में चली आईं. कभी हमारा किचन भरा-पूरा होता था. वह भरा-पूरा किचन पापा के घर में छूट गया. छुट्टियों में मैं कभी मां के घर में रहती हूं, तो कभी पापा के घर में. अब तय करना है कि किस घर में रहूं. लगता है जो भी फैसला लूंगी ग़लत होगा, जो नहीं लूंगी ग़लत वह भी होगा. दो ग़लत फैसलों में एक को चुनना है. आप बताएं, मैं क्या करूं? मैं दोनों के साथ रहना चाहती हूं. मुझे दोनों अच्छे लगते हैं. मैं दोनों को प्यार करती हूं. वे आपस में जो भी हैं, मुझे दोनों प्यार करते हैं, बल्कि अपने पक्ष में करने के लिए दोनों आवश्यकता से अधिक पैसे भेजते रहते हैं. मैं घमंड में भरी रहती थी कि मैं कितनी ख़ास हूं. अब लग रहा है कि मुझे कठिन परिस्थिति में डाल दिया गया है.”
तो यह है इसके असहिष्णु होते हुए विद्रोही होते जाने की वजह. यह सचमुच कठिन स्थिति से गुज़र रही है, जबकि दोष इसका नहीं है. बुद्धिजीवी वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले इसके माता-पिता आपसी शत्रुता में डूबे रहे और जानना ही नहीं चाहा कि इसके विकास क्रम में क्या बाधा आ रही है. चिड़चिड़ी इतनी हो चुकी है कि दूसरों को ख़ुश और सुखी देख कर क्रूर होने लगती है. इस व़क़्त कोई इसे देखे, तो जाने कि इसकी क्रूरता के पीछे कैसी दीनता छिपी है.
“प्रार्थना, इस स्थिति से तुम्हारे मम्मी-पापा ख़ुश हैं?”
“दीदी, ख़ुशी उलझा हुआ मामला है. जो चीज़ आपको ख़ुशी देती है, हो सकता है मुझे न दे और मैं जिस बात से ख़ुश होती हूं, आप न हों. ख़ुशी तो क्या, दोनों के चेहरों की चमक तक गायब हो गई है. मैं जब से समझदार हुई, मैंने उन्हें परेशान ही देखा है. वे अब भी परेशान रहते हैं. पता नहीं इन लोगों ने किस ख़ुशी के लिए तलाक़ लिया, किस परेशानी से मुक्ति चाही, समझौता क्यों नहीं कर पाए.” ज्योति देख रही थी, दूसरों को परेशान करने वाली लड़की कितनी परेशान लग रही थी.
“तुमने क्या सोचा है?”
“सोचते हुए डर लगता है. दीदी, आप मेरी मदद करें.”
“आज रात शांत मन से सोचना. दोनों में जो सही लगे, उसके साथ रहने का फैसला कर लेना.”
“आसान नहीं है. मेरे फैसले से किसी एक की जो हार होगी, उसकी कल्पना डराती है. सच कहूं तो हां, मैं दोनों में से किसी के साथ भी नहीं रहना चाहती. इन्हें सज़ा मिलनी चाहिए. हां, मैं ऐसा सोचती हूं, मेरा कोई भाई या आपके जैसी अच्छी दीदी होती तो मैं उसके साथ रहने का ़फैसला करती या फिर हम दो एक-एक में बंट जाते. न मां हारतीं, न पापा. पर शायद मां को फुर्सत नहीं थी एक और बच्चे को जन्म देने और पालने की.”
कुछ पल की ख़ामोशी. प्रार्थना भीतर के भावों से जूझ रही थी,
जबकि ज्योति समझ नहीं पा रही थी कि उसे किस तरह सांत्वना दे.
“प्रार्थना, तुम इतनी अच्छी बातें करती हो, मुझे नहीं मालूम था.”
“आपने तो मुझे सिरफिरी समझा होगा. शांति मुझे यही कहती है न- सिरफिरी, आवारा, रईस की औलाद. जो भी कहे, पर दीदी मैं ऐसी नहीं थी. न ही अब हूं. बस, शांति को सुखी देखकर न जाने मुझे क्या हो जाता है, बल्कि जबसे आपसे मिली हूं, तब से मुझे कुछ हो गया है. मुझे लगता है कि काश आप शांति की नहीं, मेरी दीदी होतीं. मेरी देखरेख करतीं, जैसे शांति की करती हैं.”
“प्रार्थना, मैं तुम्हारी भी दीदी हूं. जन्म से ही नहीं, संबंध भावनात्मक रूप से भी बन सकते हैं, यदि हम चाहें.”
“तो दीदी, शांति को भेज दीजिए. मुझे अकेलेपन से डर लगने लगा है.”
ज्योति का बोझ उतरा. पैसे मांगने आई थी और यह! “मैं यही कहने आई थी कि इधर तुम परेशान हो, उधर शांति. बीच सेशन में घर मिलना कठिन है. मेरे साथ जो दो लड़कियां रहती हैं, वे मुंह बनाती हैं. मकान मालिक तगादा करते हैं, तीन का कॉन्ट्रैक्ट है, चार क्यों? उतनी दूर से आने-जाने में शांति की पढ़ाई भी प्रभावित हो रही है. तुमने समस्या सुलझा दी.”
प्रार्थना अब शांत थी, “दीदी, मुझे सुलझाना नहीं, उलझाना आता है. मैं ऐसी ही हूं. आपसे उम्मीद करती हूं कि जब कोई उलझन आए तो सुलझाने में मदद करेंगी.”
“दीदी कहा है तो यह सिरदर्द लेना ही पड़ेगा.”
प्रार्थना हंस दी.
ज्योति ने अब जाना यह लड़की हंसती भी है.

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       सुषमा मुनीन्द्र

 

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